सूरज
और वह भी हमारी मेज पर! भई,
विज्ञानवार्ता जैसे
गंभीर स्तंभ में ऐसी गप्पें तो हम नहीं ही सुनना चाहेंगे। विद्वान
पाठक गण का ऐसा सोचना ठीक ही है। लेकिन यह लेखक क्या करे, जब
पर्ड्यू युनिवर्सिटी के न्युक्लियर
इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर रूसी तलयारखान और उनके सहयोगी सूरज तो
नही,परंतु कुछकुछ सूरज जैसा ही उपकरण बनाने के भगीरथ प्रयास में
लगे हुए हों और वह भी इतना छोटा जिसे मेज पर रखा जा सके।तो
इसमें नया क्या है? इसे इतना महत्व देने की क्या ज़रूरत है?
आजकल तो जमाना ही मिनीएचराइजे़शन का है। कंप्यूटर, टीवी,
कैमरा
सभी को छोटा किया जा रहा है।
चलिए,
अब मैं आप को खुल कर विस्तार में बता ही देता हूँ। तलयारखान तथा इनके
सहयोगियों द्वारा विकसित संयंत्र नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन तथा उपयोग
से संबंधित है। वास्तव में इसके विकास तथा इसमें होने नाभिकीय
प्रतिक्रियाओं से संबंधित प्राथमिक अनुसंधान कार्य का नेतृत्व
तलयारखान ने ओक रिज़ नेशनल लैबोरेटरी के पूर्णकालिक
वैज्ञानिक के पद पर कार्य करते हुए ही किया था। इस संबंध में इन
लोगों ने मार्च 2002 में ही साइंस नामक जर्नल में लेख
प्रकाशित किया था। परंतु नाभिकीय प्रतिक्रियाओं की जाँचपरख करने वाले
अच्छे एवं सटीक उपकरणों के अभाव में ये
पर्याप्त एवं विश्वसनीय
प्रमाण देने में असमर्थ रहे। बाद में पडर्यू युनिवर्सिटी में कार्य करते
हुए तलयारखान तथा इनके सहयोगी यूएस डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च
प्रोजेक्ट एजेंसी द्वारा मिले अनुदान के बल पर अच्छे एवं सटीक उपकरणों की
सहायता से इस बात के पर्याप्त एवं विश्वसनीय प्रमाणों को जुटाने का
दावा कर रहे हैं कि इनके द्वारा विकसित संयंत्र में नाभिकीय संलयन
(nuclear fusion) की
प्रक्रिया हो रही
है।
सोनोफ्यूज़न
नामक इस नई विधा में ध्वनि तरंगों को प्रयुक्त कर नाभिकीय
संलयन की प्रकिया प्रारंभ करा सकने की यह खोज, संभवत: नाभिकीय
भौतिकी के इतिहास में एक नया पड़ाव है। तलयारखान के अनुसार, शायद
पहली बार ऐसा हुआ है कि सामान्य यांत्रिक ऊर्जा का उपयोग कर एक
छोटे एवं सस्ते से उपकरण में सूरज एवं तारों में ऊर्जा उत्पन्न करने
वाली नाभिकीय प्रतिक्रियाओं की नकल करा सकने मे सफलता प्राप्त हुई
है। इस आविष्कार का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस प्रक्रिया में
प्रयुक्त उपकरण के निर्माण की लागत, करोड़ों डॉलर की लागत से बनाए
जाने वाले परंपरागत भीमकाय न्युक्लियर
फ्यूज़न रिएक्टर्स
की तुलना में नगण्य है।
इस
आविष्कार तथा इससे जुड़ी तमाम बातों को अच्छी तरह समझने के लिए
नाभिकीय ऊर्जा से संबंधित आधारभूत तथ्यों का ज्ञान, आवश्यक है।
किसी भी तत्व के परमाणु के केंद्र में अवस्थित
नाभिक
(nucleus) के निर्माण
में धनात्मक कणों प्रोटॉन्स तथा उदासीन कणों न्युट्रॉन्स की
मुख्य भूमिका होती है। इन कणों को एक साथ जोड़ कर एक सघन केंद्रक का
रूप देने में एक विशेष प्रकार के नाभिकीय शक्ति की मुख्य भूमिका
होती है। यह शक्ति गुरूत्वाकर्षण तथा विद्युतचुंबकीय शक्ति से कई
गुना अधिक शक्तिशाली होती है, साथ ही किसी नाभिक में इसकी मात्रा
