आजकल सूचना
संप्रेषण के क्षेत्र में मोबाइल फोन ने धूम मचा रखी है। क्या
शहर, क्या कस्बा, क्या गाँव... सभी जगह- क्या
अमीर, क्या गरीब... जिसे देखो वही जेब में मोबाइल लिए घूमता है
और जब चाहता है तब देश परदेश कहीं भी अपने प्रियजनों का
चलते-फिरते हाल-चाल जानकर आश्वस्त हो जाता है। सूचना संप्रेषण
के क्षेत्र में कितनी बड़ी सुविधा एवं क्रांति ले आया है यह
मोबाइल! दूसरी तरफ बिना किसी
धुएँ-धक्कड़ के त्वरित ढंग से खाना पकाने अथवा गरम करने के लिए
माइक्रोवेव अवन का चलन भारत जैसे विकासशील देश में धीरे-धीरे
बढ़ ही रहा है। बीसवीं सदी के आविष्कृत क्रांतिकारी घरेलू
उपभोक्ता उपकरणों में संभवतः इसका स्थान अनूठा है।
वास्तव में मोबाइल फोन पहले से ही उपयोग में आ रहे
ट्रांस्मिटर्स का एक प्रकार से परिष्कृत रूप है। फर्क इतना है
कि ट्रांस्मिटर पर एक समय में एक ही तरफ से बात की जा सकती है
तो मोबाइल पर एक ही समय बात भी की जा सकती है तथा सुनी भी जा
सकती है। साथ ही सेल टेक्नॉलॉजी के कारण इसकी सूचना संप्रेषण
तथा ग्रहण क्षमता कई गुना बढ़ गई है। मोबाइल फोन में माइक्रोवेव
का संप्रेषण एवं संग्रहण दोनों ही होता है। यह उपकरण बहुत ही
कम वैटेज तथा निम्न-आवृत्ति दर पर कार्य करता है।
वहीं माइक्रोवेव अवन में उच्च-आवृत्ति दर वाले माइक्रोवेव्स
(सामान्यत: २५०० मेगा हर्ट्ज या २५ गीगा हर्ट्ज) का उत्पादन
होता है (माइक्रोवेव अवन में माइक्रोवेव्स का उत्पादन
सामान्यतया विशेष प्रकार के इलेक्ट्रॉन ट्यूब मे किया जाता है।
सामान्य ट्रायोड इलेक्ट्रोड ट्यूब्स की तरह माइक्रोवेव्स का
उत्पादन करने के लिए भी निर्वातित ट्यूब के अंदर कैथोड,एनोड
तथा एक ग्रिड की व्यवस्था की जाती है, परंतु इनकी रूप-रेखा
थोड़ी अलग होती है। कारण, इनमें उच्च-आवृत्ति दर वाले
माइक्रोवेव्स का उत्पादन करना होता है। ट्यूब में एक
इलेक्ट्रोड से दूसरे इलेक्ट्रोड की दूरी तय करने में लगने वाले
समय का तरंगों की आवृत्ति का सीधा संबंध होता है।
क्लाइस्ट्रॉन, मैग्नेट्रॉन तथा ट्रैवेलिंग-वेव ट्यूब - तीन
मुख्य प्रकार के माइक्रोवेव ट्यूब्स हैं जिनका उपयोग रडार से
लेकर माइक्रोवेव अवन तक में होता है।)
उच्च-आवृत्ति दर वाले ये माइक्रोवेव्स जहाँ पानी, वसा तथा
कार्बोहाइड्रेटस द्वारा आसानी से शोषित कर लिए जाते हैं तो
वहीं कागज़, प्लास्टिक, ग्लास तथा सिरैमिक द्वारा नहीं शोषित
होते तथा अधिकांश धातुओं द्वारा ये परावर्तित हो जाते हैं। जिन
पदाथों द्वारा इनका शोषण होता है उनके परमाणुओं को ये
उद्वेलित कर ताप उर्जा का उत्पादन करते हैं। इस प्रकार
उत्पादित ताप ऊर्जा का उपयोग खाना गर्म करने से ले कर उसे
पकाने के लिए होता है। कागज़, प्लास्टिक, ग्लास या सिरैमिक के
बर्तन में माइक्रोवेव्स द्वारा खाना पकाने में परंपरागत
