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निबंध

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छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य
--अश्विनी केशरवानी

छत्तीसगढ लोक कथाओं की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। मानव की प्राचीनतम संस्कृति यहाँ भित्ति चित्रों, नाट्यशालाओं, मंदिरों और लोक नृत्यों के रूप में आज भी विद्यमान है। यहाँ की लोक रचनाओं में नदी-नाले, झरने, पर्वत और घाटियां तथा ास्य यामला धरती की कल्पना होती है। मध्य काल में यहाँ अनेक जातियां आयीं और अपने साथ आर्य संस्कृति भी ले आयी।

यहाँ आदिवासियों का नृत्य-सरहुल, मारियों का ककसार, परजा का परब, उरांवों का डोमकच, बैगा और गोड़ों का करमा के अलावा डंडा, सुवा आदि लोक नृत्य प्रमुख है। यदुवंशियों का रावत नृत्य और सतनामियो का पंथी नृत्य आज छत्तीसगढ़ वासियों के बीच बहुत लोकप्रिय है। छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में बहुत कुछ समानता होती है। ये नृत्य मात्र मनोरंजन के साधन नहीं है बल्कि जातीय नृत्य, धार्मिक अनु ठान ओर ग्रामीण उल्लास के अंग भी हैं। देव पितरों की पूजा-अर्चना के बाद लोक जीवन प्रकृति के सहचर्य के साथ घुल मिल जाता है। यहाँ प्रकृति के अनुरूप ही ऋतु परिवर्तन के साथ लोक नृत्य अलग-अलग शैलियों में विकसित हुआ। यहाँ के लोक नृत्यों मे मांदर, झांझ, मंजिरा और डंडा प्रमुख रूप से प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार मयूर के पंख, सुअर के सिर्से, शोर के नाखून, गूज, कौड़ी और गुरियों की माला इनके प्रमुख आभूषण हैं।

रावत नृत्य-

छत्तीसगढ़ अंचल में ही नहीं अपितु सारे देश में रावतों की अपनी संस्कृति है। उनके रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, रस्मों-रिवाज भी भिन्न है। देश के कोन-कोने तक शिक्षा के पहुँचने के बावजूद रावतों ने अपनी प्राचीन धरोहरों की विस्मृत नहीं किया है। यादव अहीर, पहटिया, ठेठवार, राउत आदि नाम से जगत विख्यात् इस जाति के लोग नृत्य पर्व को देवारी (दीपावली) के रूप मे मनाते हैं। रावत नृत्य को अहिरा या गहिरा नाच भी कहते हैं। इसके तीन भाग हैं- सुहई बाँधना, मातर पूजा और काछन चढ़ाना। लक्ष्मी पूजन (सुरहोती) के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का विधान होता है। राउत अपने इष्ट देव की पूजा करके अपने मालिक के घर सोहई बाँधने निकल पड़ते हैं। गाय के गले में सोहई बाँधकर उसकी बढ़ोतरी की कामना करते हैं और गाते हैं -
सुहाई बनायेंव अचरी पचरी गाँठ दियो हर्रेया।
जउन सुहाई ल छारही, ओला लपट लागे गौर्रेया।।

अपने चिर परिचित को देखकर गाय रंभाने लगती है। सुहाई बाँधते सयम यह ध्यान रखा जाता है कि गायों को सुहाई सजाकर और बैलों को गैहाटी बाँधा जाता है। सुहाई बाँधकर रावत गाने लगते हैं -
एसो के बन बरसा
घरसा परगे हील
गाय कहेंव रे लाली
संगे रेंगाबो पीले

रावत पूरे दल में कौड़ी और मोर पंख से सज धज कर ढोलक, मांदर, झांझ और डंडा के साथ नाचते गाते मालिकों के घर जाते हैं -
उठे रहेव मालिक नौ दस लगगे वासे।
भीतर दुलरवा दूध पीये बाहिर धुले रनवासे।।

