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हमारा लोक-साहित्य: लावनी
-डा नवीनचंद्र लोहानी

लोक-साहित्य में लोक-गीतों का विशिष्ट स्थान है। लोक-गीत परंपरा प्रवाही और लिखित दो रूपों में मिलती हैं। लिखित लोक-गीतों को लावनी कहा गया। लावनी का संबंध जातियों, वर्गों और अनेक भाषाओं से रहा है। लोक-साहित्य के अंतर्गत यह एक पृथक विधा है जिसकी विशेषता भावुकतापूर्ण, भावात्मक एवं लयात्मक उद्गार है। भारत के अनेक नगरों, कस्बों एवं ग्रामों में इसका प्रचलन रहा है। धार्मिक, सामाजिक एवं नैतिक पथ प्रदर्शक के रूप में इसकी विशेष भूमिका रही है। इसमें जन साधारण की भाषा का प्रयोग हुआ है, फिर भी कलात्मकता, लाक्षणिकता, सरसता उक्ति विचित्रता और अर्थ गांभीर्य का पर्याप्त समावेश है। यह साहित्य लोक मानस को अह्लादित करने के साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि करता है।

संगीत में लावनी-
हिंदी साहित्य कोश में लावनी शब्द के विषय में लिखा है - "संगीत-राग-कल्पदु्रम के अनुसार लावनी (लावणी) उपराग है।" इसको 'देशी राग' भी कहा गया क्यों कि भिन्न भिन्न देशों में इसे अलग अलग नाम दिया गया। स्पष्ट है कि लोक-गीतों से इसका विकास हुआ है। इसका संबंध लावनी देश लावाणक से भी था, जो मगध से समीप था एवं उसी देश से संबद्ध होने के कारण इसका नाम लावनी पड़ा। तानसेन ने जिन मिश्रित रागनियों को शास्त्रीयता प्रदान की थी, उनमें से 'लावनी' भी एक थी। कुछ लोगों की धारणा है कि निर्गुण भक्ति धारा के साथ इसका संबंध था। वस्तुत: लोक-रागिनी होने के कारण इसे लोक कवियों ने अपनाया। 'लावनी' के कई वर्ग होते हैं - लावनी-भूपाली, लावनी-देशी, लावनी-जंगला, लावनी-कलांगडा, लावनी-रेख्ता आदि।"

साहित्य में लावनी-
"लावनी छंद शास्त्रानुसार एक छंद का नाम है। जो बाईस (२२) मात्रा का होता है, जिसे राधा छंद भी कहते हैं। किंतु जिस लावनी के संबंध में ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, उस लावनी में सैकड़ों छंदों का समावेश पाया जाता है। हिंदी के छंदों के साथ-साथ उर्दू, फारसी के छंदों का समावेश भी इसके अंतर्गत हुआ है। इसमें कुछ पुरानी रंगत या बहर ऐसी है जिन्हें महाराष्ट्र से आई हुई माना जाता है। कुछ रंगत-वज़न ऐसे भी हैं जो हिंदी से आए और कुछ वज़न ऐसे हैं, जिनका संबंध केवल संगीत से है। अत: यह कहा जा सकता है कि लावनी के अंदर सभी वज़न और छंद एवं रागों का समावेश है। उनमें कुछ रंगतें तो ऐसी हैं जो बची हुई या नई रंगत के नाम से पुकारी जाती हैं। किंतु लावनी वालों ने भी अपना एक ख़ास तरीका या सिद्धांत अथवा लक्षण या माप-जोख-हिसाब रखा है, जिसके द्वारा उन्होंने हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत आदि के सभी वज़नों को एवं राग-रागिनियों को अपनाया है और उनमें अपनेपन की छाप लगा दी है।"