इलेक्ट्रिकल अवन की तुलना में काफी कम ऊर्जा खर्च होती है तथा
बहुत ही कम समय लगता है। कारण, इसमें माइक्रोवेव्स का उपयोग
केवल खाने के अणुओं को उद्वेलित करने में ही खर्च होती है तथा
भोजन एक सार रूप से एक ही समय अंदर से बाहर की ओर पकता है जबकि
इलेक्ट्रिकल अवन में ताप संचालन द्वारा बाहर से अंदर की ओर
जाता है, फलत: पहले अवॅन की हवा गर्म होती है, फिर बर्तन, तब
कहीं जा कर भोजन बाहर से अंदर की ओर गर्म होता है, वह भी
धीरे-धीरे। इसी लिए इसमें समय ज्यादा लगता है। ज्यादा समय लगने
का अर्थ है ज्यादा ऊर्जा की खपत। यदि उचित समय तक तथा सही ताप
पर भोजन न पकाया जाय तो उसके अंदर से कच्चा रह जाने का अंदेशा
रहता है या फिर बाहरी हिस्से के जल जाने का खतरा रहता है।
चूँकि मोबाइल फोन तथा माइक्रोवेव अवन की कार्य-विधि के पीछे
`माइक्रोवेव्स' का हाथ है, अत: आइए इनके बारे में थोड़ी और
जानकारी हासिल कर लें। दृश्य-अदृश्य प्रकाश, गामा एवं एक्स-रे,
रेडियो फ्रीक्वेंसीज़ आदि की तरह ये भी एक प्रकार की
विद्युत-चुंबकीय तरंगें हैं। इनका तरंग-दैर्ध्य (wavelength)
सामान्यतया १ से.मी. से ले कर ३० से.मी. अथवा इससे भी कहीं
अधिक ५० से.मी. होता है तथा आवृत्ति दर (frequency) ३ से ३००
गीगा हर्ट्ज़ (१गीगा हर्ट्ज़, एक अरब हर्ट्ज़ के बराबर होता
है) तक परिसीमित होती है।
सामान्य रेडियों तरंगों की तुलना में माइक्रोवेव्स की आवृत्ति
दर कई गुना अधिक होती है। सूचना संप्रेषण की क्षमता का सीधा
संबंध तरंगों की आवृत्ति दर से होता है, फलत: ये तरंगें रेडियो
तरंगों की तुलना में कई गुना अधिक सूचना का वहन कर सकती हैं।
इन माइक्रोवेव्स की एक और विशेषता यह है कि ये तरंगें `नॉन
आयोनाइज़िंग' प्रकार की होती है अर्थात् इनमें इतनी ऊर्जा नहीं
होती है कि एक्स-रे जैसी ऑयोनाइज़िंग किरणों की तरह जैविक
कोशिकाओं के परमाणुओं से टकरा कर उनसे इलेक्ट्रॉन्स को अलग कर
सामान्यतया गंभीर क्षति पहुँचा सकें।
हाँ, एक समस्या अवश्य है - उच्च वैटेज पर कार्य करने वाले
उपकरणों द्वारा उत्पादित उच्च-आवृति दर वाले माइक्रोवेव्स
जैविक कोशिकाओं का ताप बढ़ा कर उन्हें गंभीर क्षति पहुँचा सकते
हैं। लेकिन सूचना संप्रेषण के लिए उपयोग में लाए जा रहे मोबाइल
फोन्स बहुत ही कम वैटेज का उत्पादन करते हैं। एनॉलॉग फोन्स
लगभग ६००mW तथा डिजिटल फोन्स मात्र १२५mW का उत्पादन करते हैं।
साथ ही इनमें कम आवृति दर वाले माइक्रोवेव्स (लगभग ९०० अथवा
१९०० मेगा हर्ट्ज) का उपयोग होता है (जीएसम फोन्स मात्र १८००
मेगा हर्ट्ज पर कार्य करते हैं)। इतने कम वैटेज पर उत्पादित
निम्न आवृति दर वाले मोक्रोवेव्स द्वारा जैविक कोशिकाओं को
पहुँचने वाली हानि न के बराबर है - ऐसा बहुतेरे
