गर्भ धारण के नौ मास की काल- अवधि में होने वाले कष्टों,
जन्म के बाद शिशु के लालन-पालन की जिम्मेदारी तथा प्रजनन
क्षमता को बनाए रखने के लिए `मासिक-चक्र'
(mentrual cycle) का विशेष नियम प्रकृति ने
महिलाओं के खाते में
डाला है। समय के साथ साथ आज जब महिलाएँ प्रजनन के अतिरिक्त
अनेक रचनात्मक कामों में पुरुषों के साथ काम कर रही हैं इस
नियम से मुक्त होने के उपायों की खोज भी शुरू हो गयी है।
वास्तव में इस चक्र का चक्कर
प्रकृति ने स्त्री के अंडाशय
(ovary) से प्रतिमाह औसतन एक डिंब
(ovum) के
उत्पादन के उद्देश्य से चलाया है। उसी के शरीर में स्थित गर्भाशय
(uterus) के फैलोपियन ट्यूब में इस डिंब के निषेचन
(fretilisation)
के बाद विकसित हो रहे शिशु की लगभग नौ
मास के भ्रूणीय विकास
(embryological
development) की व्यवस्था भी यहीं की गई है। इसके लिए
आवश्यक है कि निषेचन के कुछ ही दिनों के अंदर विकसित हो रहे
भ्रूण को गर्भाशय के भीतरी दीवार `एन्डोमिट्रियम' में
प्रतिस्थापित कर इसके पोषण की व्यवस्था कर दी जाय अन्यथा
पोषण के अभाव में इसके विकास की प्रक्रिया तो रूक ही जाएगी,
साथ ही साथ गर्भाशय से बाहर निकलने के बाद सुरक्षा के अभाव
में यह नष्ट हो भी जाएगा।
निषेचित भ्रूण ह्यएम्ब्रय्ेहृ को गर्भाशय में प्रतिस्थापित
करने के लिए डिंब उत्पादन की प्रक्रिया ह्येव्ुलतेन्हृि के
समानान्तर एन्डोमिट्रियम की संरचना में भी परिवर्तन होता
रहता है। यहाँ नई कोशिकाओं का उत्पादन होता है जिसके
फलस्वरूप इसकी मोटाई बढ़ने लगती है, साथ ही नई रक्त वाहिनियों
के निर्माण के कारण रक्त संचार भी बढ़ जाता है। कुछ कोशिकाएँ
एक प्रकार के चिपचिपे द्रव `म्यूकस' का स्राव कर
एन्डोमिट्रियम की बाहरी सतह को काफी नम बना देती हैं। निषेचन
के पश्चात् विकसित हो रहा भ्रूण, लुढ़कते हुए जब फैलोपियन
ट्यूब से गर्भाशय में पहुँचता है, तो इस म्यूकस में फँस कर
यहीं रूक जाता है। कुछ ही दिनों में इस विकसित हो रहे भ्रूण
तथा एन्डोमिट्रियम की विभाजित हो रही कोशिकाएँ रक्त
वाहिनियों के साथ मिल कर `प्लैसेंटा' का निर्माण कर
भ्रूण के
पोषण की व्यवस्था स्त्री के शरीर से ही कर देती हैं।
मुश्किल यह है कि डिंब का उत्पादन तो हर माह होता है परंतु
हर बार इसका निषेचन नहीं संभव है। निषेचन के लिए नर शरीर से
शुक्राणु ह्यस्पएरमतेठेाहृ की आवश्यकता होती है और वह भी तब
जब अंडाशय से निकल कर डिंब गर्भाशय के फैलोपियन टयूब में
पहुँच गया हो। डिंब यहाँ शुका्रणु की प्रतीक्षा में रूका नही
रहता। यह लुढ़कते हुए फैलोपियन ट्यूब से आगे खिसते हुए
गर्भाशय में आता है और फिर एक -दो दिन के अंदर शैने: - शैने:
शरीर से बाहर निकल जाता है। यदि इसी सीमित अवधि में शुक्राणु
उपलब्ध ह,ै तभी निषेचन संभव है अन्यथा डिंब का उत्पादन
व्यर्थ हो जाता है।
निश्चय ही निषेचन न होने की स्थिति में भावी भ्रूण के
गर्भाशय में प्रतिस्थापना की प्रत्याशा में एन्डोमिट्रियम
में हुए परिवर्तन भी व्यर्थ हो जाते हैं। थोड़े ही दिनों में
इसमें टूट-फूट शुरू हो जाती है और इसे गर्भाशय से बाहर
निकालने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। एन्डोमिट्रियम की
बाहरी सतह में टूट-फूट के साथ यहाँ की बहुत सी नवनिर्मित
रक्त वाहिनियाँ भी खुल जाती हैं जिसके कारण अलग हुई
एन्डोमिट्रियम के बाहरी सतह की कोशिकाओं के साथ-साथ रक्त
स्रााव भी होता है। यह रक्त स्राव सामान्यत: ३ से ५ दिन तक
चलता है और फिर स्वत: रूक जाता है। इस प्रक्रिया को मासिक
धर्म के नाम से जाना जाता है।
डिंब-उत्पादन तथा मासिक धर्म के प्रारंभ के बीच लगभग १४ दिन
का अंतराल होता है।मासिक धर्म के प्रारंभ के साथ ही अंडाशय
में नए डिंब के उत्पादन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है जोे
लगभग १४ दिनों तक चलती है तत्पश्चात् डिंब का उत्पादन होता
है। लगभग इसी के समानान्तर, मासिक धर्म की समाप्ति के साथ ही
एन्डोमिट्रियम के पुनर्निर्माण की प्रकिया भी शुरू हो जाती
है, जो लगभग अगले दस दिन तक चलती है अर्थात् नए डिंब के
उत्पादन के समय तक एंडोमिट्रियम निषेचित डिंब के प्लैसेंटेशन
के लिए पुन: तैयार हो जाता है।
इस प्रकार लगभग २८ दिन के अंतराल पर यह मासिक चक्र सदैव चलता
रहता है, जिसकी शुरूआत ह्यम्एन्ेपाुस्एहृ होने लगता है।
दोनों ही स्थितियों में डिंब का उत्पादन रूक जाता है; फलत:
एन्डोमिट्रियम के बार-बार पुनर्निर्माण आवश्यकता ही नहीं
रहती।
स्त्री के शरीर में यह सारा ड्रामा प्रकृति कुछ विशेष
रसायनों की सहायता से रचती है, जिन्हें हॉर्मोन्स कहते हैं।
एस्ट्रोजेन्स तथा प्रोजेस्टेरॉन नामक हॉर्मोन्स प्रमुख हैं।
ये दोनों हॉर्मोन्स अंडाशय में ही बनते हैं। अंडाशय में बहुत
सारे कोशिका-गुच्छ ह्यफेल्लिच्ल्एस्हृ पाए जाते हैं।
सामान्यत: प्रतिमाह एक ही फॉलिकिल सक्रिय होता है। इसकी एक
कोशिका का विकास तो डिंब के रूप में होता है परंतु शेष
कोशिकाएँ मस्तिष्क मे स्थित पियूषि ग्रंथि ह्यपतिुतिारय्
ग्लन्दहृ से स्रावित एक अन्य हॉर्मोन `फॉििकलल स्टिमुुलेटिंग
हॉर्मोन' के प्रभाव से एस्ट्रोजेन्स का स्राव करने लगती हैं,
जो डिंब उत्पादन की प्रक्रिया के नियंत्रण के साथ-साथ
एन्डोमिट्रियम में होने वाले परिवर्तनों को भी नियंत्रित
करते है। डिंब उत्पादन के पश्चात् इस फॉलिकिल की बची हुई
कोशिकाओं को `कॉरपस ल्यूटियम' कहते हैं। यह संरचना पियूषि
ग्रंथि के एक अन्य हॉर्मोन `ल्युटिनाइज़िन हॉर्मोन' के
प्रभाव में प्रोजेस्टेरॉन तथा कुछ अन्य एस्ट्रोजेन्स का
स्राव करने लगती है। ये हॉर्मोन्स एन्डोमिट्रियम को और
विकसित करने तथा निषेचित डिंब को गर्भाशय की दीवार
`एंडोमिट्रियम' में प्रतिस्थापित करने मे सहायक होते हैं।
यही नहीं,गर्भधारण की अवस्था में `कॉरपस ल्यूटियम' पूरे समय
सक्रिय रहता है तथा इसके द्वारा स्रावित प्रोजेस्टेरॉन
गर्भावस्था को बनाए रखने एवं अगले डिंब उत्पादन की प्रक्रिया
को रोके रखने में मुख्य भूमिका निभाता है।
गर्भधारण न होने की स्थिति में, कॉरपस ल्यूटियम धीरे-धीरे
निष्क्रिय होने लगता है; फलस्वरूप प्रजेस्टेरॉन की मात्रा कम
होने ल््रागती है। इसकी घटती मात्रा नए फॉििकलल को सक्रिय
बनाती है तथा एन्डोमिट्रियम के क्षय में भी सहायक होती है,
जोे अंतत: मासिक धर्म के रूप में परिलक्षित होता है। नए
सक्रिय फॉििकलल से स्रावित एस्ट्रोजेन की बढ़ती मात्रा डिंब
उत्पादन तथा एन्डोमिट्रियम की नई सतह के निर्माण में सहायक
होती है। इस प्रकार इन दोनों हॉर्मोन्स की सतत परिवर्तनशील
मात्रा एवं इनके सही संतुलन के द्वारा मासिक चक्र का नियमन
होता रहता है।
जब प्रकृति इन सब प्रक्रियाओं का नियमन इतनी बारीकी एवं
सटीक ढंग से करती है तो फिर समस्या क्या है? अधिकांश
महिलाओं के लिए यह चक्र एक प्रकार का कुचक्र ही है। अधिकांश
महिलाएँ इस प्रक्रिया के चलते नाना प्रकार के शारीरिक,
मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक परेशानियों से गुजरती हैं। इनमें से
कुछ के लक्षण मासिक स्राव के ४-५ दिन पहले ही दीखने लगते हैं
जिन्हें `प्री मेंस्ट्रयुअल सिन्ड्रोम' ह्यप्ंश्हृ कहते हैं।
शरीर के विभिन्न हिस्सों में पानी जमा होने लगता है जिसके
फलस्वरूप वजन का बढ़ना, त्वचा में असामन्य परिवर्तन, स्तन
में कड़ेपन तथा दर्द के साथ-साथ शरीर का फूल जाना आदि
सामान्य लक्षण हैं।
इसके अतिरिक्त रूलाई आना, अकेलापन, व्यग्रता, बेचैनी,
चिड़चिड़ाहट, परिवर्तनशील मनोदशा, उदासी, तनाव, ज्यादा या कम
खाने की इच्छा आदि ऐसे तमाम लक्षण हैं जो कमो-बेश प्र्राय:
सभी महिलाओं में पाये जाते हैं। मांसपेशियों में एेंठन, सर
दर्द तथा उदर के निचले हिस्से में किसी-किसी महिला में
असहनीय पीड़ा भी देखने को मिलती है। इनमें से बहुतेरे लक्षण
मासिक स्राव के दिनों भी बने रहते हैं। जीवन के उत्तरार्ध
अर्थात् ४५ से ५० वर्ष की उम्र तक पहुँचते -पहुँचते मासिक
चक्र समाप्ति ह्यम्एन्ेपाुस्एहृ की दिशा में अग्रसर होने
लगता है।इस समय भी कई असामन्य लक्षण यथा- अत्यधिक
रक्त-स्राव, गर्मी लगना, पसीना आना, मुटापा आदि के साथ
अस्थियों में कैल्शियम की कमी के कारण ऑस्टियोपोरोसिस के
लक्षण भी दिखाई पड़ सकते हैं।
क्या ये सब परेशानियाँ अधिकांश महिलाओं के सामान्य जीवन तथा
दैनिक क्रिया-कलापों में व्यवधान नहीं उपस्थित करतीं? चलिए
मान लिया जाय कि किसी-किसी में ये लक्षण नहीं भी उत्पन्न
होते हैं, तो भी क्या ४-५ दिनों के रक्त -स्राव की प्रक्रिया
स्वयं में उनके दैनिक जीवन को असहज नहीं कर देती? और तो और,
बहुतेरे परिवार, समाज तथा धर्मावलंबी इन दिनों इन्हें एक
प्रकार से अछूत मान लेते हैं। रसोईघर से ले कर धार्मिक
अनुष्ठानों तक में इनका प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। क्या
यह सब मानसिक यातना के कारण नहीं हो सकते? यदि अवसर मिले तो
भला ऐसी कौन सी महिला होेगी जो मासिक धर्म के इस चक्कर से
छुटकारा नहीं पाना चाहेगी। शर्त इतनी ही होगी कि इसके बंद
होने से शरीर पर किसी प्रकार का दुष्प्रभाव न पड़े तथा
मातृत्व के गौरव से वंचित न होना पड़े।
गर्भनिरोधक गोलियों का प्रचलन तो बहुत पहले से ही है। आज-कल
की अधिकांश गोलियों में कृत्रिम रूप से निर्मित एस्ट्रोजेन्स
तथा प्रोजेस्टिन का संतुलित मिश्रण होता है। एस्ट्रोजेन के
प्रभाव से शरीर को भ्रान्ति रहती है कि यह गर्भधारण की
स्थिति है ; फलत: डिंब का उत्पादन बंद रहता है। प्रोजेस्टिन,
जो प्रोजेस्टेरॉन का कृत्रिम रूप है, गर्भाशय के मुख
ह्यच्एरविक्ष्हृ पर पाए जानेे वाली श्लेष्मा ह्यम्ुच्ेुस्हृ
को काफी गाढ़ा कर देता है जिसके कारण शुक्राणुओं को डिंब तक
पहुँचने में दिक्कत आती है।
सामन्यत: ये गोलियाँ अट्ठाइस दिन के मासिक चक्र्र के आधार पर
खाई जाती हैं। मासिक स्राव के पहले दिन से ले कर इक्कीसवें
दिन तक सक्र्रिय गोलियों का सेवन किया जाता है परंतु अगले
सात दिन निष्क्रिय गोलियाँ ली जाती है। जब तक सक्रिय गोलियाँ
ली जाती हैं तब तक अंडाशय से डिंब का उत्पादन बंद रहता है
एवं शुक्राणु भी गर्भाशय तथा फैलोपियन ट्यूब तक आसानी से
पहँुचने में असमर्थ होते हैं। परिणाम स्वरूप गर्भधारण की
संभावना नहीं रहती। साथ ही इक्कीस दिन तक सक्रिय गोलियों में
उपस्थित हॉर्मोन्स के प्रभाव से एन्डोमिट्रियम की मोटाई में
न्यूनतम वृद्धि होती है। अगले सात दिन दिन तक हॉर्मोन रहित
निष्क्रिय गोलियों का सेवन एन्डोमिट्रियम की वृद्धि रोक देता
है और अब उसमें टूट-फूट आरंभ हो जाती है। यह सतह मासिक स्राव
के समय रक्त के साथ निष्कासित कर दी जाती है, जो एक प्रकार
से प्राकृतिक मासिक धर्म की नकल मात्र होती है। यह प्रक्रिया
महिलाओं एवं उनके चिकित्सकों को गर्भधारण न होने के संबंध
में आश्वस्त करती है तथा प्रतिदिन गोली लेने की आदत को बनाए
रखती है। साथ ही एंडोमिट्रियम की लगातार मोटाई बढ़ते रहने से
होने वाली परेशानियों से भी बचाती है।
बाज़ार में तरह -तरह की गर्भनिरोधक गोलियों की भरमार है
परंतु इनमें से कोई भी ऐसी नही है जिसके साइडइफेक्ट्स न हों।
इनके लगातार सेवन से हृदयाघात,रक्त में थक्का बनने जैसे
खतरों के साथ नियमित मासिक चक्र के बीच में अचानक रक्त स्राव
ह्यब्एाकतहरेुग्ह ब्ल्एएदन्ग्हृि की संभावना भी बढ़ जाती है।
पहले लोग सोचते थे कि यह स्तन कैंसर का कारण भी हो सकता है,
परंतु हाल के अध्ययन सुझाते हैं कि इसका खतरा न्यूनतम है। इन
खतरों तथा इनसे जुड़ी अन्य समस्याओं के बाद भी गर्भनिरोधक
गोलियों का सेवन करने वाली महिलाएँ बहुतायत में हैं।
मासिक चक्र के इस कुचक्र तथा इससे जुड़ी तमाम परेशानियों से
छुटकारे या फिर कुछ सीमा तक इसमें राहत पाने की थोड़ी-बहुत
संभावना इन्हीं गोलियों में छिपी हुई है। बहुतेरे चिकित्सक
दशकों से सक्रिय गोलियों के लगातार सेवन की सलाह उन महिलाओं
को देते रहे हंै जो किन्हीं व्यक्तिगत कारणों वश बीच-बीच में
मासिक स्राव से बचने की इच्छुक रही हों।
इसी दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हुए न्यूयॉर्क स्थित बार
लैबोरेटरी ने `सीज़नेल' के नाम से एक नई गर्भनिरोधक गोली
बाज़ार में उतारी है। इसे अमेरिका के फूड एेंड ड्रग
एडमिनिस्ट्रेशन की स्वीकृति मिल चुकी है और संभवत: अक्टूबर
के अंत तक यह उपभोक्ताओं को उपलब्ध हो जाएगी। इस गोली में
भी अन्य गोलियों की तरह एस्ट्रोजेन तथा प्रोजेस्टिन का
संमिश्रण है, परंतु उनकी तुलना में बहुत ही थोड़ी मात्रा
में।`एथिनिल एस्ट्रेडियॉल' नामक एस्ट्रोजेन तथा
`लेवोनॉरजेस्टेल' नामक प्रोजेटिन के समिश्रण से बनी यह गोली
२१ दिनों के बजाय ८४ दिनांे तक लगातार ली जा सकती है ओर इसके
बाद अगले सात दिनों तक निष्क्रिय गोली का सेवन किया जा सकता
है। इसकी कार्य प्रणाली भी अन्य गर्भ निरोधक गोलियों के समान
ही है। बस, अंतर केवल इतना ही है कि यह एंडोमिट्रियम की
वृद्धि को लगभग पूरी तरह दबा देगी, जिसके कारण गर्भ-धारण की
संभावना और भी कम हो जाए गी। साथ ही रक्त स्राव भी काफी
हल्का हो जाए गा।
अब चँूकि इसे ८४ दिनों तक लगातार लिया जा सकता है तो निश्चय
ही सामान्य अवस्था में इतने दिनों तक मासिक रक्त स्राव तो
बंद ही रहेगा और अगले ७ दिन निष्क्रिय गोलियों के सेवन के
बाद ही प्रारंभ होगा। यदि हिसाब किया जाय तो वर्ष के ३६५
दिनों में मात्र चार मासिक चक्र! वर्ष में १२ के बदले केवल ४
बार मासिक चक्र का सामना करना संभवत: किसी महिला के लिए
वरदान ही साबित होगा। कम मासिक चक्र का अर्थ, इससे जुड़ी
अन्य समस्याओं में उसी अनुपात में कमी आना भी है। है न राहत
की बात? मगर अफसोस, यह गोली भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।
परीक्षण के दौरान पाया गया कि अन्य गोलियों का सेवन करने
वाली महिलाओं की तुलना में इस गोली का सेवन करने वाली
महिलाओं में अचानक होने वाले रक्त स्राव ह्यब्रएाकतहरेुग्ह
ब्ल्एएदन्ग्हृि का खतरा लगभग दुगना होता है।हाँलाकि इसके
लगातार सेवन से धीरे-धीरे यह खतरा कम हो सकता है। यही नहीं,
किशोरियों के लिए यह और भी कम सुरक्षित है। इसके सेवन से
उनमें हृदयाघात, रक्त में थक्का बनने तथा स्तन कैंसर का खतरा
कुछ ज्यादा ही हो सकता है।
रासायनिक संगठन में सीज़नेल से मिलती-जुलती एक और गोली
है-`यास्मिन'।बर्लेक्स लैबोरेटरीज द्वारा निर्मित इस गोली
में ।३ मिली ग्राम `ड्रॉस्पिरेनोन' नामक प्रोजेस्टिन तथा ०़३
मिली ग्राम `एथिनिल एस्ट्रेडियॉल' नामक एस्ट्रोजेन का
समिश्रण होता है। कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी में लगभग ७००
महिलाओं पर किए गए अध्ययन के पश्चात् डॉ. रैप्किन का
निष्कर्ष है कि यह गोली गर्भनिरोध के साथ-साथ
प्रीमेंस्ट्रुअल सिंड्रोम ह्यप्ंश्हृ तथा मासिक चक्र से
जुड़े अन्य तमाम तकलीफदेह लक्षणों में प्रभावकारी कमी लाता
है। इस प्रयोग में ७२ प्रतिशत महिलाएँ पी एम् ाएस के लक्षणों
से ग्रसित थीं। इस गोली के सेवन केे पश्चात वे बेहतर तथा
अर्थपूर्ण जीवन जी पा रही हैं, साथ ही उनकी कार्य क्षमता में
भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। चूँकि इस गोली में हॉर्मोन्स की
मात्रा सीज़नेल की तरह ही बहुत कम है, फलत: इसके निर्माताओं
का कहना है कि इसके साइड इफेक्ट्स भी काफी कम होंगे।
दूसरी ओर पेन स्टेट के मिल्टन एस हर्शे मेडिकल सेंटर में
ऑब्सटेरिक्स एेंड गायनेकॉलॉजी के असोशियेट प्रोफेसर रिचर्ड
एस लेग्रो के तत्वाधान में एक छ: मासीय अध्ययन की अवधि में
इस बात का विस्तार से पता लगाने का प्रयास किया जा रहा है कि
ऐसी सक्रिय गर्भनिरोधक गोलियों का लगातार सेवन अंडाशय तथा
एंडोमिट्रियम के क्रिया-कलापों को किस प्रकार प्रभावित करता
है एवं इसके खतरे और लाभ क्या-क्या हैं? महिला का शरीर ऐसी
गोलियों के लगातार सेवन से किस सीमा तक ताल-मेल बैठा सकता
है? ऐसी गोलियों के लगातार सेवन की अवधि में अचानक होने वाले
रक्त स्राव ह्य ब्रएाकतहरेुग्ह ब्ल्एएदन्ग्हृि की आवृति क्या
है?
