मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


स्वाद और स्वास्थ्य

कचरी के गुण कमाल के  

 
 क्या आप जानते हैं?

bullet

कि कचरी स्वयं उगने वाला एक पतवार है, इसकी खेती नहीं की जाती।
 

bullet

कि कचरी को फल की तरह, सब्जी की तरह, कच्चा, पक्का और सुखाकर हर प्रकार से खाया जाता है।
 

bullet

कि कचरी के फल के साथ विभिन्न भाषाओं में अनेक मुहावरे जुड़े हुए हैं।
 

कचरी राजस्थान तथा आसपास के प्रदेशों की एक सुपरिचित तरकारी है। कचरी से बनी हुई लौंजी (सब्जी) अत्यन्त स्वादिष्ट एवं रूचिकर होती है। मरु-प्रदेश में अत्यधिक पैदा होने के कारण कचरी का एक नाम ‘मरुजा’ भी है। कचरी के साथ मिर्च या कचरी के साथ आलू इत्यादि का मिश्रण करके सब्जी बनाने की परिपाटी भी है। जब यह फल कच्चे होते हैं, तो हरे एवं सफेद रंग लिए हुए चितकबरे प्रतीत होते हैं तथा अत्यन्त कड़वे होते हैं। पकने पर यही पीले पड़ जाते हैं। अधपकी एवं पूर्ण पक्व कचरियों से अत्यन्त मधुर एवं भीनी-भीनी खुशबू आती रहती है। इसलिए बहुत से लोग केवल सुगन्ध के लिए ही कचरियों को अपने पास रखते हैं तथा बार-बार सूँघकर इसकी सुगन्ध से आह्लादित होते रहते हैं। कचरी को उगाया नहीं जाता है, अपितु इसकी बेल वर्षा ऋतु में विशेष रूप से खरीफ की फसल के समय खेतों में स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में यह मिलती है। कचरी कच्ची अवस्था में अत्यन्त कड़वी तथा पक जाने पर खट्टी-मीठी हो जाती है।

विभिन्न नाम-

वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार कचरी का पौधा 'कुकुरबिटेसी’ कुल के अन्तर्गत आता है। संस्कृत में कचरी को चित्रकला, मृगाक्षी, चिभट इत्यादि नामों से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दी में भी इसके आँचलिकता के आधार पर विविध नाम हो जाते हैं जैसे-काचर, कचरिया, सेंधा, पेंहटा, गुराड़ी। मारवाड़ी में कचरी को काचरी तथा सेंध कहा जाता है। पंजाबी में चिम्भड़, मराठी में टकमके, रौंदणी, चिभूड़ बंगला में बनगोमुक, कुन्दुरुकी फुटी नामों से कचरी को जाना जाता है। अंग्रेजी भाषा में इसे ककुम्बर, प्युबेसेन्ट तथा लेटिन में क्युक्युमिस-प्युबेसेन्ट कहा जाता है। चूँकि कचरी को गोपालक (ग्वाले) बहुत खाया करते हैं, इसलिए कचरी का एक अन्य नाम ‘गोपाल कर्कटी’ भी है।

आयुर्वेदिक के अनुसार-

कचरी में अनेक औषधीय गुण होते हैं। आयुर्वेदीय शास्त्रों ने इसे कर्कटी वर्ग की वनौषधि माना है। आयुर्वेदीय ग्रंथों के अनुसार कचरी की बेल खीरे जैसी होती है, किन्तु उससे लम्बाई में कुछ छोटी होती है। इसके पत्ते छोटे तथा चार इंच तक लम्बे तथा छह इंच तक चौड़े, नरम तथा कोमल होते हैं। आकार में बिलकुल ककड़ी के पत्तों जैसे ही होते हैं। कचरी की बेल में छोटे-छोटे पीले रंग के खूबसूरत फूल लगते हैं। भाद्रपद मास में छोटे-छोटे लम्बे-गोल फल लगने लगते हैं। यही फल कचरी कहलाते हैं। कचरी को आयुर्वेद में मृगाक्षी कहा जाता है और काचरी बिगड़े हुए जुकाम, पित्‍त, कफ, कब्‍ज, परमेह सहित कई रोगों में बेहतरीन दवा मानी गई है। प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रंथ ‘राज-निघंटु’ में कचरी का वर्णन करते हुए बताया गया है कि यह एवं तिक्तरंस वाली, विपाक में अम्ल वातनाशक पित्तकारक तथा पुराने बिगड़े हुए जुकाम को कम करने वाली दीपन तथा उत्तम रुचिकारक है।