अनुसंधानकर्ताओं तथा मोबाइल कंपनियों का मानना है और ऐसा ही वे
अपने द्वारा प्रायोजित अनुसंधानों द्वारा सिद्ध करने के प्रयास
में लगे रहते हैं।
दूसरी ओर माइक्रोवेव अवन में उच्च आवृति दर वाले माइक्रोवेव का
उपयोग अवश्य होता है लेकिन इस अवन में ऐसी पक्की व्यवस्था की
जाती है कि ये वेव्स अवन के बाहर न निकल सकें। अत:
माइक्रा्रेवेव अवन के उपयोग से हमारे शरीर के किसी भी हिस्से
को क्षति पहुंचने की संभावना न के बराबर होती है। शर्त यह है
कि माइक्रोवेव अवन किसी भी प्रकार से दोषयुक्त न हो।
माइक्रोवेव्स के आधार पर चलने वाले मोबाइल फोन, अवन या ऐसे ही
अन्य उपकरण, जिनके कारण हमारा शरीर इन वेव्स के सीधे संपर्क
में आता हो अथवा वे पदार्थ, जिन्हें माइक्रोवेव्स के संपर्क
में रखने के बाद हम अपने उपयोग में ला रहे हों के संदर्भ में
सामान्य जन से ले कर वैज्ञानिकों का एक समूह शुरू से ही शंकालू
रहा है। इन उपकरणों के उपयोग की वकालत करने वालों की लाख
दलीलों के बावज़ूद इनका मानना है कि माइक्रोवेव्स किसी न
किसी रूप में हमारे शरीर को क्षति अवश्य पहुँचाते हैं। हाल ही
में यूरोपियन सोसाइटी ऑफ ह्यूमन रिप्रोडक्शन ऐंड
एंब्रियोलॉजी की मीटिंग में हंगेरियन वैज्ञानिकों की एक टीम ने
मात्र २२१ व्यक्तियों पर एक छोटे से अध्ययन के बाद यह बात उठाई
कि मोबाइल फोन को पैंट के पॉकेट में लगातार रखने पर शुक्राणु
की संख्या लगभग ३० प्रतिशत की कमी होने की संभावना होती है।
हालांकि इस रिपोर्ट को सीमित अध्ययन के कारण सोसाइटी ने जारी
करने से मना कर दिया दिया, लेकिन मीडिया में इसका खूब प्रचार
हुआ और इसने एक बार फिर से माइक्रोवेव्स के हानिकारक प्रभावों
के मुद्दे को गर्मा दिया है।
मोबाइल फोन को लोग अक्सर कान के पास रख कर बात करते हैं
अर्थात् कान के आस-पास के ऊतक तथा मस्तिष्क के इस हिस्से की
कोशिकाएँ लगातार माइक्रोवेव्स के संपर्क में रहती हैं। भले ही
ये वेव्स कम आवृत्ति दर तथा वैटेज की हों, फिर भी आस-पास की
कोशिकाओं के अणुओं को कुछ सीमा तक उद्वेलित तो करती ही हैं।
इस प्रकार के लगातार उद्वेलन के दुष्प्रभाव को ले कर लोग
शंकालू भी रहे हैं। इसे ट्यूमर तथा कैंसर से जोड़ कर देखने का
प्रयास किया गया है। १९९२ में डेविड रेनार्ड नामक व्यक्ति ने
फ्लोरिडा के एक कोर्ट में एक केस किया जिसमें उसने आरोप लगाया
कि मोबाइल फोन के उपयोग के कारण उसकी पत्नी को ब्रेन कैंसर हो
गया।
हालाँकि १९९५ में कोर्ट ने पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इस
केस को समाप्त कर दिया, फिर भी इसने मोबाइल फोन के उपयोग के
दुष्प्रभावों के प्रति लोगों के कान खड़े कर दिए। नतीजा- कैंसर
तथा माइक्रोवेव्स के संदर्भ में वृहद् पैमाने पर शोध कार्य।
ध्यान रहे ऐसे अधिकांश शोध-कार्य मोबाइल फोन बनाने वाली
