उनके द्वारा रचे गए नाटकों
और काव्य-रचनाओं ने भारत के प्रति विश्व भर में आदर-भाव
जगाने का प्रशंसनीय कार्य किया। वे संस्कृत भाषा के महान
कवि व नाटककार थे। उन्हें भारतीय सभ्यता व संस्कृति का
प्रतीक भी माना जाता है। उनके तीन नाटक-
मालविकाग्निमित्रम (मालविका और अग्निमित्र),
विक्रमोर्वशीयम (विक्रम और उर्वशी) और अभिज्ञानशाकुंतलम
(शकुंतला की पहचान) , दो महाकाव्य- रघुवंशमहाकाव्यम् और
कुमारसंभवम् तथा दो गीतिकाव्य मेघदूतम् तथा ऋतुसंहार
निर्विवाद रूप से उनकी रचनाएँ माने जाते हैं।
मालविकाग्निमित्रम्
मालविकाग्निमित्रम कालिदास की पहली रचना है, जिसमें
राजा अग्निमित्र की कहानी है जो अपने निर्वासित सेवक की
पुत्री मालविका से प्रेम करने लगता है जब उसकी पत्नी को
इसका पता चलता है तब वह मालविका को कारागार में डाल देती
है, परन्तु संयोग से मालविका एक राजकुमारी होती है और उनके
प्रेम-संबंध को स्वीकार कर लिया जाता है। कालिदास
ने अपने नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ में अत्यन्त मनोहर
नृत्य-अभिनय का उल्लेख किया है। वह चित्र अपने में इतना
प्रभावशाली, रमणीय और सरस है कि समूचे तत्कालीन साहित्य में
अप्रतिम माना जाता है। नाटक में दो
नृत्याचार्यों में अपनी कला निपुणता के सम्बन्ध में झगड़ा
होता है और यह निश्चित होता है कि दोनों अपनी-अपनी
शिष्याओं का नृत्य-अभिनय दिखाएँ और अपक्षपातपूर्ण निर्णय
के लिए जानी जानेवाली विदुषी, भगवती
कौशिकी निर्णय करेंगी कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है? दोनों
आचार्य तैयार होते है, मृदंग बज उठता है, प्रेक्षागृह में दर्शकगण यथास्थान बैठ जाते हैं और
प्रतियोगिता प्रारंभ होती है। इस प्रकार के दृश्य का पूर्ववर्ती
साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं हुआ है जबकि परवर्ती
फ़िल्मों और धारावाहिकों में इससे प्रेरणा लेकर आज भी यह
दृश्य प्रस्तुत किया जाता है।
अभिज्ञानशाकुंतलम्
कालिदास की दूसरी रचना अभिज्ञानशाकुंतलम है।
अभिज्ञानशाकुंतलम उनकी जगत-प्रसिद्धि का प्रमुख कारण बना
था। इस नाटक का अनुवाद अँग्रेज़ी और जर्मन के अलावा अनेक
भाषाओं में भी हुआ है। कथावस्तु में राजा दुष्यंत की कहानी
है जो आश्रम में रहने वाली एक कन्या शकुंतला से प्रेम करने
लगता है। शकुंतला मेनका और विश्वामित्र की बेटी है।
विश्वामित्र की अनुपस्थिति में दुष्यंत शकुंतला से गंधर्व
विवाह कर निशानी के रूप में अपनी अँगूठी देकर अपने राज्य
लौट जाता है। विश्वामित्र के वापस लौटने पर शकुंतला राजा
दुष्यंत के पास जाती है तब ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण
शकुंतला की अँगूठी खो जाती है और दुष्यंत उसे पहचान नहीं
पाता। शकुंतला तिरस्कृत होकर कण्व ऋषि के आश्रम में चली
जाती है। विस्तृत घटनाक्रम में एक दिन जब वह अँगूठी राजा
को मिलती है तब ऋषि का शाप टूटता है। राजा को शकुंतला की याद
आती है, वे उसको ढूँढ़ते है और अपना लेते हैं। यह शृंगार
रस से भरे काव्यों की एक मार्मिक प्रेम कहानी है, जो बेहद
लोकप्रिय है। कहा जाता है कि कालिदास के नाटकों में सबसे
