प्रागैतिहासिक
युग में भी आदिम मानव यही प्रार्थना करते थे। वैदिक काल
में भी 'गणानां त्वा गणपति हवामहे' के मंत्रों में
बृहस्पति रूप में 'बुद्ध राशि शुभगुणसदन' गणनायक का आवाहन
किया जाता था। गणेशपुराण के अनुसार प्रत्येक युग में गणेश
के रूप में परिवर्तन होता है नाम वर्ण, वाहन आदि बदलते हैं
किंतु तात्विक रूप से वे आदि पूज्य विघ्नेश्वर, मंगलदायक
सिद्धिदाता तथा बुद्धिविधाता विनायक के रूप में अग्रपूजा
के अधिकारी रहे हैं।
निराकार तत्व को साकार
प्रतिकृति में ढालना मनुष्य को रुचिकर लगता है। ऐसा करके
वह अपने आराध्य के प्रत्यक्ष सानिध्य और दर्शन का सुख
प्राप्त करना चाहता है। स्मृतियुग में लगभग दूसरी शताब्दी
ईसवी में गणेश के वर्तमान रूप का निर्धारण किया गया था। यह
रूपकल्पना अद्भुत है। गणेश गजानन हैं, चतुर्भुज हैं,
महाकाय और लंबोदर हैं, पाश और अंकुश धारण करते हैं, एकदंत
और शूर्पकर्ण हैं, मोदक प्रिय और मूषक वाहन हैं।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३१७१) के अनुसार वे रक्तचंदन से
लिप्त विशाल देह पर नाग का यज्ञोपवीत धारण करते हैं।
पुराणों में उनके 'त्र्यंबक'। (तीन नेत्र) और 'चंद्र मौलि'
होने का भी वर्णन किया गया है।
देवताओं की रूपकल्पना
प्राचीन प्रतिमा-विज्ञान का विषय रहा है। बौधायन धर्मसूत्र
(२१५) में जब गणपति का वर्तमान स्वरूप निश्चित हो गया और
देवी भागवत पुराण (११/१७) ने पंचायतन देव वर्ग में
शिव-शक्ति, विष्णु और सूर्य के स्थान गणेश को सम्मिलित कर
लिया तो कला और शिल्प जगत में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी।
हिंदू देवताओं में तो वे अग्रणी थे ही, बौद्ध और जैन धर्म
तथा साधना पद्धतियों एवं शिल्पों में भी उनका समावेश हुआ।
बौद्धधर्म की 'साधनमाला' में वर्णित मंडलों में गणेश पूजा
का विधान है जैन ग्रंथों जैसे अभिधान चिंतामणि और आचार
दिनकर में वर्णित मूर्ति-शिल्प में गणेश का सारा रूप-विधान
वैसा ही है जिस रूप में वे पूजे जाते हैं। गणेश का
हस्तिमुख (गजानन) भारतीय संस्कृति का 'शुभंकर' है जो
क्रीड़ा जगत का भी विश्वमान्य प्रतीक रहा है और जिसकी
आकर्षक आकृति ने देश की सीमा लांघ कर सारे विश्व में
लोकप्रियता अर्जित की है। अनेक दक्षिण पूर्व एशियाई देशों
में भी उनकी अर्चना की जाती है। गणेश के दो विशेषण अपने-आप
में अद्भुत हैं- मोदक प्रिय और मूषक वाहन। सामान्यतया
लड्डू को मोदक कहा जाता है। किंतु वस्तुतः 'मोदक' उन
पदार्थों या स्थितियों को कहा जाना चाहिए जो जीवन में
'मोद' (खुशी) भर सकें। जीवन में आमोद-प्रमोद की स्थिति तभी
आती है, जब वह विघ्नों से रहित और ऋद्धि-सिद्धि से
परिपूर्ण हो। गणेश विघ्नेश्वर और ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी
हैं। मोदक (मोदकारी) पदार्थ उन्हें प्रिय हैं इसलिए ही वे
मोदकप्रिय हैं। उनके हाथों में 'मोदकपात्र' इसी कारण रहता
है। उनका वाहन 'मूषक' है। ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणेश खंड
(१३/१२) में उल्लेख है कि अनेक देवी-देवताओं ने उन्हें
उनकी विजय के उपलक्ष्य में विविध उपहार दिए थे तब वसुंधरा
(पृथ्वी) ने उन्हें वाहन के रूप में 'मूषक' का उपहार दिया
था।
यह कथा गणपति के कृषि-युग
के समय ग्राम-संस्कृति के 'क्षेत्रपाल' रूप की ओर संकेत
करती है। बाद में जब नगर-संस्कृति का विकास हुआ तब नगर और
भव्य भवनों के द्वारों पर धनकुबेरों के गण के रूप में जो