यहाँ मालिक के लड़के को दुलरवा ओर मिट्टी के घर को रनवास कहा गया है। आँचलिक गीतों में आत्मीयता प्रकट होती है। लोक संगीत की हर धुन पर रावतों के पग थिरक उठते हैं। वे गाते हैं -
एक सिंग तो ऐसे तैसे
एक सिंग तोर डंडा।
गीजर गीजर के आबे रे
खैरका डांढ़ तोर मूढ़ा।

और गायों का स्वास्थ बना रहे, इसकी कामना करते हुए वे गाने लगते हैं -
बरतरी बाँधेव बछरू
साल भर माड़गे गाई
हँस हँस बाँधेव सोहाई संगी
पांरव राम दोहाई।

सोहाई बाँधने के बाद दान दाता (मालिक) के लिये मंगल कामनाएँ की जाती है। इस अवसर पर लाठी और देव पितरों की पूजा की जाती है। नाचते गाते रावतों को मालिक रुपया-पैसा या धान देकर विदा करते हैं। तब रावत पुन: गा उठते हैं- हरियर चक चंदन, हरियर गोबर आबिना।
गाय गाय कोठा भरे, बरदा भरे शौकीन।।

और रावत अपने मालिक के लाख बरस जीने की कामना करते हुए लौट जाते हैं -
जइसे के मालिक लिए दिये
तइसे देबे आसीसे।
रंग महल में बैठो मालिक
जीयो लाख बरीसे।।

और तीसरा रूप है-काछन चढ़ाना। नाचते गाते देव पितरों की पूजा करते उन्हें अपने शरीर में चढ़ा लेते हैं और गाने लगते हैं :-
एक कांछ कांछैव भईया, दूसर दियेंव लभाई।
तीसर कांछ कांछैव त माता-पिता के दुहाई।।

रावत नृत्य का महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन रवताही बाज़ार या मड़ई में होता है। डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र इसे इंद्रध्वज की संज्ञा देते हुए लिखते हैं - ''रावतों द्वारा धारण किए जाने वाली कौड़ी लक्ष्मी का प्रतीक है और मोर पंख मंत्र तंत्र अभिचार या अन्य विपत्ति रूपी सर्पो के प्रतिकार का प्रतीक है।''
पूजा करय पुजेरी संगी, धोवा चाऊर चढ़ाई।
पूजा होवत हे लक्ष्मी के, सेत धजा फहराई।।

सुआ नृत्य :-

छत्तीसगढ़ के स्त्रियों का यह समूह नृत्य है। नारी मन की भावना, सुख-दुख की अभिव्यक्ति और उनके अंगों का लावण्य ''सुवा नृत्य'' या ''सुवना'' में देखने को मिलता है। इस नृत्य का आरंभ दीपावली से होता है जो अगहन मास तक चलता है। इस वृत्ताकार नृत्य में एक लड़की जो ''सुग्गी'' कहलाती है, धान से भरी टोकरी में मिट्टी का सुग्गा रखती है-कहीं एक तो कहीं दो। ये शिव और पार्वती के प्रतीक होते हैं। टोकरी में रखे सुवे को हर रंग के नए कपड़े और धान के नव मंजरियो से सजाया जाता है। सुग्गी को घेरकर स्त्रियाँ ताली बजाकर नाचती और गाती हैं। इनके दो दल होते हैं। पहला दल जब खड़े होकर ताली बजाते गीत गाता है तो दूसरा दल अर्द्ध वृत्त में झूककर ऐड़ी और अंगूठे की पारी पारी उठाती और अगल बगल तालियाँ बजाकर नाचतीं और गाती हैं :-
चंदा के अंजोरी म
जुड़ लागय रतिहा,
न रे सुवना बने लागय
गोरसी अऊ धाम।
अगहन पूस के ये
जाड़ा न रे सुवना
खरही म गंजावत हावय धान।