ख्य़ाल में लावनी-
हिंदी विश्व कोश के अनुसार-'लावनी एक प्रकार का गेय छंद है, जिसे चंग बजाकर गाया जाता है।' इसका दूसरा नाम 'ख्याल' भी है। ख्याल अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ ध्यान, स्मरण, मनोवृत्ति, स्मृति आदि है। ख्याल पर विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किए हैं। "अध्यात्म की ओर जाने की दृष्टि से प्रभु की भक्ति में डूबना अर्थात ख़्यालों में डूबना इस ख्याल शब्द की ओर भी स्पष्ट करता है। आपस में बात करते हुए भी हम कहते हैं कि क्या ख्याल है, आपका इस संबंध में, आपके ख्याल वास्तव में बहुत ऊँचे हैं या हमें एक-दूसरे का ख्याल रखना चाहिए, इस तरह ख्याल बाज़ी और ख्यालगो (ख्याल गायक) शब्द भी लावनी साहित्य में आते हैं। शास्त्रीय संगीत में भी छोटा ख्याल तथा बड़ा ख्याल उपराग के रूप में गाए जाते हैं। ख्याल का अर्थ कहीं-कहीं तमाशे से जोड़ा जाता है। लावनी साहित्य में ख्याल शब्द लंबे समय से संबद्ध है। ख्याल बाज़ी को ख्यालगोई भी कहा जाता है। आगरा ख्याल बाज़ी में भारत वर्ष का सबसे बड़ा अखाड़ा रहा है तथा आज भी है।

ख्याल की रचना-
ख्याल या लावनीकारों के अनुसार ख्याल में चार चौक होते हैं। ख्याल के पहले ओर दूसरे मिसरे को टेक कहा जाता है। चार मिसरों को चौक ओर पांचवें मिसरे को उड़ान (मिलान) कहा जाता है। इसी के साथ टेक का दूसरा मिसरा या कड़ी मिला दी जाती है। इस प्रकार जिसमें चार चौक होते हैं उसे लावनी या 'ख्याल' कहा गया।

लावनी का आविष्कार-
लावनी के मूल तत्व प्राचीन संगीत में सुरक्षित थे और प्रकारांतर से विकसित होकर वर्तमान लावनी के रूप में आए। लावनी के परिप्रेक्ष्य में यदि ख्याल-गायकी को सम्मुख रखकर विचार किया जाए तो इतिहासकार जौनपुर के सुलतान हुसैन शर्की (१४५८-१४९९) को इसका आविष्कार मानते हैं। मराठा और मुसलमान शासकों का शासन काल संगीत का स्वर्णकाल होने के कारण वर्तमान लावनी को स्वरूप और सज्जा देने में समर्थ हुआ था।
लावनी संतों एवं फ़क़ीरों द्वारा आरंभ में गाई जाती थी किंतु वर्तमान में लावनीकारों के अखाड़े विकसित हुए। संत या फ़क़ीर अपने भक्तों अथवा शिष्यों के सामने भावविभोर होकर लावनी गाते थे। उस समय की लावनियों में आध्यात्मिकता एवं भक्ति भावना की प्रधानता रहती थी। हिंदू-मुसलमान दोनों ने मिलकर इस साहित्य का सृजन किया।
लावनी गायकों में 'तुर्रा' और 'कलगी' दो संप्रदाय आज भी प्रचलित हैं। तुर्रा संप्रदाय के लोग स्वयं को निर्गुण ब्रह्म का उपासक मानते हैं और कलगी संप्रदाय वाले शक्ति का उपासक मानते हैं। दोनों ही संप्रदाय वाले स्वयं को एक-दूसरे से बड़ा कहते हैं।
लावनी की परंपरा को विकसित करने वाले दो संत हुए। जिन्होंने दक्षिणी भारत में इसका प्रचार-प्रसार किया। महाराष्ट्र से इसका शुभारंभ माना जाता है। इन संतों के नाम थे- संत तुकनगिरि महाराज और संत शाहअली।
तुर्रा संप्रदाय के प्रवर्तक महात्मा तुकनगिरि जी और कलगी संप्रदाय के प्रवर्तक संत शाहअली जी माने जाते हैं। यह दोनों महात्मा परस्पर मित्र और सूफी ख्याल के थे, जिसको वेदांतवादी भी कह सकते हैं। वेदांत में ब्रह्म का महत्व माना गया है और माया को ब्रह्म की विशेष शक्ति कहा गया है। अत: यही से 'तुर्रा' और 'कलगी' का वाद-विवाद शुरू हो गया। सुनते हैं कि इन दोनों महात्माओं ने इस गान-कला को महाराष्ट्र प्रांत से हासिल किया था। इसलिए इस गान-कला का नाम 'मरैठी' भी है। दोनों ही महात्मा शायर दिमाग थे। इन्होंने उन्हीं छंदों को अपनी भाषा में अपने तौर पर अपने विचारों के साथ प्रकट किया और उनको गाकर आनंद प्राप्त करने लगे। एक बार ये महात्मा भ्रमण करते हुए किसी मराठा दरबार में गए और वहां जाकर इन्होंने अपनी इस गान कला का परिचय दिया, जिसको दरबार ने बहुत पसंद किया। उपहार स्वरूप महात्मा तुकनगिरि जी को एक बेश कीमती 'तुर्रा' और महात्मा शाहअली को बहुमूल्य 'कलगी' बड़े सम्मान पूर्वक दरबार की तरफ़ से प्रदान किए गए। जिनको दोनों ने अपने-अपने चंगों पर चढ़ा कर कृतज्ञता प्रकट की। बस तभी से यह 'तुर्रे' वाले तुकनगिरि जी और शाहअली 'कलगी' वाले मशहूर हुए। तुकनगिरि जी नामी संन्यासी थे और संत शाहअली मुसलमान फ़क़ीर थे। इन्हीं दोनों महापुरुषों को इस गान-कला के ईजाद करने का एवं उत्तर भारत में लाने का श्रेय प्राप्त है। इनका समय सन १७०० के लगभग अनुमान किया जाता है। संभवत: उस समय ये नौजवान रहे होंगे। यद्यपि यह महापुरुष उत्तर भारत के निवासी थे, किंतु मध्य प्रदेश, छोटा नागपुर में बहुधा रहा करते थे।

