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स्वाद और स्वास्थ्य

नेह रखें नाशपाती से  

 
 क्या आप जानते हैं?

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विटामिन की प्रचुरता के कारण नाशपाती मनुष्य के प्रतिरक्षा तंत्र को बेहतर बनाती है।
 

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नाशपाती के नाम के प्रारंभ में नाश शब्द होने के कारण बहुत सी भारतीय परंपराओं में शुभ अवसर पर इस फल का प्रयोग नहीं किया जाता है।
 

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 विश्व भर में नाशपाती की ३००० से ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

नाशपाती सेब से मिलता जुलता, उप-अम्लीय फल है, लेकिन इसमें शर्करा अधिक तथा अम्ल कम पाया जाता है। भारतवर्ष में पैदा होने वाले ठंढे जलवायु वाले फलों में नाशपाती का महत्त्व सेब से अधिक है। अच्छी बढ़वार के लिये इसे ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है, लेकिन इसकी कुछ किस्में मैदानी जलवायु में भी पैदा की जाती है और खूब फल देती हैं। यह स्वास्थ्य के लिये उपयोगी है। इसके सेवन से हमारे शरीर की अनेक आवश्यकताएँ पूरी होती हैं और शरीर के अनेकानेक रोगों में लाभ प्राप्त होता है।

रूप रंग-

नाशपाती देखने में सेब के रंग और आकार की होती है किन्तु इसके ऊपरी भाग पर हल्के काले-काले दाने उभरे होते हैं। इससे यह सेब की जाति का होने के बावजूद कुछ अलग-सा फल होने का आभास देता है। इसका ऊपरी छिलका भी सेब से अधिक मोटा होता है। नाशपाती का स्वाद मीठा और कुरकुरा होता है किन्तु पूर्णतया कच्चा होने पर खट्टे और मीठे के मिले-जुले स्वाद का हो सकता है, जो देखने में एकदम हरा दिखता है जबकि पकने पर इसका रंग हल्का पीला होता है। ये सेब की अपेक्षा सस्ती बिकती हैं।

रासायनिक तत्व-

१०० ग्राम नाशपाती में निम्न पोषक तत्व पाये जाते हैं- जल- ८६ ग्राम, प्रोटीन- ०.६ ग्राम, वसा- ०.२ ग्राम, रेशा- १ ग्राम, कार्बोज- ११.९ मि.ग्रा., कैल्शियम- ८ मि.ग्रा., फॉस्फोरस- १५ मि.ग्रा. लौह तत्व- ०.५ मि.ग्रा., कैरोटिन- २८ मा.ग्रा., थायेमीन- ०.०६ मि.ग्रा., रिबोफ्लेबिन- ०.०३ मि.ग्रा., निसासिन- ०.२ मि.ग्रा., ऊर्जा- ५२ कि. कैलौरी।

विटामिन की प्रचुरता के कारण नाशपाती मनुष्य के प्रतिरक्षा तंत्र को बेहतर बनाती है, रेशे की मात्रा अधिक होने के कारण यह पाचनतंत्र को लाभ पहुँचाती है और शर्करा अधिक होने के कारण शरीर को ऊर्जा प्रदान करती है। नाशपाती शरीर में कैलशियम के अवशोषण में सहायता करती है जिससे ऑस्टोपोरोसिस से बचाव होता है।

इतिहास-

नाशपाती का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इसकी ३००० से ज्यादा प्रजातियाँ विश्व भर में पाई जाती हैं। नाशपाती का जन्म-स्थल एशिया और यूरोप को माना जाता है। अमेरिका में इसका पहला पेड़ उत्तरी अमेरिका में १६२० में मैसाच्युएट्स बे कॉलोनी में लगाया गया था। यूरोपियन नाशपाती का जन्म-स्थल दक्षिण पूर्व एशिया को माना जाता है और सबसे पहले यूरोप में इसकी खेती ईसा से १००० वर्ष पहले प्रारंभ की गई थी। एशिया में नाशपाती की खेती ईसा से ११३४ वर्ष पहले चीन में होने लगी थी। भारत में नाशपाती यूरोप और ईरान के रास्ते आई और धीरे-धीरे इसकी खेती बढ़ती गई। अनुमान किया जाता है कि अब हमारे देश में लगभग ४००० एकड़ में इसकी खेती होने लगी है। पंजाब की कुलू घाटी तथा कश्मीर में यूरोपीय किस्में पैदा की जाती हैं और इनके फलों की गणना संसार के उत्तम फलों में होती है।

रोचक तथ्य-

नाशपाती के नाम के प्रारंभ में नाश शब्द होने के कारण बहुत सी भारतीय परंपराओं में शुभ अवसर पर इस फल का प्रयोग नहीं किया जाता है। चीनी भाषा में इसका नाम ली है जिसका अर्थ होता है अमरत्व। नाशपाती के पेड़ का सूख जाना या उसको काटना अचानक मृत्यु का प्रतीक माना जाता है। चीनी भाषा में फेन ली शब्द के दो अर्थ हैं 'किसी को नाशपाती देना' और 'वियोग होना' इस कारण वहाँ किसी को नाशपाती देना अशुभ समझा जाता है और यह माना जाता है कि जिसको हम नाशपाती देते हैं उससे मित्रता लंबी नहीं चलती।
जब तंबाकू का आविष्कार नहीं हुआ था तब नाशपाती के पत्तों का धुआँ पीने की परंपरा थी। अंग्रेजी रचनाकार होमर ने अपने महाकाव्य ओडिसी में नाशपाती को देवताओं का उपहार कहा है। ग्रीक देवशास्त्र में इसे हीरा और एफ्रोडाइट तथा रोमन देवशास्त्र में इसे जूनो और वीनस का प्रिय फल माना गया है। रोमन देवी पोमोना, जो समृद्धि की देवी है, को भी यह फल प्रिय है। ग्रीस में मतली रोकने के लिये इस फल का सबसे पहला औषधीय प्रयोग हुआ।