इन जैसे तमाम प्रश्नो के उत्तर पा कर भविष्य में संभवत: ऐसी
गोली का विकास किया जा सकेगा जो न केवल बेहतर गर्भनिरोधक का
कार्य करेगी, बल्कि महिलाओं को सदा के लिए मासिक चक्र के
कुचक्र से छुटकारा भी दिला सकेगी और वह भी बिना किसी साइड
इफेक्ट्स के। गोली का सेवन बंद कर इच्छित समय पर गर्भधारण कर
मातृत्व का गौरव भी प्राप्त किया जा सकेगा। परंतु दिल्ली अभी
बहुत दूर है। इस संबंध में अभी भी काफी गहन अध्ययन एवं
अनुसंधान की आवश्यकता है, तत्पश्चात ही किसी ऐसी परिपूर्ण
गोली के विकास की आशा की जा सकती है। आशा पर ही तो यह संसार
टिका है। एक दिन यह आशा भी अवश्य पूरी होगी।
मानव क्लोनिंग ने मचाई हलचल
-डा गुरू दयाल प्रदीप
१३ दिसम्बर, १९७३-दक्षिणी फ्रांस का एक छोटा सा शहर -
कलेमॅान्ट फरान्ड-जहाँ आप पत्रकार हैं और आप का काम
मोटर-दौड़ प्रतियोगिताओं के बारे में अखबरों और पत्रिकाओं
को जानकारी देना है। इस दिन भी रोज की तरह आप काम पर निकलते
हैं, लेकिन पता नहीं किस धुन में उस निर्जन स्थान की ओर अपनी
कार मोड़ देते हैं जहाँ एक पुराना शांत ज्वालामुखी है। वहाँ
पहुँचते ही आप के चारों ओर रोमांचकारी घटनाएँ होने लगती हैं।
आप को लगने लगता है कि आकाश का रंग तेजी से बदल रहा है और आप
धीरे-धीरे अपने होशो-हवाश खोते जा रहे हैं। आप की आँखों के
सामने वह हो रहा है जैसा शायद आपने विज्ञान कथाओं में पढ़ा
हो या स्टार वार, स्टार ट्रेक सरीखी फिल्मों और टीवी
सिरियल्स में देखा हो।
आकाश के बदलते रंगों में अचानक एक छोटा सा धब्बा उभरता है और
तेजी से बड़ा होते-होते आप की आँखों के सामने थोड़ी दूर पर
उतर कर स्थिर हो जाता है। ध्यान से देखने पर आप पाते हैं कि
वह धब्बा वास्तव में लगभग १४ मीटर व्यास का किसी चाँदी जैसी
चमकदार धातु से बना हुआ तश्तरी के आकार का अन्तरिक्ष यान है।
अभी आप आवक् आँखें फाड़े इस अविश्वसनीय घटना को देख ही रहे
हैं कि आप को आश्चर्यचकित करते हुए उस यान से लगभग चार फुट
लंबा, पीलापन लिए हुए हरे रंग की त्वचा वाला मानव रूपी जीव,
जिसके काले लंबे बाल और बादाम जैसी आँखें हैं, निकल कर आप की
ओर बढ़ने लगताा है। इतना ही नहीं,़ पास आकर वह अद्भुत जीव आप
की मातृभाषा मेंे ही बातें करने लगता है।
वार्तालाप के दौरान वह बताता है कि उसका नाम `याहवेह' है और
वह पृथ्वी से करोड़ों किलो मीटर दूर `इलोहिम ग्रह' का निवासी
है। वह और उस जैसे कई लोग इस पृथ्वी पर होने वाली मानव
सभ्यता के विकास एवं प्रगति पर निगाह तो रखते हैं परंतु
हस्तक्षेप नहीं करते। वास्तव में आज से पच्चीस हजर वर्ष
पूर्व उसके ग्रह के लोग पृथ्वी पर आए थे और उन लोगों ने ही
हम मनुष्यों को `जेनेटिक इंजिनियरिंग' और `क्लोनिंग' द्वारा
अपनी प्रतिकृति के रूप में प्रयोगशाला में बनाया था। यही
नहीं, इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीव-जंतु इसी
प्रक्रिया के परिणाम हैं। वह आगे बताता है कि आज मानव सभ्यता
वैज्ञानिक प्रगति के उस स्तर पर पहुँच गई है जहाँ मनुष्यो को
`जेनेटिक इंजिनियरिंग और क्लोनिंग' के आधरभूत रसायन
`डीऑक्सीराइबोज न्यूलिक एसिड' का ज्ञान हो चुका है और अब
`इलोहिम ग्रह' के निवासी पृथ्वी-वासियों को अपने सीधे संपर्क
के योग्य समझने लगे हैं।
उनसे सीधा संपर्क, हम पृथ्वी-वासियों के ज्ञान-विज्ञान के
क्षेत्र में हो रही प्रगति की रफ्तार को कई गुना बढ़ा देगा
और हम अतिशीघ्र `इलोहिम' के समान अन्य ग्रहों पर जाकर नए
जीवन के सृष्टिकर्ता बन सकेंगे। इतना ही नहीं, हम उन्हीं के
समान एक प्रकार से अमरत्व भी प्राप्त कर लेंगे। परंतु
`इलोहिम' से सीधा संपर्क तभी संभव है जब हम उनके अनुकूल
वातावरण वाला सुरक्षित दूतावास का निर्माण कर, उन्हें यहाँ
आने का निमंत्रण दें। क्यों कि वे यहाँ प्रेम और सम्मान का
प्रतीक बन कर ही आना चाहेंगे, एक आक्रमणकारी के रूप में
नहीं।
`याहवेेह' अब आप से विदा लेेता है और अपन्ेा यान में बैठ कर
आप की आँखों के सामने से ओझल हो जाता है। उसके जाते ही आप के
आसपास सब कुछ सामान्य होने लगता है और आप होेशो- हवाश में
आने लगते हैं। अब आप की समझ में यह आना मुश्किल है कि
अभी-अभी जो घटित हुआ है, वह एक सच्चाई है या दिवास्वप्न या
फिर अर्धचेतना की स्थिति में की गई कोरी कपोल कल्पना! जेा भी
हो, बिना सबूत के आप चाहते हुए भी किसी को इस घटना के बारे
मे बताने से हिचकेंगे। भला आप की बात पर विश्वास कौन करे गा?
कुछ आप को गप्पी समझेंगे तो कुछ चोरी की घटिया कहानी सुनाने
वाला...यहाँ तक कि कुछ लोग पागल भी समझ सकते हैं।
लेकिन नहीं,...श्रीमान क्लाड वरिलॉन एक वास्तविकता हैं और
जैसा कि उनका दावा है, उपरोक्त घटना उनके साथ वास्ताव में
घटी थी और उस पर उन्हें पूरा चिश्वास है। उनका दावा तो यहाँ
तक है कि १९७५ में इलोहिम ग्रह के निवासियों ने उनसे पुन:
संपर्क किया एवं इस बार यान में बैठ कर अपनेे ग्रह चलने की
दावत भी दे डाली। वे वहाँ गए भी और वहाँ जो कुछ देखा ,वह
चमत्कृत करने वाला था। अकल्पनीय वैज्ञानिक तकनीक़,
पूर्णरूपेण उन्मुक्त समाज एवं एक प्रकार से अमर लोग! अमरत्व
प्राप्त करने का तरीका बताने के साथ उन्हें यह भी बताया गया
कि पृथ्वी पर समय-समय पर जन्म लेने वाले विभिन्न धर्म
प्रवर्तक इलोहिम द्वारा चुने गए प्रशिक्षित लोग थे। इनके
द्वारा समय-समय पर उस समय की सभ्यता और सामाजिक विकास के
स्तर के अनुरूप मानव समज को शिक्षित करने का प्रयास किया
गया।
वरिलॅन साहब इतने प्रभावित हुए कि पृध्वी पर वापस आकर इलोहिम
द्वारा बताई गई बातों का प्रचार -प्रसार करने का बीड़ा उठा
लिया। सर्व प्रथम इन्हों ने अपना नाम बदल कर `रेल' रख लिया
और इलोहिम लोगों के लिए दूतावास बनाने के कार्य में जुट गए
ताकि वे यहाँ आकर मानव सभ्यता के वैज्ञानिक, सांस्कृतिक,
धार्मिक एवं सामाजिक स्तर को तीव्र गति से ऊपर उठाने में
सहायक हो सकें।
आज के युग में भी ईश्वर के तथाकथित दूत या फिर स्वयं को ही
भगवान बताने वाले धर्मगस्र्ओं की कमी नहीं है और सभी को इस
करोड़ों की जनसंख्या में कुछ न कुछ अनुयायी मिल ही जाते हैं
जो उनके धर्म की दुकान चलाने में सहायक होते हैं। वरिलॉन
उर्फ रेल साहब भी इसके अपवाद नहीं हैं। इन्हें भी लगभग पचास
हजार अनुयायी मिल ही गए हैं और इन्होंने `रेलियन आंदोलन' के
रूप में एक `कल्ट' को जन्म दिया है। इससे जुड़े लोगों का
उद्देश्य इलोहिम के लिए दूतावास निर्माण एवं श्रीमान वरिलॉन की
विचारधारा का प्रचार करने के साथ-साथ एक उन्मुक्त समाज की
रचना करना है जहाँ किसी प्रकार की कोई वर्जना न
हो।'रेलियन्स' का दावा है कि दूतावास निर्माण का कार्य काफी
प्रगति पर है और इस संदर्भ में इजराइल की सरकार से गुपचुप
बात-चीत भी चल रही है। इजराइल से ही क्यों? तो इनका कहना है
कि वास्तव में इलोहिम शब्द का उल्लेख हीब्रू भाषा में मिलता
है, जिसका तात्पर्य ईश्वर है। लेकिन इसका वास्तविक अर्थ
``आकाश से अवतरित लोग'' है। अन्य स्थानों पर इन्हें विरोध भी
झेलना पड़ रहा ह,ै इस कारण बीच में इनका उत्साह कुछ ढ़ीला
पड़ गया था।
१९९७ में `रोज़लिन रिसर्च इंस्टीट्यूट, स्कॉटलैंड में
कार्यरत विल्मट एवं साथी वैज्ञानिकों ने एक मादा भेड़ के
स्तन की कोशिका से उसकी हूबहू प्रतिकृति (क्लोन) के निर्माण
में पहली बार सफलता प्राप्त की। सामान्यत: प्राकृतिक रूप से
नए जीव की उत्पत्ति नर के शुक्राणु द्वारा नि:सेचन के बाद
मादा डिम्ब से ही होती है, फलत: उसमें नर एवं मादा दोनो के
ही गुण आते हैं, इस खबर ने सारी दुनिया में हलचल मचा दी और
वैज्ञानिकों में तरह-तरह के जीव-जन्तुओं की सामान्य शारीरिक
कोशिकाओं से प्रतिकृति बनने की होड़ सी लग गई। यहाँ तक कि
मानव-प्रतिकृति के निर्माण की दिशा में भी प्रयास होने लगेे।
इस खबर ने रेल्यिन्स को भी नया उत्साह दिया और इनके जनक
वरिलॉन ने एक रसायनिक अनुसंधानकर्ता डॉ ब़्रिगिट ब्वायज़लियर
की अध्यक्षता में `क्लोनेड' नामक कंपनी बना डाली, जहाँ
मानव-प्रतिकृति के निर्माण का कार्य तीव्र गति से परंतु
गुप-चुप चलने लगा। और ऐसा हो भी क्यों न? आखिर इस संदर्भ में
वरिलॅान को कुछ-कुछ ज्ञान याहवेह और इलोहिम द्वारा पच्चीस
साल पहले ही मिल चुका था। बीच-बीच में इस संबंध में किए जा
रहे प्रयासों की सूचना समाचार पत्रों में आती रही, परन्तु
इतनी जल्दी मानव-प्रतिकृति के निर्माण की सफलता की आशा किसी
को नहीं थी। कारण, इससे जुड़ी तकनीक अभी भी शैशव अवस्था मे
ही है। साथ ही साथ, मानव क्लोनिंग के समर्थकों को स्थापित
धार्मिक, सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों के समर्थकों के घोर
विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है।
लेकिन रेलियन आन्दोलन से जुड़ी ब्रिगिट ब्वायज़लियर ने हाल
ही में एक नहीं, दो नहीं, तीन बार मानव क्लोनिंग की सफलता के
दावे पेश कर सारी दुनिया को चौंका दिया। पहली घोषणा उन्हों
ने २७ दिसंबर २००२ को फ्लोरिडा के एक बीच रिसॉर्ट पर की। आप
ने बताया कि क्लेनड कंपनी ने एक अविवाहित महिला के त्वचा की
कोशिका के न्युक्लियस को उसके डिम्ब में प्रतिस्थापित कर
प्रथम मानव क्लोन के निर्माण में सफलता प्राप्त की है। दूसरी
घोषणा ४ जनवरी २००३ के दिन पुन: की गई। इस बार नीदर लैंड में
एक दंपति द्वारा उत्पन्न संतान को मानव क्लोन निर्माण की
प्रक्रिया का परिणाम बताया गया। इसी कंपनी ने ६ जनवरी २००३
को पुन: दावा किया कि तीन और मानव क्लोन जनवरी के अन्त तक
उत्पन्न हो जाएँगे।
अधिकतर वैज्ञानिक रेलियन्स के दावे पर कतई विश्वास नहीं
करते। कारण, घोषणा के अतिरिक्त इन लोगों ने कोई भी प्रमाण
नहीं उपलब्ध कराया है। यिद तथाकथित मानव क्लोन शिशु डी ए़न
ए़ ़़ प़रीक्षण के लिए उपलब्ध करा दिए गए होते तो क्लोनेड
कंपनी के दावे की पुष्टि अपने आप हो गई होती। रेलियन आंदोलन
के नेता श्री वरिलॉन एवं क्लोनेड की अध्यक्षा डॉ ब्वायज़लियर
प्रारंभ में तो इसके लिए तैयार थे, परन्तु बाद में मुकर गए।
कारण, इन शिशुओं को अदालत की सुरक्षा में देने का भय और उस
स्थिति में बच्चे से अलग होने पर माँ की मानसिक
त्रासदी...आदि।
चँूकि इन लोगों ने कोई प्रमाण नहीं दिया तो अब लोग कहने लगे
हैं कि यह सब सस्ती लेकप्रियता पाने के हथकंडे हैं।
अमेरिका स्थित ऑरेगॉन प्राइमेट रिसर्च इंस्टीट्ट की
वैज्ञानिक टॅन्ज़ा डॉमनिको का मानना है कि मानव क्लेनिंग अभी
संभव नहीं है। इन्होंने स्वयं चिम्पैजी सरीखे कई प्राइमेट्स
पर ३०० से भी अधिक प्रयोग किए, परन्तु उनके एक भी क्लोन की
उत्पत्ति में उन्हें सफलता नहीं मिली। वे ऐसे किसी भी दावे
पर एक मिनट के लिए भी विश्वास करने को तैयार नहीं हैं।
बाल्टीमोर स्थित जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के प्रजनन
विज्ञान के अथ्यक्ष दॉ बेरी ज़रकिन के अनुसार `मानव क्लोनिंग
की प्रक्रिया इतनी सरल है! यह मेरे ल्एि आश्चर्य की बात है'।
वहीं मिसौरी विश्वविद्यालय में प्रजनन जैवतकनॉलॉजी के
प्रोफेसर रन्डॉल प्रैथर की प्रतिक्रिया इन शब्दों में
है-``क्या मानव क्लोनिंग अभी संभव है? पालतू जीवों की
क्लोनिंग से संबंधित समस्याओं को क्या हमने देख -समझ लिया
है? यदि नहीं, तो हमें मानव क्लोनिंग नहीं करनी चाहिए।''
डॉली के जन्मदाता विल्मट के विचार भी कुछ इसी प्रकार के हैं।
परन्तु रेल्यिन्स को दुनिया के मानने या न मानने की ज्यादा
चिंता नहीं है और मानव प्रतिरूप बनाना ही इनका अंतिम ध्येय
भी नहीं है।यह तो इनके दृष्टिकोण को वास्तविकता का रूप देने
के रास्ते का प्रथम सोपान है। जैसा कि इनके प्रर्वतक वरिलॉन
साहब इलोहिम ग्रह पर देख-सुन आए थे-उन्हीं के समान मनुष्यों
को अमरत्व प्रदान करना इनका लक्ष्य है। बल्कि उससे भी आगे
बढ़ कर इलोहिम की तरह अन्य ग्रहों पर जाकर क्लोनिंग द्वारा
ये सृष्टिकर्ता बनने का स्वप्न देख रहे हैं।
पृथ्वी के हर प्राणी के लिए और कुछ निश्चित हो या न हो
मृत्यु तो निश्चित ही है। मनुष्य इनसे अलग नहीं है परन्तु वह
एक विचारशील प्राणी है। वह न तो बूढ़ा होना चाहता है और न ही
मरना। युवा बने रहना और अमरत्व प्राप्त करना इसकी आदिम इच्छा
है। देवताओं एवं दानवों द्वारा अमृत की खोज में समुद्र मंथन
और अमृत पान की कथा हमारे पुराणों में भी वर्णित है। अफसोस
... मनुष्य आज तक न तो अमृत खोज पाया और न ही उसे पी कर अमर
हो पाया। लेकिन उसकी इस जिजीविषा एवं खोजी पकृति ने उसे बहुत
कुछ दिया। डी एन ए की संरचना का ज्ञान, जेनेटिक इंजिनीयरिंग
और अब क्लोनिंग...संभवत: इस सदी क्या, पूरे मानव इतिहास में
नाभिकीय ऊर्जा की खोज के बाद सर्वोत्तम और बहुमूल्य खोज है।
इनके बल पर हम पृध्वी के जीवों मे मनचाहा परिवर्तन कर,
उन्हें और उपयोगी बना सकते हैं। यहाँ तक कि हम अपनी आने वाली
पीढ़ियों को तरह-तरह की बीमारियों से मुक्त कर संपूर्ण
स्वस्ध समाज की रचना भी कर सकते हैं। फिर भी अमरत्व प्राप्त
करना संभव नही है।
लेकिन नहीं, रेलियन्स के अनुसार ऐसा संभव है। क्लोनिंग
द्वारा किसी के भी शरीर की प्रतिकृति बनाई जा सकती है।
परन्तु ये प्रतिकृतियाँ केवल शारीरिक संरचना में ही मूल जीव
के समान होंगी, क्यों कि इनका विकास भी शुक्राणु द्वारा
नि:सेचित डिंब जैसे ही होगा और इन्हें भी भ्रूणीय विकास एवं
शारीरिक वृद्धि की प्रक्रिया से उसी प्रकार गुजरना होगा जैसा
किसी भी सामान्य जीव के साथ होता है अर्थात् इनका भी
बचपन,यौवन एवं बुढ़ापा आएगा। निश्चय ही इस जीवन यात्रा में
होने वाले अनुभव इनके नितांत अपने होंगे। यही नहीं, वातावरण,
खान-पान, शिक्षा-दीक्षा आदि का प्रभाव इन्हें मूल जीव से
भिन्न बना सकता है। किसी जीव की संपूर्ण प्रतिकृति के
निर्माण में, जो शरीर के साथ-साथ व्यक्तित्व में भी मूल जीव
के समान हो,़ यही सबसे बड़ी बाधा है।
रेलियन्स का विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसी तकनीकि का
विकास संभव है जिसके द्वारा वृद्ध या मृत्यु शय्या पर पड़े
मूल जीव के संस्मरण एवं अनुभव उसकी प्रतिकृति में
स्थानांतरित किया जा सके। जिस दिन ऐसा हुआ, मूल जीव, वृद्ध
शरीर की मृत्यु के बाद भी अपनी प्रतिकृति के रूप में
पुनर्जीवित हो कर, एक प्रकार से अमरत्व प्रप्त कर लेगा। यही
प्रक्रिया प्रतिरूप के साथ भी दुहराई जा सकती है और इस
प्रकार प्रतिरूपों की पीढ़ी दर पीढ़ी अपने संस्मरणों के
साथ-साथ मूल जीव के संस्मरणों को वहन करते हुए उसे एक प्रकार
से अमर बना देगी। ऐसी तकनीकि के विकास के पश्चात् हम करोड़ों
मील सुदूर ग्रहों की यात्रा अपनी प्रतिकृति के रूप में कर
सकेंगे और वहाँ पहुँच कर क्लोनिंग द्वारा नव जीवन के
सृष्टिकर्ता बनने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।
ऐसी तकनीकि का विकास तो अभी दूर की कौड़ी लगता है, परंतु
रेल्यिन्स का विश्वास है कि जब वे सुरक्षित दूतावास का
निर्माण कर इलेहिम को बुलाएँ गे तब उनकी सहायता से कुछ ही
समय में इसे विकसित किया जा सकता है।
नहीं मालूम, रेलियन्स का यह दिवा-स्वप्न कभी पूरा भी होगा या
नहीं। इस बात में भी शंका ही है कि इन्हें मानव क्लोन के
निर्माण में वास्तव में सफलता मिली है या ऐसी घोषणा केवल
सस्ते प्रचार के लिए की गई है। लेकिन यह तय है कि इनकी इस
घोषणा के बाद क्लोनिंग से जुड़ी वैज्ञानिक संस्थाओं में
होड़ लग जाएगी और तमाम विरोधों के बावज़ूद, निकट भविष्य में
कोई न कोई इस कार्य में सप्रमाण सफलता की घोषणा अवश्य करेगा।
तब तक दिल थाम कर इंतज़ार कीजिए और सोचते रहिए कि इन क्लोन्स
का सदुपयोग या दुस्र्पयोग आप कैसे करें गे!