इन दोनो संतों को लेकर अलग-अलग मत रहे हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि अकबर के दरबार में दोनों संत पहंुचे और ख्याल गाया। अकबर ने मुकुट से 'तुर्रा' निकालकर तुकनगिरि को और कलगी शाहअली को प्रदान कर दी। इस प्रकार तुर्रा पक्ष के लावनीकारों एवं गायकों के गुस्र् तुकनगिरि को माना जाता है और कलगी पक्ष में लावनीकारों के आदि गुस्र् संत शाहअली माने जाते हैं। संत तुकनगिरि जी बहुत दिनों तक आगरे में रहे और अनेक शिष्य बनाए। इस प्रकार हिंदू और मुसलमान दोनों संतों ने अनेक लावनियों की रचना कर इस विधा को उत्कर्ष पर पहुंचाया। लोक साक्ष्य के अनुसार दोनों संत घूम-घूमकर अपना धर्म प्रचार लावनी गा-गाकर करते थे।

वर्तमान में लावनी के अनेक अखाड़े प्रसिद्ध हैं, परंतु मुख्य रूप से 'तुर्रा और कलगी' अखाड़े ही हैं। इन्हीं के भेद दत्त, टुण्ड़ा, मुकुट, सेहरा, चिड़िया, चेतना, नंदी, लश्करी, अनगढ़ और छत्तर आदि हैं। लावनीगायन पद्धति धीरे-धीरे इतनी मनोरंजक व आकर्षणपूर्ण हो गई कि संतों और फ़कीरों के पास से यह जन-साधारण तक पहुंची और लोक-गीत के रूप में प्रकट हुई।
महाराष्ट्रीय तथा उत्तर-भारतीय, लावनी की पहले दो मंच पद्धतियां प्रसिद्ध थी। महाराष्ट्र में लावनी के अखाड़े या मंच को सभा महफ़िल या तमाशा कहा जाता था। गायक अभिनय करते हुए मंच पर बैठे-बैठे लावनी गाते थे। इसके विपरीत उत्तरी भारत में लावनी अखाड़ों में वर्तमान में दगंल का आरंभ होता है। मंच पर दो दल आमने-सामने बैठकर लावनी गाते हैं और एक-दूसरे की लावनियों के प्रश्नों के उत्तर देते हैं। रात-रात भर लावनियों का गायन चलता रहता है।

