तुरई लता जाति का वानस्पतिक फल है जो अपने बीज से
उत्पन्न बेल में बहुतायत रूप में फलता है। इसकी
बेल के पत्ते हरे आकार में बड़े तथा, फूल-पीले रंग
के होते हैं। इसके फल लगभग ६ से १२ इंच लम्बे,
आधार की तरफ संकुचित एवं धारीदार होते हैं। फलों
के अन्दर श्वेत वर्ण की मुलायम गूदा एवं बीज रहते
हैं। सामान्य रूप से तोरई का फल मीठा होता है
किन्तु कभी-कभी कड़वी तोरई भी निकल आती है। मीठी
तोरई का ही प्रयोग साग-सब्जी में किया जाता है,
कड़वी का नहीं।
इतिहास-
तोरई का मूल उत्पत्ति स्थल भारत है। जहाँ से वह
दक्षिणी एशिया तथा अफ्रीका के उष्ण प्रदेश में
पहुँची। इसकी कुछ जंगली जातियाँ भी भारत तथा जावा
में पाई जाती है। लेकिन अमेरिका पहुँचते पहुँचते
इसे १९२० का वर्ष आ गया जब इतालवी लोग इसे वहाँ ले
गए। घिया तोरई की खेती ब्राजील, मैक्सिको, घाना
तथा भारतवर्ष में विस्तृत रूप से की जाती है जबकि,
काली तोरई की खेती अधिकांशतः हमारे ही देश में की
जाती है। हमारे देश में इसकी खेती मैदानी तथा
पर्वतीय दोनों क्षेत्रों में की जाती है। २२ से २५
अगस्त तक ओबेट्ज, ओहियो में तुरई उत्सव मनाया जाता
है जिसमें खरीद फरोख्त, जानकारी, मनोरंजन, खान-पान
आदि सभी का प्रबंध होता है।
विभिन्न भाषाओं में-
हिन्दी में इसे तोरई, तुरई, तरोई, संस्कृत में -
धामागर्व, पीतपुष्प, जालिनी, कृत बेधना,
राजकोशातकी आदि नामों से जाना जाता है। इसका लेटिन
नाम - लूफा एक्यूटंगुला है। इसे असमिया जिका,
बांग्ला में झिंगा, गुजराती में तुरीया, कन्नड़
में हीरेकाई, तमिल में पीरकंगाई, तेलुगु में
बीराकाया, मराठी में दोडकी, कोंकणी में गोसाले और
श्रीलंका की भाषा में वाटाकोलु कहते हैं।
रासायनिक संगठन-
रासायनिक संगठन के रूप में इसके फलों में कड़वा
द्रव्य एवं बीजों में एक तेल पाया जाता है। १००
ग्राम तुरई में अनुमानित खाद्य तत्व ये हैं- पानी
- ९५.२ ग्राम, प्रोटीन - ०.५ ग्राम, वसा - ०.१
ग्राम, रेशा - ०.५ ग्राम, कार्बोज - ३.४ ग्राम,
कैल्शियम - १८ मि.ग्रा., फॉस्फोरस - २६ मि.ग्रा.,
लौह तत्व - ०.४ मि.ग्रा., कैरोटिन - ३३ मि.ग्रा.,
रिबोफ्लेविन - ०.१ मि.ग्रा., नियासिन - ०.२
मि.ग्रा., विटामिन सी - ५ मि.ग्रा., ऊर्जा - १७
कि. कैलोरी।
गुण
एवं उपयोगिता-
|
सामान्यतः तुरई
का उपयोग सब्जी बनाने के लिए किया जाता है।
तोरई की तरकारी पाचन में आसाम होने के कारण
अस्वस्थ व बीमार लोगों के लिये उपयुक्त मानी
जाती है। |
|
यह रक्त और
मूत्र दोनों में शर्करा के स्तर को कम करने
में मदद करता है अतः मधुमेह में उपयोगी है। एक
तुरई में ९५ प्रतिशत पानी और केवल २५ कैलोरी
होती है। इसके साथ ही इसमें संतृप्त वसा और
कोलेस्ट्रॉल बहुत ही कम है जो वजन कम करने में
सहायक होता है। तुरई को नियमित लेते रहने से
कब्ज नहीं होता। |
|
तोरई के बीज
वामक तथा विरेचक होते हैं। वमन एवं विरेचन
कराने के लिए इसके बीजों का चूर्ण या अन्य
कल्पाओं के रूप में प्रयोग किया जाता है।
|
|
सामान्य रूप से
तोरई मधुर, रसयुक्त, शीतल अग्निदीपक, कफ तथा
वातकारक होती है तथा पित्त, श्वांस, ज्वर,
खाँसी, कृमि आदि रोगों में फायदा करती है।
|
|
तुरई में बीटा
कैरोटीन पाया जाता है जो नेत्र दृष्टि बढ़ाने
में मदद करता हैं। नेत्रगत रोहें रोग होने पर,
इसके ताजे पत्तों का रस निकालकर डालना लाभदायक
होता है। |
|
प्लीहा वृद्धि
में इसके पत्तों का प्रयोग लेप करने में काम
आता है। तोरई का रस पीलिया रोग के उपचार में
भी मदद करता है। |
|
यह मुँहासे,
एक्जिमा, सोरायसिस और अन्य त्वचा संबंधी रोगों
के उपचार में सहायक होता है, साथ ही कुष्ठ आदि
चर्म रोगों में भी करते हैं।
|
|
तोरई की सब्जी
खाने से प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होता हैं।
यह संक्रमण के खिलाफ शरीर को रक्षा प्रदान
करता हैं, रक्त को शुद्ध करने में मदद करती है
और बवासीर के इलाज में सहायक होती है।
|
जंगली तोरई-
इसे कड़वी तोरई भी कहते हैं, जो सामान्य तोरई (कड़वी
या मीठी) से एकदम भिन्न है। इसका लेटिन नाम -
एक्यूटंगुला प्रकार अमारा है। इसके पत्ते व पुष्प
तोरई जैसे ही होते हैं किन्तु इसके पत्ते
अपेक्षाकृत छोटे, भूरे व खुरदरे तथा फल २ से ४ इंच
लम्बे, १-२ इंच मोटाई वाले होते हैं। फल एकदम कड़वा
यानी फल अन्दर बाहर से बीजों सहित एकदम कड़वा होता
है। जंगती तोरई का साग-सब्जी बनाने में कतई उपयोग
नहीं करते किन्तु आयुर्वेदीय औषध रूप में इसका
प्रयोग, वामक, विरेचक, मूत्रजनन, वृणशोधन, विषघ्न
आदि रूपों में किया जाता है।
२२
जून २०१५