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गुर्दे
और मूत्राशय की पथरी एक ऐसा मूत्र अवरोधक रोग है जिससे विश्व में करोड़ो
लोग पीड़ित हैं। पथरी को शल्य क्रिया द्वार निकालने जाने के बाद भी,
साठ प्रतिशत रोगियों में इसका दुबारा बन जाना पाया गया है।
आंकड़ों के अनुसार दस पुरूषों में से एक तथा बीस स्त्रीयों में से एक को 3050 आयु में
गुर्दे की पथरी पायी गयी है। बच्चों में भी यह रोग पाया जाता है।
गुर्दे की पथरी अनेक प्रकार के अम्लों और कैलसियमों का एक पिंड है जो एक पत्थर या महीन
टुकड़ों या तलछट का आकार ले लेता है। पथरी का आकार एक छोटे
कण से लेकर टेनिस की गेंद तक हो सकता है। अधिकतर इसके पैदा होने पर कोई
चिह्न नहीं दिखाई देते, पहला कष्ट तब महसूस होता है जब पेशाब में रूकावट
या असह्य दर्द का हमला होता है। दर्द अधिकतर कमर में पीछे के भाग या
किनारे से प्रारंभ हो कर पेट की भयंकर पीड़ा में बदल जाता है।
कभीकभी जल्दीजल्दी मूत्रत्याग की इच्छा होना और कभी वमन या पेशाब में खून का दिखाई देना
भी इसके लक्षण हैं। रोग की पुष्टि के लिये आधुनिक साधनों में एक्सरे, सी टी
स्कैन और अल्ट्रा साउंड का उपयोग होता है।
"डीहाईडरेशन थ्योरी" से पता चलता है कि गुर्दे में पथरी होने का कारण पेशाब में कैलशियम फासफेट, आक्जेलेट, यूरिया, यूरिक एसिड साइटरेट,
मिश्रित प्रोटीन या दूसरे तरह के पदार्थ हैं जो जुड़कर सघन हो जाते हैं। निम्नलिखित कारणों द्वारा
भी गुर्दे में पथरी हो सकती है।
कुछ विशेष स्थान पर उपर्युक्त पदार्थों का होना।
जल में उपर्युक्त पदार्थों का संयोग।
भारी जल का उपयोग जिसमें कैलशियम सल्फेट का होना।
मृदु जल में अधिक सोडियम कारबोनेट का होना।
जायदा खाना पीना।
पारिवारिक इतिहास में पथरी का पाया जाना।
अधिक रक्तचाप।
गठिया के कारण अधिक यूरिक एसिड का बनना।
अनेक पद्धितियां इसको खत्म व रोकनें में मदद करती है।
जल को अधिक मात्रा में पीना
लिथोटरेप्सी यानि स्टोन को ब्लास्ट करके चुरा कर देना या सर्जरी द्वारा।
होम्योपैथिक द्वारा भी किया जा सकता है।
गुर्दे की पथरी एक प्राचीन समस्या है। उस समय आयुर्वेदिक व प्राकृतिक पद्धतियों से
इसके इलाज का प्रचलन था जिसमें रत्न चिकित्सा भी शामिल थी। यह पद्धति
नयी नहीं है। समाज के प्रभावपूर्ण वर्ग को इस पद्धति का ज्ञान प्राचीन समय से था परन्तु स्त्नों के
अत्यधिक मूल्य व कम मात्रा में उपलब्धि के कारणों से यह
पद्धति कुछ विशिष्ट लोगों तक ही सीमित रही। आज इस विद्या के प्रचार के बाद
रत्नों के विज्ञान का भी प्रचार हुआ है और इस चिकित्सा का प्रचलन बढ़
रहा है।
वैज्ञानिक तौर पर रत्न
रंगीन धारा को एकाग्र्र करते है जिनकी विभिन्न लंबाई की तरंगें मानव संरचना पर अनेक प्रकार
के प्रभाव डालती हैं। सात रंग की किरणें सात ग्रहों की ऊर्जा को रूपांतरित
कर के इनका प्रभाव मानव के शरीर में स्थित ग्रहों के केन्द्रों तक
पहुँचाती हैं और उनको पुष्ट करती हैं।सब केन्द्र पृथक होते हुए भी एक केन्द्रीय
शनि ग्रह से जुड़े हुए हैं। यदि शरीर में केन्द्रों का ठीक प्रकार से समनव्यय
हो तो रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।
अगर केन्द्रों का समन्वय ना हो तथा कुछ केन्द्रों में कम या अधिक रंगीन उर्जा
हो तो यह स्थिति रोगों को जन्म देती है। रंग तरंगों को रत्नों द्वारा
कृत्रिम रूप में संजो कर इस स्थिति को दूर किया जा सकता हैं।
रोग से निदान पाने के लिए ग्रहों की रंगीन उर्जा के सिद्धान्त को समक्षना तथा विश्लेषण करना अति आवश्यक है जिससे मूल्य कारणों का पता चल
सके और
आवश्यकतानुसार रत्नों का चयन किया जा सके। ये रत्न शरीर के किसी विशेष स्थान या अंगुलियों में पहनते हैं जिससे
असमन्वय
वाले केन्द्रों की उर्जा को कम या अधिक किया जा सके। जैसेजैसे केन्द्र की
नकारात्मक व सकारात्मक ऊर्जा सुचारू स्तर तक पहुंचने लगती है, वैसे
वैसे रोग का निदान होने लगता है। गुर्दे
में पथरी के कारक शनि, शुक्र व बुध ग्रह हैं। इनकी ऊर्जा को
प्राप्त करने हेतु इनके रत्न धारण करने चाहिये। इस दिशा में अनेक प्रयोगों द्वारा निष्कर्ष निकलता है कि रत्न
गुर्दे की पथरी के उपचार के लिये सक्षम है परन्तु
उपचार समय भिन्नभिन्न हो सकता है जो पथरी के आकारप्रकार और
कितना पुराना रोग है इस पर निर्भर करता है। दर्द की तीव्रता में, रत्न तुरन्त राहत में
करते दिखाई पड़ते हैं। कई रोगी जिनकी शल्य क्रिया की तिथि निश्चित हो
चुकी थी, तथा जो दर्द की बहुलता से अत्यधिक परेशान थे इस पद्धति ने तुरन्त राहत दी तथा
पथरी भी सरलता से निकल गयी। इस अध्ययन ने पथरी के उपचार हेतु एक नयी दिशा में अपना योगदान दिया है और पीड़ितों
के लिये बिना औषधि के उपचार का एक नया रास्ता खोला है जो पूर्ण रूप
से हानिरहित है। |