डॉली रे डॉली
-डा गुरू दयाल प्रदीप
डाली रे डॉली, तू आई कहाँ से? क्यँू कर आई? तेरा इरादा क्या
है? क्या हश्र है तेरा? ़़़़़़़़़़़़़़़़ ़़ कहीं ऐसा तो
नहीं लग रहा है कि मैं आप सब को किसी नई हिंदी फिल्म के गाने
का मुखड़ा सुना कर बोर करने जा रहा हूँ? घबराइए नहीं, मेरे
पास और भी तरकीबें हैं बोर करने की। मसलन- राम-श्याम,
सीता-गीता सरीखे जुड़वाँ भाइयों या बहनों की फिल्मी कहानी या
फिर उससे भी आगे बढ़ कर आइ ए़स ज़ौहर वाली तीजे भाइयोें की
कहानी ।़ क्या मज़ाक है? भई, हम लोग परिपक्व और गंभीर पाठक
हैं।ऐसी घिसी-पिटी बेकार की कहानियाँ सुनाने का मतलब क्या है
? तो जनाब, मैं भी कोई ऐसा-वैसा लेखक नहीं हूँ और डॉली को ले
कर तो बिल्कुल नहीं ।
इनके बारे में सबसे पहला गंभीर सवाल यह है कि डॅाली मैडम हैं
कौन? औैर क्यों है इनका इतना नाम? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए,
दरअसल ये एक भेड़ की सुपुत्री हैं और इससे भी बड़ी बात उसकी
क्लोन हैं!और अब मैं यह कहूँ कि राम-श्याम, सीता -गीता सरीखे
जुड़वाँ भाई या बहनें भी एक दूसरे के क्लोन होते हैं तो
कृपया इसे मज़ाक न समझिएगा।इसके आगे चलें तो निम्न श्रेणी के
जीव-जन्तु, जैसे बैक्टिरिया, एक कोशीय जीव आदि, एक दूसरे के
ही नहीं,अपनी पिछली पीढ़ी के भी प्राय: क्लोन्स ही होते हैं।
अब तो मानव क्लोनिंग की बातें चल रही हैं।ये भी क्लोन्स, वो
भी क्लोन्स, तो फिर नई बात क्या है? क्येंा है इतना
हल्ला-गुल्ला, डॉली और इव जैसे तथाकथित मानव क्लोन्स को ले
कर? आइए, क्लोन्स और क्लोनिंग से जुड़े ऐसे अनेक प्रश्नों का
हल ढूँढने का प्रयास किया जाय।
किसी भी जीव की संरचना एवं कार्यकी के मूल में कोशिका होती
है। इन केाशिकाओं में स्वत: विभाजन की क्षमता होती है।
प्रजनन, भ्रूणीय विकास, वृद्धि आदि जैविक प्रक्रियाएँ कोशिका
विभाजन द्वारा ही संचालित होेेेेेती हैं। क्लोन्स एवं
क्लोनिंग को अच्छी तरह समझने के लिए कोशिका की संरचना तथा
विभाजन की प्रक्रिया का थोड़ा- बहुत ज्ञान आवश्यक है।
सामान्यत: कोशिकाओं के केंद्र मे छोटेे से गेंद के आकार का
एक केन्द्रक होता है, जिसके अंदर पतले धागेनुमा
`गुणसूत्र'ह्यच्हरेम्ेस्ेम्एस्हृ पाये जाते हैं। इन
गुणसूत्रों की संख्या प्रत्येक प्रजाति के लिए निश्चित होती
है, उदाहरण के ल्एि मानव की प्रत्येक कोशिका में ४६ ह्य२३
जोड़ेहृ तो चिम्पैंजी में ४८ह्य२४ जोड़ेहृ। ये गुणसूत्र
मुख्य रूप से एक विशेष रसायन `डीऑक्सी राइबोज़ न्युक्लिक
एसिड' ह्यडण्अहृ द्वारा निर्मित होते हैंं। डीएनए स्वयं में
एक जटिल रसायन है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा की जाएगी।
फिलहाल अभी मोटे तौर पर यही समझिए कि यह रस्सी की एक
घुमावदार सीढ़ी के समान होता है,जिसका एक भाग कोशिका के एक
गुण के लिए जिम्मेदार होता है तो दूसरा किसी अन्य गुण के
लिए। इन भागों को हम `जीन्स' के नाम से पुकार सकते हैं।
डीएनए का एक और विशेष गुण है, अपनी प्रतिकृति स्वयं निर्मित
कर लेने की क्षमता।
कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में सबसे पहले डीएनए की
प्रतिकृति का निर्माण होता है। इनके निर्माण का अर्थ है,
जीन्स की प्रतिकृतियों का निर्माण जो अन्तत: गुणसूत्रों की
प्रतिकृतियों के निर्माण के रूप में दिखाई पड़ता है। कोशिका
विभाजन के समय उपरोक्त गुणसूत्रों की एक-एक प्रति दोनों
निर्माणाधीन कोशिकाओं को मिलती है। इस प्रकार के कोशिका
विभाजन को `समसूत्री विभाजन'' कहते हैं।ज् ाब नवनिर्मित
कोशिकाओं में एक ही प्रकार के गुणसूत्र हैं तो उनमें जीन्स
भी एक ही प्रकार के होंगे और जब जीन्स एक प्रकार के हैं तो
निश्चय ही उनके अनुवांशिक गुण भी एक ही प्रकार के होंगे
अर्थात् संरचना एवं कार्यप्रणाली में जनक कोशिका से समानता
होगी।
बैक्टिरिया एवं अमीबा जैसे निम्न श्रेणी के एक कोशीय जीवों
में प्रजनन की प्रक्रिया सामान्यत: उपरोक्त तरीके से ही होती
है। इनकी सामान्य कोशिकाओं में गुणसूत्रों की एक-एक प्रति
ही होती है अर्थात् एक अनुवांशिक गुण के लिए एक ही जीन होता
है। फलत: इनमें प्रजनन की प्रक्रिया काफी सरल है। बस, जीन्स
और गुणसूत्रों की प्रतिकृति का निर्माण होते ही कोशिकाओं का
निर्माण भी हो जाता है और उन्हें गुणसूत्रों की एक-एक प्रति
मिल जाती है। प्रजनन की ऐसी प्रक्रिया को `अलैंगिक प्रजनन'
कहते हैं । जनक पीढ़ी से अनुवांशिक समानता होने के कारण नई
पीढ़ी के सदस्यों को उनकी प्रतिकृति ह्यच्ल्ेन्एस्हृ कहते
हैं।
अलैंगिक विधि से उत्पन्न संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी एक समान
होती हैं और यही इस विधि की सबसे बड़ी कमी है। विकास के लिए
भिन्नता का होना आवश्यक है। विभिन्नताओं के कारण ही
जीव-जन्तु पृथ्वी के सतत् परिवर्तनशील वातावरण के अनुरूप
स्वयं को ढालने में सक्षम होते हैं एवं खराब से खराब
परिस्थिति में भी कुछ सदस्यों के बच जाने की संभावना रहती
है, जो क्रमिक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहने में
सहायक होते हैं। यदि किसी प्रजाति की एक पीढ़ी के सभी सदस्य
एक जैसे हो जाएँ तो विपरीत परिस्थतियों में कोई नहीं बच
पाएगा और पूरी प्रजाति का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।
किसी भी प्रजाति की एक ही पीढ़ी के सदस्येंा में भिन्नता
बनाए रखने के लिए ही शायद प्रकृति ने `लैंगिक प्रजनन' का
प्रावधान किया है। निम्न श्रेणी के जीव भी यदा-कदा इस विधि
का सहारा लेते हैं परन्तु उच्च श्रेणी के बहु कोशीय जीवों
में लैंगिक प्रजनन की प्रक्रिया ही प्रमुख है। ऐसे जीवों की
सामान्य शारीरिक कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो
प्रतियाँ होती है अर्थात् प्रत्येक अनुवांशिक गुण के लिए
दो-दो जीन्स होते हैं , जिनका प्रभाव एक जैसा भी हो सकता है
अथवा भिन्न भी। लैंगिक प्रजनन के लिए कम से कम दो कोशिकाओं
की आवश्यकता होती है, जिनमें थोड़ी-बहुत भिन्नता अवश्य हो।
ऐसी कोशिकाओं को युग्मक ह्यगम्एतएस् हृकहते हंै, जिनका
निर्माण उच्च श्रेणी के बहुकोशीय जीवों के नर एवं मादा
जननांगों में अर्धसूत्रीय कोशिका विभाजन द्वारा होता है। इस
प्रकार के कोशिका विभाजन में सर्वप्रथम समान गुणसूत्रों की
प्रतियों में कुछ अंशों का आदान -प्रदान होता है। इसके
पश्चात् इन गुणसूत्रों की एक-एक प्रति निर्माणाधीन युग्मकों
को मिल जाती है। इस प्रकार नवनिर्मित युग्मकों में
गुणसूत्रों की संख्या सामान्य शारीरिक कोशिका की तुलना में
आधी होती है एवं प्रत्येक जीन की एक-एक प्रति ही होती है।
ऐसे दो युग्मक, जिनका निर्माण अलग-अलग नर एवं मादा जनांगों
में हुआ हो, आपस में मिल कर निषेचन ह्यफ्एरतििसलतेन्हृि
द्वारा युग्मनजह्यढय्ग्ेतएहृ का निर्माण करते हैं। निषेचन की
इस प्रक्रिया द्वारा युग्मनज में गुुणसूत्रोें की संख्या फिर
से शरीर की सामान्य कोशिकाओं के बराबर हो जाती है एवं साथ
ही साथ इसमें नर-मादा दोनों के गुणों का समावेश भी हो जाता
है।
वास्तव में बहुकोशीय जीवों की शारीरिक संरचना एवं कार्य की
काफी जटिल होती है और यह जटिलता इनके क्रमिक विकास के
साथ-साथ बढ़ती ही गई है।स्तनधारियों तक पहुँचते-पहुँचते तो
यह अत्यंत जटिल हो जाती है।कारण, इनका जीवन कोशिका तक ही
सीमित नहीं रहता।लैंगिक प्रजनन द्वारा निर्मित कोशिका
`युग्मनज', लगातार विभाजित होना प्रारंभ करती है।यह विभाजन
समसूत्रीय होता है अर्थात् नवनिर्मित कोशिकाएँ अनुवांशिक रूप
से समान होती हैं।विभाजन की यह प्रक्रिया युग्म को भ्रूणीय
विकास की ओर अग्रसित करती है,जो स्वयं में प्रकृति की एक
अद्भुत् एवं चमत्कारी घटना है।
विभाजित होती हुई कोशिकाओं में अचानक गतिशीलता आ जाती है और
वे भ्रूण के अन्दर विभिन्न स्तरों में संगठित होने लगती हैं।
यही नहीं, अनुवांशिक रूप से समानता होते हुए भी वे भ्रूणीय
विकास की विभिन्न दिशाओं में अग्रसित होने लगती हैं।यह
विभिन्नता, नाना प्रकार के ऊतकोंह्य टस्स्ुएिस्हृ के निर्माण
के रूप में परिलक्षित होता है। ये ऊतक,संरचना एवं कार्यकी के
आधार पर एक दूसरे से काफी भिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए
मांसपेशी बनाने वाले ऊतक में फैलने-सिकुड़ने का गुण होता है,
तो स्नायु तंत्र का निर्माण करने वाले ऊतक में कम वोल्टेज की
विद्युत तरंगों के रूप में सूचनाओं के संप्रेषण का गुण होता
है।
भ्रूणीय विकास के अगले क्रम में, इन ऊतकों को संगठित कर
विभिन्न अंगों का निर्माण होता है और अंत में अंग प्रणालियों
का। भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया पूर्ण होने के पश्चात् एक
शिशु का जन्म होता है, जो अपनी प्रजाति के परिपक्व सदस्य का
नन्हा परन्तु अपरिपक्व प्रतिरूप होता है। विकास की प्रक्रिया
शिशु के परिपक्व सदस्य का आकार पाने तक अबाधित रूप से चलती
रहती है, जिसे शारीरिक एवं मानसिक वृद्धि के रूपमें देखा जा
सकता है।
जीवों की इस संपूर्ण विकास यात्रा का संचालन एवं नियंत्रण,
इन कोशिकाओं के गुणसूत्रों पर स्थित जीन्स द्वारा ही होता
है। वास्तव में, जीवन की किसी भी अवस्था में शरीर की सभी
कोशिकाओं के सभी जीन्स एक साथ एवं समान रूप से सक्रिय नहीं
रहते। कोशिका की नियमित एवं महत्त्वपूर्ण जैविक कार्यकलापों
का नियंत्रण करने वाले जीन्स के समूह तो सभी कोशिकाओं में
जीवन पर्यंन्त सक्रिय रहते हैं परन्तु कोशिकाओं की संरचना
एवं कार्यकलापों में विशिष्ट परिवर्तन लाकर इन्हें ऊतक-विशेष
में परिवर्तित करने वाले जीन्स के समूह, जीवन की विशेष
अवस्था में ही सक्रिय होते हैं। इनकी सक्रियता-निष्क्रियता
कोशिका के आंतरिक एवं वाह्य वातावरण, कोशिका की आयूु, कोशिका
विभाजन की बारंबारता आदि पर निर्भर करती है। यही कारण है कि
भू्रणीय विकास के दौरान विभाजित होती हुई कोशिकाओं के
विभिन्न स्तरों में संगठित होने के पश्चात् ही कुछ कोशिकाओं
में जीन्स के वे समूह सक्रिय होते हैं जिनके द्वारा इनका
परिवर्तन मांसपेशीय ऊतक की कोशिकाओं में होने लगता है तो
कुछ अन्य कोशिकाओं में जीन्स के दूसरे समूह सक्रिय हो कर
उन्हें स्नायुतन्त्रीय ऊतक की कोशिकाओं में बदलने लगते हैं।
ऊतक कोशिकाओं के निर्माण के पश्चात् , ऊतकीय कोशिकाओं में
भी विभाजन की प्रक्रिया चलती रहती है। परन्तु इस विभाजन से
उस ऊतक विशेष की कोशिकाओं का ही निर्माण होता है अर्थात् इन
कोशिकाओं में जीन्स के वे समूह निष्क्रिय हो जाते हैं जिनसे
अन्य प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण संभव है। भ्रूणीय
विकास के प्रारंभिक काल में इन ऊतकीय कोशिकाओं से अन्य
प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण परिस्थिति विश्ेाष में
संभव भी है परन्तु समय के साथ-साथ इन कोशिकाओं की यह क्षमता
क्षीण होते-होते लगभग समाप्त हो जाती है। एक पूर्ण विकसित
जीव की सामान्य ऊतकीय कोशिका से अन्य प्रकार की ऊतकीय
कोशिकाओं का विकास प्राकृतिक रूप से संभव नहीं है। ऐसा
प्रतीत होता है कि जीव की आयु के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के
ऊतकों की कोशिकाओं के केन्द्रक भी समयबद्ध योजना के
अन्तर्गत वृद्ध होते जाते हैं और धीरे-धीरे उनमें ऐसे
जीन-समूहों को सक्रिय करना संभव नहीं होता जिससे अन्य प्रकार
की ऊतकीय कािशीकाओं का विकास हो सके। ऐसी कोशिकाओं से नए
जीव का विकास तो बिल्कुल असंभव है। जननांगों की कोशिकाएँ
अपवाद हैं।
जननांगों की कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन द्वारा युग्मकों का
निर्माण करती हंै, जिनके निषेचन से युग्मनज का निर्माण संभव
है। इन युग्मनजों के केन्द्रकों के जीन्स में पुन: यह क्षमता
आ जाती है जिससे भ्रूणीय विकास के दौरान विभिन्न प्रकार की
ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण होता है और अन्तत: नए जीव का।
हम मनुष्य खोजी प्रकृति के जीव हंै। प्रकृति में जिसका
प्रवधान न हो, उसे कर दिखाने में हमें जो आनंद और संतोष
मिलता है, वह अवर्णनीय है। विशेषकर तब, जब उसमें हमारा भला
हो। क्या हम अपनी त्वचा अथवा मांसपेशी की कोशिका से सन्तान
उत्पन्न कर सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर पाने की दिशा में
रॉबर्ट ब्रिग्स एवं थॉमस किंग द्वारा अफ्रीकन मेढक के
अनिषेचित डिंब ह्यमादा युग्मकहृ में केन्द्रक प्रतिरोपण का
प्रयोग उल्लेखनीय है।
सर्वप्रथम, मेढक के अनिषेचित डिंब से उसके अर्ध गुणसूत्री
केन्द्रक को निकाल कर नष्ट कर दिया गया। तत्पश्चात्, मेंढक
के ही भ्रूणीय विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजर रही
कोशिकाओं से दि्वगुणसूत्री केन्द्रकों को निकाल कर केन्द्रक
रहित अनिषेचित डिंबों में प्रतिरोपित किया गया। ऐसे
प्रतिरोपित केन्द्र्रक वाले डिंब भी भ्रूणीय विकास की ओर
अग्रसित हुए। जिन डिंबों में भ्रूणीय विकास की प्रारंभिक
अवस्था की कोशिका का केन्द्रक प्रतिरोपित किया गया था, वे तो
विकसित हो कर भ्रूणीय विकास की अगली अवस्था `टैडपोल' तक
पहुँच गए परन्तु जिनमें भ्रूणीय विकास की बाद की अवस्थाओं
वाली कोशिकाओं के केन्द्रक प्रतिरोपित किए गए थे, उनका
भ्रूणीय विकास नहीं हो पाया। एक बात और-इन प्रयोगों एवं उन
भ्रूणों ह्य जिनकी प्रारंभिक अवस्था की कुछ कोशिकाओं से
केन्द्रकों को निकाल कर अनिषेचित डिंब में प्रतिरोपित किया
गया थाहृे से उत्पन्न `टैडपोल', अनुवांशिक रूप से समान थे
अर्थात् एक दूसरे के क्लोन्स। क्लोनिंग की दिशा में संभवत:
यह पहला प्रयोग था।
ऐसे प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि अर्धसूत्री
युग्मकों एवं उनके निषेचन से निर्मित युग्मनजों के अतिरिक्त,
सामान्य कोशिका के केन्द्रक को मादा युग्मक `डिंब' में
प्रतिरोपित कर, नए जीव का निर्माण संभव है।बशर्ते ये
केन्द्रक,उस जीव के भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था की कोशिकाओं
से ही लिए गए हों, ऊतकीय विकास या उसके बाद की अवस्था से
नहीं।एक परिपूर्ण विकसित जीव की कोशिकाओं के केन्द्रक से यह
कार्य लगभग असंभव है।
लेकिन नहीं,इस असंभव को संभव कर दिखााया रोज़लिन रिसर्च
इंस्टि्यूट,स्कॉटलैंड में कार्यरत आयन विल्मट और उनके
साथियों ने। इन लोगों ने मादा भेड़ के स्तन की कोशिका को अलग
कर पोषण- तत्वों रहित `कृत्रिम कल्चर माध्यम' में जीवित रखने
में सफालता पाई। पोषण तत्वों के अभाव में इन भूखी कोशिकाओं
के समसूत्री विभाजन की प्रक्रिया पूरी तरह स्र्क गई और इनमें
सक्रिय जीन्स निष्क्रिय हो गए। इसी बीच एक अन्य मादा भेड़ के
अंडाशय से एक अनिषेचित डिंब को निकाल कर अलग किया गया।
तत्पश्चात्, एक अति सूक्ष्म पिपेट द्वारा इस डिंब के
अर्धसूत्री केन्द्रक को चूस कर निकाल दिया गया। अब डिंब के
वास्तविक केंन्द्रक के स्थान पर स्तन से प्राप्त भूखी कोशिका
के केन्द्रक को प्रतिरोपित किया गया। प्रतिरोपण की प्रक्रिया
को सफलता पूर्वक प्रतिपादित करने के लिए क्षीण विद्युत
तरंगों का उपयोग किया गया था। इस प्रकार की प्रतिरोपण
प्रक्रिया से प्राप्त डिंबों को लगभग छ: दिनों तक
पोषण-तत्वों युक्त कृत्रिम कल्चर माध्यम में रखा गया, जहाँ
इनमें भूणीय विकास की क्रिया प्रारंभ हो गई। विकसित हो रहे
इन भ्रूणों में से एक को किसी अन्य मादा भेड़ के गर्भाशय में
प्रतिस्थापित किया गया, जहाँ इसका विकास सामान्य भ्रूण के
समान हुआ और अन्तत: एक मादा शिशु भेड़ ने जन्म लिया। इसका
नाम डॉली रखा गया। डॉली अनुवांशिक रूप से उस मादा भेड़ की
प्रतिकृति थी, जिसके स्तन की कोशिका के केन्द्रक का
प्रतिरोपण डिंब में किया गया था।
इसके पश्चात् तो क्लोनिंग से संबंधित प्रयोगों की होड़ लग
गई। जापान के वैज्ञानिकों ने एक अलग विधि द्वारा गाय के एक
ही निषेचित डिंब से आठ बछड़ों को जन्म देने में सफलता पाई
है। इस विधि में निषेचित डिंब को गाय के गर्भाशय में ही
प्र्रारंभिक भ्रूणीय विकास करने दिया गया। जब यह भ्रूण आठ
कोशिकाओं की अवस्था में पहुँचा तब इसे गर्भाशय से निकाल
लिया गया एवं एन्ज़ाइम की सहायता से इनकी आठों कोशिकाओं को
अलग-अलग कर कृत्रिम कल्चर माध्यम में रखा गया। कुछ समय बाद
इन आठों कोशिकाओं को अलग-अलग गायों के गर्भाशय में
प्रतिस्थापित कर दिया गया, जहाँ इनका विकास सामान्य भ्रूण के
समान हुआ और अन्तत: आठ प्रतिकृति बछड़ों का जन्म संभव हो
पाया।अब तो मानव क्लोन्ंािग की बातें चल रही हैं।
उपरोक्त विधियाँ पढ़ने-सुनने में जितनी सरल प्रतीत हो रही
हंै, वास्तव में ये उतनी ही कठिन हैं। इसके अत्यंत जटिल
तकनीकीय पक्ष भी हैं, जिनके कारण ऐसे प्रयोगों में प्र्राय:
असफलता ही मिलती है।सफल रूप से उत्पन्न क्लोन्स भी अपनी जीवन
यात्रा में अक्सर शारीरिक एवं कार्यकीय विकृति के शिकार हो
जा जाते हैं। डॉली असमय ही बूढ़ी होने लगी है। क्लोनिंग की
तकनीकि अभी भी शैशव अवस्था में ही है।
आखिर हम क्लोनिंग के पीछे पडे ही क्यों है? इससे हमें लाभ
क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर विस्तार से फिर कभी खोजा
जाएगा। फिलहाल,एक-आध उदाहरण से आशा है काम चल जाए गा। यथा,
इस विधि द्वारा प्राकृतिक रूप से संतान उत्पन्न करने में
असक्षम दंपति अपने ही शरीर की किसी सामान्य कोशिका से संतान
उत्पन्न कर संतति-सुख भोग सकते हैं अथवा विवाह की अनिच्छुक
महिलाएँ भी अपना क्लोन उत्पन्न कर संतान-सुख का आनंद उठा
सकती हैं। ध्यान रहे , ऐसा केवल महिलाओं के संदर्भ में ही
संभव है। अफसोस, पुस्र्षों को अपना क्लोन उत्पन्न करने के
लिए एक अदद महिला की आवश्यकता निश्चय ही होगी।आखिर, पुस्र्ष
शरीर की कोशिका से प्राप्त केन्द्रक को महिला के डिंब में ही
प्रतिरोपित किया जा सकता है एवं इस प्रतिरोपित डिंब से संतान
उत्पत्ति के लिए भी उसे महिला के गर्भाशय में ही
प्रतिस्थापित करना पड़े गा। महिलाओं को भी अभी इतना खुश
होने की आवश्यकता नहीं है, क्यों कि प्रमाणिक रूप से अभी तक
मानव क्लोनिंग नहीं हो पाई है और न तो हम अभी इनसे जुड़े
तकनीकीय एवं सामाजिक गुत्थियों को सुलझा पाए हैं।
चलते-चलाते यह भी बता दिया जाए कि एक समान दीखने वाले
जुड़वाँ भाई या बहनें क्लोन्स किस प्रकार हैं? प्राकृतिक रूप
से सामान्य परिस्थिति में एक निषेचित डिंब से एक ही भ्रूण का
विकास होता है परंतु कभी-कभी अपवाद स्वस्र्प या दुर्घटनावश
निषेचित डिंब से भ्रूणीय विकास के दौरान प्रथम विभाजन द्वारा
निर्मित दोनों कोशिकाएँ एक दूसरे से अलग हो जाती हैं एवं
उनका विकास दो अलग-अलग भ्रूणों के रूप में एक साथ होता है।
एक ही निषेचित डिंब से निर्मित होने के कारण येे दोनों भ्रूण
अनुवांशिक रूप से समान होते हैं। दोनों भ्रूणों का लिंग भी
एक ही होता है, फलत: इनका जन्म जुड़वाँ भाइयों या बहनों के
रूप में होता है और ये एक दूसरे की शतप्रतिशत प्रतिकृति ह्य
छल्ेन्एस्हृ होते हंै।
टिप्पणी: कुछ दिनों पूर्व डॉली को मौत की नींद सुला दिया
गया।वास्तव में वह विगत कुछ समय से फेफड़े की बीमारी से
ग्रसित थी। यह बीमारी भेड़ों में सामान्य है। इस बीमारी से
हो रही असहनीय पीड़ा के कारण वैज्ञानिक उपरोक्त निर्णय लेने
के लिए बाध्य हुए। उपरोक्त आलेख डॉली की मृत्यु के कुछ दिन
पूर्व लिखा गया था।
आतंक के चरम संसाधन:
जैविक एवं रासायनिक हथियार
हमारे लिए न तो युद्ध कोई नया शब्द है और न ही आतंकवाद।
संभवत: मानव समाज के प्रादुर्भाव एवं विभिन्न सभ्यताओं के
विकास तथा विनाश के लगभग हर पन्ने पर इनकी मुहर लगी हुई है।
यहाँ तक कि मानवता, प्रेम, शांति एवं ईश्वर में विश्वास
जगाने वाले अधिकतर धर्मावलंबियों और इनके ठेकेदारों ने भी
अपने-अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समय-समय पर इनका
सहारा लेने में परहेज नहीं किया। इनके तौर-तरीके और
परिभाषाएँ भले बदलती रही हों परंतु मूल उद्देश्य एक ही रहा है
- किस प्रकार हम दूसरों पर विजय प्राप्त करें, कैसे उन पर
शासन करें एवं उन्हें अपने अनुसार जीने के लिए मजबूर करें।
इस तथाकथित विजय की लालसा ने हमें हर युग में युद्ध के नए-नए
संसाधनों की खोज में लगाए रखा - शारीरिक युद्ध-कौशल में
दक्षता, तीर-धनुष, तलवार, भाले-बर्छी, गोली-बंदूक,
तोप-बारूद, बम आदि स्थितियों को पार करते हुए आज हम आणविक
हथियारों एवं प्रक्षेपास्त्रों के ढेर पर खड़े हो कर अपने ही
सर्वनाश को न्योता दे रहे हैं। इनसे भी जी नहीं भरा तो इस
दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए अब हम सर्वनाशी जैविक एवं
रासायनिक हथियारों की खोज में जुटे हुए हैं। इन हथियारों की
सहायता से हजारों-लाखों लोगों को पल भर में मौत की नींद
सुलाया जा सकता है या फिर तरह-तरह की बीमारियों के चपेट मंे
ला कर घिसट-घिसट कर जीने-मरने के लिए बाध्य किया जा सकता है
और वह भी बिना उनकी पूर्व जानकारी के। जब तक लोगों को इस
प्र्रकार के आक्रमण की जानकारी होगी तब तक संभवत: बहुत देर
हो चुकी होगी। कैसी विडंबना है कि जो राष्ट्र इनकी खोज में
सबसे आगे-आगे दौड़ रहे हैं वही आज सबसे अधिक डरे हुए हैं कि
कहीं कोई तथाकथित गैरजिम्मेदार राष्ट्र या आतंकवादी गिरोह
ऐसे हथियारों को न विकसित कर ले अथवा कहीं से इन्हें हथिया न
ले।
खाड़ी युद्ध के समय अमेरिका जैसी महाशक्ति को इराक के
तथाकथित जैविक एवं रासायनिक हथियारों का डर सबसे ज्यादा सता
रहा था क्यों कि उनकी खुफिया तंत्र की जानकारी के अन्ुासार
इराक ने ऐसे हथियारों के संबंध मे विस्तृत अनुसंधान किया है
और इनको बड़ी मात्रा मंे जमा कर रखा है। हाँलाकि उस यद्ध में
उनका भय निराधार साबित हुआ। पिछले वर्ष ११ सितंबर को वर्ड
ट्रेड सेंटर पर आतंकवादियों द्वारा हमले के बाद जैविक एवं
रासायनिक हथियारों के हमले का डर अमेरिका को एक बार फिर से
सताने लगा। उसे सबसे बड़ा डर इराक जैसे देशों से था क्यों कि
उसका मानना था कि ये देश आतंकवादियों को शरण देते हैं और
उन्हें ऐसे हथियार भी दे सकते हैं या फिर स्वयं इनका
दुस्र्पयोग कर सकते हैं। इसी भय के कारण हाल ही में इराक पर
आक्रमण भी किया गया और ऐसे हथियारों की खोज वहाँ आज भी चल
रही है, जिसमंे फिलहाल कोई उल्लेखनीय सफलता नही मिली है।
क्या हैं ये हथियार, कैसे काम करते हैं ये और क्यों लोग डरे
हुए हैं इनसे? आइए, हम इन पर खोज परक दृष्टि डालें।
सबसे पहले, रासायनिक हथियार के रूप में क्लोरीन गैस का
दुस्र्पयोग जर्मनी ने प्रथम विश्व युद्ध के समय प्रभावी रूप
से किया था। यह गैस आसानी से किसी भी फैक्टरी में साधारण नमक
की सहायता से बनाई जा सकती है एवं इसका दुष्प्रभाव सीधा
फेफडे पर पड़ता है। यह गैस फेफड़े के ऊतकों को जलाकर नष्ट
करती है। जर्मनी ने इस गैस की कई टन मात्रा को वायुमंडल में
छोड़ कर एक प्रकार के कृत्रिम बादल के निर्माण में सफलता
प्राप्त की एवं हवा के बहाव के साथ इसे वे दुश्मन की ओर
भेजने में सफल हुए। इस गैस की भयावह मारक क्षमता को ध्यान
में रख कर १९२५ में इस जैसे किसी भी विषैले रसायन तथा
बीमारियाँ फैलाने वाले जीवाणु को हथियार के रूप में
दुस्र्पयोग को प्रतिबंधित करने के लिए एक संधि पर विश्व के
अधिकांश देशो ने हस्ताक्षर किए। फिर भी इस संबंध में
चोरी-छुपे अनुसंधान-कार्य चलते रहे ताकि इनका उपयोग और भी
प्रभावी एवं नियंत्रित रूप से किया जा सके। द्वितीय विश्व
युद्ध के समय जर्मनी में हिटलर के कुख्यात गैस-चैम्बर्स से
भला कौन अनजान है?