दोनों संप्रदायों ने अपनी पहचान स्वरूप अपने अलग-अलग ध्वज तैयार किए हुए हैं। जिन्हें निशान कहा जाता है। तुर्रा पक्ष का ध्वज केसरिया रंग का और कलगी पक्ष का ध्वज हरे रंग का होता है। जब कोई नया लावनीकार किसी को गुरू बनाने की इच्छा करता है तो उसे पहले यह विचार कर निर्णय लेना होता है कि तुर्रा पक्ष का चयन करना है या कलगी पक्ष का चयन करना है। निर्णय करने के पश्चात उस पक्ष के गुरू से संपर्क स्थापित कर उन्हीं के आदेशानुसार उनकी सम्मति से आगे की प्रक्रिया करता है। कुछ लावनीकार इन पक्षों को अखाड़ों का नाम देते हैं तथा ख्याल सम्मेलनों को दगंल का रूप मानते हैं। शिष्य बनने के समय वह व्यक्ति उस अखाड़े के गुरू से आज्ञा प्राप्त कर दोनों पक्षों के उत्तराधिकारी गुरुओं को आमंत्रित करने के लिए एक इलायची भेंट स्वरूप प्रदान कर निवेदन करता है कि अमुक स्थान पर या देव स्थान पर ख़्यालों का आयोजन किया गया है जिसमें मैं उस अखाड़े के (तुर्रा या कलगी) अमुक गुरू (गुरू का नाम) का शिष्यत्व ग्रहण कर रहा हूं। सभी को उपस्थित रहने की प्रार्थना करता है। इस प्रकार इलायची भेंट करने की परंपरा लावनी या ख्यालबाज़ी के उदय के साथ से ही चली आ रही है।

उत्तरी भारत की मंच पद्धति के अनुसार यहाँ दंगल का आरंभ किसी देवस्तुति से होता है। मंच पर दोनों अखाड़ों के लावनीकार आमने-सामने बैठकर लावनी गायन करते हैं। रातभर एक दूसरे को चुनौतियां देते रहते हैं। "उत्तरी भारत की मंच पद्धति यह है कि यहां सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में किसी देवी-देवता की स्तुति की जाती है, जिसे 'सखी दौड़' या 'दौड़ सखी' के नाम से अभिहित किया जाता है। यह शब्द वास्तव में 'दौरे साकी' है जिसका अपभ्रंश रूप 'सखी दौड़' या 'दौड़ सखी' प्रचलित हो गया है। कहीं-कहीं पर मगंलाचरण के पूर्व 'चंग' नामक वाद्य पर निशान चढ़ाने की प्रथा भी प्रचलित है। मंगला चरण के उपरांत एक दल का कलाकार अपनी लावनी प्रस्तुत करता है, उसका उत्तर दूसरे पक्ष का कलाकार देता है। इस तरह दोनों दलों के लावनी कलावंत परस्पर चुनौतियाँ देते हुए लावनियों प्रस्तुत करते हैं और रात भर लावनियों गाई जाती हैं। जो पक्ष अपने विरोधी पक्ष की लावनी का उत्तर नहीं दे पाता है अथवा उसी के वज़न पर लावनी नहीं सुना पाता है, वह पराजित माना जाता है। लावनी के गायन हेतु पहले हुड़क्का, डफ आदि वाद्यों का ही प्रयोग होता था, परंतु आजकल तो 'चंग' नामक वाद्य का ही प्रयोग होता है, दंगल में लावनी गाने का अधिकार केवल उन्हीं कलाकारोेंे को होता है, जो किसी अखाड़े से संबद्ध होते हैं तथा जो विधिवत किसी गुरू के शिष्य होते हैं। लावनी का आरंभ होते ही मंच पर जो प्रश्नोत्तरात्मक लावनियाँ प्रस्तुत की जाती हैं उनको 'दाखला' के नाम से अभिहित किया जाता है। एक पक्ष का लावनीकार जिस रंगत, छंद होर तुक में अपनी पहली लावनी प्रस्तुत करता है, दूसरे पक्ष के लावनीकार को उसके उत्तर में उसी रंगत, उसी छंद और उसी तुक में 'दाखला' प्रारंभिक लावनी प्रस्तुत करना पड़ता है। इसके लिए गुस्र् या उस्ताद लोग भी दंगल में बैठे रहते हैं जो शीघ्र ही उसी प्रकार की लावनी तैयार कर देते हैं और कभी-कभी स्वयं ही मंच पर गाकर अपनी लावनी प्रस्तुत किया करते हैं।"