सुवा गीत की प्रत्येक पंक्तियाँ विभिन्न गुणों से सजी होती है-चाहे प्रकृति की हरियाली देखकर किसान का प्रफुल्लित होता मन हो या विरह की आग मे जलती प्रेयसी की व्यथा, चाहे ठिठोली करती ग्राम बालाओं की आपसी नोंक-झोंक या अतीत की विस्तार गाथा, प्रत्येक संदर्भ में सुआ मध्यस्थ का कार्य करता है। देखिए एक बानगी -
''पइयाँ मै लागौं चंदा सुरज के रे सुअनां
तिरिया जनम झन देय
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
जहाँ पठवय तहं जाये।
अंगठित मोरि मोरि घर लिपवायं रे सुअना।
फेर ननद के मन नहि आय
बांह पकड़ के सइयाँ घर लानय रे सुअना।
फेर ससुर हर सटका बताय।
भाई है देहे रंगमहल दुमंजला रे सुअना।
हमला तै दिये रे विदेस
पहली गवन करै डेहरी बइठाय रे सुअना।
छोड़ि के चलय बनिजार
तुहूं धनी जावत हा, अनिज बनिज बर रे सुअना।
कइसे के रइहौं ससुरार
सारे संग खइबे, ननद संग सोइबे रे सुअना।
के लहुंरा देवर मोर बेटवा बरोबर
कइसे रहहौं मन बाँध।''

सुआ नृत्य के उपलक्ष्य में मालकिन रूपया-पैसा अथवा धन-चावल देकर विदा करती है, तब सुआ नृत्य की टोली विदाई गीत गाती है -
''जइसे ओ मइया लिहे दिहे आना रे सुअना।
तइसे तैं लेइले असीस
अन धन लक्ष्मी म तोरे घर भरै रे सुअना।
जिये जग लाख बरीस...।''

डॉ. एलविन ने इस नृत्य की तुलना धीर गंभीर सरिता से की है। क्यों कि इसमें कहीं भी क्लिष्ट मुद्राएँ नहीं होती। कलाइयों, कटि प्रदेश और कंधे से लेकर बाहों तक सर्वत्र गुलाइयाँ बनती हैं। छत्तीसगढ़ी लोक गीतों के अध्येता पं. अमृतलाल दुबे के अनुसार, इसमें संगीत की काशिकी वृत्ति चरितार्थ होती है। सुआ गीत मुक्तक भी है और प्रबंधात्मक भी।

डंडा या सैला नृत्य :-

डंडा नृत्य पुरुषों का सर्वाधिक कलात्मक और समूह नृत्य है। इस नृत्य में ताल का विशेष महत्व होता है। डंडों की मार से ताल उत्पन्न होता है। इसी कारण इसे मैदानी भाग में डंडा नृत्य और पर्वती भाग में सैला नृत्य कहा जाता हे। वैसे भी सैला शैल का विकृत रूप है, जिसका अर्थ पर्वतीय प्रदेश होता है। इस नृत्य में ४६ से लेकर ५०-६० तक सम संख्यक नर्तक होते हैं। नर्तक घुटने से उपर तक धोती कुर्ता और जाकेट पहनते हैं साथ में गोंदा की माला से लिपटी पगड़ी सिर में बाँधते हैं। इसमें मोर पंख की कडियों का झूल होता है। कई नर्तक रूपिया (सिक्का), सुताइल, बहुंटा, चूरा, और पाँव में घुंघरू पहनते हैं। आँख में काजल, माथे पर तिलक और पान से रंगा ओंठ होता है। एक कुहकी देने वाला (जिससे नृत्य की गति और ताल बदलता है), एक मांदर वादक और दो-तीन झांझ मंजीरा बजाने वाले होते हैं। इनके चारों ओर शेष नर्तक वृत्ताकार नाचते हैं। नर्तकों के हाथ में एक या दो डंडा होता हैं। इसका प्रथम चरण ताल मिलाना है। दूसरा चरण कुहका देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक दूसरे के डंडे पर डंडे से चोंट करते हैं, कभी उचकते हुए, कभी नीचे झुककर और अगल-बगल को क्रम से डंडा देते हुए झूम झूमकर फैलते-सिकुड़ते वृत्तों में त्रिकोण, चतु कोण और षटकोण की रचना करते हुए नृत्य करते हैं। डंडे की समवेत ध्वनि से अल्हादकारी दृश्य उपस्थित होता है।
नृत्य के आरंभ में ठाकुर देव की वंदना फिर सरस्वती, गणेश और राम-कृष्ण के उपर गीत गाए जाते हैं। इसमें लोक जीवन की सुन्दर झांकी होती है। देखिए एक बानगी-
''पहिली डंडा ठोकबो रे भाई, काकर लेबो नाम रे ज़ोर,
गावे गउंटिया ठाकुर देवता, जेकर लेबो नाम रे ज़ोर।
आगे सुमिरो गुरु आपन ला, दूजे सुमिरों राम ज़ोर,
माता-पिता अब आपन सुमिरों गुरु के सुमिरों नाम रे ज़ोर।''