आज-कल वैज्ञानिकों का ध्यान कीट-नाशक दवाओं में पाए जाने
वाले बहुतेरे विषैले रसायनों को और भी प्रभावी हथियार के रूप
में इस्तेमाल करने पर है। इन रसायनों के दुष्प्रभाव की
भयावहता का अनुमान हम भोपाल स्थित कीट-नाशक दवाएँ बनाने वाली
कार्बाइड फैक्टरी में दुर्घटनावश २ दिसंबर १९८४ के दिन
फॉस्ज़ीन एवं मेथिल आइसो साइनेट के रिसाव से लगा सकते हैं ।
कुछ ही पलों में हजारों की जानें सोते सोते ही चली गइंर्ं और
लाखों आज भी इसके दुष्प्रभाव को झेल रहे हैं। छोटे पैमाने पर
१९९५ में ऑम सिन्रिक्यू नामक आतंकवादी संस्था के लोगों ने
टोकियो शहर के एक सब-वे में `सेरिन' नामक स्नायु-तंत्र को
प्रभावित करने वाली गैस का रिसाव कर हजारों लोगों को पल भर
में घायल कर दिया और बारह लोगों को मौत की नींद सुला दिया।
कहा जाता है कि सद्दाम हुसैन के सिपहसालारों ने इराक में
कुर्दों के विद्र्रोह को दबाने के लिए संभवत: ऐसे ही किसी
रासायनिक हथियार का उपयोग कर हजारों कुर्दों को मौत की नींद
सुला दिया।
स्नायु -तंत्र की कोशिकाएँ सूचना-संप्रेषण के लिए
`एसिटिलकोलीन' नामक रसायन का स्राव करती हैं। मांसपेशियों का
संकुचन भी स्नायु-तंत्र की सूचना संप्रेषण प्रणाली पर ही
निर्भर करता है। यदि स्नायु-तंत्र की कोशिकाओं से
एसिटिलकोलीन को न हटाया जाय तो हमारे शरीर की मांसप्रशियाँ
अनियंत्रित रूप से लगातार संकुचित होने लगेंगी। और यदि ऐसा
वक्ष एवं उदर को अलग करने वाले डायाफ्राम की मांसपेशियों के
साथ हुआ तो व्यक्ति घुट कर मर जाएगा। एसिटिलकोलीन को
स्नायु-तंत्र की कोशिकाओं से हटाने के लिए 'कोलीनस्टरेज़'
नामक एन्ज़ाइम की आवश्यकता पड़ती है। `सेरिन' एवं `वीएक्स'
जैसी जहरीलाी गैसें उपरोक्त एन्ज़ाइम से प्रतिक्रिया कर उनके
एसिटिलकोलीन को हटाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करती हैं,
परिणाम स्वरूप पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु कुछ ही पलों में दम
घुटने से हो जाती है। हमारे फेफड़ों में उपरोक्त गैसों की एक
मिली ग्राम की मात्रा ही जीवनलीला समाप्त करने के लिए
पर्याप्त है।
मस्टर्ड एवं लेविसाइट जैसी गैसों का दुष्प्रभाव त्वचा पर
छाले एवं फेफड़े के ऊतकों के विनाश के रूप में देखा जा सकता
है। मस्टर्ड गैस का चलन तो प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही
है। इसकी दस मिली ग्राम की मात्रा ही मृत्यु के लिए पर्याप्त
है।
वैसे तो बहुत से विषैले रसायन हैं जिनका दुस्र्पयोग रासायनिक
हथियारों के रूप में हो सकता है, परंतु उपरोक्त रसायन
सर्वाधिक भय उत्पन्न करने वाले हंै।
रही बात जैविक हथियारों की, तो आइए हम उन पर भी दृष्टिपात
करें:
अधिकांश बीमारियों की जड़ में जीवाणु होते हैं, यह बात बहुत
पहले से सर्वविदित है। इतिहास साक्षी है कि एंटीबायोटिक्स
एवं इसी प्रकार की अन्य औषधियों की खोज के पहले प्लेग तथा
हैजे जैसी महामारी ने सैकड़ांे-हजारों की संख्या में लोगों
की जान ली है और आज भी हम एड्स, कैसर तथा सार्स जैसी
बीमारियों से मुक्ति का रास्ता तलाशने में लगे हुए हैं। यह
कैसी विडंबना है कि दूसरी ओर हम इन्ही जीवाणुओं को हथियार
के रूप इस्तेमाल कर हजारों -लाखों की जान लेने के चक्कर में
भी पड़े हुए हैं। यह स्थिति न्युक्लियर एवं रासायनिक
हथियारों के दस्र्पयोग से भी खतरनाक है। कारण, इनका उपयोग
किसी शत्रु देश ने कब किया, यही पता करना मुश्किल होगा तो
भला हम उनसे लड़ेंगे कैसे। और यदि किसी तरह इनके बारे में
पता भी कर लें भी कोई लाभ नही होने वाला है। कारण, ये कोई
रोग फैलाने वाले सामान्य जीवाणु तो होंगे नहीं, बल्कि इनके
जेनेटिकली परिमार्जित रूप होंगे, जिनके विस्र्द्ध सामान्य
एंटीबायाटिक्स काम नही कर पाएँगे। जब तक हम इनके विस्र्द्ध
कारगर औषधि की खोज करेंगेे तब तक संभवत: बहुत देर हो चुकी
होगी और शायद संपूर्ण मानव जाति ही विनाश के कगार पर पहुँच
चुकी होगी।
ऐसे जैविक हथियारों से आक्रमण के लिए किसी अत्याधुनिक एवं
मँहगे साधन की आवश्यकता नही होगी। इन्हें तो बस छोटे-मोटे
जानवरों, पक्षियों, हवा, पानी, मनुष्य आदि किसी भी साधन
द्वारा फैलाया जा सकता है। सार्स को फैलाने में मानव किस
प्रकार साधन का कार्य कर रहा है-यह इस प्रक्रिया का ज्वलंत
उदाहरण है। यदि हम मानव-मल या फिर जानवरों के मल से बनी खाद
को कुओं, तालाबों, पानी की टंकियों मे मिला दें तो इस पानी
को अंजाने पीने वाले तरह-तरह की खतरनाक एवं जानलेवा
बीमारियों के शिकार हो जाएँगे क्यों कि खाद में तरह-तरह के
खतरनाक एवं जानलेवा जीवाणु पलते हैं।
उपरोक्त उदाहरण जैविक हथियार के इस्तेमाल का सबसे सस्ता
परंतु भौंड़ा तरीका है।
अब जरा कुछ ऐसे उदाहारणों पर ध्यान दिया जाय जो वास्तव में
खतारनाक हैं और लोग जिनसे सबसे अधिक डरते हैं।
ऐन्थ्रैक्स फैलाने वाला `बैसिलस ऐन्थ्रैसिस' नामक बैक्टिरिया
को जैविक हथियार के रूप में आसानी से प्रयुक्त किया जा सकता
है। हाँलाकि यह बैक्टिरिया संक्रामक नहीं है और मुख्य रूप से
जानवरों में फैलता है, फिर भी खाने-पीने से ल्ेा कर सांस के
साथ इसके स्पोर हमारे शरीर में पहुँच कर अंकुरित हो सकते
हैं। यहाँ तक कि हमारी त्वचा में भी यदि कोई घाव है तो वहाँ
भी ये अंकुरित हो सकते हैं और कुछ ही समय में इस बीमारी के
जानलेवा लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं।
सांस के साथ हमारे शरीर में आए स्पोर्स सात से दस दिन के
अंदर अम्कुरित हो कर बीमारी के लक्षण दिखाने लगते हैं।
बुखार, खांसी, सरदर्द, उल्टी, जाड़ा, कमजोरी, पेट और सीने
में दर्द, सांस लेने में परेशानी आदि इसके प्रारंभिक लक्षण
हैं, जो कुछ घंटे से लेकर कुछ दिन तक रहते हैं। फिर ये लक्षण
कुछ समय के लिए गायब भी हो सकते हैं। दूसरी बार इनके लक्षण
सांस की तकलीफ, पसीने के साथ बुखार के अतिरिक्त त्वचा पर
नीले धब्बों के साथ अंतत: मृत्यु के रूप में प्रकट होते हैं।
खाने-पीने के साथ एंथ्रैक्स के स्पोर्स हमारे आहार नाल मे
पहुँच कर मितली, खूनी उल्टी, खूनी दस्त, पेट दर्द आदि के
लक्षण उत्पन्न करते हैं। २५ से ६० प्रतिशत लोगों की मृत्यु
भी हो जाती है। त्वचा पर इसका प्रभाव छोटे-छोटे उभारों के
रूप में दीखता है जो शीघ्र ही फोड़े का रूप ले लेता है जिससे
पानी के समान पतला पीव बहता रहता है।
प्रारंभिक लक्षणों के समय इसका निदान सिप्रोफ्लॉक्सेसिन नामक
एंटीबॉयोटिक द्वारा किया जा सकता है परंतु बाद में केवल इस
बैक्टिरिया को नष्ट किया जा सकता है, इस बीमारी के लक्षणों
को नहीं।
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद आतंकवादियों ने इस
बैक्टिरिया के स्पोर्स को पाउडर के रूप में पोस्ट द्वारा
फैलाने का प्रयास किया जिससे अमेरिका के लोग काफी आतंकित हो
गए थे।
स्माल पॉक्स जिसे हम चेचक के नाम से भी जानते हैं, सदियों से
एक जानलेवा बीमारी के रूप मे कुख्यात रही है। इसकी चपेट मे
आकर लाखों अपनी जान गँवा बैठे और उससे भी कई गुना अधिक लोग
अपनी आँखें गँवा चुके । कितने तो चेहरे और शरीर पर स्थाई रूप
से भयानक दाग के साथ कुरूपता का जीवन बिताने के लिए बाध्य
हुए। उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी में वैरियोला नामक वाइरस
द्वारा फैलने वाली इस बीमारी से वैक्सिनेशन की सहायता से
पूरे संसार को मुक्ति मिल गई। १९७५ के बाद इस बीमारी का कोई
भी मरीज सामने नहीं आया है फिर भी लोगों को भय है कि कहीं
कोई आतंकवादी गिरोह अथवा कोई सिरफिरा तानाशाह इस वाइरस के
किसी जेनेटिकली परिमार्जित रूप का इस्तेमाल कभी जैविक हथियार
की तरह न कर दे।
इसी प्रकार हीमोरेजिक बुखार उत्पन्न करने वाला आरएनए प्रकार
का इबोला वाइरस भी जैविक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जा
सकता है। इस वाइरस से ग्रसित रोगी की पहचान सबसे पहले १९७५
में डेमोक्रे्रटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में हुई थी। इसके
संक्रमण का प्रभाव २ से २१ दिनों के अंदर अचानक दीखता है।
बुखार, सरदर्द, जोड़ों एवं मांसपेशियों में दर्द आदि इसके
प्रारंभिक ल््राक्षण हैं। बाद में दस्त, उल्टी एवं पेट दर्द
के लक्षण भी उत्पन्न होते हैं। कुछ रोगियों में त्वचा पर
ददोरे, लाल आँखें तथा वाह्य एवं आंतरिक रक्तश्राव आदि लक्षण
भी देखने को मिलते हैं। इस बीमारी से कुछ रोगी स्वत: ठीक हो
जाते हैं तो कई मर भी जाते हैं।
बॉट्युलिन बैक्टिरिया द्वारा उत्पन्न विष के एक ग्राम का
अरबवाँ हिस्सा ही हमारे शरीर में लकवा उत्पन्न करने के लिए
पर्याप्त है। यह विष स्नायु कोशिकाओं से उन रसायनों का
स्राव रोक देता है जिनके द्वारा मांसपेशियों का संकुचन होता
है। जानवरों में खुरपका बीमारी फैलाने वाला बैक्टिरिया भी
जैविक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।
इन रासायनिक एवं जैविक हथियारों के आक्रमण से बचने के हमारे
पास क्या उपाय हैं, अब जरा इस बात पर भी ध्यान देने की
आवश्यकता है। जहाँ तक रासायनिक हथियारों के आक्र्रमण से बचने
का प्रश्न है, वास्तव में हमारे पास कोई ठोस एवं कारगर उपाय
नहीं है। युद्ध क्षेत्र में सैनिक गैस मास्क एवं त्वचा को
पूरी तरह ढकने वाले सूट पहन कर अपना बचाव कुछ सीमा तक कर
पाएँ गे। उपरोक्त परिधान के अतिरिक्त नाना प्रकार के वैक्सिन
तथा विभिन्न प्रकार की एंटीबायोटिक्स की भारी खुराक जैविक
हथियारों के आक्रमण भी से बचाव में सभंवत: सहायक सिद्ध हो
सकती है। परंतु किसी देश की सारी जनता, विशेष कर गरीब एवं
विकासशील या अविकसित देश की जनता, अपना बचाव कैसे कर पाएगी?
क्या वह देश सुरक्षा के उपरोक्त उपायों का खर्च वहन कर
पाएगा? चलिए, एक क्षण के लिए मान भी लिया जाए कि ऐसा संभव है
तो क्या उपरोक्त उपाय पर्याप्त होंगे? नहीं, कदापि नहीं।
रसायनों के नए प्रकार एवं जीवाणुओं की नई जेनेटिकली
परिमार्जित किस्म बड़ी आसानी से उपरोक्त सुरक्षा उपायों को
भेद सकती है। और यही कारण है उन रासायनिक एवं जैविक हथियारों
से डरने का।
फिलहाल हम केवल प्रार्थना ही कर सकते है कि ईश्वर मनुष्य को
सद्बुद्धि दे और उसे ऐसा करने से रोके।
जैैविक घड़ी: जीवन की नियामक
-डा गुरू दयाल प्रदीप
काल यानी समय भला कोई है जो इसके चक्र से अछूता हो?
सजीव-निर्जीव सभी इससे बँधे हैं। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे
सूक्ष्म कण से लेकर ग्रह, तारे य़हाँ तक कि संपूर्ण
ब्रह्मांड की गतिविधि का नियामक है, यह समय। तो जनाब, हम-आप
जैसे जीव-जंतु ही इसके प्रभाव से दूर कैसे रह सकते हैं? ऐसा
प्रतीत होता है कि असमय एवं अचानक होने वाली घटनाएँ भी समय
के बंधन से मुक्त नहीं हैं।
संभवत: इसी लिए हमारे पूर्वजों ने सभ्यता के विकास के
प्रारंभ में ही समय के महत्व को समझ लिया था। घड़ी के
आविष्कार के पूर्व भी समय को भूत, भविष्य एवं वर्तमान;
दिन-रात; प्रात:काल, मध्यकाल, संध्याकाल; क्षण, प्रहर आदि
में बाँट कर सोने-जगने, खाने-पीने, काम-आराम, मनोरंजन आदि
सभी क्रिया-कलापों को समय-बद्ध तरीके से करने पर बल दिया
गया। सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों एवं नक्षत्रों की गतिविधियों
द्वारा समय का हिसाब-किताब रखने का प्रयास किया गया। फिर
आयीं घड़ियाँ और उनके साथ आया सेकोंडों, मिनटों एवं घंटों का
हिसाब। शायद यह भी पर्याप्त नहीं था, तो अब आइंर्
इलेक्ट्रॉनिक क्वार्टज़ घड़ियाँ, जो हमें समय के सेकेंड से
भी कई गुना छोटे हिस्से का ज्ञान कराती हैं और हम अपनी
दिनचर्या इसके अन्ुारूप ढालने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज की
व्यस्त जीवन शैली में जिस किसी से कुछ पूछो तो बस एक ही
उत्तर मिलता है- `मेरे पास समय नहीं है'। शायद ऐसा कहना आजकल
फैशन और प्रतिष्ठा का पर्याय हो गया है। तभी तो एक निठल्ला
भी ऐसा कहने में नहीं चूकता। इस भागम-भाग में लोगों की अपनी
`जैविक घड़ी' भी गड़बड़ाती जा रही है। परिणाम-अनिद्र्रा,
उद्विग्नता, हृदय एवं तरह-तरह के मानसिक रोग!