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि लावनीकारों का दो भागों में विभाजन 'तुर्रा' और 'कलगी' के नाम से लगभग १६ वीं सदी के लगभग हुआ। इससे पहले यह कला केवल संतों, फ़कीरों आदि तक ही सीमित थी और लावनी के पृथक-पृथक अखाड़े नहीं थे। ढपली, डफ और चंग लावनी गायकी के प्रसिद्ध वाद्य यंत्र हैं, जिनका प्रचलन लंबे समय से लावनी गायन में किया जाता रहा है। लावनीकारों के दंगल में प्रश्नोत्तरपूर्ण लावनी प्रस्तुत की जाती हैं, उन्हें 'दाखला' कहा जाता है। जिस रंगत, छंद और तुक से साथ पहला पक्ष अपनी लावनी प्रस्तुत करता है वही तुक से साथ उसका 'दाखला' प्रस्तुत करता है। उदाहरण के रूप में कलगी पक्ष लावनी(ख्याल)देखिए फिर इस लावनी का दाखला इस प्रकार से दिया गया है-
कलगी पक्ष-
"संसार के झूठे झगड़े हैं - नहिं अंत किसी का नाता है।
जब समय पड़े आकर के कठिन तो कोई काम नहिं आता है।।"
दाखला-
"मूरख अज्ञानी आप समझ - तू क्या हमको समझाता है।
हमदर्द जो होता है सच्चा - वो सदा काम में आता है।।"
लावनी गायन में जब प्रश्नोत्तर पूर्वक गायन न होकर रंगत और तुकांतपूर्ण लावनियां गाई जाती हैं तब लड़ीबंद गाना या लड़ी-लड़ाना कहा जाता है। यह मनोरंजन के साथ-साथ अद्भुत और चमत्कार पूर्ण होती है। उदाहरण देखिए - कलगी पक्ष की लड़ी बंद लावनी (ख्याल) में -
"न क्यों कही केकई की होवे - बंधे हैं दशरथ जी जब वचन में।
समेत सीता के राम लक्षमन - चलें हैं बसने विशाल वन में।।"
लड़ी बंद लावनी (उत्तर में)-
"लिए है वरदान मांग नृपसे - बनी है केकई कठोर मन में।
करे है कौशल्या मात क्रंदन - फिरें लखन राम जी विपन में।।"

साहित्य के जिस रूप का प्रयोग लावनीकारों ने अपने लेखन में किया उसे 'सनअत' कहा गया है। कुछ महत्वपूर्ण सनअतों में जिलाबंदी, तिसहर्फी, ककहरा, (सीधा-उल्टा ककहरा), अमात्र, मात्रिक, सिहांवलोकन, जंजीरा, लोम विलोम, मतागत, अधर, एक अक्षरी, दो अक्षरी, प्रति उत्तरी आदि प्रमुख रूप मंे प्रयुक्त की गई है। लावनी में प्रत्येक भांति की तर्जबयानी भी की गई। इसके छंद निर्माण की स्वर ध्वनियों को बहर (रंगत) कहा जाता है। ये बहरे पिंगलशास्त्र के छंदों के ही रूप हैं।
"प्रत्येक लावनी गायन में सर्वप्रथम एक साखी या धौस, इसके बाद दौड़ तत्पश्चात ख्याल का गायन किया जाता है। आज के बदले परिवेश में साखी (धौंस) दौड़ से लगा हुआ गरत या ग़़जल, बाद में ख्याल का गायन किया जाता है। यह परिपाटी एक ख्याल गायक के गायन की होती है। बहर (रंगत) जिन मात्राओं में प्रस्तुत करते हैं उसे छंद की तख्ती भी कहते हैं।" लावनी में प्रमुख रूप से श्रृंगार रस का प्रयोग होता है किंतु कुछ लावनीकारों ने वीर, रौद्र, वीभत्स, भयानक, कास्र्ण्य एवं वात्सल्य रस से परिपूर्ण लावनियों का लेखन भी किया है।