महाकाय विकट यक्ष प्रतिष्ठित थे, उनका स्थान भी
समृद्धि-प्रदाता गणपति ने ले लिया। आज तो यह अनिवार्य
प्रथा ही बन गई है कि भवन बनाते समय उसके प्रवेश द्वार पर
संरक्षक देव के रूप में गणेश की प्रतिमा प्रतिष्ठित की
जाती है।
धार्मिक विधि-विधान के
अनुसार किसी भा मंगलकार्य में सर्वप्रथम गणेश का आवाहन
करके उन्हें स्थापित किया जाता है। उनके साथ ही दीवार पर
घृत से सप्तमातृकाओं को स्थापित करने की भी परिपाटी है।
देश के अनेक भागों में उपलब्ध मूर्ति-शिल्पों में गणेश
सप्त मानृकाओं के साथ उत्कीर्ण किए गए हैं। ये
सप्तमानृकाएँ हैं- ब्रह्माणी, महेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी,
इंद्राणी, वाराही और चामुंडा। इनके साथ कुबेर या भैरव को
भी उत्कीर्ण किया गया है। वामन पुराण (३०/२२) में उल्लेख
है कि विघ्नरूप असुरों से युद्ध करते समय ये मानृकाएँ गणेश
को शक्ति प्रदान करती हैं, अतः इन्हें विवाहादि मंगल
संस्कारों के समय गणेश के साथ स्थापित और कार्य पूर्ण होने
पर विसर्जित करना चाहिए। राजस्थान के लोकगीतों में गणपति
को 'सूंडसूंडालो गणपत कांमणगारों' कहकर बुलाया जाता है और
विवाह की तैयारी के लिए उनसे ज्योतिषी, सुनार, चूड़ीगर,
रंगरेज, कंदोई, बजाज वगैरह की हाटों पर चलने की प्रार्थना
गाई जाती है ताकि विनायक की कृपा से सारी ख़रीददारी बिना
बाधा हो सके। इन गीतों में विशेष रूप से 'रणतभँवर देव' को
पधारने की प्रार्थना की जाती है।
'रणतभँवर देवा आप पधारो,
रिधि सिधि चँवर डुलावणा।'
यह 'रणत भँवर' है रणथंभौर
जिसके गणेश का आवाहन विनायक-गीतों में होता है। गणेश की
प्रतिमाएँ अनेक मुद्राओं में प्राप्त होती हैं। बैठी
मुद्रा, खड़ी मुद्रा नृत्यमुद्रा, अन्य देवों और मानृकाओं
के साथ उत्कीर्ण मुद्रा राजस्थान में भी अनेक स्थानों पर
ऐसी प्रतिमाएँ विपुल मात्रा में उपलब्ध हैं। गणेश के अनेक
मंदिर हैं जहाँ नियमित पूजन होता है, बुधवार को भीड़ रहती
हैं, शोभायात्राएँ निकली जाती हैं। गजानन गणपति को प्रथम
पूज्य आदिदेव के रूप में मान्यता मिलने का दार्शनिक रहस्य
है। वे शब्द-ब्रह्म के प्रतीक देव हैं। प्रकृति ने मनुष्य
को ही वह बुद्धिबल दिया है जिससे उसने ध्वनियों को शब्द
रूप दिया, भाषा का आविष्कार किया, उन्हें लिपियों में ढाला
और वर्णमानृकाओं की स्वर और व्यंजनों के रूप में रचना की।
वेदों ने इसीलिए 'शब्द' को 'ब्रह्म' कहा। शब्द ब्रह्म का
वैदिक नाम है- प्रणव, जो ओम (अ+अ+म्) के रूप में लिखा जाता
है। यही नाद है, यही ध्वनियों का आधार है, और यही वाक् है।
ॐ के इसी वैदिक रूप को यदि पौराणिक वक्रता का आकार देकर
ऊपर की ओर घुमाया जाय तो वहीं ॐ बन जाता है जो गजानन,
एकदंत और मोदक प्रिय गणपति का आकार बन जाता है। भाषा में
धानुओं के गण होते हैं, छंदों में तीन-तीन वर्णों के गण
होते हैं, गणना में अंकों के गण होते हैं- इन सब गणों के
अधिपति हैं गणेश, जिनसे मानव जीवन की यात्रा का श्री गणेश
होता है। शायद इसी कारण नवजात शिशु की जिह्वा पर मधु से
'ओम्' लिखने का रिवाज है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी गणेश का
पूजोत्सव है जो अनंत चतुर्दशी तक चलता है। महाराष्ट्र इस
उत्सव का प्रमुख केंद्र है। हमारा महान राष्ट्र विश्व का
महानतम संघात्मक गणराज्य है। इसकी उत्तरोत्तर उन्नति और
निर्विघ्न विकास के लिए गणनायक से ही प्रार्थना करें-
'निर्विघ्नं कुरु में देव! शुभकार्येषु सर्वदा।'
२० अक्तूबर
२००८२००४ |