कलाई - घड़ी, दीवाल- घड़ी, इलेक्ट्रॉनिक - घड़ी और अब यह
जैविक घड़ी! भई कमाल है ! लेकिन नहीं, इसमें हमारा, आपका या
फिर वैज्ञानिकों का कोई कमाल नहीं हैं। यह घड़ी तो प्रकृति
ने हर छोटे-बड़े जीव को मुफ्त में दे रखी है, जो हमें दीखती
तो नहीं है लेकिन अपना काम सुनिश्चित रूप से निरंतर करती
रहती है। प्राय: सभी जीव अपने बाह्य एवं आंतरिक वातावरण में
हो रहे इन दैनिक, मासिक तथा वार्षिक परिवर्तनों के प्रति
सचेत रहते हैं। वातावरण में होने वाले इन परिवर्तनोंं की
समय-सारणी के अन्ुारूप ही उनकी यह आंतरिक जैविक घड़ी शरीर के
विभिन्न क्रिया-कलापों का नियमन करती है। यह कैसे होता है
इसको छोटे छोटे उदाहरणों द्वार समझा जा सकता है-
हमारे मस्तिष्क में निद्रा से जुड़ी कुछ लयात्मक गतिििधवयों
का आवर्तन एक सेकेंड में लगभग सात बार तक होता है। इसी
प्रकार कुछ नर स्तनधारियों के मस्तिष्क में स्थित पियूषि
ग्रंथि के एक विशेष रसायन `ल्यूटिनाइज़िंग हॉरमोन' के रिसाव
की आवृति घंटे-दो घंटे के अंतर पर होती रहती है। यह रसायन नर
स्तनधारियों के अंडकोष की प्रजनन संबंधी क्रिया-कलापों के
नियंत्रण में मुख्य भूमिका निभाता है। ऐसी लयात्मकता को
`अल्ट्रैडियन लय' कहते हैं। दिल की धड़कने, साँस लेने की
प्रति मिनट दर आदि कुछ अन्य उदाहरण हैं।
`एक दिवसीय लयात्मकता' उसे कहते हैं जिसकी आवृति सामान्यत:
चौबीस घंटे में एक बार होती है। सोने-जगने,
सक्रियता-निष्क्रियता आदि से ले कर विभिन्न प्रकार के
शारीरिक एवं व्यवहारिक गतिविधियों का समय निर्धारण तथा उनका
दैनिक आवर्तन इसी श्रेणी में आते हैं। सैद्धांतिक रूप से ऐसी
लयात्मक गतिविधियों का नियमन किसी भी समय सापेक्ष
परिवर्तनशील वाह्य उत्प्रेरकोंे (जैसे तापमान, दाबाव,
ग्ुास्र्त्व आदि) द्वारा हो सकता है परंतु व्यावहारिक रूप से
सूर्य के प्रकाश की तीव्रता, दिन-रात की समयावधि जैसे तत्व
ऐसी प्रक्रियाओं के नियमन में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ऐसे
तत्वों का प्रभाव लगभग सभी जीवों पर व्यापक रूप से किंतु
अलग-अलग दृष्टिगोचर होता है। इसी कारण दिवाचारी व रात्रिचारी
जीव-जंतुओं के कार्यकलाप के नियम भिन्न भिन्न होते हैं।
चंद्रमा के शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के साथ-साथ उसके गुस्र्त्व
का प्रभाव समुद्र में ज्वार - भाटे के रूप में दिखाई पड़ता
है। समुद्र-तट पर इस ज्वार-भाटे के क्षेत्र में रहने वाले
`फिडलर केकड़ों' तथा अन्य बहुत सारे रीढ-व़िहीन जंतुओं के
क्रिया-कलाप चंद्रमा के ग्ुास्र्त्व तथा ज्वार-भाटे के समय
के साथ लयात्मकता प्रदर्शित करते हैं।
एक विशेष प्रकार की गिलहरी के शरीर का भार गर्मियों में बढ़
जाता है तो सर्दियों तथा प्रजन काल में घट जाता है। इस
प्रकार के शारीरिक कार्यकी एवं व्यावहारिक क्रिया-कलापों में
वार्षिक तथा मौैसमी चक्र तथा लयात्मकता भी बहुत सारे
जीव-जंतुओं में देखने को मिलती है। इन जीव जंतुओं के
कार्य-कलापों का नियमन संभवत: वातावरण में परिवर्तनों के
साथ-साथ इनकी आंतरिक जैव घड़ी की सहायता से होता है। कुछ कीट
-पतंगों एवं पक्षियों में दैनिक, मौसमी तथा वार्षिक
क्रिया-कलापों का समय इतना सटीक एवं सुनिश्चित होता है कि वे
इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों को भी मात करते हैं।
२
कहाँ हैं ऐसी घड़ियाँ और कैसे काम करती है ये? जैविक
लयात्मकताओं तथा इनके नियंत्रण से जुड़ी इन घड़ियों की
कार्यप्रणाली को समझने-बूझने का प्रयास काफी दिनों से चल रहा
है। इस संबंध में बहुत सारे जीव-जंतुओं की जैविक लयात्मकताओं एवं आवर्तनों का अध्ययन किया गया है परंतु कुछ
कोशीय जीव, कीट-पतंगे, पक्षी, चूहे, मनुष्य आदि को प्रमुख
रूप से परखा गया हंै। विशेषकर `एक दिवसीय लयात्मक
क्रिया-कलापों' से जुड़ी `सरकेडियन जैव घड़ी' के बारे में
विस्तृत अनुसंधान किया गया है। विभिन्न स्तनधारियों एवं
पक्षियों, जैसे चूहों, हैमस्टर, मनुष्यों तथा गौरैयांे में
संभवत: ऐसी घड़ी मस्तिष्क के हाइपोथैलमस में कोशिकाओं के एक
विशिष्ट समूह `सुप्राचाएज़्मैटिक न्युक्लियस' के रूप में
स्थित है।
वास्तव में `सुप्राचाएज़्मैटिक न्युक्लियस' नामक यह कोशिका
एक जटिल जैव घड़ी का हिस्सा मात्र है जिसके तार आँखों की
रेटिना में स्थित विशेष प्रकार के प्रकाश-ग्राही कोशिकाओं
से `रेटिनोहाइपोथैल्मिक' स्नायु तंत्र द्वारा जुडे होते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्नायु तंत्र के द्वारा प्रकाश की
समयावधि से संबंधित सूचना रेटिना के प्रकाशग्राही कोशिकाओं
से `यहां' तक पहुँचती है, जहाँ इसे अच्छी तरह समझ-बूझ कर
अंतत: हाइपोथैलमस से ही जुड़ी एक अन्य गंथि `पीनियल बॉडी' तक
भेजा जाता है। इस संप्रेषण के प्रत्युत्तर में `मिलैटोनिन'
नामक हॉरमोन का स्राव करती है, जिसकी मात्रा रात में बढ़ती
है तो दिन में घटती है। मनुष्यों में इस हॉरमोन का कार्य
पूरी तरह नहीं समझा जा सका है परंतु मौसम-आधारित प्रजनन
प्रक्रिया वाले स्तनधारियों की प्रजनन संबंधी लयात्मकाता में
यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस `सरकेडियन जैविक घड़ी' की विशेषता यह है कि प्रकाश जैसे
बाह्य वातावरणीय कारकों के अभाव में भी बदस्तूर अपना कार्य
कर सकती है। इनके द्वारा विभिन्न क्रिय-कलापों के समय
निर्धारण की प्रक्रिया पर दिन-रात के परिवर्तनशील तापमान का
कोई प्रभाव नही पड़ता। परंतु यदि `सुप्राचाएज़्मैटिक
न्युक्लियस' को नष्ट कर दिया जाए तो दैनिक लयात्मकता बिल्कुल
समाप्त हो सकती है।
इसके अतिरिक्त, जैविक घड़ी `पीयूष ग्रंथि' (पिट्यूटरी गंथि)
को भी प्रभावित करती है जिसके परिणामस्वरूप शरीर की
अंत:स्रवण ग्रंथि प्रणाली, प्रतिरोधक प्रणाली, हृदय तथा रक्त
संचार प्रणाली, उत्सर्जन प्रणाली आदि भी प्रभावित होते हैं।
शरीर के तापमान के समान ही इन प्रणालियों की कार्य क्षमता
प्रात:काल सो कर उठने के ठीक पहले सबसे कम होती है तो शाम के
समय सबसे अधिक। पीयूष ग्रंथि से स्रवित होने वाले
`एड्रिनोकॉर्टिकोट्रॉपिक' हॉरमोन पर `एससीएन' की क्रियाशीलता
का प््राभाव साफ दीखता है। एसीटीएच अंतत: एड्रीनल ग्रंथि को
`कॉटिसॉल एवं `एल्डोस्टीरॉन' जैसे हॉरमोन का स्राव करने के
लिए प्रेरित करता है। इन हॉरमोनों की सांद्रता दिन में कम
होती है तो रात में आधिक।
इन सबके अतिरिक्त, सरकेडियन जैविक घड़ी की विशेषता यह है कि
किसी नए स्थान पर जाने के कुछ ही दिनों बाद हमारे शरीर के
क्रिया-कलाप को वहाँ के स्थानीय समय तथा दिन-रात की नई
समयावधि के अनुरूप ढाल देती हैं। इस प्रकिया का सबसे अच्छा
उदाहरण `जेट हवाई यात्रा' है। मान लीजिए कि किंहीं दो
स्थानों के स्थानीय समय में तीन घंटे का अंतराल है एवं हवाई
यात्रा का कुल समय बारह घंटे हैं। अब यदि कोई अपनी यात्रा
रात्रि के दस बजे प्रारंभ करता है तो वह यात्रा प्रारंभ करने
के स्थानीय समयानुसार दूसरे दिन प्रात: दस बजे गंतव्य स्थान
पर पहुँच जाएगा, परंतु दोनो स्थानों में तीन घंटे के समय
अंतराल के कारण जब वह नए स्थान पर पहुँचेगा तो वहाँ पर अभी
सुबह के सात ही बजे होंगे। अब चूँकि इसके शरीर की जैविक घड़ी
यात्रा आरंभ करने वाले स्थान के अन्ुारूप ढली होती है तो इस
नए स्थान पर कुछ दिनों तक यह पहले स्थान के स्थानीय
समयानुसार ही कार्य करती रहती है अर्थात यात्री के
सोने-जगने, भूख लगने आदि का समय पहले स्थान के अनुरूप ही
रहेगा। नए स्थानीय समय के अनुरूप ढलने में उसे कुछ समय
लगेगा। तब तक उसे नाना प्रकार की शारीरिक तथा व्यावहारिक
परेशानियो का अनुभव होगा, जिसे हम `जेट-लैग' के रूप में
जानते हैं।
जैविक घड़ी में गड़बड़ियों के अन्य दृष्टांत भी हमारी अपनी
कार्यकी एवं व्यवहार मंे परिलक्षित होते हैं। कुछ नवजात शिशु
अक्सर दिन में सोते रहते हैं तो रात में जग कर माता-पिता की
परेशानी बढ़ाते हैं परंतु जेट -लैग की तरह ये भी स्थानीय
समयानुरूप ढल जाते है और एक सामान्य व्यक्ति की तरह दिन में
जगने एवं रात में सोने लगते हैं; परंतु वृद्ध व्यक्तियों एवं
कैंसर के रोगियों की जैविक लयात्मकता स्थाई रूप से गड़बड़ा
सकती है जिसका परिणाम इनमें समय पर भूख न लगने, अनिद्रा आदि
लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है; अंतरिक्ष यात्रियों के
इस आंतरिक जैविक घड़ी पर भी अंतरिक्ष यात्रा का प्रभाव
हड्डियों के वजन मंे कमी तथा मांसपेशियों के पतले होने के
रूप में देखा गया है।
कोशिका ही किसी भी जीव के क्रिया-कलापों तथा संरचना का आधार
है। बड़े से बड़े एवं जटिलतम जीव के क्रिया-कलापों को उसकी
कोशिका की कार्य-विधि के बारे में जान कर अच्छी तरह समझा जा
सकता है-ऐसा आज कल के वैज्ञाानकों का मानना है। कोशिकीय स्तर
पर भी सभी जैविक कार्य-कलाप पूर्व निर्धारित समय-सारणी के
अनुसार एक सुनिश्चित आवर्तीय लयात्मकता के अनुरूप प्रतिपादित
होते हैं जिनका नियमन कोशिका स्थित विशिष्ट जैव-अणु करते
हैं। ये जैव-अणु, कोशिकीय जैव घड़ी का काम करते हैं। कोशिका
की उत्पत्ति, वृद्धि, वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते रहना,
विभाजन संख्या का परिसीमन आदि छोटे-बड़े सभी कार्य एक
समय-बद्ध योजना के अनुसार चलते रहते हैं और उन पर शायद इस
जैविक घड़ी का नियंत्रण रहता है। यदि हम कोशिकीय स्तर पर इस
घड़ी की कार्य-प्रणाली को समझ लें तो संभवत: पूरे शरीर पर
नियंत्रण रखने वाली जैव घड़ी की कार्य-पद्धति को आसानी से
समझा जा सकता है एवं इसे अपनी इच्छानुसार परिमार्जित भी किया
जा सकता है।
इस संदर्भ में पर्ड्यू विश्वविद्यालय में कार्यरत पति-पत्नी
की वैज्ञानिक जोड़ी डी जेम्स एवं डोरथी मूर द्वारा किया गया
अनुसंधान कार्य उल्लेखनीय है। एक सामान्य कोशिका किसी भी
जीवधारी की तरह अपने दैनिक क्रिया कलापों में लगभग २४ घंटे
की आवर्तीय लयात्मकता का पालन करती है। १९६० के दसक में
अनुसंधानकर्ताओं ने हाइड्रोजन के आइसोटोप डियुटेरियम के योग
से बने `भारी जल' से पोषित कर इन कोशिकाओं के क्रिया-कलापों
के दैनिक आवर्तीय लयात्मकता की अवधि को २४ घंटे से २७ घंटे
तक बढ़ाने में सफलता पाई। भारी जल कोशिका की जैव रसायनिक
प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता है अत: उपरोक्त प्रयोग जैव
घड़ियों की कार्य-प्रणाली के मूल में जैव रसायनिक
प्रतिक्रियों का हाथ होने की तरफ इशारा कर रहा था। परंतु इस
संबंध में अन्य व्याख्याओं की ओर लोगों का अधिक ध्यान था,
फलत: इस प्रयोग को लगभग भुला दिया गया।
अन्य अनुसंधान कार्यों में व्यस्तता के बावजूद भी पिछले
चालीस वर्षों से जैव घड़ी की गुत्थी को सलझाने की बात इनके
मन में सदैव बनी रही तथा इस दिशा में ये प्रयास भी करते रहे।
हाल ही में इन लोगों ने एक ऐसे बेलनाकार प्रोटीन-अणु का पता
लगाया है जो कोशिका वृद्धि की आवर्ती लयात्मकता को नियंत्रित
करता है। एक प्रयोग के दौरान इन लोगों ने पाया कि कोशिकाओं
का आकार पहले १२ मिनट तक तो बढ़ता है फिर अगले १२ मिनट तक ये
कोशिकाएँ आराम करती हैं। १२ मिनट के आराम के बाद पुन: इनका
आकार बढ़ने लगता है। इस प्रकार इनमें १२ मिनट की वृद्धि फिर
१२ मिनट के आराम का चक्र आवर्ती लयात्मक गति से चलता रहता
है। इस चक्र की लयात्मकता को बनाए रखने तथा नियंत्रित करने
में उपरोक्त प्रोटीन की मुख्य भूमिका होती है।
विभिन्न प्रयोगों द्वारा इन लोगों ने पाया कि यह प्रोटीन
दो-मुँहे चरित्र वाला है। एक रूप में यह वृद्धि-उत्प्रेरक का
कार्य करता है। फिर बारह मिनट बाद इसके रूप में थोड़ा
परिवर्तन होता है। इस नए रूप में यह अगले १२ मिनट तक कोशिका
के अन्य कार्यों में संलग्न रहता है अर्थात् वृद्धि की
प्रकिया स्र्की रहती है। ठीक १२ मिनट बाद यह अपने पुराने
वाले रूप में लौटता है और वृद्धि की प्रक्रिया पुन: आरंभ हो
जाती है। कुछ अन्य प्रोटीन भी दो या दो से अधिक कार्यों का
नियंत्रण करने की क्षमता रखते हंै परंतु इस प्रोटीन की
विशेषता उपरोक्त गुणों के साथ-साथ सटीक समय-अंतराल पर दोनों
प्रक्रियाओं के प्रबंधन एवं नियंत्रण की क्षमता है।
इस प्रोटीन के निर्माण से संबंधित जीन का भी पता लगा लिया
गया है जिसका उपयोग कर `क्लोनिंग विधि' द्वारा इस प्रोटीन के
विभिन्न परिवर्तित रूपों के निर्माण में सफलता मिली। जब इन
परिवर्तित प्रोटीन्स के अणुओं को कोशिकाओं में मूल अणुओं
के के स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया तो इन कोशिकाओं में
२४ मिनट के बजाय २२ से ४२ मिनट का नया वृद्धि आवर्तन चक्र
देखने को मिला। `भारी जल' से पोषित कोशिकाओं के
क्रिया-कालापों कीआवर्तन लयात्मकता में २४ घंटे के स्थान पर
२७ घंटे की काल-अवधि का दीखना संभवत: इन प्रोटीन्स की संरचना
में भारी जल के कारण आया परिवर्तन है।
इस खोज के बाद इन लोगों का मानना है कि अब न केवल दैनिक जैव
घड़ी की कार्य-प्रणाली को अच्छी तरह समझा जा सकता है बल्कि
इस प्रोटीन में परिवर्तन द्वारा जैविक घड़ी को मनोवान्छित
रूप से नियंत्रित कर भविष्य में अनिद्रा, समय पर भूख न लगना,
जेट लैग से संबंधित अनियमितताओं आदि पर भी विजय पायी जा
सकती है।
चलते -चलाते इस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने में कोई
हर्ज नहीं है कि हम दृढ़ इच्छा शक्ति एवं मनोबल द्वारा अपनी
जैविक घड़ी ही नहीं अपितु शरीर के सारे क्रिया-कलापों पर
नियंत्रण कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति में तपस्या, ध्यान,
योग आदि द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के ढेरों उदाहरण
आदिकाल से ही मिलते है। कालीकट के निवासी छाछठ वर्षीय श्री
हीरा राम मानेक इसके ज्वलंत उदाहरण है। केवल उबला पानी पी कर
तथा सूर्य नमस्कार की योग प्रक्रिया द्वारा इन्होंने ४११ दिन
पूर्ण रूप से स्वस्थ्य रह कर बिताए। ऐसी घटनाएँ विस्तृत
अनुसंधान का विषय हंै।
नैैनोटेक्नॉलॉजी या फिर जादुई चिराग
-डा गुरू दयाल प्रदीप
अगर मैं कहूँ कि निकट भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के
निर्माण में लगी मशीनों का आकार छोटा होते-होते इतना छोटा हो
जाएगा कि हजारों ऐसी मशीनें इस पन्ने के एक वाक्य में समा
जाएँगी तो आप कहीं आँखें फाड़ कर इस वाक्य को ही न घूरते रह
जाइएगा विज्ञान की इस नई विधा को नैनोटेक्नॉलाजी का नाम दिया
गया है। आगे मैं आप को इसके बारे में और भी बहुत कुछ बताने
वाला हूँ, जो आँखों के साथ-साथ आप के दिल-दिमाग को भी चकरा
कर रख देगा।
अगले पचास सालों में ही हम इन नैनोमशीनों का उपयोग कर अणुओं
एवं परमाणुओं को एक-एक कर जोड़ सकेंगे और इसी स्तर पर
क्रिकेट की गेंद से लेकर टेलीफोेन,कार,हवाई जहाज,कम्प्यूटर
सभी कुछ ,मनचाहे पदार्थ द्वारा किसी भी आकार-प्रकार में बना
पाएँगे। साथ ही इनकी क्षमता भी हजारों गुना अधिक होगी। क्या
आप कल्पना कर सकते हैं कि इस टेक्नॉलॉजी की मदद से हम
एमआइपीएस क्षमता वाले बैक्टिरिया के आकार के कंप्यूटर्स से
ले कर अरबों लैपटॉप्स की क्षमता से युक्त चीनी के क्यूब के
आकार के कंप्यूटर्स अथवा खरबों डेस्क टॉप की क्षमता युक्त
आज-कल के पीसी के आकार के कंप्यूटर्स का निर्माण कर
पाएँगे?या फिर ऐसे नैनोबॉट्स का निर्माण संभव होगा जो हमारे
शरीर के ऊतकों में घुस कर वाइरस और कैंसर कोशिकाओं की आणविक
संरचना को पुनर्गठित कर उन्हें निष्क्रिय कर दें?े। उपरोक्त
उदाहरण तो बस नमूने के तौर पर हैं। भविष्य में इस टेक्नॉलॉजी
से जुड़ी संभावनाएँ अनंत हैं, वास्तविक हैं,मात्र कोरी
कल्पना नहीं।
वैैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि नैनो टेक्नॉलॉजी
द्वारा चिकित्सा, इलेक्ट्रॉनिक्स, यातायात, अंतरिक्ष विज्ञान
से लेकर छोटे-बड़े सभी प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं के
निर्माण तथा उपयोग के क्षेत्र में एक नई का्रन्ति आने वाली
है और तब हमें आजकल की बड़ी-बड़ी मशीनों एवं औद्योगिक
इकाइयों तथा कारखानों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आखिर, यह
नैनो टेक्नॉलॉजी है क्या चीज और कैसे इसकी मदद से सारी
दुनिया को बदलना संभव हो पाएगा-आइए, इसे समझने का प्रयास
किया जाए।
किसी भी पदार्थ को परमाणविक पैमाने (नैनो स्केल) पर
नियंत्रित ढंग से जोड़-तोड़ कर अपनी इच्छानुसार नए रूप में
परिवर्तित करने लेने की विधा का नाम नैनोटेक्नॉलॉजी है।
लगभग चालीस साल पहले रिचर्ड फिनमैन ने इस अवधारणा का सुझाव
दिया था और १९७४ में नॉरियो तानीगूची ने इसका नामकरण किया।
इस ब्रह्माण्ड में पाई जाने वाली सभी वस्तुओं की संरचना के
मूल में परमाणु हंै या फिर थोड़े से जटिल रूप में इन
परमाणुओं से निर्मित अणु हैं। किसी भी वस्तु का गुण उसकी
संरचना में प्रयुक्त परमाणुओं एवं अणुओं के विन्यास पर
निर्भर करता है। किसी भी वस्तु के अणुओं एवं परमाणुओं को
पुनर्व्यवस्थित कर इसे दूसरी वस्तु में आसानी से बदला जा
सकता है। कोयले की संरचना में प््रायुक्त कार्बन के
परमाणुओं कोे पुनर्व्यवस्थित कर हीरे में बदला जा सकता है
या फिर बालू के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर और उसमें
थोड़ी सी अशुद्धि मिला कर कंप्यूटर चिप्स में बदला जा सकता
है । इससे भी आगे बढ़ कर कीचड़, पानी और हवा में पाए जाने
वाले परमाणुओं को पुनर्व्यस्थित कर घास से ले कर इंसान तक
सब कुछ सीधे-सीधे बनाकर `क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा; पंच
तत्व से बना शरीरा' की कहावत को ही चरितार्थ किया जा सकता
है। या फिर हवा में चुटकी बजा कर महल भी बनाया जा सकता है
अथवा किसी भी वस्तु को आँखों के सामने से गायब भी किया जा
सकता है। हैं न ये करिश्माई ओर जादुई बातें? लेकिन क्या वाकई
यह सब संभव है? और यदि सब संभव है, तो अब तक हम ऐसा क्यों
नही कर पाए एवं भविष्य में हम ऐसा क्यों और कैसे कर
पाएँगे-अब आइए, हम इन सब बातों पर विचार करें।
पाषाण युग से वर्तमान युग तक के लंबे सफर में मानव सभ्यता ने
समय की गति के साथ, अपनी सुविधा एवं आवश्यकतानुसार, प्रकृतिक
संसाधनों द्वारा पत्थर से बने औजार एवं चाकू से ले कर आधुनिक
हथियार, कंप्यूटर, टीवी, मोटर, हवाई जहाज, मोबाइल फोन,
अंतरिक्ष यान आदि क्या नहीं बना डाला। नि:सदेह दिन प्रतिदिन
परिमार्जित होती जा रही तकनीकि के कारण इनकी गुणवत्ता बढ़ती
जा रही है साथ ही लागत में लगातार कमी आती जा रही है, परंतु
हमारी आधारभूत निर्माण तकनीकि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं
आया है। कारखानों तथा औद्योगिक ईकाइयों में छिनाई, घिसाई,
कुटाई, पिसाई, ढलाई जैसी पुरानी तकनीकि का उपयोग हम आज भी कर
रहे हैं। चाहे एक पत्थर के टुकड़े को घिस कर चाकू या भाले का
रूप देने वाला आदि मानव हो या फिर छेनी-हथौड़ी से पत्थर को
विशेष आकार दे कर बड़े-बड़े स्मारक बनाने वाला मध्य युगीन
मानव अथवा पत्थर, धातुओं आदि को कूट-पीस या गला कर मनचाहे
आकार में ढाल कर तरह-तरह के उपकरण तथा उपभोक्ता वस्तुएँ
बनाने वाला आधुनिक मानव, वह आधारभूत रूप से अब भी कच्चे माल
के अणुओं एवं परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित करने की
प्रक्रिया में ही लगा हुआ है।
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति के बावजूद उसके
उपकरण तथा तकनीकि इतनेे अपरिष्कृत हंै कि किसी भी वस्तु के
निर्माण की प्रक्रिया में अब भी हजारों, लाखों अणु तथा
परमाणु एक बडे समूह में अव्यवस्थित ढंग से प्रतिस्थापित होते
हैं। इस प्रकार इनका अपव्यय तो होता ही है; साथ ही नई वस्तु
की संरचना में इनके अवांछित स्थान पर अनावश्यक मात्रा मे
जमाव के कारण उसका रूप भी पूर्ण रूपेण सटीक एवं शुद्ध नहीं
होता। फर्क सिर्फ इतना है कि आदिमानव तथा मध्य युगीन मानव को
पदार्थों की आणविक एवं परमाणुविक संरचना का ज्ञान नहीं था,
जब कि आधुनिक मानव को इसका ज्ञान है। इस प्रक्रिया में
आवश्यकता से कई गुना अधिक ऊर्जा भी खर्च होती है।
काश,हम ऐसी तकनीकि एवं उपकरणों का विकास कर पाते जो किसी भी
वांछित वस्तु के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले सभी प्रकार
के अणुओं एवं परमाणुओं की सही पहचान कर, उन्हें आस-पास की
मिट्टी,हवा ,पानी या किसी भी प्राकृतिक संसाधन से उपयुक्त
मात्रा में अलग कर सकंे तथा उस वस्तु की संरचना के अनुसार
उन्हें सटीक रूप से।
पुनर्व्यस्थित कर सीधे-सीधे वांछित वस्तु का निर्माण कर
सकें। आखिर हमें कोयला पाने के लिए खदानों में जा कर इतनी
मेहनत क्यों करनी चाहिए जब कि इसकी संरचना में प्रयुक्त
कार्बन के परमाणु हमारे आस-पास की मिट्टी, हवा, पेड़-पौधों
आदि में विभिन्न यौगिकों के रूप में प्रचुर मात्रा में
उपलब्ध हैं। या फिर इन्हीं कार्बन के परमाणुओं से बने हीरे
को खदानों से निकाल कर उसे तराशने में अपनी ऊर्जा एवं समय की
बरबादी क्यों करनी चाहिए।
उपरोक्त तकनॉलॉजी के विकास के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता ऐसे
उपकरणों की है जो वांछित वस्तु की संरचना में प्रयुक्त होने
वाले अणुओं एवं परमाणुओं को आस-पास के उपलब्ध प्राकृतिक
संसाधनों से पहचान कर सही मात्रा में अलग कर उन्हें नए ढंग
से व्यवस्थित कर सकें। जब बात परमाणविक स्तर पर असेंब्ली की
हो रही है तो जाहिर है कि ऐसे असेंब्लर्स भी उसी स्तर के
होने चाहिए एवं उनमें इतनी क्षमता तथा ऊर्जा होनी चाहिए कि
वे वांछित अणुओं या परमाणुओं को उपलब्ध यौगिकों से आसानी
से अलग कर सकें। ध्यान रहे, ये अणु-परमाणु किसी भी यौगिक में
मजब्ूात रसायनिक बांड से बँधे रहते है जिन्हें तोड़ कर इन
अणुओं-परमाणुओं को अलग करने वाले उपकरणों के पास पर्याप्त
ऊर्जा होनी चाहिए।
आखिर कैसे और कहाँ से हम ऐसे सूक्ष्म उपकरणों एवं तकनॉलॉजी
को विकासित करने का सपना देख रहे हैं, जो आणविक-परमाणविक
पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में सहायक हो? तो
उत्तर है- नैनोअसेंब्लर्स एवं नैनोटेक्नॉलॉजी।
इसे अच्छी तरह समझने के लिए सबसे पहले परमाणविक पैमाने
`नैनोमीटर' को जानना होगा। एक मीटर के अरबवें हिस्से को
नैनोमीटर कहते हैं। यह कितना छोटा है इसका अनुमान इसी बात से
लगाया जा सकता है कि हमारे एक बाल की मोटाई लगभग चालीस हजार
नैनोमीटर होती है या फिर एक नैनोमीटर में ३-५ परमाणु समा
सकते हैं।
उल्लिखित नैनोअसेंब्लर्स का आकार भी कुछ ही नैनोमीटर्स का
होना चाहिए, तभी वे इतने सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर सकते हैं।
ऐसे अतिसूक्ष्म नैनोअसेंब्लर्स के निर्माण एवं
नैनोटेक्नॉलॉजी के विकास की प्रेरणा वैज्ञानिकों को संभवत:
प्रकृति से ही मिली है। एक जैविक कोशिका के निर्माण, वृद्धि
तथा कार्यकी में मूल रूप से डीएनए एवं आरएनए जैसे प्राकृतिक
नैनोअसेंब्लर्स की ही मुख्य भूमिका है। इनका आकार कुछ ही
नैनोमीटर होता है परंतु ये कोशिका की संरचना तथा विभिन्न
जैवरसायनिक प्रक्रियाओं को संचालित करने वाले जटिल से जटिल
प्रोटीन का निर्माण कोशिका के साइटोप्लाज्म में मौजूद एमीनो
एसिड्स द्वारा करने की क्षमता रखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया
में डीएनए की मुख्य भूमिका होती है। डीएनए की विशेषता यह है
कि न केवल ये अपनी प्रतिकृति स्वयं बना सकते हंै बल्कि
प्रोटीन निर्माण में असेंब्लर्स एवं असेंब्ली-साइट का कार्य
करने वाले राइबोसोमल, ट्रांसफर तथा मेसेंजर आरएनए का निर्माण
भी करने की क्षमता रखते हैं। साइटोप्लाज्म से तरह-तरह के
एमीनो एसिड्स की पहचान कर उन्हें पकड़ कर असेंब्ली साइट
राइबोसोम तक लाने का कार्य ट्रांसफर आरएनए करते हैं। यहाँ इन
एमीनो एसिड्स को मेसेंजर आरएनए में निहित कोड के अनुसार एक
निश्चित क्रम में व्यस्थित कर प्रोटीन-विशेष का निर्माण कर
लिया जाता है।
नैनोटेक्नॉलॉजिस्ट कुछ-कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं। वेे भी
ऐसे नैनोअसेंब्लर्स का निर्माण करना चाहते हैं जो न केवल
विभिन्न प्रकार के परमाणुओं की पहचान कर सकें वरंच उन्हें
पकड़ कर किसी भी पदार्थ से अलग कर वांछित स्थान पर ला कर
पुनर्व्यस्थित सकें। यह सब कोरी कल्पना नहीं है। १९९० में
आइबीएम के अनुसंधानकर्त्ता एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी यंत्र
द्वारा ज़ेेनॉन तत्व के ३५ परमाणुओं को निकेल के क्रिस्टल
पर एक-एक कर व्यस्थित कर, आइबीएम शब्द लिखने में सफल हुए।
इनका यह प्रयास इस बात का द्योतक है कि हम एक अकेले परमाणु
को भी अपनी इच्छानुसर नियंत्रित एवं परिचालित कर नए ढंग से
व्यवस्थित कर सकते हंै।
नासा के वैज्ञानिकों ने १९९७ में सुपर कंप्यूटर द्वारा
बेंज़ीन के अणुओं को कार्बन के परमाणुओं से बने किसी
सामान्य अणु के आकार के अति सूक्ष्म नैनोट्यूब्स के बाहरी
सतह पर जोड़ कर आणविक- आकार के यंत्र निर्माण के मिथ्याभासी
अनुरूपण ह्यसिम्ुलतेन्हृि में सफलता का दावा किया था। ये
यंत्र लेज़र द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। भविष्य में
इनका उपयोग `मैटर कंपाइलर' जैसे अतिसूक्ष्म यंत्र के निर्माण
मंे हो सकता है। इन मशीनों को कंप्यूटर द्वारा प्रोग्राम कर
प्र्रकृतिक गैस जैसे कच्चे माल के परमाणुओं को एक-एक कर फिर
से व्यवस्थित कर किसी बड़ी मशीन अथवा उसके किसी हिस्से को
निर्मित किया जा सकता है।
किसी भी उपभोक्ता वस्तु के भारी मात्रा में उत्पादन के लिए
ऐसे किसी एक नैनोमशीन या नैनोअसेंब्लर से काम नहीं चलने
वाला। अणुओं या परमाणुओं को एक-एक कर पुनर्व्यवस्थित कर नई
वस्तु के निर्माण में तो ऐसा एक असेंब्लर हजारों साल लगा
देगा। तुरंत किसी सामान को बनाने के लिए हमें अरबों एवं
खरबों नैनोअसेंब्लर्स की आवश्यकता पड़ेगी। इस कार्य के किए
या तो हमें दूसरे प्रकार के नैनोमशीन -`नैनोरेप्लिकेटर्स' की
आवश्कयता पड़ेगी, जो पलक झपकते ही वांछित प्रकार के
नैनोअसेंब्लर्स की अरबों-खरबों प्रतिकृतियाँ बना दंे या फिर
इन नैनोअसेंब्लर्स को ही हम इस प््राकार प्रोग्राम कर दें कि
डीएनए की तरह ये भी आवश्यकतानुसार अपनी प््रातिकृतियाँ स्वयं
बना लें। इनका आकार इतना छोटा होगा कि एक घन मिलीमीटर के
क्षेत्र में ऐसे अरबों-खरबों रेप्लीकेटर्स तथा असेंब्लर्स
समा जाएँगे।
ये असेंब्लर्स तथा रेप्लिकेटर्स दिए गए प्रोेग्राम के अनुसार
एक साथ स्वत: काम करंेगेे और वांछित वस्तु की भारी मात्रा के
उत्पादन में सहायक होंगे। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन उपभोक्ता
वस्तुओं के उत्पादन की परंपरागत विधियों की आवश्यकता ही
नहीं रहेगी और हम पहले से कहीं बहुत ही सस्ती, मजबूत, टिकाऊ
एवं बेहतर कार्य क्षमता वाली उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण
बहुतायत में कर पाएँगे।
इस टेक्नॉलॉजी से लाभ की संभावनाएँ इतनी वास्तविक एवं आकर्षक
हैं कि वर्ष २००१ मेें अमेरिका ने लगभग ५० करोड़ डॉलर का बजट
इस दिशा में अनुसंधान हेतु प्रदान किया। आइए, देखते हैं कुछ
रंगीन सपने अपने सुनहरे भविष्य के।
संभवत: इन नैनो मशीन्स की सहायता से हम और भी मजबूत फाइबर्स
बना सकते हैं और बाद में तो हीरे से ले कर पानी या खाना कुछ
भी बन सकते हैं। वह भी बड़े सस्ते में औैर आज की तुलना में
बहुत ही थोड़े से कच्चे माल द्वारा। इन नव निर्मित सामानोें
की मजबूती तथा हल्केपन की तो फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा
सकती। उदाहरण के लिए इस तकनीकि से बना हीरा वांछित आकार के
साथ-साथ उतने ही मजबूत स्टील की तुलना में कम से कम पचास
गुना हल्का होगा तथा इसे तोड़ना एक प्रकार से असंभव होगा।
जरा सोचिए, यदि आज की कार या हवाई जहाज अथवा अंतरिक्ष यान की
बॉडी और उनके कल-पुर्जों का निर्माण इन फाइबर रूपी हीरों से
किया जाय तो वे कितने मजबूत, हल्के, टिकाऊ तथा सस्ते होंगे?