डंडा नृत्य कार्तिक से फागुन मास तक होता है। पूस पूर्णिमा याने छेरछेरा के दिन मैदानी भाग में इसका समापन होता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने इस नृत्य को ''छत्तीसगढ का रास'' कहा है।
डंडा नृत्य के बारे में अलग-अलग राय है। गोंड लोग इसे अपना जातीय नृत्य मानते हैं। वे मानते हैं कि राम रावण युद्ध में वे राम की ओर से लड़े थे और विजय मिलने पर यह नृत्य प्रारंभ किया था। ये लोग डंडा नृत्य विजयादशमी से शुरू करते हैं। दूसरे मत के अनुसार इसका जन्म श्रीकृष्ण के रास नृत्य से हुआ है। इस नृत्य में राम और कृष्ण दोनों के पद गाए जाते हैं। डॉ. प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक ''प्राचीन छत्तीसगढ़'' में डंडा नृत्य के प्रकारों का वर्णन किए हैं। उनके अनुसार दुधइया नृत्य, तीन डंडिया, पनिहारिन सेर, कोटरी झलक, भाग दौड़, चरखा भांज, माढ़लदेव, पीठ जोरूल, समधिन भेंट विशेष रूप से प्रचलित है।

करमा नृत्य -

यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का पर्याय है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी, गैर आदिवासी सभी का यह लोक मांगलिक नृत्य है। करमा, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर ग्रामों में भी प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा तथा बालाघाट और सिवनी के कोरकू और परधान जातियाँ करमा के ही कई रूपों को नाचतीं हैं। बैगा करमा, गोंड़ करमा, भुंइयाँ करमा आदि जातीय नृत्य माना जाता है। छत्तीसगढ़ के एक लोक नृत्य में करमसेनी देवी का अवतार गोंड के घर में माना गया है, दूसरे गीत में घसिया के घर माना गया है।

करमा नृत्य में स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। यह वर्षा ऋतु का छोड़कर सभी ऋतुओं में नाचा जाता है। सरगुजा के सीतापुर के तहसील, रायगढ़ के जशपुर और धरमजयगढ़ के आदिवासी इस नृत्य को साल में सिर्फ़ चार दिन नाचते हैं। एकादशी करमा नृत्य नवाखाई के उपलक्ष्य में, पुत्र प्राप्ति, पुत्र के लिए मंगल कामना, अठई नामक करमा नृत्य क्वांर में भाई-बहन के प्रेम सम्बंधी, दशई नामक करमा नृत्य और दीपावली के दिन करमा नृत्य युवक-वतियों के प्रेम से सराबोर होता है।