कंपनियों के धन के बल ही चल रहे थे। इन शोध-कार्यों में ध्यान
इस बात पर था कि ये फोन वास्तव में कैंसर के कारण हैं या नहीं।
लंबे समय तक किए गए ये अनुसंधान या तो जानवरों पर केंद्रित
रहे या फिर ब्रेन कैंसर से पीड़ित या मृत व्यक्तियों द्वारा
मोबाइल फोन के उपयोग की काल-अवधि के आकड़ों का विश्लेषण करते
रहे। इन्हें मोबाइल फोन तथा कैंसर में कोई सीधा संबध नज़र नहीं
आया। लेकिन यह भी सिद्ध नहीं हो पाया कि इन दोनों में बिल्कुल
ही कोई संबंध नहीं है। यह सिद्ध कर पाना वास्तव में मुश्किल भी
है क्योंकि कैंसर किसी एक वजह से नहीं होता। यह उन्हें भी होता
है जो मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करते और उन्हे भी जो मोबाइल
फोन का उपयोग लगातार करते रहते हैं।
शुक्राणुओं की संख्या में कमी के पीछे निश्चित रूप से मोबाइल फोन
ही हैं, कह पाना कठिन है। नोकिया के उत्पादन में संलग्न
फिनलैंड के लोगों में शुक्राणुओं की संख्या बिल्कुल ठीक-ठाक
पाई गई। लेकिन यह कह पाना भी कठिन है कि शुक्राणुओं की संख्या
में कमी के पीछे मोबाइल फोन्स का हाथ बिल्कुल ही नहीं है। कुछ
भी सुनिश्चित ढंग से कहने के लिए अभी भी लंबी अवधि तक किए जाने
वाले व्यवस्थित अनुसंधानों की आवश्यकता है।
दूसरी ओर माइक्रोवेव अवन में पकने वाले भोजन पर भी कुछ प्रश्न
चिह्न हैं। उच्च वैटेज पर माइक्रोवेव अवन के मैग्नेट्रॉन ट्यूब
से २५ गीगा हर्ट्ज की उच्च आवृत्ति दर वाली माइक्रोवेव्स से
भोजन को पकाया जाता है। ये माइक्रोवेव्स, भोजन (विशेषकर उसमें
उपस्थित पानी) के अणुओं की पोलैरिटी को प्रति सेकेंड लाखों बार
परिवर्तित करते रहते हैं। इनके इसी उद्वेलन के फलस्वरूप
उत्पन्न घर्षण ऊर्जा द्वारा भोजन गर्म हो कर पकता है। इस अति
उच्च आवृत्ति पर उद्वेलित अणु भोजन में उपस्थित आस-पास के अन्य
अणुओं-परमाणुओं में स्थाई-अस्थाई संरचनात्मक तथा रासायनिक
विकृति की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। इन विकृत भोज्य
पदार्थों का हमारे शरीर पर किस सीमा तक कुप्रभाव पड सकता है,
यह गंभीर शोध का विषय है।
मोबाइल फोन की तरह १९९१ में ओकलहामा के कोर्ट में कमर की शल्य
चिकित्सा के दौरान माइक्रोवेव में गर्म कर रक्त दिए जाने के
फलस्वरूप नोर्मा लेविट नामक महिला रोगी की मृत्यु से संबंधित
एक केस था। इसमें यह दावा किया गया था कि माइक्रोवेव्स द्वारा
गर्म किए जाने के कारण रक्त में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए जिनके
फलस्वरूप महिला की मृत्यु हुई। हालांकि निचित रूप से कुछ कह
पाना संभव नहीं है फिर भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा
सकता कि माइक्रोवेव्स ने दिए जाने वाले रक्त में कुछ ऐसा
परिवर्तन किया होगा जो महिला की मृत्यु का कारण बना।