आज के बोइंग७४७ का वजन पचास गुना कम हो जाएगा। जाहिर है,
सामान्य यातायात खर्च में अप्रत्याशित कमी आएगी। सूदूर
ग्रहोंकी अंतरिक्ष यात्रा भी बहुत ही सस्ती हो जाएगी।
कंप्यूटर की दुनिया में तो क्रांति ही आ जाएगी। कंप्यूटर
हार्डवेयर के क्षेत्र में हो रही प्रगति की रफ्तार को बनाए
रखने या फिर उससे भी आगे जाने के लिए वर्तमान समय की
लीथोगा्रफिक तकनीकि से बनाए जाने वाले सिल्किॉन चिप्स की
क्षमता अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है। नैनो टेक्नॉलॉजी
की मदद से भविष्य में हम थोड़े से ही परमाणुओं का उपयोग कर,
नए प्रकार के परमाणविक लॉजिक एलीमेंट तथा गेट बना सकेंगे। इन
परमाणविक गेट्स की मदद से ऐसे कंप्यूटर- उपकरण बना सकेंगे,
जिनका आकार चीनी के क्यूब जैसा होगा परंतु स्टोरेज क्षमता
करोड़ों बाइट्स होगी तथा ये कंप्यूटर्स प्रति मिनट करोड़ों
कमांड दे सकेंगे।
चिकित्सा के क्षेत्र में नैनोटेक्नॉलॉजी का सर्वाधिक असर
होगा। कैंसर कोशिकाओं या वाइरस जनित असाध्य रोगों को ठीक
करने के लिए रोगी को बस नैनोबॉट्स युक्त पेय की कुछ बूँदें
लेनी होंगी। नैैनोबॉट्स कैंसर कोशिकाओं एवं वाइरस पर आक्रमण
कर उनकी आणविक संरचना को बदल कर, उन्हें निष्प्रभावी कर
देंगे। एक अन्य प्रकार के नैनोबॉट्स हमारे शरीर के वृद्ध
होने की प्रक्रिया को रोक सकते हैं या उससे भी आगे बढ़ कर
विपरीत दिशा में मोड़ कर हमें फिर से युवा बना सकते हैं।
इनसे भी अलग एक दूसरे प्रकार के नैनोबॉट्स अर्थात्
`नैनोसर्जन' कठिन से कठिन एवं खतरनाक ऑपरेशन आज के उपकारणों
की तुलना में हजार गुना अधिक सफाई तथा कुशलतापूर्वक कर सकते
हैं और वह भी शरीर पर बिना किसी दाग-धब्बे के। यही नहीं,
कोशिकाओं के वर्तमान आणविक संरचना को बदल कर आँख, नाक, कान
़़ ़़ य़ा फिर पूरे शरीर के कायापलट के लिए भी इन्हें
प्रोगा्रम किया जा सकता है।
दूसरे ढंग से प्रोग्राम कर इन नैनोबॉट्स की मदद से हम
मिट्टी, पानी तथा हवा में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थों को
मिनटों में नष्ट कर सकते हैं या फिर दिनों-दिन पतली एवं
कमजोर पड़ती जा रही ओज़ोन की परत को फिर से निर्मित कर सकते
हैं। भविष्य में नॉन-रिन्युवेबल रिर्सोसेज की आवश्यकता ही
नही रहेगी। न पेड़ काटने की जरूरत होगी, न ही खदानों से
कोयला निकालना पड़ेगा और न ही जमीन में ड्रिल कर खनिज तेल
निकालने के झंझट में पड़ना होगा। ये सारी वस्तुएँ हमें
नैनोबॉट्स स्वत: बना कर देंगे।
आप पढ़ते-पढ़ते थक जाइएगा और मैं बताते बताते, फिर भी
नैनोटेक्नॉलॉजी द्वारा भविष्य में संभावित एवं क्रातिकारी
परिवर्तनों की सूची समाप्त नहीं होगी। चलते-चलाते अब आइए जरा
एक नज़र इस दिशा में आज-कल किए जा रहे प्रयासों पर डाल लें।
वैैसे तो इस क्षेत्र में काफी काम हो रहा है एवं वैज्ञानिकों
को छोटी-बड़ी सफलताएँ मिलती ही जा रही हैं, परंतु अब तक इनका
ध्यान कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, संचार आदि से संबंधित
विषयों पर अनुसंधान की तरफ ज्यादा था। हाल ही में इनका ध्यान
चिकित्सा से संबंधित विषयों पर भी गया है। इस दिशा में
युनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के टॉड क्रास एवं बेंजामिन मिलर
द्वारा किया गया कार्य उल्लेखनीय है। इन लोगों ने एक ऐसे
डीएनए चिप्स के विकास में सफलता पाई है जिसकी सहायता से
भविष्य में किसी भी रोग उत्पन्न करने वाले या जैविक हथियार
की तरह इस्तेमाल होने वाले जीवाणु को तुरंत एवं सटीक रूप से
पहचाना जा सकता है, जो इसके प्रभावी प्रतिकार में काफी सहायक
सिद्ध होगा। फिलहाल, इस चिप्स की मदद से केवल एंटीबायोटिक्स
प्रतिरोधी `स्टाल्फ बैक्टिरिया को ही पहचाना जा सकता है। इस
बैक्टिरिया के डीएनए की उपस्थिति में इस चिप्स का रंग हरे से
पीले में बदल जाता है,जिसे लेज़र की मदद से देखा जा सकता
है।ये लोग भविष्य में ऐसे चिप्स के विकास में लगे हुए हैं
जिनकी सहायता से किसी भी जीवाणु को आसानी से तथा तुरंत
पहचाना जा सके।
ऐसे अनुसंधान नैनोटेक्नॉलॉजी की दिशा में प्रगति की ओर बढ़ते
कदम अवश्य हैं, परंतु नैनो टेक्नॉलाजिस्ट्स को अपनेे सपनों
को वास्तविक रूप में साकार करने के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता
तय करना होगा। तब तक आइए हम भी ऐसे सपने देंखें। सपने देखना
भी जरूरी है। जो सपने देखता है वही अपनी दृढ़ इच्छा के बल पर
उन्हें साकार करने की कोेशिश में सफल भी होता है। अट्ठारवीं
तथा उन्नीसवीं सदी के मानव ने क्या कभी टीवी, मोबाइल या फिर
कंप्यूटर तथा इंटरनेट की वास्तविकता के बारे में सोचा था?
नहीं न? आज ये सभी वास्तविकताएँ है। हमारे उपरोक्त सपने भी
कल निश्चय ही सच होंगे।
नींद: हमारे सपने
-डा गुरू दयाल प्रदीप
किस-किस को देखिए,किस-किस को रोइए।
आराम बड़ी चीज़ है, मुँह ढक के सोइए।।
नींद भला किसे नहीं प्यारी होती? कड़ी मेहनत के बाद थकान से
चूर व्यक्ति मौका लगते ही गहरी नींद में सो जाता है तो हर
समय चिंतित रहने वाला व्यक्ति नींद न आने से परेशान रहता है।
येन-केन-प्रकरेण वह भी सोने की हर चंद कोशिश करता है। सो कर
वह भी चिंताओं से मुक्त होना चाहता है, चाहे थोड़ी देर के
लिए ही सही।
नींद की अपनी दुनिया है और उसका काफी हिस्सा सपनों से मिल कर
बनता है। सपने कितने तरह के तो होते हैं ये सपने! कुछ
स्र्लाने वाले, तो कुछ हँसाने वाले और कुछ तो ऐसे भयानक कि
सोने में ही पसीना छुड़ा दें। मस्तिष्क की विद्युत तरंगों के
अध्ययन के फलस्वरूप आज हम जान सके हैं कि इंसान ही नहीं,
लगभग सभी स्तनधारी जीव सपने देखते हैं। चिड़ियाँ भी
थोड़े-बहुत सपने देख ही लेती हैं। लेकिन सरीसृप तथा इससे
नीचे की श्रेणी के जीव-जन्तु सपने नहीं देखते। सपने नींद में
ही देखे जा सकते हंै, जागृत अवस्था में नहीं। जागृत अवस्था
में हम मात्र कल्पना कर सकते हैं, जिसे भ्रमवश दिवा-स्वप्न
का नाम दे दिया गया है। यहाँ हम नींद में देखे जाने वाले
असली सपनों की ही बात करेंगे।
आखिर हम सपने क्यों देखते हंै? क्या इनका कुछ अर्थ भी होता
है? क्या इनसे हमारा अस्तित्व एवं भविष्य भी कुछ सीमा तक
जुड़ा है? अनादि काल से ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर पाने के
प्रयास किए जाते रहे हैं और अक्सर इन सपनों को भविष्य की तरफ
इशारा करने वाले साधन के रूप में देखा गया है। कुछ लोगों ने
अपने सपनों को आगे चल कर सच होते हुए भी देखा है। अमेरिका के
राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा अपनी ही हत्या का स्वप्न
देखना और निकट भविष्य में उसे अपनी आँखों के आगे सच होते
देखने की घटना से कौन नहीं परिचित है? इस संसार में ऐसे
तथाकथित विद्वानांे एवं विशेषज्ञों की कमी नहीं है जो हमारे
देखे सपनों के अर्थ बताने तथा उससे संबंधित बातों के बारे
में तरह-तरह के कयास लगाने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसे लोग
क्या करते हैं और क्या-क्या दावे करते हैं, इससे फिलहाल
हमारा कोई सरोकार नहीं है। यहाँ हम आधुनिक यंत्रों-उपकरणों
से लैस वैज्ञानिक तथा अनुसंधानकर्त्ताओं के खोजी नजरिये से
नींद और सपनों के पीछे के सच को जानने का प्रयास करेंगे।
चूँकि सपनों का संबंध सोने से है तो आइए सबसे पहले हम नींद
के विज्ञान को समझें।
नींद एक प्रकार की लगभग संपूर्ण अचेतन की अवस्था है, जिससे
हम मनुष्य २४ से २५ घंटे की अवधि में सामान्यत: एक बार अवश्य
गुजरते हैं। हम मनुष्य अक्सर लेट कर सोना पसंद करते हैं। इस
अवस्था में हमारी आँखे बंद हो जाती हैं, कुछ सुनाई नहीं
पड़ता (जब तक कि आवाज बहुत तेज न हो) हृदय की धड़कन कम हो
जाती है, साँस की लय धीमी हो जाती है तथा मांस पेशियाँ पूरी
तरह से ढीली पड़ जाती हैं। सोने में हम प्राय: करवट बदलते
रहते हैं। शरीर के प्रत्येक अंग में सुचारू रूप से रक्त के
प्रवाह को बनाए रखने के लिए संभवत: ऐसा किया जाता है। सोने
एवं बेहोशी में सबसे बड़ा अंतर यह है कि सोते व्यक्ति को तो
तेज आवाज या फिर झकझोर कर उठाया जा सकता है परंतु बेहोश आदमी
को नहीं। सोते समय मस्तिष्क की कार्य प्रणाली में काफी बदलाव
आता है परंतु यह अंग पूरी तरह शिथिल नहीं पड़ता। यहाँ नाना
प्रकार की कार्यवाहियाँ चलती ही रहती हैं।
कोई कितनी देर तक सोता है, इस संबंध में किसी प्रकार का
निश्चित एवं कड़ाई से पालन किया जाने वाला नियम तो नहीं है
फिर भी औसतन एक वयस्क व्यक्ति ७ से ९ घंटे सोता है। वहीं पर
नवजात शिशु २० घंटे, ४ वर्ष का बालक १२ घंटे, १० वर्ष का
बालक १० घंटे तो एक बूढ़े व्यक्ति को ६ से ७ घंटे की नींद की
आवश्यता होती है।
इसके पहले कि हम अपनी नींद और सपनों की वैज्ञानिक दुरूहता को
समझने के चक्कर में पड़ें, आइए अन्य जीव-जंतुओं की नींद
संबंधी कुछ रोचक जानकारियों पर भी एक निगाह डालते चलें।
कीट-पतंगे तो ऐसा लगता है कि सोते ही नहीं। हालाँकि इनमें से
कुछ दिन में निष्क्रिय पड़े रहते हंै तो कुछ रात में।
मछलियाँ एवं मेढक जैसे जंतु अपनी चेतना के स्तर को
थोड़ा-बहुत घटा लेते हैं परंतु मनुष्यों की तरह निद्रा की
अचेतन अवस्था में नहीं जाते। गाएँ खड़े-खड़े सो तो लेती हंै,
परंतु सपने लेटी अवस्था में ही देख सकती हैं। ह्वेल तथा
डॉलफिन्स हमारी तरह सोने में स्वत: साँस नही ले सकतीं। साँस
की प्रक्रिया को सुचारू रूप से संचालित रखने के लिए नींद में
भी इनका आधा मस्तिष्क ही सोता है।
अब आइए फिर से अपनी नींद और सपनों की दुनिया में वापस चलें।
पहली बात -आखिर हमें नीद क्यों आती है तथा इसके पीछे क्या
कारण हैं? इस प्रश्न का सटीक उत्तर वैज्ञानिक अब तक नहीं खोज
पाए हैं फिर भी आज तक के अध्ययन का निचोड़ कुछ इस प्रकार है:
जागृत अवस्था में ब्रेन स्टेम (जिसके द्वारा मस्तिष्क का
मुख्य भाग मेरूदंड ह्यस्पनिल् च्ेरदहृ से जुड़ा रहता है) की
कुछ नर्व कोशिकाएँ सिरेटोनिन एवं नॉरएपीनेफि्रन जैसे
न्युरोट्रांसमिटर्स का स्राव करती हैं जो मस्तिष्क के उन
विशेष भागों को सक्रिय रखता है जो हमें जगाए रखने के लिए
आवश्यक है। सुसुप्ता अवस्था में इसी ब्रेन स्टेम की कुछ अन्य
नर्व कोशिकाएँ दूसरे प्रकार के न्युरोट्रांसमिटर का स्राव
करने लगती हैं जो उपरोक्त प्रकार के न्युरोट्रांसमिटर्स का
स्राव बंद कर देती है फलस्वरूप मस्तिष्क के वे भाग निष्क्रिय
होने लगते हंै जो हमें जगाए रखते हंै। कुछ अनुसंधानकर्ताओं
के अनुसार जागृत अवस्था में हमारे रक्त में एडिनोसिन नामक
रसायन का जमाव होने लगता है। यह रसायन हमें अर्धनिद्रा की
स्थिति में ला देता है। जब हम सोते हैं तब इस रसायन का विघटन
होने लगता है। मस्तिष्क की सक्रिय कोशिकाओं से इस रसायन का
स्राव होता है। इनका एक सीमा से अधिक स्राव एवं जमाव संभवत:
इस बात का संकेत होता है कि इन कोशिकाओं ने आवश्यकता से
अधिक ऊर्जा का उपयोग कर लिया है और अब उन्हें कुछ समय के लिए
विश्राम की आवश्यता है, ताकि वे फिर से उर्जा के सामान्य
स्तर को प्राप्त कर तरोताजा हो सकें। फलत: ये कोशिकाएँ कुछ
समय के लिए निष्क्रिय हो जाती हैं।
अपने सिर को एलेक्ट्रोएन्सिफैलोग्राक नामक उपकरण से जोड़ कर
विभिन्न स्थितियों मंे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली
विद्युत तरंगों का आकलन एवं अध्ययन किया जा सकता है। पूरी
तरह जागृत तथा आराम की स्थिति में मस्तिष्क से अल्फा तरंगें
ऊत्पन्न होती हैं , जिनके ऑसिलेशन की दर १० साइकिल्स प्रति
सकेंड होती है। सुसुप्तावस्था में थीटा एवं डेल्टा नामक दो
प्रकार की धीमी गति वाली विद्युत तरंगों का उत्पादन होता है।
थीटा तरंगों की ऑसिलेशन दर ३ ५़ से ले कर ७ साइकिल्स प्रति
सेकेंड होती है तथा डेल्टा तरंगों की ऑसिलेशन दर ३ ५़
साइकिल्स से भी कम होती है। इन तरंगों की कम होती दर गहन से
गहनतम निद्रा की अवस्था को दर्शाती है।
वास्तव में सोते समय हम निद्रा की क्रमश: पाँच अवस्थाओं से
गुजरते हैं- अवस्था १, अवस्था २, अवस्था ३, अवस्था ४ और फिर
अंत में पुतली के तीव्र संचालन ह्यृापदि श्र्य्एबल्ल्
ंेव्एम्एन्त र् ृश्र्ंहृ की अवस्था। ये अवस्थाएँ इसी क्रम
में बार-बार दुहराई जाती हैं।
निद्रा की पहली अवस्था हल्की नींद की स्थिति होती है जिसे हम
सामान्य बोल-चाल में कच्ची नींद या फिर तंद्रा की स्थिति
कहते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति सोने और जगने की प्रक्रिया
के बीच झूलता रहता है और उसे आसानी से जगाया जा सकता है।
आँखें धीमी गति से घूमती रहती हैं तथा मांस पेशियाँ शिथिल
पड़ने लगती हैं। यदि इस स्थिति मे व्यक्ति को जगा दिया तो वह
अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं का वर्णन छोटे-छोटे
टुकड़ों में कर सकता है, लेकिन उसे पूरी घटना का ज्ञान नहीं
रहता। इस अवस्था में बहुत से लोग कभी - कभी मांसपेशियों में
अचानक संकुचन का अनुभव करते हंै और वे चौंक उठते हैं, साथ ही
उन्हें कभी-कभार अपनी जगह से गिरने का आभास भी होता है।
जब हम निद्रा की दूसरी अवस्था में पहुँचते हैं तो हमारी
आँखें लगभग स्थिर हो जाती हैं तथा मस्तिष्क में उत्पन्न होने
वाली विद्युत तरंगें धीमी पड़ने लगती हैं परंतु बीच -बीच में
तीव्र ऑसिलेशन वाली तरंगों का झोंका भी आता रहता है, जिसे
`स्लीप स्पिंडिल' भी कहते हैं। तीसरी अवस्था तक
पहुँचते-पहुँचते इन विद्युत तरंगों का ऑसिलेशन बहुत ही कम हो
जाता है और अब डेल्टा तरंगों के उत्पादन की शुरूआत हो जाती
है। इस अवस्था में भी कभी-कभी छोटी परंतु तीव्र ऑसिलेशन वाली
तरंगें उत्पन्न होती रहती हैं। चौथी अवस्था तक
पहुँचते-पहुँचते तो मस्तिष्क केवल डेल्टा तरंगों का ही
उत्पादन करता है।
वास्तव में तीसरी एवं चौथी अवस्था गहन निद्रा की स्थिति होती
है । इस समय आँखें तथा मांस पेशियाँ पूरी तरह शिथिल पड़ जाती
हैं। इस अवस्था में किसी को जगाना बड़ा ही कठिन कार्य होता
है। यदि किसी तरह व्यक्ति को जगा भी लिया जाय तो वह तुरंत
अपने आस-पास के वातावरण से तारतम्य नहीं बिठा पाता और थोड़े
समय के लिए उसकी चाल में लड़खड़ाहट देखी जा सकती है। साथ ही
उसमें आत्मविस्मृति, दिशा-भ्रम तथा उलझन की स्थिति बनी रहती
है। गहन निद्रा की स्थिति में ही कुछ बच्चे बिस्तर गीला कर
देते हैं या फिर कुछ लोग निद्राचार ह्यस्ल्एएप द्धाल्कहृ भी
कर सकते हैं।
सोने के लगभग ७० से ९० मिनट के बाद हम तीव्र नेत्र गोलक
संचालन-आरइएम-की अवस्था में पहुँचते हैं। इस अवस्था में सांस
लेने की गति अनियमित परंतु तेज हो जाती है, आँख की पुतलियाँ
झटके के साथ तेज गति से विभिन्न दिशाओं में घूमने लगती हैं
तथा हाथ-पैर अस्थाई रूप से शिथिल पड़ जाते हैं। साथ ही हृदय
की धड़कन तथा रक्त-चाप बढ़ जाता है। यही वह अवस्था होती है,
जब हम सपने देखते हैं। यदि इस अवस्था में व्यक्ति जाग जाय तो
उसे सपने आधे-तीहे याद भी रहते हैं जिनका वर्णन वह कर सकता
है।
आरईएम सहित नींद का पहला चक्र ९० से ११० मिनट का होता है।
पहले चक्र में आरईएम का समय थोड़ा कम होता है परंतु जैसे
-जैसे रात बीतती है, हर चक्र में गहन निद्रा का समय कम होता
जाता है और आरईएम का समय बढ़ता जाता है। सुबह के समय तो नींद
का अधिकांश भाग पहली, दूसरी अवस्था तथा आरईएम को मिला कर ही
पूरा होता है। एक वयस्क व्यक्ति अपनी नींद का ५० प्रतिशत
निद्रा की दूसरी अवस्था में बिताता है, २० प्रतिशत आरईएम की
अवस्था में तथा बाकी ३० प्रतिशत अन्य अवस्थाओं में। वही एक
नवजात शिशु अपनी निद्रा काल का ५० प्रतिशत आरईएम की अवस्था
में बिताता है। बुढ़ापे में तो लंबे समय वाली लगातार निद्रा
का अभाव होने लगता है तथा इसमें गहन निद्रा की अवस्था तो
लगभग गायब ही हो जाती है। बूढ़े व्यक्ति को अक्सर अनिद्रा की
शिकायत रहती है।
इतने ज्ञान के बाद आइए अब हम सपनों के वैज्ञानिक पहलुओं पर
नज़र दौड़ाएँ। सामान्य अवस्था में हम हर रात नींद के कम से
कम दो घंटे सपने देखते हुए बिताते हैं। हम क्यों और कैसे
सपने देखते हैं, इस संबंध में वैज्ञानिकों को कुछ ज्यादा
ज्ञान नहीं है। १९५३ में पहली बार अनुसंधान- कर्त्ताओं ने
नवजात शिशु केे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली `आरईएम'
अवस्था के विद्युत तरंगों का ग्राफ लेने तथा उसे समझने में
सफलता पाई। इसके बाद ही वे यह समझ पाए कि नींद की आरईएम
अवस्था में ही हम अक्सर स्वप्न देखते हैं।
`आरईएम' स्थिति का प्रारंभ मस्तिष्क के पिछले भाग, स्टेम के
पॉन्स नामक हिस्से से उत्पन्न होने वाली विद्युत तरंगों रूपी
संकेतों से होता है। ये संकेत मस्तिष्क के थैलमस नामक भाग तक
पहुँचते हैं जो इन्हें मस्तिष्क के वाह्य भाग सेरिब्रल
कॉर्टेक्स को प्रेषित कर देता है। यह भाग प्राप्त सूचनाओं