वहाँ अवस्थित कणों की व्यवस्थाविशेष पर निर्भर करती है। विशेष
परिस्थितियों में होने वाली नाभिकीय प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप
कल्पनातीत ऊर्जा का उत्पादन संभव है।
नाभिकीय
प्रतिक्रियाओं से उत्पादित ऊर्जा की मात्रा के बारे में कुछ अनुमान, एक
सामान्य रासायनिक प्रतिक्रिया के दौरान उत्पादित ऊर्जा से इसकी तुलना कर
लगाया जा सकता है। जब एक इलेक्ट्रॉन किसी प्रोटॉन से जुड़
कर हाइड्रोजन के परमाणु का निर्माण करता है तो मात्र 13 .5 इलेक्ट्रॉन
वोल्ट ऊर्जा का उत्पादन होता है। वहीं पर यूरेनियम के भारी नाभिक के मात्र दो भागों में विघटन
(nuclear fusion) से
प्रति विघटन 20 करोड़ इलेक्ट्रॉन वोल्ट या फिर इसके विपरीत
प्रोटॉन तथा न्युट्रॉन के नाभिकीय संलयन
(nuclear fusion)
की
प्रक्रिया द्वारा
डि्युटेरियम के नाभिक के
निर्माण के दौरान 22 करोड़
इलेक्ट्रॉन वोल्ट ऊर्जा का उत्पादन होता है। दोनों ही
प्रकार की नाभिकीय ऊर्जा के रचनात्मक तथा विनाशकारी सदुपयोग अथवा
दुरूपयोग की असीमित संभावनाएं हैं।
नाभिकीय विघटन से प्राप्त ऊर्जा के दुरूपयोग का घिनौना चेहरा हम द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराए गए दो परमाणु
बमों के रूप में देख चुके हैं। उसके सदुपयोग का उदाहरण विद्युत ऊर्जा के
उत्पादन में प्रयुक्त किए जा रहे
सैकडों
एकड़ में फैले भीमकाय न्युक्लियर रिएक्टर्स के
रूप में देखा जा सकता है।
नाभिकीय
संलयन से प्राप्त ऊर्जा के सदुपयोग का सबसे सुंदर एवं प्राकृतिक
नमूना हम सौर ऊर्जा के रूप में देखते हैं। सूर्य ही क्यों, तमाम तारे
नाभिकीय संलयन की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप ही ऊर्जा का ऊत्पादन
करते हैं। चूँकि परमाणुओं के नाभिकों पर
धनात्मक आवेश होता है, अत: दो धनात्मक आवेशयुक्त नाभिको
के संलयन के लिए आवश्यक है कि इन्हें प्रर्याप्त मात्रा में गतिज ऊर्जा
(kinetic energy) मिले, जिसके बल ये
अपने बीच प्रयुक्त स्थिरविद्युत रूपी अपकर्षण शक्ति
(electrostatic repulsion force) को पराजित कर सकें।
इतनी
अधिक गतिज ऊर्जा प्रदान करने के़ दो तरीके हैं। एक तो यह कि संलयित होने
वाले दोनों नाभिकों की गतिज ऊर्जा का स्तर अति उच्च ताप को प्रयुक्त कर
बढ़ाया जाए। इस प्रक्रिया को तापनाभिकीय संलयन
( thermonuclear fusion) कहते हैं और
यही सौरऊर्जा का स्रोत है। दूसरा, किसी त्वरण उत्पन्न करने वाले
संयंत्र
(accelerating device)
की
सहायता से किसी एक नाभिक को उच्च ऊर्जास्तर तक त्वरित
(accelerate)
कर दिया जाए ताकि यह अपकर्षण शक्ति को पराजित कर दूसरे नाभिक से
संलयित हो सके।
सूर्य
तथा ऐसे ही अन्य तारों का अधिकांश भाग हाइड्रोजन जैसी गैस से बना
होता है। सूर्य की बाहरी परतों का दबाव इसके नाभि में स्थित गैसों के
घनत्व को पानी की तुलना में लगभग 100 गुना बढ़ा देता है, साथ ही
यहाँ का तापक्रम भी लगभग डेढ़ करोड़ डिग्री केल्विन हो जाता है। इतने
अधिक ताप तथा सघन अवस्था में रहने के कारण हाइड्रोजन के अणु तेज रफ्तार से एक दूसरे से टकराटकरा कर स्वत:
इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन में
