के हाथों
में बाँसुरी, महर्षि नारद के हाथों में एकतारा, शिव
के हाथों में डमरू आदि।
घुमक्कड़ जातियों का वाद्य यंत्र
इन्हीं वाद्य
यंत्रों में एक प्रमुख वाद्य यंत्र है - ''सारंगी''।
प्राचीन काल में सारंगी घुमक्कड़ जातियों का वाद्य
था। मुस्लिम शासन काल में सारंगी नृत्य तथा गायन
दरबार का प्रमुख संगीत था। इस वाद्य यंत्र का
प्राचीन नाम ''सारिंदा'' है जो कालांतर के साथ
''सारंगी'' हुआ।
राजस्थान में
सारंगी के विविध रूप दिखाई देते हैं। मीरासी, लंगे,
जोगी, मांगणियार आदि जाति के कलाकारों द्वारा बजाये
जाने वाला यह वाद्य गायन तथा नृत्य की संगीत की
दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। संगत वाद्य के साथ
सह स्वतंत्र वाद्य भी हैं। इसमें कंठ संगीत के समान
ही स्वरों के उतार-चढ़ाव लाए जा सकते हैं। वस्तुत:
सारंगी ही ऐसा वाद्य है जो मानव के कंठ के निकट है।
अलग-अलग प्रकार की सारंगी
सारंगी का आकार
देखें तो सारंगी अलग-अलग प्रकार की होती है। थार
प्रदेश में दो प्रकार की सारंगी प्रयोग में लाई जाती
हैं। सिंधी सारंगी और गुजरातन सारंगी। सिंधी सारंगी
आकार-प्रकार में बड़ी होती है तथा गुजरातन सारंगी को
मांगणियार व ढोली भी सहजता से बजाते हैं। सभी
सारंगियों में लोक सारंगी सबसे श्रेष्ठ विकसित हैं।
सारंगी का निर्माण लकड़ी से होता है तथा इसका नीचे
का भाग बकरे की खाल से मंढ़ा जाता है। इसके पेंदे के
ऊपरी भाग में सींग की बनी घोड़ी होती है। घोड़ी के
छेदों में से तार निकालकर किनारे पर लगे चौथे में
उन्हें बाँध दिया जाता है। इस वाद्य में २९ तार होते
हैं तथा मुख्य बाज में चार तार होते हैं। जिनमें से
दो तार स्टील के व दो तार तांत के होते हैं। आंत के
तांत को 'रांदा' कहते हैं। बाज के तारों के अलावा
झोरे के आठ तथा झीले के १७ तार होते हैं। बाज के
तारों पर गज, जिसकी सहायता से एवं रगड़ से सुर
निकलते हैं, चलता है। सारंगी के ऊपर लगी खूँटियों को
झीले कहा जाता है। पैंदे में बाज के तारों के नीचे
घोड़ी में आठ छेद होते हैं। इनमें से झारों के तार
निकलते हैं।
सारंगी वाद्य बजाने
में राजस्थान की सबसे पारंगत जाति है - सारंगीया
लंगा। ये मुसलिम होते हुए भी हिंदू त्यौहार मनाते
हैं एवं जोग माया को मानते हैं। तंवर लंगा, तंवर
राजपूत या सिंधी सिपाही परिवार इनके जजमान हैं।
सारंगीया लंगा अपने जजमानों के विवाह, जन्म,
मृत्युभोज, सगाई रसम आदि अवसरों पर उनके घर जाकर
गाते-बजाते हैं।
दूसरी प्रकार की
सारंगी 'गुजरातन सारंगी' को गुजरात प्रदेश में बनाया
जाता है। इसे बाड़मेर व जैसलमेर जिले में
लंगा-मगणियार द्वारा बजाया जाता है। यह सिंधी सारंगी
से छोटी होती है एवं रोहिडे की लकड़ी से बनी होती
है। इसमें बाज के चार
तथा झील के आठ तार लगे होते हैं। मरुधरा में दिलरुबा
सारंगी भी बजाई जाती है। वैसे दिलरुबा सारंगी
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में लोकप्रिय वाद्य है,
परंतु जैसलमेर जिले में सिंधी मुसलमान रहते हैं,
इसलिए यह वाद्य काफ़ी लोकप्रिय है।
विदेशों तक में सारंगी की धूम
इसके अलावा थार
प्रदेश के लोक संगीत में जोगियों सारंगी भी प्रमुख
है। इसे डेढ़ पसली सारंगी कहते हैं। इसे सिर्फ़ जोगी
जाति के लोग बजाते हैं। यह दायीं तरफ़ से चपटी होती
है। ये भी गज से बजाई जाती है। इसकी बनावट में फ़र्क
इतना होता है कि इसमें दो तार स्टील के एवं दो तांत
के होते हैं। इसमें छ: या आठ तार झील के होते हैं।
मरुधरा के इस वाद्य यंत्र की धूम देश के कोने-कोने
से लेकर विदेशों तक मच रही है। इस लोक वाद्य का नाम
अब कला एक संस्कृति से थोड़े-बहुत जुड़े लोगों के
लिए नया नहीं रहा। विशेष वाद्य के रूप में इस वाद्य
यंत्र को बजाने वाले कलाकारों का ग्राफ़ भी ऊँचा चढ़
रहा है। प्रकृति के नज़दीकी व राज दरबारों की शान
बनी रही सारंगी की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए इस वर्ष
से राजस्थान सरकार ने सारंगी को एक विषय के रूप में
मान्यता दी है। जयपुर के स्कूल ऑफ आर्टस ने नव
कलाकारों को इसके निर्माण तथा बजाने की कला को
सिखाने का ज़िम्मा लिया है।
सारंगी की सुरमई
तान और लोक गायकी जब एक साथ निकलती है तब सुनने वाला
हर दर्शक और श्रोता सब कुछ छोड़ कर इसमें खो जाता
है, क्यों कि इस वाद्य यंत्र में सांप्रदायिक एकता
वाली अनूठी विशेषताएँ हैं।
१
अप्रैल २००६
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