को पुनर्व्यवस्थित करने, नई बातों को सीखने तथा सोचने समझने
के लिए जिम्मेदार है। पॉन्स से ही ऐसे संकेत भी उत्पन्न होते
हैं जो मेरू दंड में अवस्थित न्युरॉन्स को निष्क्रिय कर
हमारे हाथों एवं पैरों की मांस पेशियों को भी शिथिल कर देते
हैं। यदि ऐसा न हो तो व्यक्ति स्वप्न के साथ अपने हाथ-पैर भी
चलाने लगता है। ऐसा कभी-कभी होता भी है। यदि व्यक्ति मार-पीट
का सपना देख रहा हो तो ऐसी स्थिति में बगल में सोए व्यक्ति
को दो-चार लात-घूँसों का सामना भी करना पड़ सकता है।
आरईएम अवस्था की निद्रा मस्तिष्क के उस भाग को उत्प्रेरित
करता है जहाँ नई बातें सीखी-समझी जाती हैं। किसी नई बात को
सीखने के तुरंत बाद यदि व्यक्ति को आरईएम अवस्था वाली निद्रा
से वंचित कर दिया जाय तो वह सीखा हुआ सरा ज्ञान भूल भी सकता
है।
जैसा कि हमें पता है, नींद की आरईएम अवस्था की आवृति लगभग
प्रत्येक ९० से १०० मिनटों के अंतराल पर होती रहती है।
निश्चय ही हर बार इनका प्रारंभ पॉन्स से उठने वाली ऐसी ही
विद्युत तरंगों के कारण होता है। वास्तव में ये तरंगें
अनियमित एवं बेतरतीब होती हैं। चूँकि ये तरंगें सेरिब्रल
कॉर्टेक्स को प्रभावित करती हैं, फलत: यह भाग इन्हें
जोड़-तोड़ कर कुछ अर्थ देने का प्रयास करता है। यही प्रयास
एक अर्थहीन कहानी के रूप में चित्र एवं आवाज के साथ स्वप्न
के रूप में दीखता है। इसका मतलब यह नहीं है कि सारे सपने
अर्थहीन ही होते हैं। यदा-कदा हमारा मस्तिष्क इस आरईएम की
अवस्था में इन विद्युत तरंगों के सहारे अवचेन में गहरे बैठी
किसी गंभीर समस्या का समाधान तलाशने का प्रयास करता है और
कभी-कभी हमारे व्यक्तित्व तथा भविष्य की ओर भी इशारे करने का
प्रयास करता है। इस दिशा में अभी विस्तृत एवं गहन अनुसंधान
की आवश्यकता है। सपनों के बारे में अब तक हम जो कुछ समझ सके
हैं उनका सार-संक्षेप निम्न है:
सपने अक्सर कहानी के रूप में होते हैं। इनमें पात्र भी होते
हैं, चित्र भी होते हंै तथा आवाज भी होती है।
सपनों में स्वप्न देखने वाला सदैव शामिल रहता है।
सपनों में हमारे साथ घटित नई बातें अक्सर शामिल रहती हैं और
कभी-कभी हमारे मन में गहरे पैठी चिंताएँ तथा डर का भी समावेश
होता है।
स्वप्न देखते समय यदि आस-पास आवाज हो रही हो तो अक्सर ये
आवाजें भी सपने का हिस्सा बन जाती हैं।
सपनों को हम सामन्यतया नियंत्रित नहीं कर सकते।
तो ये रहीं सपनों की बातें। अब आइए हकीकत पर वापस चलें और
जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलू अर्थात् नींद से संबंधित कुछ और
बातें भी जानें। यथा - क्या सोना जरूरी है? यदि हाँ, तो हमें
अच्छी नींद के लिए क्या-क्या करना चाहिए?
हम मनुष्यों के लिए सोने की आवश्यकता के बारे में
वैज्ञानिकों में अभी भी दुविधा की स्थिति बनी हुई है। फिर भी
जानवरों पर किए गए कुछ प्रयोग नींद के महत्त्व को भली भाँति
दर्शाते हैं। चूहे सामन्यत: २ से ३ साल तक जीवित रहते हैं।
यदि उन्हें नींद की आरईएम अवस्था से स्थाई रूप से वंचित कर
दिया जाय तो वे बड़ी मुश्किल से ५ सप्ताह तक ही जीवित रह
पाते हैं। और यदि उन्हें नींद से पूरी तरह वंचित कर दिया जाय
तो वे केवल ३ सप्ताह तक ही जीवित रह पाते हैं। उनके शरीर का
तापक्रम भी असामान्य रूप से बहुत ही कम हो जाता है। उनकी
पूँछ तथा पैरों पर घाव दीखने लगते हैं। अनिद्रा रोग-
प्रतिरोधक क्षमता को हानिकारक सीमा तक कम कर सकती है।
हमारे स्नायु तंत्र की कार्य क्षमता को सुचारू रूप से बनाए
रखने के लिए भरपूर नींद आवश्यक है। लंबे समय तक बिना भरपूर
नींद के जगे रहने का कुपरिणाम दूसरे दिन उनींदेपन तथा किसी
कार्य में ध्यान न लगने के रूप में देखा जा सकता है। इसका
दुष्प्रभाव स्मरण शक्ति तथा शारीरिक क्षमता में कमी के रूप
में परिलक्षित होता है। व्यक्ति अन्कों के जोड़ - घटाव, गुण
-भाग आदि में ज्यादा गल्तियाँ करता है। यदि अनिंद्रा की
स्थिति आगे भी बनी रहे तो व्यक्ति विभ्रमित हो सकता है तथा
उसकी मनोदशा में भारी उतार-चढ़ाव देखा जा सकता है।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार निद्रा हमारी स्नायु कोशिकाओं को
कुछ देर के लिए विश्राम तथा क्षतिपूर्ति का अवसर प्रदान करती
है। बिना नींद के इन कोशिकाओं का ऊर्जा-स्तर खतरनाक हद तक
नीचे गिर सकता है या फिर सक्रिय अवस्था में इनमें सामान्य
जैव रसायनिक प्रतिक्रियाओं के लगातार चलते रहने के कारण
विषाक्त पदार्थोंं का जमाव भी खतरनाक सीमा तक पहँुच सकता है।
ऐसी परिस्थिति में ये कोशिकाएँ सुचारू ढंग से कार्य नही कर
सकतीं। नींद, इनमें ऊर्जा के स्तर की पुनर्प्राप्ति तथा
विषैले पदार्थों से मुक्ति का एक सहज उपाय प्रतीत होता है।
इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि गहन निद्रा की स्थिति
में बच्चों तथा युवाओंं में वृद्धि -हॉर्मोन्स का स्राव
अधिक मात्रा में होता है। शरीर की बहुत सी कोशिकाओं में
विशेष प्रकार के प्रोटीन्स का उत्पादान भी अधिक मात्रा में
होते देखा गया है। ये प्रोटीन्स कोशिकाओं की वृद्धि तथा
जागृत अवस्था में उनमें हुई टूट-फूट की भरपाई के काम आते
हैं। गहन निद्रा को एक प्रकार के सौंदर्य-निद्रा की संज्ञा
भी दी जा सकती है। भरपूर नींद लेने वाले व्यक्ति का भवनात्मक
एवं सामाजिक व्यावहारिकता का पक्ष भी संतुलित रहता है।
कुल मिला कर संक्षेप मे कहा जा सकता है कि नींद हमारे
सामान्य जीवन का अति आवश्यक अंश है। तो अब प्रश्न यह उठता है
कि भरपूर अच्छी गहन निद्रा के लिए हमें क्या करना चाहिए? इस
बारे में विशषज्ञों के सुझाओं का सार-संक्षेप निम्न है:
पर्याप्त शारीरिक श्रम तथा चिंता-मुक्त रहना अच्छे नींद की
संभवत: पहली शर्त है।
अच्छी नींद के लिए २० से ३० मिनट का नियमित व्यायाम अवश्य
करें, लेकिन सोने के समय के तथा व्यायाम के बीच पर्याप्त
अंतराल होना चाहिए।
सोने तथा जगने के समय के बारे मेंं नियमिता बरतें। हर रात एक
निश्चित समय पर सोएँ तथा सूर्योदय के साथ जगने का प्रयास
करें । सूर्योदय के साथ जगने पर हमारे शरीर की जैविक घड़ी
पर्यावरण के साथ आसानी से ताल-मेल बिठा लेती है और हमारा दिन
अच्छा बीतता है।
सोने के पूर्व गुनगुने पानी से नहाना, पढ़ना अथवा अन्य किसी
साधन का सहारा, जिससे शरीर तथा मन पूरी तरह आराम की स्थिति
में आ जाय - अच्छी नींद में सहायक होते हैं।
सोने के पूर्व शराब जैसे नशीले या व्यसनी बनाने वाले
पदार्थोंं यथा कॉफ़ी जैसे कैफ़ीन युक्त पेय आदि का सेवन न
करें। एल्कोहल हमें गहन तथा आरईएम अवस्था वाली निद्रा से
वंचित करता है।
धूम्रपान करने वाले व्यक्ति भी गहन निद्रा की स्थिति में कम
ही जा पाते हैं। जैसे ही उनके शरीर में निकोटिन की मात्रा कम
होती है वैसे ही उनकी नींद टूट जाती है। सोने की गोलियों का
सेवन बिना डॉक्टर की सलाह के तो कदापि न करें।
नीद न आने की स्थिति में बिस्तर पर लेटे रहने से कोई लाभ
नहीं होता। नीद नहीं आ रही है-इस बात की चिंता भी अनिद्रा की
स्थिति ला सकती है। हमें उठ कर किसी हल्के फुल्के कार्य में
लग जान चाहिए। ऐसा करने से थोड़ी देर में नींद आ जाती है।
शयन कक्ष का नियंत्रित तापक्रम नींद की दृष्टिकोण से अच्छा
है। बहुत ठंड या गर्मी नींद में बाधा उपस्थित करते हैं।
तो जनाब, जैसा कि इस आलेख के प्रारंभ में सुझाया गया है
-कड़ी मेहनत के बाद हमारे शरीर को आराम की भी उतनी ही
आवश्यकता है।़ अत: भरपूर सोइए तथा सुहाने सपने भी अवश्य
देखिए। और हाँ, अच्छी नींद के लिए बिस्तर पर जाते समय किसी
को मत देखिए अर्थात् चिंता-मुक्त रहिए, लेकिन मुँह मत ढकिए;
रोशनी का स्रोत अवश्य बंद कर दीजिए। शरीर में ऑक्सीजन की
मात्रा कम होने तथा तेज रोशनी से भी नींद में व्यवधान पड़
सकता है।
२४ दिसंबर २००३
स्टेम कोशिकाओं में छिपा
मानव कल्याण
(कुछ संभावनाएं)
मस्तिष्क तथा स्पाइनल कॉर्ड में रोग अथवा चोट के कारण घाव से
ग्रसित चूहों के रक्त में मानव अम्बेलिकल कॉर्ड के रक्त से
प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को मिश्रित करने के बाद यह पाया गया
कि ये कोशिकाएँ ऐसे घावों तक पहुँच कर स्नायु तंत्र की नई
कोशिकाओं के निर्माण में सहायक हैं तथा इन रोग-ग्रसित चूहों
के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ है।
अजन्मे मानव-भ्रूण को सुरक्षा कवच प्रदान करने वाले
एम्नियॉटिक-द्रव से वैज्ञनिकों ने संभावना युक्त स्टेम
कोशिकाओं का पता लगाया है।
रक्त से प्राप्त स्टेम सदृश्य कोशिकाओं की सहायता से गंभीर
हृदयाघात से पीड़ित चूहों के जैविक क्रिया-कलापों के
पुर्नस्थापना में वैज्ञानिकों ने सफलता पाई है।
स्टेम कोशिकाओं की सहायता से मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी नामक रोग
से ग्रसित चूहों की क़मजोर पड़ती मांसपेशियों को फिर से ठीक
करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली।
वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उम्र के साथ घटती स्टेम
कोशिकाओं की संख्या हमारी धमनियों की मरम्मत में गतिरोध
उतपन्न करती हैं- जिसके कारण उनमें आर्थेरोस्क्लेरॉसिस होने
लगती है। फलत: धमनियों में रक्त के बहाव में बाधा पड़ती है
जो अंतत: हृदयाघात का कारण बन सकती है।
भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के संबंध में चल रहे अनुसंधान के
फलस्वरूप वैज्ञानिकों को डायबिटीज़ के कारणों एवं निदान की
दिशा में कुछ नए सूत्र हाथ लगने की संभावना है।
चूहे की अस्थिमज्जा की स्टेम कोशिकाएँ अब स्नायुतंत्र की
कोशिकाओं में परिवर्तित की जा सकती हैं।
वैज्ञानिकों ने पहली बार स्टेम कोशिकाओं से फेफड़े के
क्षतिग्रस्त ऊतकों की पुनरोत्पत्ति में सफलता पाई।
वैज्ञानिकों ने अब यह समझ लिया है कि मुर्गी के भ्रूणीय
विकास के दौरान आंतरिक कान के विकास में संलग्न स्टेम
कोशिकाओं को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है।
ये चंद सुखियाँ हैं- विज्ञान जगत के उस हिस्से से जहाँ
वैज्ञानिक हम मनुष्यों के स्वास्थ्य के बारे में चिंतन करते
रहते हैं एवं अनुसंधान द्वारा इस बात के लिए प्रयत्नशील
रहतें हैं कि किस प्रकार जटिल से जटिल समस्याओं का निदान
सफलता पूर्वक किया जा सके तथा वर्तमान तकनीकि को परिमार्जित
कर हमारी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को और आसानी से सुलझाया
जा सके।
उपरोक्त खबरें दे कर- केवल खबर देना ही इस आलेख का उद्देश्य
नहीं है बल्कि यहाँ इरादा है-इन खबरों के पीछे की खबर लेना।
अगर आप ध्यान से इन खबरों को पढ़ें तो आप पाएँगे कि इन सब
में स्टेम कोशिका एक ऐसा शब्द है जो सब जगह आया है। तो आइए-
सबसे पहले हम इसी बात की जाँच-पड़ताल कर लें कि ये स्टेम
कोशिकाएँ हैं क्या बला एवं वैज्ञानिक क्यों इनके पीछे पड़े
हुए हैं। बाद में इन खबरों और इन जैसी अन्य महत्त्वपूर्ण
खबरों की खबर भी ली जाएगी।
इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका का नाम जरूर दिया गया है-परंतु
पेड़ के तने से इनका दूर-दूर तक लेना-देना नहीं हैं। ये
कोशिकाएँ हमारे-आप के शरीर में-बल्कि यूँ कहें कि उच्च
श्रेणी के सभी जन्तुओं के शरीर में पाई जाती हैं। भ्रूणीय
विकास में इनकी भूमिका बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ -
साथ विकसित शरीर में भी विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के
उत्पादन के मूल में यही कोशिकाएँ होती है। इन कोशिकाओं तथा
इनके महत्व को समझने के लिए भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया का
थोड़ा-बहुत ज्ञान आवश्यक है।
भ्रूणीय विकास का प्रारंभ शुक्राणु एवं डिंब के निषेचन से
निर्मित युग्मक की उत्पत्ति के साथ ही हो जाता है। युग्मक
तुरंत कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में संलंग्न हो जाता है और
कुछ ही समय में सैकड़ों कोशिकाओं का उत्पादन होता है। इन
कोशिकाओं की संरचना तथा कार्यकी में कोई अंतर नही होता।
मानव भ्रूण में ये कोशिकाएँ ३ से ५ दिन के अंदर
पुनर्व्यस्थित हो कर एक खोखले गेंद के आकार की ब्लास्टोसिस्ट
का निर्माण करती हैं। इस ब्लास्टोसिस्ट में एक स्थान पर लगभग
३० से ३५ कोशिकाओं के एक गुच्छे का निर्माण होता है- जिसे
इनर सेल मास कहते हैं। इन कोशिकाओं में भी कोई अंतर नहीं
होता है। इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका कहा जा सकता है क्यों
कि अब इनके विभाजन के फलस्वरूप सैकड़ों उच्च कोटि की विशिष्ट
कोशिकाओं का उत्पादन होता है-जिनकी संरचना एवं कार्यकी में
अतंर होता है।
ये विशिष्ट कोशिकाएँ भू्रणीय विकास के दौरान विभिन्न प्रकार
के ऊतकों के निर्माण में सहायक होती हैं। विकासशील भ्रूण के
विकसित हो रहे नाना प्रकार के ऊतकों में भी ये स्टेम
कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो विभाजित हो कर तरह-तरह की विशिष्ट
ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण करती हैं, जिनका उपयोग शरीर के
विभिन्न अंगों यथा हृदय, फेफड़े, त्वचा आदि या फिर अन्य
प्रकार के ऊतकों के निर्माण में होता है।
यही नहीं, वयस्कों के विभिन्न अंगों जैसे अस्थिमज्जा,
मांसपेशी, मस्तिष्क एवं अन्य ऊतकों में भी ये स्टेम कोशिकाएँ
थोड़ी बहुत मात्रा में पाई जाती हैं। सामान्य अवस्था में ये
कोशिकाएँ निष्क्रिय पड़ी रहती हैं परंतु बीमारी अथवा चोट या
फिर समय के साथ जीर्णता के कारण जब इन अंगों की ऊतकीय
कोशिकाओं का ह्रास होने लगता है, तब ये वयस्क स्टेम
कोशिकाएँ हरकत में आती हैं एवं इस अंग विशेष या ऊतक में
प्रयुक्त विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का निर्माण कर
क्षतिपूर्ति में सहायक होती हैं। क्यों कि ऊतकीय कोशिकाएँ
सामान्यत: कोशिका-विभाजन द्वारा अपने समान नई कोशिकाओं के
निर्माण में अक्षम होती हैं।
इन स्टेम कोशिकाओं में तीन विशिष्ट गुण समान रूप से पाए
जाते हैं - चाहे ये भू्रणीय अवस्था की हों अथवा वयस्क शरीर
की।
पहली बात तो यह कि इनकी संरचना एवं कार्यकी किसी भी साधारण
कोशिका के समान होती है। ये किसी भी ऊतक विशेष से मेल नही
खाते फलत: ऊतकीय कोशिकाओं के समान किसी विशिष्ट कार्य यथा -
लाल रूधिर कोशिकाओं के समान ऑक्सीजन ढोने या फिर मांसपेशीय
कोशिकाओं के समान शरीर की गतिशीलता बनाए रखने जैसे कार्योंं
में ये स्ंालंग्न नहीं हो सकतीं। हाँ- आवश्यकता पड़ने पर
कोशिका विभाजन द्वारा विशिष्ट प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं को
जन्म अवश्य दे सकती हैं।़
दूसरी बात - ये स्टेम कोशिकाएँ सामान्य परिस्थितियों में
बार-बार कोशिका विभाजन की प्रक्रिया द्वारा अपने ही समान नई
कोशिकाओं के निर्माण की क्षमता रखती हैं। इस प्रक्रिया को
प्रॉलीफरेशन कहते हैं। प्रॉलीफरेशन से प्राप्त नई कोशिकाएँ
भी यदि किसी ऊतक-विशेष के गुणों से युक्त न हो कर स्टेम
कोशिकाओं के समान हों तो ऐसी स्टेम कोशिकाओं को -लंबी अवधि
तक स्व नवीनीकरण की क्षमता से युक्त कहा जा सकता है।
तीसरी बात- आवश्यकता पड़ने पर, परिस्थिति विशेष में,
विभेदीकरण (डिफरेंशियेशन) द्वारा ये किसी ऊतक विशेष की
कोशिकाओं का निर्माण कर सकती हंै।
हमारे शरीर की सभी कोशिकाएँ-चाहे वे स्टेम कोशिकाएँ हों अथवा
इनके विभेदीकरण से निर्मित ऊतकीय कोशिकाएँ हों-सभी का
प्रादुर्भाव निष्ेाचित डिंब से होता है। फलत: इनकी जेनेटिक
संरचना में कोई अंतर नहीं होता। कोशिका की कार्यकी एवं
कार्य-कलापों को संचालित तथा नियंत्रित करने में इनमें पाए
जाने वाले जीन्स का हाथ होता है। ये जीन्स कोशिका की
आवश्यकतानुसार विशेष प्रोटीन्स के निर्माण में मुख्य भूमिका
निभाते हैं। ये प्रोटीन्स- कोशिका की संरचना में प्रयुक्त
होते हैं या फिर विभिन्न प्रकार के एन्ज़ाइम का कार्य कर
कोशिका की कार्यकी एवं क्रिया-कलापों के संचालन में सहायक
होते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी कोशिका
में पाए जाने वाले सभी जीन्स एक साथ क्रियाशील नहीं रहते।
स्टेम कोशिकाओं तथा इनके प्रॉलीफरेशन से उत्पन्न अविभेदित
कोशिकाओं की संरचना एवं क्रियाकलापों के नियमन के लिए इन
कोशिकाओं में जीन्स का एक विशेष समूह कार्यरत रहता है। जब
ये कोशिकाएँ विभेदन द्वारा ऊतकीय कोशिकाओं के उत्पादन में
संलग्न होती हैं तब जीन्स के कुछ नए सम्ूाह सक्रिय हो जाते
हैं। अब तक सक्रिय जीन्स में से कई निष्क्रिय हो जाते हैं।
ये नए सक्रिय जीन्स ही नए प्रोटीन्स का निर्माण कर स्टेम
कोशिकाओं के विभेदीकरण का नियंत्रण करते हैं एवं विभेदित हो
रही कोशिकाओं की संरचना तथा क्रिया-कलापों में अपेक्षित
परिवर्तन कर ऊतक विशेष के निर्माण में सहायक होते हैं।