अनुपम नाटक अभिज्ञानशाकुंतलम ही है।
विक्रमोर्वशीयम्
कालिदास की तीसरी रचना विक्रमोर्वशीयम बहुत से रहस्यों से
भरा हुआ है। पाँच अंकों के इस नाटक में राजा पुरुरवा और
इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी के प्रेम विवाह और वियोग मिलन
की कहानी को विस्तार दिया गया है। पुरुरवा इंद्रलोक की
अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगता है। उर्वशी का ध्यान भी
पुरुरवा में
ही खो जाता है। एक दिन इंद्र की राज सभा में नृत्य गीत के
समय पुरुरवा के ध्यान में खोए रहने के कारण उर्वशी के मुंह
से इंद्र के लिए 'पुरुषोत्तम' के स्थान पर 'पुरुरवस'
नाम निकल जाता है। इस पर इंद्र गुस्से में उसे धरती पर चले
जान का शाप देते हैं। वह धरती पर आकर पुरुरवा से विवाह कर
लेती है, एक पुत्र की माँ बनती है और इस पुत्र को पुरुरवा के देख लेने पर शाप से
मुक्त हो वापस स्वर्ग लौट जाती है। विक्रमोर्वशीयम काव्यगत
सौंदर्य और शिल्प से भरपूर नाटक है। स्वर्ग और पृथ्वी के
अनेक दृश्यों के अतिरिक्त इसमें इंद्रजाल का बहुत सुंदर
प्रयोग किया है। इस प्रकार की दृश्य संरचना को देखकर पता लगता है
कि प्राचीन भारत की नाट्यकला कितनी विस्तृत थी।
रघुवंशमहाकाव्यम्
रघुवंश कालिदास का महाकाव्य है। इसमें रघु के कुल में
उत्पन्न राजाओं का वर्णन किया गया है। राजा दिलीप, रघु,
दशरथ, राम, कुश और अतिथि की सहृदयता तथा वीरता के वर्णन
अत्यंत कलात्मक सहज और हृदयस्पर्शी हैं। वे सभी राजा समाज
में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए थे। प्रभु श्री राम का
रघुवंश महाकाव्य में विशेष रूप से वर्णन किया गया है।
कालिदास ने राम के पूर्वज रघु और राम के बाद की पीढ़ी का
भी आलोचनात्मक वर्णन किया है। महाकवि राजा दशरथ के
पिता अज के विवाह प्रसंग में कहते हैं कि स्वयंवर में
वर चुनने की प्रक्रिया में इन्दुमती जयमाला लिए राजाओं की
पंक्ति के बीच से गुजर रही है। चलती हुई दीपशिखा की भाँति
इन्दुमती जिस-जिस राजा के पास से गुजर जाती थी वह राजा
प्रकाश के आगे बढ़ जाने पर अंधेरी अट्टालिकाओं की तरह
कांतिहीन हो जाता था। कालिदास की इस चमत्कारमयी उपमा से
प्रभावित होकर संस्कृत साहित्य के इतिहास में महाकवि
कालिदास को दीपशिखा कालिदास की विशेषणमूलक संज्ञा से
अलंकृत किया गया।
कुमारसंभवम्
कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा व उनके विवाह की
कहानी है, इसमें कार्तिकेय के जन्म और कुमार कार्तिकेय
द्वारा असुर तारक के वध का विस्तृत विवरण है। कुमारसंभवम् की
कथा का आरंभ हिमालय के वर्णन से होता है। हिमालय का विवाह
पितरों की मानसी कन्या मैना से हुआ था। पार्वती ने इसी
दंपत्ति के घर में जन्म लिया।
एक दिन नारद वहाँ आये और
पार्वती को देखकर कहा कि वह शिव की पत्नी बनेगी। द्वितीय
सर्ग में तारकासुर के अत्याचार से दुखी देवता इंद्र को
नेता बना कर ब्रह्मा के पास पहुँचते हैं। ब्रह्मा उनके दुख
का कारण जानकर भविष्यवाणी करते हैं कि तारक को महादेव का
पुत्र ही मार सकेगा। इसके लिए इंद्र काम का आह्वान