हकीमों के अनुसार-

हकीमों के अनुसार कचरी गर्म और खुश्क होती है। यह मीठी, हल्की तथा आमाशय को मृदु बनाने वाली, भूख बढ़ाने वाली, कामोद्दीपक तथा बवासीर, लकवा इत्यादि वात-कफज रोगों में आराम देती है। चूँकि कचरी में सुगन्ध होती है, इसलिए यह दिल व दिमाग को ताकत देती है। वायु रोगों में इसका सेवन ‘सोंठ’ के साथ कराया जाता हैं भोजन पचाने तथा भूख बढ़ाने वाले चूर्ण में भी कचरियाँ मिलाई जाती हैं। कचरी के सेवन करने के बाद पेशाब खुलकर आता है। गरम तासीर वालों को कचरी का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए अन्यथा बेचैनी, सिरदर्द, दस्त, बुखार, इत्यादि उपद्रव हो सकते हैं। इन उपद्रवों की अवस्था में धनिए का सेवन करना लाभप्रद होता है। कचरी के उत्तम दीपन-पाचन गुणों के कारण इसे दाल में भी डालने का प्रचलन है। इससे गैस के रोगियों को भी लाभ होता है। बवासीर में कचरी की धूनी देना बहुत लाभदायक होता हैं कचरी की जड़ में ‘पथरी’ नष्ट करने की क्षमता होती है।

सावधानी और घरेलू प्रयोग-

पकी कचरी को सीधे ही, बिना सब्जी बनाए ज्यादा खा लेने से मुँह में छाले हो जाते हैं तथा जीभ कट-फट जाती है। कुछ लोगों को इससे बुखार भी आ जाता है। बड़ी कचरी के बीज को माशे की मात्रा में लेकर, चावल के धोवन के साथ पीसकर छानकर उसमें थोड़ा लाल-चन्दन घिसकर मिलाए। पेशाब की कठिनाई वाले रोगों को पिलाने से पेशाब खुलकर आने लगता है। कच्ची कचरी का साग दस्तों में उपयोगी माना जाता है। तम्बाकू का सेवन करने वालों के लिए भी कचरी लाभप्रद है। सुखाई हुई कचरियाँ रुचिकारक, दीपन, दस्तावर तथा भोजन में अरुचि, पेट के कीड़ों, जड़ता इत्यादि के दूर करने वाली होती हैं।

मुहावरों में कचरी-

कचरी  बहुत से भाषाई प्रयोगों और मुहवरों के साथ जुड़ी है। कचरी  अपने तीखी खटास के लिए भी जाना जाता है। कचरी  के एक छोटे से बीज को अगर एक मण (४० किलो लगभग) दूध में डाल दें तो वह पूरे दूध को फाड़ देगा। खराब कर देगा. यहीं से ‘काचर का बीज’ मुआवरा निकलता है यानी अच्‍छे भले काम को बिगाड़ने वाला. इसी तरह अठे कै काचर ल्‍ये (यहाँ क्‍या काचर ले रहा है) मतलब यहाँ क्‍यों समय खराब कर रहा है, जाकर अपना काम क्‍यों नहीं करता? किसी विशेषकर छोटे या बच्‍चे की खिंचाई करने के लिए काचर का बीज, काचर सा न हो तो, काचर‍ बिखरने जैसे वाक्‍य मुआवरे हर किसी की जुबान पर रहते हैं। अधिक शरारती को मटकाचर (बड़ा काचर) कह दिया जाता है। दियाळी रा दीया दीठा, काचर बोर मतीरा मीठा (दिवाली के दिये दिखाई दिये और काचर, बेर और मतीरे मीठे हुए क्‍योंकि दिवाली बीतने पर काचर बेर और मतीरे मीठे हो जाते है)। यह इस फल की लोकप्रियता के ही एक रूप है।

१४ जुलाई २०१४

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।