आखिर वे कौन सी परिस्थतियाँ एवं कारण हैं जो स्टेम कोशिकाओं
में जीन्स-विशेष के समूह को सक्रिय रख कर बिना विभेदित हुुए
लगातार प्रॉलीफरेट कर अपने ही समान कोशिका निर्माण के लिए
उत्तरदाई हैं और फिर अचानक ऐसी कौन सी परिस्थतियाँ उत्पन्न
हो जाती हैं जो इन जीन्स मे से कई को निष्क्रिय कर देती हैं
तथा नए जीन्स-सम्ूाह को सक्रिय कर विभेदीकरण द्वारा इन्हें
किसी ऊतक-विशेष की कोशिका निर्माण के लिए प्रेरित करती हैं।
आज-कल वैज्ञानिकों तथा अनुसंधानकर्त्ताओं की अभिरूचि स्टेम
कोशिकाओं से संबंधित इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में है।
भविष्य में इनके विस्तृत अध्ययन से प्राप्त ज्ञान के बल पर
भ्रूणीय विकास की जटिलताओं को अच्छी तरह समझा जा सकता है
एवं जन्मजात बीमारियों से ले कर क्षतिग्रस्त ऊतकों तथा अंगों
की मरम्मत या फिर पूर के पूरे अंग को ही प्रतिस्थापित किया
जा सकता है।
वैज्ञानिक भू्रणीय तथा वयस्क- दोनों ही प्रकार की स्टेम
कोशिकाओं के अध्ययन में लगे हुए हैं। इनके अध्ययन के लिए
इन्हें इनके स्रोत से अलग कर प्रयोगशाला में प्लास्टिक की
तश्तरियों में विशेष पोषक तत्वों से युक्त कल्चर माध्यम में
कृत्रिम रूप से कोशिका विभाजन के उ्रत्प्रेरित किया जाता है।
इन तश्तरियों के भौतिक एवं रसायनिक पस्थितियों में तरह-तरह
के परिवर्तन कर यह जानने का प्रयास किया जाता है कि किन
परिस्थतियों में ये कोशिकाएँ बिना विभेदीकरण के अपने ही समान
कोशिकाओं के उत्पादन में संलग्न रहती हैं और कब एवं किन
परिस्थियों में विभेदीकरण की प्रक्रिया की ओर उन्मुख हो कर
किसी विशेष प्रकार की ऊतकीय कोशिका-उत्पादन की प्रक्रिया में
संलग्न हो जाती हैं।
वास्तव में यदि देखा जाय तो स्टेम कोशिकाओं-विशेषकर
अस्थिमज्जा में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के रक्त
कोशिकाओं के उत्पादन में संलग्न वयस्क स्टेम कोशिकाओं से
संबंधित इतिहास लगभग ४० साल पुराना है। १९६० के दशक में ही
अनुसंधानकत्ताओं ने इस तथ्य की खोज कर ली थी कि अस्थिमज्जा
में दो प्रकार की स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं। एक तो
हिमैटोपॉइटिक स्टेम कोशिकाएँ-जो सभी प्रकार की रक्त
कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं और दूसरी बोन मैरो
स्ट्रोमल कोशिकाओं का मिश्रित समूह, जिनसे
हड्डी-कार्टिलेज-वसा तथा फाइब्रर्स कनेक्टिव ऊतकों की
कोशिकाओं का उत्पादन होता है। पिछले ३० साल से इनका उपयोग
रक्त कैंसर से पीड़ित रोगियों के अस्थिमज्जा प्रतिस्थापना
में किया जा रहा है। १९६० के दशक मेें ही वैज्ञानिकों ने
चूहे के मस्तिष्क में दो ऐसे क्षेत्रों का पता लगा लिया था-
जहाँ वयस्क स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं तथा विभेदीकरण
कोशिका विभाजन द्वारा मस्तिष्क में पाए जाने वाले
स्नायुतंत्र की कोशिका-न्यूरॉन्स के साथ-साथ
ऑलिगोडेंड्राइड्स तथा एस्ट्रोसाइट्स के उत्पादन में भी सक्षम
हैं। इसके पूर्व वैज्ञानिकों का दृढ़ मत था कि वयस्क
मस्तिष्क में नई स्नायु कोशिकाओं का उत्पादन नहीं हो सकता।
-डा गुरू दयाल प्रदीप
स्टेम कोशिकाओं में छिपी
मानव कल्याण की संभावनाएं (२)
-डा गुरू दयाल प्रदीप
भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं संबंधित अनुसंधान का इतिहास भी कम
से कम २० वर्ष पुराना है। परंतु मानव भ्रूण से संबंधित
अनुसंधान कार्य पिछले ४-५ वर्षों से ही हो रहे हैं।वर्षांें
तक चूहों के भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के विस्तृत अध्ययन के
पश्चात् १९९८ मेें ही हम यह समझ पाए है कि मानव भ्रूण से
स्टेम कोशिकाओं को किस प्रकार अलग किया जा सकता है एवं
उन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से कैसे संवर्धित (कल्चर)
किया जा सकता है।
मानव भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएँ- डिम्ब के निषेचन के पश्चात् ३
से ५ दिन तक विकास की प्रक्रिया पूरी कर ब्लास्टोसिस्ट की
अवस्था में पहुँचे भ्रूण की इनर सेल मास से प्राप्त की जाती
हैं। अनुसंधान के लिए स्त्री के गर्भाशय में विकसित हो रहे
भ्रूण को न लेकर उसके शरीर से प्राप्त अनिषेचित डिंब को
प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से निषेचित कर कल्चर माध्यम में
कोशिका विभाजन हेतु अनुप्रेरित किया जाता है। जब ये भ्रूण
ब्लास्टोसिस्ट की अवस्था में पहँुच जाते हैं तब इनके इनर सेल
मास की कोशिकाओं को अलग कर ऐसी प्रयोगशालाओं को मुहय्या
करा दिया जाता है- जहाँ स्टेम कोशिका संबंधी अनुसंधान कार्य
चल रहे हों।
इन प्रयोगशालाओं में इनर मास की इन कोशिकाओं को समुचित
पोषक तत्वों से युक्त कल्चर माध्यम से भरी प्लास्टिक की
तश्तरियों मे स्थानांतरित कर दिया जाता है। इन तश्तरियों के
तले पर चूहे के भ्रूण से प्राप्त त्वचा की ऐसी कोशिकाओंे का
लेप लगाया रहता है जो विभिन्न रसायनों से इस प्रकार उपचारित
(ट्रीटेड) रहती हैं कि इनमें कोशिका विभाजन की क्षमता नहीं
होती। कोशिकाओं का ऐसा लेप इन तश्तरियों में स्थानांतरित
इनर मास की कोशिकाओं के लिए गोंद का काम करती हैं- जिससे ये
आसानी से चिपक कर स्थिर हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त चूहे की
कोशिकाओं का यह लेप कल्चर तश्तरी में पोषक तत्वों का स्राव
कर विभाजित हो रही इनर मास की कोशिकाओं के लिए भोजन के
स्रोत का कार्य करता है। हाल ही में चूहे की ऐसी कोशिकाओं
के लेप के बिना ही कल्चर तश्तरी में इनर सेल मास की
कोशिकाओं के प्रॉलीफरेशन की तकनीकि विकसित कर ली गई है।
ऐसी तश्तरियों में इनर सेल मास की ये कोशिकाएँ कई दिनों तक
लगातार विभाजित होती रहती हैं। जब इनकी संख्या पर्याप्त हो
जाती है तो इन्हें बड़ी ही सावधानी तथा कोमलता के साथ निकाल
कर नई कल्चर तश्तरियों में एक तह के रूप में स्थांतरित कर
दिया जाता है। जब इन तश्तरियों में भी इनकी संख्या आवश्यकता
से अधिक होने लगती है तो इन्हें पुन: नई तश्तरियों मे
स्थानांतरित कर दिया जाता है। स्थानांतरण की इस प्रक्रिया को
लगातार कई महीने तक बार-बार दुहराया जाता है जिसे
'सबकल्चरिंग' कहा जाता है। सबकल्चरिंग के एक चक्र को 'पैसेज'
का नाम दिया गया है।
लगभग छ: महीने या उससे भी लंबी अवधि तक सबकल्चरिंग के
फलस्वरूप इनर सेल मास की मूल कोशिकाओं से, जिनकी संख्या
मात्र ३० से ३५ होती है, लाखों भ्रूणीय कोशिकाओं का उत्पादन
होता है। चूँकि इनका उत्पादन बिना विभेदीकरण के होता है,
फलत: ये सभी कोशिकाएँ विभेदीकरण की क्षमता से युक्त होती हैं
एवं सभी प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम
होती हैं। ऐसी क्षमता से युक्त इन कोशिकाओं को
'एम्ब्रियॉनिक स्टेम सेल लाइन' के नाम से पुकारा जाता है।
एक बार ऐसी सेल लाइन की स्थापाना के बाद इन कोशिकाओं को अति
कम तापमान पर फ्रीज कर अन्य प्रयोगशालाओं में भेजा जा सकता
है-जहाँ इनका आगे भी कल्चर किया जा सकता है या फिर इन्हें
तरह-तरह के अभिनव प्रयोगों में प्रयुक्त कर इनके विभेदीकरण
की क्षम़ता को परखा जा सकता है तथा किन परिस्थितियों में
इनसे किस ऊतक विशेष की कोशिकाओं का ऊत्पादन हो रहा है-इस
तथ्य का ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है।
इन भ्रूणीय कोशिकाओं को जब तक विशिष्ट परिस्थितियों में
कल्चर किया जाता है तब तक ये बिना विभेदीकरण के अपने ही समान
अविभेदित कोशिकाओं का उत्पादन करती रहती हैं-परंतु जैसे ही
इन्हें एक साथ एक पिंड के रूप में विकसित हो कर एम्ब्रॉयड
बॉडी बनाने का अवसर मिलता है ये कोशिकाएँ विभेदीकरण की
प्रक्रिया में स्वत: जुट जाती हैं तथा विभिन्न प्रकार के
ऊतकीय कोशिकाओं यथा- मांसपेशी, स्नायुतंत्र आदि की
कोशिकाओं का उत्पादन कर सकती है। हालाँकि इस प्रकार की
स्वत: विभेदीकरण की प्रक्रिया कल्चर तश्तरियों में विकसित हो
रहे स्टेम कोशिकाओं के अच्छे स्वास्थ्य का द्योतक अवश्य
हैं- परंतु यह किसी ऊतक विशेष की विशिष्ट कोशिकाओं के
उत्पादन का प्रभावकारी तरीका नहीं है।
किसी ऊतक विशेष की विशिष्ट कोशिका के उत्पादन के लिए
वैज्ञानिक इन कल्चर तश्तरियों में विकसित हो रहे 'स्टेम सेल
लाइन' की कोशिकाओं के विभेदीकरण की प्रक्रिया को, कल्चर
माध्यम के रासायनिक संयोजन में या फिर कल्चर माध्यम की सतह
में परिवर्तन कर, प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त वे इन
कोशिकाओं में नए जीन्स को समावेशित कर स्टेम लाइन की
कोशिकाओं को ही संशोधित करने का प्रयास करते हैं।
उदाहरण के लिए यदि हमें डोपामाइन तथा सिरेटोनिन जैसे रसायन
का स्राव करने वाली स्नायुतंत्र की कोशिकाओं का उत्पादन
करना हो या फिर इन्सुलिन का स्राव करने वाले पैंक्रियाटिक
आइलेट्स की कोशिकाओं का- तो सबसे पहले एम्ब््राॉयड बॉडी को
आई टी एफ एसएन (इनसुलिन ट्रान्सफॉमिन ्रफाइब््राोनेक्टिन
सेलेनियम) से युक्त कल्चर माध्यम में रखा जाता है। फिर इनमें
से नेस्टिन पॉजिटिव कोशिकाओं को चुनकर नाइट्रोजन तथा एसिडिक
फाइब्रोब्लास्ट ग्रोथ फैक्टर से युक्त दो विभिन्न कल्चर
माध्यम में स्थानांतरित कर दिया जाता है। इसमें से एक कल्चर
माध्यम में अतिरिक्त रसायन के रूप में लैमिनिन एवं दूसरे
में बी २७ मीडिया सप्लिमेंट होता है। लैमिनिन युक्त कल्चर
माध्यम की कोशिकाएँ -नेस्टिन पॉजिटिव न्यूरल प्रिकर्सर
कोशिकाओं- में विभेदित होने लगती हैं तो बी २७ मीडिया
सप्लिमेंट युक्त माध्यम की केशिकाएँ -नेस्टिन पॉजिटिव
पैंक्रियाटिक प्रोजीनेटर कोशिकाओं- में। जब न्यूरल
प्रिकर्सर कोशिकाओं के कल्चर से एसिडिक फाइब्रोब्लास्ट
ग्रोथ फैक्टर को हटा दिया जाता है तो ये कोशिकाएँ डोपामाइन
तथा सिरेटोनिन का स्राव करने वाली स्नायु कोशिकाओं मे
विभेदित होने लगती हैं-वहीं जब पैंक्रियाटिक प्रोजिनेटर
कोशिकाओं के कल्चर से इन्हीं विशिष्ट ग्रोथ फैक्टर को हटा
कर निकोटिनेमाइड नामक पोषक तत्व का समावेश किया जाता है तो
ये इन्सुलिन का स्राव करने वाले पैंक्रियाटिक आइलेट्स की
कोशिकाओं के गुच्छे में विभेदित होने लगती हैं।
यदि वैज्ञानिक इसी प्रकार मानव भ्रूण की स्टेम कोशिकाओं के
विभेदन द्वारा सभी प्रकार के विशिष्ट ऊतकीय कोशिकाओं के
उत्पादन की प्रक्रिया को सुचारू एवं सुनिश्चित रूप से
नियंत्रित कर सकने में सक्षम हो जाएँ, तो भविष्य में ऊतक
विशेष की इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न कोशिकाओं का
प्रत्यारोपण कर नाना प्रकार के रोगों तथा व्याधियों पर आसानी
से विजय पाई जा सकती है। पर्किन्सन रोग (शरीर के अनियंत्रित
कंपन तथा अकड़न उत्पन्न करने के साथ-साथ गतिशीलता को कम करने
वाला रोग), डायबिटिज, इस्पाइनल कॉर्ड में क्षतिग्रस्त स्नायु
कोशिकाओं के कारण उत्पन्न मानसिक रोग, डचेन्स मस्क्युलर
डिस्ट्रॉफी (एक विशेष प्रकार की मांसपेशीय क्षीणता का रोग)
नाना प्रकार के हृदय रोग तथा देखने एवं सुनने की क्षमता का
उम्र के साथ ह्रास होने जैसे तमाम रोग इस संभावना के क्षेत्र
में आते हैं।
भविष्य में पर्किन्सन रोग के निदान में सबसे पहले सफलता
मिलने की संभावना है। यह रोग २ प्रतिशत लोगों में उम्र के
साथ डोपामाइन नामक रसायन का स्राव करने वाले विशिष्ट स्नायु
कोशिकाओं के क्षय से संबंधित है। जैसा कि आप ने ऊपर पढ़ा,
प्रयोशालाओं में भ्रूणीय कोशिकाओं से डोपामाइन का स्राव
करने वाली स्नायु कोशिकाओं के उत्पादन की सफल तकनीकि विकसित
कर ली गई है। इस प्रकार उत्पादित कोशिकाओं का ऐसे रोगियों
में प्रत्यारोपण कर- संभवत: इस रोग से छुटकारा पाया जा सकता
है।
यह तो मात्र एक उदाहरण है। इस आलेख के प्रारंभ में झलिकयों
के रूप में दिए गए समाचारों की कुछ सुर्खियाँ- इस दिशा में
किए जा रहे अनुसंधानों में मिल रही सफलताओं को दर्शा रही
हैं। भविष्य के गर्भ में इस प्रकार के अनुसंधानों में अनंत
संभावनाएँ छिपी हुई हैं, जो रोग-निदान के क्षेत्र में
क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।
यही नहीं- प्रयोगशालाओं में स्टेम कोशिकाओं द्वारा
उत्पादित विभिन्न प्रकार के ऊतकीय कोशिकाओं का उपयोग नई-नई
औषधियों का प्रभाव परखने के लिए भी किया जा सकता है, जिसके
फलस्वरूप किसी रोग विशेष से ग्रसित रोगियों या फिर अन्य
जन्तुओं का गिनी पिग की तरह उपयोग करने से बचा जा सकता है।
साथ ही अधिक विश्वसनीय परिणाम भी प्राप्त किए जा सकते हैं।
वयस्क स्टेम कोशिकाओं को ले कर किए जा रहे अनुसंधान भी इसी
दिशा की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं। वैसे तो वयस्क स्टेम
कोशिकाओं की पहचान शरीर के कई अंगों एवं ऊतकों यथा
मस्तिष्क, अस्थि, मज्जा, रक्त, रक्त वाहिनियों, अस्थि-पंजर
से जुड़ी मांस पेशियों, त्वचा तथा यकृत आदि में की जा चुकी
है। फिर भी वास्तव में ये कितने प्रकार के होते हैं तथा और
कहाँ-कहाँ स्थित हैं, इस बारे में सही एवं सुनिश्चित जानकारी
अभी भी नहीं है। इन कोशिकाओं के बारे में एक और महत्वपूर्ण
बात यह है कि किसी भी वयस्क अंग या ऊतक में ये बहुत ही थोड़ी
मात्रा में मिलती हैं तथा वर्षों तक बिना कोशिका विभाजन के
सुसुप्तावस्था में पड़ी रह सकती हैं। किसी बीमारी या ऊतकों
में चोट के फलस्वरूप सक्रिय हो कर ये उस अंग या ऊतक से
संबंधित कोशिकाओं के उत्पादन में संलंग्न हो जाती है।
अस्थिमज्जा तथा मस्तिष्क में पाए जाने वाली स्टेम कोशिकाओं
के विभेदीकरण के फलस्वरूप उत्पादित ऊतकीय कोशिकाओं के बारे
में पहले ही बताया जा चुका है। इसके अतिरिक्त आहार नाल की
इपीथीलियल स्टेम कोशिकाएँ- एबजॉर्टिव-गॉब्लेट-पैनेथ एवं
एन्टेरोएन्डोक्रीन जैसी कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती
हैं। इसी प्रकार त्वचा के इपीडर्मिस की बेसल स्तर तथा हेयर
फॉििकलल के आधार में पाए जाने वाली स्टेम कोशिकाएँ क्रमश:
किरैटिनोसाइट तथा नए हेयर फॉलिकिल एवं इपीडर्मिस की
कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं।
अब तक यह सोचा जाता था कि वयस्क स्टेम कोशिकाएँ उसी अंग या
ऊतक की कोशिकाओं का उत्पादन करने में सक्षम होती हैं जहाँ
वे पाई जाती हैं। लेकिन हाल के प्रयोगों से यह पता चला है कि
एक अंग अथवा ऊतक में पाए जाने वाली कुछ विशेष प्रकार की
वयस्क स्टेम कोशिकाएँ विशेष परिस्थितियों में अन्य अंगों एवं
ऊतकों की कोशिकाओं का उत्पादन भी कर सकती हैं। इन स्टेम
कोशिकाओं की इस विशिष्ट क्षमता को -प्लास्टिसिटी- अथवा
-ट्रांसडिफरेन्शियशन- की संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत हैं ऐसे
ही कुछ उदाहरण:
हिमैटोपॉयटिक स्टेम कोशिकाओं से स्नायु तंत्र की
न्यूरॉन-ऑलिगोडेन्ड्राइड्स तथा एस्ट्रोसाइट्स जैसी कोशिकाओं
से ले कर अस्थि पंजर एवं हृदय की मांसपेशियों तथा यकृति की
कोशिकाओं का उत्पादन किया जा सकता है। इसी प्रकार- अस्थि
मज्जा की स्ट्रोमल कोशिकाओं से भी अस्थि पंजर तथा हृदय की
मांसपेशियों का उत्पादन संभव है और मस्तिष्क की स्टेम
कोशिकाओं का उपयोग रक्त में पाई जाने वाली विभिन्न
कोशिकाओं तथा अस्थि पंजर की मांसपेशीय कोशिकाओं के विकास
में किया जा सकता है।
सीमित विभेदीकरण की क्षमता के बावजूद वयस्क स्टेम कोशिकाओं
का प्रत्यारोपण की प्रक्रिया में उपयोग करने का सबसे
महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि वयस्क रोगी के शरीर से ही इन
स्टेम कोशिकाओं को निकाल कर, इच्छित ऊतकीय कोशिकाओं का
उत्पादन कर, उसी रोगी के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा
सकेगा। इस प्रकार प्रत्यापित कोशिकाएँ रोगी के शरीर के
प्रतिरोधी तंत्र द्वारा अस्वीकृत भी नही होंगी। जब कि
भू्रणीय स्टेम कोशिकाओं से प्राप्त उतकीय कोशिकाओं का रोगी
के शरीर के प्रतिरोधी तंत्र द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने का
खतरा सदैव बना रहेगा, जिससे निपटने के लिए प्रतिरोध-उन्मूलक
औषधियों का सहारा लेना पड़ेगा।
स्टेम कोशिकाओं से संबंधित अनुसंधान कार्य अभी नवजात अवस्था
में ही है तथा इनके बारे में हमारा ज्ञान अधूरा है। अभी भी
बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिलने शेष हैं। जैसे-जैसे इस
क्षेत्र में नई-नई खोंजे हो रही हैं वैसे-वैसे कुछ नए
अनुत्तरित प्रश्न भी वैज्ञानिको के समक्ष चुनौती बन कर
प्रस्तुत होतेे जा रहे हैं। इन नए-नए प्रश्नों के उत्तर
खोजने तथा इनमें छिपी मानव स्वास्थ्य कल्याण की अनन्त
संभावनाओं के कारण आजकल वैज्ञानिक जगत में ऐसे अनुसंधानों
के प्रति अतिरिक्त उत्साह एवं सक्रियता है। आशा है- निकट
भविष्य में ही इनके अथक परिश्रम के फल से संपूर्ण मानव समाज
लाभान्वित होगा।
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