करते हैं। काम शिव और पार्वती के मन में कामना जागृत करते
हैं उनका विवाह होता है कार्तिकेय का जन्म होता है और तारकासुर का वध। ऐसा कहा जाता है कि कालिदास इस ग्रंथ को
पूरा नहीं कर सके थे। परवर्ती युग के किसी महाकवि ने आठवें
सर्ग के आगे की कथा तारकासुर वध तक सत्रह सर्गों में पूरी
की है। इन परवर्ती नौ सर्गों में काव्य का स्तर पर्याप्त
ऊँचा है, किंतु कालिदास के काव्य-स्तर तक नहीं उठ सका है।
मेघदूतम्
मेघदूतम् कालिदास का गीति काव्य है
कथा का प्रारंभ इस प्रकार होता है कि कुबेर की राजधानी
अलकापुरी में एक यक्ष की नियुक्ति यक्षराज कुबेर की
प्रातःकालीन पूजा के लिए प्रतिदिन मानसरोवर से स्वर्ण कमल
लाने के लिए की गयी थी। यक्ष के अपनी पत्नी के प्रति
अत्यधिक अनुराग के कारण समय पर पुष्प नहीं पहुँचा पाया।
कुबेर को यह सहन नहीं हो सका और उन्होंने क्रोध
में उसे एक वर्ष के लिए देश से निकाल दिया। विरह-पीडित निर्वासित यक्ष मेघ
से अनुरोध करता है कि वह उसका संदेश लेकर उसकी प्रेमिका तक अलकापुरी ले जाये।
वह मेघ को रिझाने के लिये रास्ते में
पड़ने वाले सभी अनुपम दृश्यों का वर्णन करता है। मेघदूत में
कालिदास ने उज्जयिनी के सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया है।
यद्यपि यह छोटा-सा काव्य-ग्रन्थ है किन्तु इसके माध्यम से
प्रेमी के विरह का जो वर्णन उन्होंने किया है उसका उदाहरण
अन्यत्र मिलना असंभव है।
ऋतुसंहार
‘ऋतुसंहार’ का
शाब्दिक अर्थ है- ऋतुओं का संघात या समूह।
ऋतुसंहार कालिदास का दूसरा गीति काव्य है जिसमें उत्तर
भारत की छै ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का छै
सर्गों में विस्तार
से वर्णन किया गया है। ऋतुओं के सजीव वर्णन के अतिरिक्त
इसमें
उन मनोभावों का भी भावपूर्ण वर्णन किया गया है जो बदलती
ऋतुओं के साथ प्रेमी हृदयों में पैदा होते हैं।
प्रकृति के प्रांगण में विहार करनेवाले विभिन्न
पशु-पक्षियों तथा नानाविध वृक्षों, लताओं व फूलों को भी
कवि भूला नहीं है। वह भारत के प्राकृतिक वैभव तथा जीव जन्तुओं के वैविध्य के साथ-साथ उनके स्वभाव व प्रवृत्तियों
से भी पूर्णतः परिचित है। प्रस्तुत काव्य को पढ़ने से भारत
की विभिन्न ऋतुओं का सौंदर्य अपने संपूर्ण रूप में हमारी
आँखों के समक्ष साक्षात उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार
शब्द लालित्य के साथ साथ नवरसों का भी इस काव्य में सम्यक
ध्यान रखा गया है। कालिदास की सभी साहित्यिक कृतियों
में ऋतुसंहार सबसे छोटी कृति है।
कालिदास ज्योतिष के विशेषज्ञ भी माने जाते थे। उत्तर
कालामृतम नामक ज्योतिष पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास
को दिया जाता है। ऎसा माना जाता है की काली की पूजा से
उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला।
कालिदास की कुछ अन्य रचनाएँ भी है- श्रुतबोधम, शृंगारतिलकम,
शृंगाररसाशतम, सेतुकाव्यम, कर्पूरमंजरी, पुष्प
विलासम, श्यामा दंडकम, ज्योतिर्विद्याभरणम आदि पर इनके
विषय में विस्तृत वर्णन नहीं मिलते।
र २००३ नवंबर
२००८४
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