इस संदर्भ में १९८९ में स्वीडिश भोजन वैज्ञानिक डॉ हैन्स
उल्रिच हर्टेल तथा स्वीडिश फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी से
संबद्ध प्रो.बर्नार्ड ब्लॉंक के शोध कार्य उल्लेखनीय है।
स्वयंसेवकों के दल के सदस्यों को दूध तथा सब्जियों को कच्चे
रूप में तथा उन्हें तरह-तरह से पका कर,जिसमें माइक्रोवेव अवन
भी शामिल था, नियंत्रित रूप से दिया गया। ऐसा भोजन देने के
पूर्व तथा बाद में इन स्वयंसेवकों के रक्त के नमूने की लगातार
जांच की गई। माइक्रोवेव अवन में गर्म किए गए दूध तथा पकी
सब्जियों का सेवन करने वाले स्वयंसेवकों के रक्त में
हीमोग्लोबिन तथा अच्छे कोलेस्टेरॉल की मात्रा कम अनुपात में
थी, साथ ही लिम्फोसाइट प्रकार की श्वेत रूधिर कणिकाओं की
संख्या में भी अस्थाई रूप से कमी देखी गई। जैसे ही इन्होंने
अपने शोध के परिणामों का प्रकाशन आरंभ किया, स्विश असोसियेशन
ऑफ डीलर्स फॉर इलेक्ट्रो-अपरेटसेज़ फॉर हाउसहोल्ड इंडस्ट्रीज़
तुरंत हरकत में आ गई एवं स्वीडिश कोर्ट ने १९९३ में इनके शोध
कार्य के परिणामों के प्रकाशन पर रोक लगा दी। एक लंबी लड़ाई के
बाद यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स ने १९९८ में इस रोक को
समाप्त किया।
माइक्रोवेव्स का हमारे स्वास्थ्य पर क्या-क्या प्रभाव पड़ता
है- इस संदर्भ में किए गए तथा किए जा रहे शोध कार्यों की कमी
नहीं है। इसमें रूस तथा जर्मनी के वैज्ञानिक अग्रणी रहे हैं। अमेरिका
तथा अन्य देशों के वैज्ञानिकों ने भी इस विषय पर काफी-कुछ शोध
किया है। रूसी वैज्ञानिकों के शोध के परिणाम निश्चय ही इतने
गंभीर थे कि १९७५-७६ में तत्कालीन रशियन सरकार ने माइक्रोवेव्स
के आधार पर चलने वाले सभी प्रकार के उपकरणों के सामान्य जन
द्वारा उपयोग पर रोक लगा दी थी।
इस आलेख में माइक्रोवेव्स के संदर्भ में लगभग आधी शताब्दी से
चल रहे तमाम शोध-कार्यों पर चर्चा कर पाना तो संभव नहीं है फिर
भी उनके परिणामों का सार-संक्षेप प्रस्तुत है:
लगातार नियमित रूप से माइक्रोवेव अवन में पकाए भोजन के सेवन
करने वाले लोगों में आमाशय तथा आंत के कैंसर की संभावना ज्यादा
रहती है। साथ ही पाचन तथा उत्सर्जन तंत्र की कार्यकी में
क्रमश: ह्रास का खतरा रहता है।
भोजन में पाए जाने वाले विभिन्न पोषक तत्वों विशेषकर विटामिन्स
बी१२, सी, ई, आवश्यक खानिज तथा वसा जमा होने की प्रक्रिया
रोकने वाले लीपोट्रॉपिक रसायनों की मात्रा में काफी कमी आती
है। बी १२ की तो लगभग पांच गुना कमी देखी गई है। परंपरागत ढंग
से भोजन पकाने पर भी विभिन्न पोषक तत्वों की मात्रा में कमी
आती है लेकिन इतनी नहीं। वनस्पतियों में पाए जाने वाले नाना
प्रकार के पोषक तत्व यथा अल्कल्याड्स, ग्लूकोसाइड्स,