मेरठ परिक्षेत्र के अंतर्गत खुर्जा (बुलंदशहर) में लावनी लेखन और गायन का कार्य पर्याप्त मात्रा में किया गया। लावनी के प्रमुख लेखकों में पं हरिवंश लाल जी का नाम लावनीकारों में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। इनका जन्म संवत १९५३ माघ शुक्ल नवमी के दिन जहांगीराबाद खुर्जा (जिला बुलंदशहर) मंे हुआ। इनका संबंध आगरे के तुर्रा पक्ष अखाड़े से रहा है। अपने पिता पं ऩानक चंद्र जी एवं दादा पं ग़ंगाप्रसाद जी व विरासत के रूप में लावनियां प्राप्त हुई। आप आगरा के प्रसिद्ध ख्यालगायक श्री पन्नालाल के शिष्य थे। इन्होंने ही पं ह़रिवंश लाल को खुरजा लाकर लावनी लिखने और गाने की प्रेरणा प्रदान की। खुरजा का अखाड़ा आगरा की ही एक शाखा थी। ८ फरवरी सन १९६३ ई म़ें पंडित जी के निधन के उपरांत इनके छोटे पुत्र दिनेश कौशिक ने उनकी विरासत को उत्तराधिकार के रूप में ग्रहण किया। तुर्रा पक्ष के अखाड़े की पगड़ी भी उन्हीं को बांधी गई।

आज भी आगरे के तुर्रा पक्ष का अखाड़ा इन्हें ही गुरू मानता है। इनकी शिष्य परंपरा में बल्ला सिंह, बिहारी लाल, धर्मासिंह, पन्नालाल, लालालाल, उत्तम चंद्र के नाम प्रमुख हैं।
पंडित हरिवंश लाल की लावनियों में रस, भाषा और अलंकारों का चमत्कार और नाद सौंदर्य पर्याप्त विद्यमान है। इनके द्वारा रचित लगभग दो हज़ार लावनियों आज भी इनके पुत्र श्री दिनेश कौशिक के पास सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त आपने स्वांग, लोकगीत और हिंदी-उर्दू ग़ज़ल आदि में भी लेखनी चलाई। सन १९५२ से सन १९६२ तक आकाशवाणी दिल्ली के ब्रजभाषा कार्यक्रम में ब्रज लावनियों, लोकगीतों के अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। आकाशवाणी लखनऊ द्वारा भी इनकी लावनियों का प्रसारण हुआ।
पंडित हरिवंश लाल द्वारा लिखित लावनियों के अंश-
"धीरे-धीरे जलरे दीपक, रजनी पहर बदलती है।
जब तक तेल रहोगौ तो ये, तब तक बाती जरती है।।

आवा गमन लगो है पीछे माया संग बिचरती है।
ऐसो दीपक जरे के जाकी ज्योति अखंड दिखाई दे।
वा ज्योति के प्रकाश में सारो ब्रम्हांड दिखाई दे।।
काल बली भी थर-थर कपि ज्वाल प्रचंड दिखाई दे।
वा ज्वाला की उष्णता में कबहु न ठंड दिखाई दे।।
पंडित जी ने वर्तमान युग की ज्वलंत समस्याओं पर भी लेखनी चलाकर राष्ट्रपरक लावनियों की रचना की-
"भारत के बालक वीर बनो - वीरों के संदेश सुन-सुन के।
अपने गौरव का ध्यान करो - कुछ पढ़-पढ़ के, कुछ गुन-गुन के।।
संसार देखने को उत्सुक - बल कितना है तलवारों में।
अब कौन वीर स्नान करे - इन शोणित रूपी धारों में।।
भारत माता के ओ सपूत - बैठा किस सोच-विचार में है।
शत्रु से लोहा लेने की ताकत - तेरी तलवार में है।"
पंडित हरिवंश लाल की एक लावनी जो आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित हो चुकी है-
"समीप रावी के शुभ घड़ी कूं - निहारवे हेत चित उमायो।
छब्बीस तारीख जनवरी कूं - हमारो गणतंत्र दिन हैं आवो।।"
'ख्याल-रंगत तबील' से उनका एक ख्याल देखिए-
टेक- "अब तो मम प्रेम की चाह न लो जो मनचाही हरसो न भई।
बध हेत संकोच चले घर सों सीधी बरछी करसों न भई।"
चौक- "बिरहानल की पहचान तुम्हें जो नैनन की झरसो न भई।
तो फिर अब नहिं उपाय कछू निश दूर तभी चरसों न भई।"
औरन की सीख सुनो या सों कोमलता भीतर सो न गई।
त्यागे नहिं घोर कठोर वचन पूजा पापी नरसो न भई।
दोहा- मैं जानत हूं और कुछ तुम मानत कुछ और।
घिक एैसे गुणवान को फल तज चाखे वौर।
उड़ान- चाहत हो तुम ता करनी को जो अब लौ ईश्वर सौरन भई।