विघटित होते रहते हैं तथा इसी अवस्था (प्लाज्मा
अवस्था) में ही बने रहते
हैं। इस भयानक ताप पर इन
प्रोटॉन्स को पर्याप्त गतिज ऊर्जा स्वत: मिलती रहती है। इस ऊर्जा के कारण
ये अपने बीच की अपकर्षण शक्ति को पराजित कर एक दूसरे से संलयित होते
रहते हैं, जिसके फलस्वरूप हीलियम
के नाभिक (दो प्रोटॉन,
दो न्युट्रॉन) का
निर्माण होता रहता है। इस प्रकिया में प्रचुर मात्रा में ऊर्जा भी उत्पन्न
होती है। सूर्य की असाधरण गुरूत्वाकर्षण शक्ति इन प्रक्रियाओं के क्रियान्वन में सहायक होती है।
पृथ्वी
की वर्तमान परिस्थितियों में ऐसी प्रतिक्रियाओं की शुरूआत करना तथा
इनकी निरंतरता को बनाए रखने के साथसाथ इन्हें नियंत्रित कर, उत्पादित
ऊर्जा का समुचित उपयोग कर पाना बड़ा मुश्किल तथा खर्चीला काम है। इसके
लिए एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया में
प्रयुक्त होने वाले ईंधन (हाइड्रोजन
के विभिन्न आइसेटोप्स) का
पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना। आज तक की विकसित तकनॉलॉजी के लिए
सर्वोचित ईंधन डि्युटेरियम तथा ट्राइटियम हैं। डि्यटेरियम समुद्र के
पानी में प्राकृतिक रूप से पर्याप्त मात्रा (लगभग
30 ग्राम प्रति घनमीटर)
में
उपलब्ध है। ट्राइटियम,जो एक रेडियोएक्टिव
पदार्थ (हाफ लाइफ टाइम 12
वर्ष) है, आसानी
से उपलब्ध नहीं है। परंतु इसका उत्पादन परंपरागत फिशन न्युक्लियर रिएक्टर में किया जा सकता है या फिर फ्यूज़न
न्यूक्लियर रिएक्टर में लीथियम द्वारा इसका उत्पादन संभव है
और लीथियम की पर्याप्त मात्रा पृथ्वी पर मौज़ूद है, जिसे आसानी से
प्राप्त किया जा सकता है।
हालाँकि
आवेशित कणिका त्वरण उत्पादक संयंत्र
(charged particle accelerator device)द्वारा
डि्युटेरियम के नाभिक को आसानी से इस सीमा तक गति दी जा सकती है कि
यह ऊर्जा के उस स्तर पर पहुँच जाय, जहाँ यह अपकर्षण शक्ति को पराजित
करते हुए ट्राइटियम से टकरा कर नाभिकीय संलयन की प्रतिक्रिया को जन्म दे
सके। लेकिन इस तकनीकि में ऊर्जाउत्पादन के बजाय ऊर्जाखपत कहीं ज्यादा
है, क्योंकि उच्च ऊर्जा युक्त डियुटेरियम के अधिकांश नाभिक वहाँ
उपस्थित इलेक्ट्रॉन्स तथा नाभिकों से बारबार टकरा कर बिना नाभिकीय
संलयन की प्रक्रिया को जन्म दिए ही अपनी ऊर्जा खो बैठते हैं।
नाभिकीय
संलयन से समुचित मात्रा में ऊर्जा उत्पादन हेतु दूसरी विधा है
तापनाभिकीय संलयन
( Thermonuclear Fusion ),
जहाँ
सूर्य और तारों में होने वाली नाभिकीय संलयन की प्रतिक्रियाओं की
नकल का प्रयास किया जाता है। हाइड्रोजन बम में परमाणु बम से प्राप्त
ऊर्जा की मदद से डियुटेरियम एवं ट्राइटियम को तापनाभिकीय संलयन हेतु
आवश्यक ऊर्जा प्रदान की जाती है। इस अति उच्च ताप पर इन दोनों के संलयन से हीलियम के एक नाभिक तथा एक अति ऊर्जायुक्त
न्युट्रॉन का जन्म होता है। यह न्युट्रॉन आगे की संलयन प्रतिक्रियाओं के
होने में सहायक होता है़, परंतु इस प्रकार उत्पादित ऊर्जा अनियंत्रित होती
है।
इसी
प्रक्रिया को नियंत्रित ढंग से
कराने तथा इससे उत्पादित ऊर्जा के प्रभावी दोहन के लिए न्युक्लियर
फ्यूज़न रिएक्टर में नाभिकीय ईंधन को
नाभिकीय तापसंलयन सीमा तक गरम किया जाना चाहिए, जिससे