गैलेक्टोसाइड्स आदि को भी माइक्रोवेव्स आंशिक रूप से कैंसर जनक
रसायनों में बदल सकता है।
माइक्रोवेव्स के प्रभाव से कुछ प्राकृतिक एमिनो एसिड्स की
संरचना में परिवर्तन हो सकता है। ऐसे परिवर्तित एमिनो एसिड्स
तथा अन्य रसायन हमारे शरीर में विषैले पदार्थ का कार्य कर सकते
हैं, जिसके कारण लिम्फैटिक तंत्र प्रभावित हो सकता।
परिणाम-प्रतिरोध क्षमता में कमी तथा कैंसर का खतरा।
माइक्रोवेव्स, सब्जियों के कुछ खनिजों को कैंसर उत्पन्न करने
वाले फ्री रेडिकल्स में बदल सकते हैं। मांस में भी ये कुछ पोषक
तत्वों को डी-नाइट्रोसोडाइएथेनॉलएमाइन जैसे कैंसर जनक पदार्थों
में बदल सकते हैं।
दूध तथा अनाज के कुछ एमीनो एसिड्स भी कैंसर जनक रसायनों में
परिवर्तित हो सकते हैं।
माइक्रोवेव्स के नियमित तथा लंबे समय तक सीधे संपर्क का
प्राथमिक कुफल निम्न रक्तचाप एवं धीमी नाड़ी गति के रूप में
परिलक्षित होता है जो बाद में उच्च रक्तचाप तथा तनाव के
लक्षणों के रूप में सामने आता है। इनके साथ-साथ सरदर्द, चक्कर
आना, आंखों में दर्द, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन आदि तरह-तरह के
लक्षण भी परिलक्षित हो सकते है।
कुछ का तो यहाँ तक मानना है कि माइक्रोवेव्स के नियंत्रित तथा
नियमित उपयोग से लोगों की मानसिकता भी कुछ सीमा तक प्रभावित की
जा सकती है।
ऐसे अध्ययन तो बड़ा ही भयानक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। एक
बुद्धिमान व्यक्ति को माइक्रोवेव्स तथा इनसे चालित उपकारणों से
कोसों दूर रहना चाहिए और यदि वह ऐसे उपकरणों का उपयोग कर रहा
है तो इसे फौरन कचड़े में फेंक देना चाहिए। लेकिन नहीं,
उपरोक्त नकारात्म परिणाम पूरी तरह यह सिद्ध करने में सक्षम
नहीं है कि ये सारी हानियाँ माइक्रोवेव्स के कारण ही हैं। इनको
नकारने वाले लोग अपना ही तर्क देते हैं और इस वाद-विवाद का अंत
नहीं हो सकता।
दोनों ही पक्ष अपने-अपने तर्कों को सही सिद्ध करने के लिए
प्रमाण जुटाते रहते हैं। जब भी माइक्रोवेव्स के उपयोग की
वकालत करने वालों के विरुद्ध कोई नया प्रमाण आता है तो ये लोग
बड़े पुरजोर तरीके से इसका विरोध करने में जुट जाते हैं। कारण,
संभवत: इनसे जुड़ी लाखों-करोड़ों डॉलर का उद्योग जगत है। साथ
ही सामान्य जन अपना हित तात्कालिक समय-सीमा के अन्दर ही देखा
पाते है, अत: भविष्य को अनदेखा कर देते हैं। निश्चय ही ऐसे
उपकरण सुविधा की दृष्टि से बेजोड़ हैं। जब तक लोगों में
तात्कालिक लाभ तथा सुविधा की मानसिकता बनी रहेगी, ऐसे उपकरणों
का उपयोग होता रहेगा तथा दीर्घ कालीन हानियों को लोग अनदेखी ही
रहे गी। काश! जन-मानस में दूरगामी परिणामों को देखने-समझने की
थोड़ी और समझ आ जाती तो भविष्य में ऐसी ही कितनी हानियों से वह
बच जाता।
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