श्री गोपाल कृष्ण दूबे ख्याललावनी के ऐतिहासिक पक्ष एवं अन्य पक्षों के अच्छे जानकार व लेखक हैं। खुरजा निवासी, तुर्रा वर्ग के प्रख्यात कलाकार स्व ह़रिवंश के शिष्य श्री गोपाल प्रसाद शर्मा 'मुनीम' भी श्रेष्ठ लावनी लेखक और गायक रहे हैं। अनेक दंगलों में सम्मिलित होकर आपने सम्मान प्राप्त किया है। ख्याल-लावनी के संकलन कर्ता के रूप में भी आप प्रख्यात रहे हैं। अनेक महत्वपूर्ण रचना आपके पास सुरक्षित हैं।

खुरजा (बुलंदशहर) में सन १९०४ ई म़ें जन्मे बुंदू नाम से प्रसिद्ध उस्ताद बुनियाद अली विद्यालय समय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे और जन समाज में विशेष प्रशंसा और प्रसिद्धि प्राप्त की। बचपन में ही अनेक ख्यालों को ज़बानी याद करने वाले उस्ताद बुनियाद अली ने उस्ताद बलात शाह को अपना गुस्र् बनाया। अनेक विषयों से संबद्ध लेखनी चलाकर आपने उर्दू, फ़ारसी, अरबी और हिंदी भाषाओं में लावनियों की रचना की। सन १९४७ ई म़ें एक दुर्घटना में आप नेत्रहीन हो गए किंतु फिर भी ख्याल-लावनी गायकी से आपका संबंध निरंतर बना रहा। सन १९८७-८८ ई क़े लगभग आपका निधन हुआ। आपकी लावनी की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
"वियोगी मुनि सुत हमारे माँगो।
निपट जिंद़गी के सहारे माँगो।
अखिल विश्व के प्रभु प्यारे माँगो।
अवध मांग लो प्राण प्यारे न माँगो।
लखन राम आंखों के तारे न माँगो।

जिसने गम़ से बेस्र्ख़ी की है उसने तौहीने जिंद़गी की है।
भूख में खा गया ज़हर इन्सां लोग कहते हैं खुदकुशी की है।

अगर मुझे आख्त़ियार दे दो तो इंकिलावे जदीद कर दूँ।
लुटा दूं कग्रून का ख़ज़ाना गऱीब लोगों की ईद कर दूँ।
इनके अतिरिक्त दिनेश कौशिक (नवलपुरा खुरजा), वैध मदन मोहन गुप्त (सब्ज़ी मंडी खुरजा), श्री कंछी लाल (नयी बस्ती खुरजा), श्री पन्ना लाल (नई बस्ती खुरजा), श्री भगवाल दास (तरीनान खुरजा) के नाम लावनी गायन के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें से कुछ आज भी लावनी के दंगलों के आयोजनों में भाग लेते हैं। ये सभी लावनी गायक तुर्रा पक्ष से संबंधित हैं। कलगी पक्ष में उस्ताद बुनियाद अली, (बुर्ज उस्मान खुरजा), श्री शिवरतन अग्रवाल (बुर्ज उस्मान खुरजा), श्री मुहम्मद (बुर्ज उस्मान खुरजा), श्री वीरसिंह (पंजाबयान बारादरी खुरजा), श्री हीरालाल शर्मा अही (पाड़ा खुरजा), श्री शिवकुमार नागा (अहीर पाड़ा खुर्जा) के नाम प्रमुख हैं। लावनी के प्रमुख जानकार एवं विद्वानों में पं क़न्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (देवबंद, सहारनपुर) एवं श्री सुरेश चंद्र अग्रवाल (खुरजा) का नाम भी प्रसिद्ध रहा।

निष्कर्षत: लावनी लोक-गीत लोक-साहित्य की ऐसी विधा है जिसमें सभी भावों, रसों, एवं विचारों का समावेश है। यह विद्वानों द्वारा समय-समय पर रची जाती रही है। जिसे उन्होंने अपने गुरुओं एवं उस्तादों से प्राप्त किया है। खुरजा में इसके दंगल वर्तमान में भी समय-समय पर आयोजित किए जाते रहे हैं। आज इस परंपरा को जीवित बनाए रखने की आवश्यकता है जो लोक समाज के लिए वर्तमान में भी प्रासंगिक है।

९ सितंबर २००४

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