वे प्लाज़्मा अवस्था में आ जाएँ। जाहिर है, भीमकाय आकार के बावज़ूद
भी ऐसे रिएक्टर्स सूर्य या तारों की तुलना
में हजारोंलाखों गुना छोटे ही होंगे। चूँकि इनमें नाभिकीय
प्रतिक्रियाएँ एक अति सीमित समय में होनी चाहिए, फलत: इनका ताप सूर्य
के नाभि की तुलना में कई गुना ज्यादा होना चाहिए। इस अवस्था में यहाँ
संलयन प्रतिक्रियाएँ स्वत: होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप प्लाज्मा का
ताप और बढ़ता जाता है।
कारण,
प्लाज्मा
अवस्था में हो रही डियुटेरियमट्राइटियम जैसी नाभिकीय संलयन की
प्रतिक्रियाओं से उत्पादित ऊर्जा का आधिकांश भाग इसी प्रतिक्रिया से उत्पन्न
हिलीयम के नाभिकों
(3.5 MeV) जैसी आवेशित काणिकाओं में
निहित रहता है। ये कणिकाएँ प्लाज्मा में ही आपस में टकराती रहती हैं।
इनके
टकराव से निस्सारित ऊर्जा प्लाज्मा का ताप बढ़ाते रहने में सहायक होती
है। (हालाँकि अति उच्च ताप पर
प्लाज्मा के अंदर प्रतिरोध का स्तर इतना कम हो जाता है कि इस प्रकार के टकराव
ताप बढ़ाने के लिए लगभग अप्रभावी हो जाते हैं, साथ ही प्लाज्मा से
विभिन्न भौतिक तथा विद्युतचुंबकीय प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ऊष्मा का
ह्रास लगतार होता रहता है। फलत: यहाँ होने वाली नाभिकीय संलयन की
प्रतिक्रियों की निरंतरता बनाए रखने के लिए प्लाज्मा को अति
ऊर्जायुक्त अनावेशित कणिकाओं के पुंज अथवा रेडियो फ्रीक्वेंसी वेव्स
जैसे बाह्य स्रोतों द्वारा ऊष्मा प्रदान करनी पड़ती है।)
शेष
ऊर्जा इसी प्रतिक्रिया से उत्पन्न न्युट्रॉन्स
(14.1MeV) जैसी
अनावेशित कणिकाओं में नीहित रहती है। ये अनावेशित काणिकाएँ थोड़ी
बहुत बाधाओं को पार करते हुए प्लाज्मा के बाहर निकल कर वहाँ उपस्थित
लीथियम के आवरण से टकरा कर अपनी ऊर्जा इसे दे देती हैं।
इसके फलस्वरूप ट्राइटियम का उत्पादन होता है तथा वहाँ
अवस्थित हीलीयम जैसे विनिमय माध्यम का ताप बढ़ता है।
प्रभावी मात्रा में ऊष्मा उत्पादन के लिए न्यूट्रॉन्स की
गति को कम करना आवश्यक है, जिसके लिए लीथियम के परत की
मोटाई कम से क़म एक मीटर होनी चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न उष्मा का उपयोग, पानी को
वाष्प में बदल कर विद्युत ऊर्जा उत्पादित करने वाले टर्बाइन के संचालन
में किया जा सकता है।
इतने
उच्च ताप पर, जहिर है, प्लाज्मा को किसी भी पदार्थ से बने पात्र में
परिसीमित कर नहीं रखा जा सकता। ऐसे पात्र तुरंत वाष्पित हो जाएँगे। इस
समस्या से निपटने के लिए प्रायोगिक तौर पर चुंबकीय परिसीमन
(magnetic confinement) विधि
का उपयोग किया जा रहा है। इस विधि में प्लाज्मा परिसीमन पात्र को
पूर्णरूपेण निर्वातित
(evacuate)
कर
इसमें एक मिलीग्राम प्रति घनमीटर घनत्व वाले तापनाभिकीय ईंधन को
कई गुना अधिक वायुमण्डलीय दबाव तक भरा जाता है, फिर ईंधन के
चारों तरफ तीव्र चुंबकीय परत
(magnetic blanket)
का सृजन किया जाता है। इस चुंबकीय परत के अंदर तापनाभिकीय ईंधन उच्च
ताप पर भी प्लाज्मा अवस्था में परिसीमित रहता है एवं पदार्थों से निर्मित
परिसीमन पात्र की दीवाल के संपर्क में नहीं आता।
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