घरेलू प्रयोग-

यह एक रसदार फल है किन्तु कुछ नाशपातियों के फल का भीतरी भाग रवादार होता है। नाशपाती का सेवन न केवल फल के रूप में होता है, बल्कि इसका अनेक प्रकार की औषधियों के निर्माण में भी इस्तेमाल होता है। यह प्यास मिटाता है, जिगर की कार्यशक्ति को बढ़ाता है, मूत्र संबंधी शिकायतों को दूर करता है, भोजन के प्रति रुचि जगाता है व शरीर में रक्त वृद्धि करने में सहायक होता है। इसके सेवन से शरीर में होने वाली धातुओं की कमी दूर होती है। खाने में यह स्वादिष्ट और रुचिकारक होता है। नाशपाती का नियमित रूप से सेवन करने पर शारीरिक शक्ति के साथ-साथ देह सुगठित बनती है। कब्ज की शिकायत दूर होती है। बार-बार दस्त होने और उल्टी होने की शिकायत पर भी काबू पाया जा सकता है। पेट के रोगों में इसका सेवन लाभकारी प्रभाव दिखाता है।

इसका सेवन बच्चों को अनेक रोगों से सुरक्षा प्रदान करता है। सभी उम्र वर्ग के लोग इसका सेवन कर सकते हैं, इसका सेवन किसी भी रूप से हानिकारक नहीं माना जाता। यह स्वाद के मामले में लज्जतदार और पौष्टिक आहार भी है, जिसे रोगी के लिए उत्तम पथ्य माना गया है। इसीलिए हमारे देश में नाशपाती का सेवन न केवल फल वरन् मुरब्बा आदि बनाने के लिए भी किया जाता है। पेट के रोगों में इसका सेवन अति लाभकारी सिद्ध होता है, इसके बीज में भी पौष्टिक तत्व होते हैं। इसका सेवन वीर्यवर्धक होता है। श्वेत प्रदर रोग-ग्रस्त स्त्रियों के लिए भी इसका सेवन गुणकारी एवं हितकारी साबित होता है। इसलिए इसका अवश्य ही सेवन किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिये कि ज्वर, विशेषकर आन्त्रिक ज्वर में नाशपाती हानिकारक है।

अन्य प्रयोग-

नाशपाती की लकड़ी का प्रयोग संगीत के वाद्य और फर्नीचर बनाने में किया जाता है। क्यों कि इसमें से कोई गंध और रंग नहीं निकलता है और क्यों कि यह डिशवाशर में बार बार धोए जाने पर भी खराब नहीं होते इसलिये रसोई में काम आने वाले लकड़ी के बर्तनों के लिये भी नाशपाती की लकड़ी का प्रयोग होता है। आर्किटेक्ट के स्केल भी नाशपाती की लकड़ी के बनाए जाते हैं क्यों कि ये लंबे और पतले आकार में काटे जाने के बाद भी फटती नहीं है। फल के रूप में खाने के अतिरिक्त नाशपाती का प्रयोग केक, सलाद, जैम जेली और मुरब्बे के लिये भी होता है।

नाशपाती की खेती-

नाशपाती के लिए चिकनी दोमट तथा जंगली नाशपाती के लिये बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम समझी जाती है। यूरोपीय किस्मों के लिए समशीतोष्ण जलवायु अच्छी होती है। साधारण सहिष्णु किस्में मैदानी जलवायु में भी पैदा की जा सकती हैं। इसके नये पेड़ को अधिकतर कलम बाँधकर तैयार किया जाता है। सर्दी के मौसम में जब नाशपाती के पौधे सुषुप्तावस्था में रहते हैं, उस समय इनका वृक्षारोपण १२ से २५ फुट की दूरी पर गड्ढे खोदकर किया जाता है। दिसंबर के महीने में खाद दी जाती है। मार्च में जब फल मटर के दाने से कुछ बड़े हो जाते हैं, तब पेड़ों को हफ्तेवार पानी जून के मध्य तक दिया जाता है। हर पानी के दो या तीन दिन बाद हल्की गुड़ाई, निराई करके थालों को साफ कर दिया जाता है। नाशपाती के बाग में मटर, चना और लोबिया जैसी फलीदार फसलों को बोते रहने से भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। पेड़ लगाने के दूसरे वर्ष हल्की काट छाँट करके पौधे को गोल बना दिया जाता है। बाहर की तरफ फैलनेवाली शाखों को काट छाँटकर, पेड़ का फैलाव ऊपर की ओर किया जाता है। ढाँचा प्रतिस्थापित हो जाने के बाद दिसंबर या जनवरी में फलवाली टहनियों की हल्की कटाई की जाती है। काट छाँट के बिना पेड़ झाड़ जैसे बन जाते हैं और फल कम हो जाते हैं। वसंत के शुरू होते ही पेड़ों पर हरी कोपलें तथा फूल आने शुरू हो जाते हैं। इनके फल जून के अंत में पकने लगते हैं।

१ जून २०१६

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