करमा नृत्य में मांदर और झांझ-मंजीरा प्रमुख वाद्य यंत्र है। इसके अलावा टिमकी ढोल, मोहरी आदि का भी प्रयोग होता है। करमा नर्तक मयूर पंख का झाल पहनता है, पगड़ी में मयूर पंख के कांड़ी का झालदार कलगी खोंसता है। रुपया, सुताइल, बहुंटा ओर करधनी जैसे आभूषण पहनता है। कलई में चूरा, और बाँह में बहुटा पहने हुए युवक की कलाइयों और कोहनियों का झूल नृत्य की लय में बड़ा सुन्दर लगता है। इस नृत्य में संगीत योजनाबद्ध होती है। राग के अनुरूप ही इस नृत्य की शैलियाँ बदलती है। इसमें गीता के टेक, समूह गान के रूप में पदांत में गूँजते रहता है। पदों में ईश्वर की स्तुति से लेकर शृंगार परक गीत होते हैं। मांदर और झांझ की लय-ताल पर नर्तक लचक लचक कर भाँवर लगाते, हिलते-डुलते, झुकते-उठते हुये वृत्ताकार नृत्य करते हैं।

करमा नृत्य के साथ कई किंवदंतियाँ जुड़ी हुई है। कई लोग इस नृत्य की अधि ठात्री देवी करमसेनी को मानते हैं, तो कई लोग विश्वकर्मा को इसका अराध्य देव मानते हैं। अधिकांश लोग इसकी कथा राजा कर्म से जोड़ते हैं, जिसने विपत्ति से छुटकारा पाने पर इस नृत्य का आयोजन किया था। यह नृत्य समूचे छत्तीसगढ़ में मनौती के रूप में मनाया जाता है। डॉ. बल्देव इस नृत्य इस नृत्य के बारे में अपने एक लेख में लिखते हैं- ''छत्तीसगढ़ के लोग कर्मवीर हैं। कृषि कार्य की सफलता के बाद उपयुक्त अवसर पर यह नृत्य किया जाता है। आगे चलकर ''कर्म'' शब्द की भावनात्मक सत्ता अपने लोक व्यापी स्वरूप के कारण मिथक में रूपांतरित हो गई। करमा का प्रतीक करमा वृक्ष को और उसकी अराध्य देवी करमसेनी को मान लिया गया हो। ताज्जुब नहीं यह करमसेनी कोई कर्मशीला नारी ही रही होगी, जिसके लोकोपकारी गुण ने उसे देवी के रूप में प्रतिि ठत कर दिया और वह लोक विश्वास संबल पाकर किसी मिथकीय कहानी की नायिका बनकर अवतरित हो गई।``
करमा की मनौती मानने वाला दिनभर उपवास रहता है और अपने सगे-सम्बंधियों और पड़ोसियों को न्योता देता है। शाम के समय करमा वृक्ष की पूजा कर टँगिये के एक ही बार से डाल को काटा जाता है, उसे ज़मीन में गिरने नहीं दिया जाता। उस डाल को अखरा में गाड़कर स्त्री-पुरुष रात भर नृत्य करते हैं ओर सुबह उसे नदी में विसर्जित कर देते हैं। इस अवसर पर गीत भी गाये जाते हैं -
''उठ उठ करमसेनी पाही गिस विहान हो,
चल चल जाबो अब गंगा असनांद हो।''

यों तो करमा नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में पाँच शैलियाँ प्रचलित है। जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाढ़ा, लहकी और खेमटा। जो झूमझूम कर नाचा जाता है उसे झूमर कहते हैं। एक पैर झुकाकर गाया जाने वाल नृत्य लंगड़ा है। लहराते हुए करने वाले नृत्य को लहकी और खड़े होकर किया जाने वाला नृत्य ठाढ़ा कहलाता है। आगे-पीछे पैर रखकर, कमर लचकाकर किया जाने वाला नृत्य खेमटा है। खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ का हर गीत इसमें समाहित हो जाता है।

डोमकच नृत्य -

यह आदिवासी युवक-युवतियों का प्रिय नृत्य है। यह प्राय: शादी-ब्याह के अवसर पर किया जाता हे, इसलिए इसे विवाह नृत्य भी कहा जाता है। यह नृत्य अगहन से आषाढ़ तक रात भर किया जाता है। प्राय: इसे वृत्ताकार रूप में नाचा जाता है। इसमें एक लड़का और एक लड़की जो गले और कमर में हाथ रखकर आगे-पीछे झुककर स्वच्दछंदता पूर्वक नाचते हैं। मांदर, झांझ ओर टिमकी इस नृत्य का प्रमुख वाद्य यंत्र है। इस नृत्य के गीतों में सदरी बोली का बाहुल्य होता है।

बस्तर के नृत्य -

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का प्रमुख क्षेत्र बस्तर है। प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य ने यहाँ के निवासियों को कला प्रिय बना दिया है। यहाँ नृत्य की विधिता है। हल्बा, भतरा, परजा, मूंडा, मारिया, गोंड, बैगा, भूरिया, घुरूवा आदि यहाँ के मूल निवासी हैं। उनके अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। इनमें माड़ियों का ककसार, डंडामी माड़ियों का सींगों वाला नृत्य, तीना-तामेर नृत्य, डंडारी नाचा, मड़ई, परजा जाति का परब नृत्य, घुरुवाओं का घुरुवा नृत्य, कोयों का कोया नृत्य, गेंडी नृत्य, भतराओं का भतरा वेद पुरुष स्मृति और छेरना नृत्य प्रमुख है। रिलो और हुलकी गोंड़ स्त्रियों का प्रिय नृत्य है। ये सभी वृत्ताकार नृत्य हैं।

सरहुल नृत्य -

यह नृत्य सरगुजा, जशपुर और धरमजयगढ़ तहसील में बसने वाले उरांव जाति का जातीय नृत्य है। आदिवासियों का विश्वास है कि साल वृक्षों के समूह में जिसे ''सरना'' कहा जाता है, महादेव वास करते हैं। महादेव और देव पितरों को प्रसन्न करके सुख शांति की कामना के लिए चैत पूर्णिमा की रात इस नृत्य का आयोजन किया जाता है। इनका बैगा सरना वृक्ष की पूजा करता है। वहाँ घड़े में पानी रखकर सरना के फूल से पानी छिंचा जाता है। वहीं पर सरहुल नृत्य किया जाता है। सरहुल नृत्य के प्रारंभिक गीतों में धर्म प्रवणता और देवताओं की स्तुति होती है लेकिन ज्यों ज्यों रात बढ़ती जाती है त्यों त्यों नृत्य-गीत मादक होने लगता है। शराब का सेवन भी इस अवसर पर किया जाता है। यह नृत्य प्रकृति पूजा का एक आदिम रूप है।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी और सुदूर वनांचल भी आज महँगाई की मार और शहरीकरण के प्रदूषण से प्रभावित हुआ और गाँव की स्वच्छंदता, उसकी लोक संस्कृति और रहन-सहन में बहुत अंतर आया है जिससे उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। आज शहरों में लोकोत्सव मनाकर इनकी संस्कृतियों को ज़िंदा रखने का प्रयास किया जा रहा है मगर इसके आयोजन में शहरीकरण की पूरी छाप दिखाई देती है। आज ये लोक संस्कृति के नृत्य केवल उत्सव और नेताओं के स्वागत में किया जाने वाला राग दरबारी नृत्य जैसा हो गया है। पहले ये नृत्य प्रकृति से जोड़ने वाला हुआ करता था, आज प्रदूषण का शिकार होते जा रहा है। यह एक चिंतनीय बात है।

१५ दिसंबर २००८

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