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संस्कृति


वाल्मीकि रामायण में शकुन-चर्चा
- रामलाल शर्मा
 


मानवीय सभ्यता अपने विकास के चरम-उत्कर्ष पर पहुँचकर भी शकुनों के घेरे से बाहर, नहीं निकल पाई। विश्व की सभी जातियों में, किसी न किसी रूप में, शकुनों पर विचार चलता ही रहता है। स्वयं को आधुनिकतम कहने वाली जातियों के बीच में भी इनका प्रचलन, थोड़े-बहुत अंतर के साथ, दृष्टिगोचर होता है। यह और बात है, कि कहीं उल्लू उजाड़ और विनाश का प्रतीक माना जाता है, तो कहीं उसके दर्शन शुभ भी कहे जाते हैं। बिल्ली कहीं रास्ता काटकर काम बिगाड़ने का प्रतीक मानी जाती है, तो कहीं किसी रंग विशेष की बिल्ली, ऐश्वर्यवर्धक भी बन जाती है। कहने को तो कहा जाता है, कि एशिया और अफ्रीका में ही शकुनापशकुन पर अधिक विचार किया जाता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि विश्व के अन्यान्य द्वीपों एवं क्षेत्रों में भी शकुनों का प्रचलन पाया जाता है। व्यक्ति और समाज के जीवन में शकुनों पर विचार चलते रहने के कारण विश्व-वांगमय में भी इनकी चर्चा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। भारतीय वांगमय के गौरव ग्रंथ वाल्मीकि रामायण में भी शकुन-अपशकुनों के अनेक प्रसंग हैं।

वाल्मीकि रामायण में शकुन-

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में शुभाशुभ शकुनों की चर्चा इस प्रकार ही है- रामायण के अरण्य कांड के चौबीसवें सर्ग में जब श्रीराम को खरदूषण के साथ युद्ध करना अवश्यंभावी प्रतीत हुआ, तब उन्होंने प्रकृति में होने वाले विचारों को भावी युद्ध के प्रतीक शकुन मान कर लक्ष्मण से कहा कि वह जनक नंदिनी सीता को किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाए, ताकि राम निश्चिंत होकर शत्रुओं का संहार कर सकें। श्रीराम को लगा कि वनचारी पक्षी जो रव कर रहे हैं तो इससे स्पष्ट है कि ये किसी भावी युद्ध के संकेत दे रहे हैं। बार-बार उनका दायाँ बाजू फड़ककर महान युद्ध में विजय की संभावना दर्शा रहा है-

सम्प्रहारस्तु सुमहान् भविष्यति न संशयः।
अयमाख्याति मे बाहुः स्फुरमाणो मुहुर्मुहः।।

शकुनज्ञाता श्रीराम का विश्वास था कि युद्ध से पूर्व जिस योद्धा का चेहरा मलिन पड़ जाता है, उसे पराजय मिलती है और जिसका चेहरा दैदीप्यमान हो जाता है विजय-लक्ष्मी उसके चरण चूमा करती है। रावण जब सीता का अपहरण कर उन्हें लंका में ले गया, तब विभीषण ने देखा कि वहाँ अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे हैं। वह उन उत्पातों को अशुभ शकुन के रूप में स्वीकार करने लगा। तब उसने एक बार रावण के पास जाकर कहा कि- जब से आप सीता का अपहरणकर अपने यहाँ लाए हैं, तभी से मैं यहाँ उत्पातों को देख रहा हूँ, वे उत्पात और अपशकुन अंततः हमारे इस समृद्ध राज्य एवं इसके शासकों के विनाश का कारण बनेंगे। इस अवसर पर विभीषण ने उन्हें बताया कि सीता के यहाँ आने के बाद, मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि मंत्रों द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि कभी भी निर्धूम नहीं हो पाती अर्थात सधूमयज्ञाग्नि भी एक अपशकुन है, जो किसी भावी उत्पात की सूचक है। अग्निशाला में बहुधा पिपीलिका और सर्प दिखाई देते हैं जो किसी भावी अनिष्ट की आशंका को व्यक्त करते हैं। गायों का दूध कम हो रहा है। हाथियों के मदविकार में कमी आ रही है। खर और ऊँट अच्छे उपचारों के होते हुए भी, रोगी होते जा रहे हैं। ये सब बातें सैन्य-बल की दुर्बलता के ज्ञापक हैं, जो अंततः राज्य की पराजय का कारण बनेंगे-
सस्फुलिंगः सधूमाचिं सधूम कलुषोदयः।
मंत्र संधुक्षितोंप्याग्निर्न समयगभिवर्धते।। १०। १५ युद्ध-कांड

इन अशुभ शकुनों के संदर्भ में विभीषण ने रावण से कहा कि वह लंका को विनाश से बचाने के लिए, सीता को वापस राम के पास भेज दे, ताकि राज्य को विनाश से बचाया जा सके--
नदेवं प्रस्तुते कार्ये प्रायश्चियतमिदं क्षमम्।
रोचते वीर वैदेही राघवाय प्रदीयताम्।। युद्ध-कांड, १०/२२

इसी प्रकार युद्ध-कांड के तेइसवें सर्ग में लंका पर आक्रमण से पूर्व सूर्य में होने वाले उत्पातों को देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण को भावी महायुद्ध के बारे में बताया कि इन दिनों से आकाश माँस-भक्षी पक्षियों से घिरा रहता है। मृग और पक्षी दीन और क्रूर स्वरों में बोलते हैं। सूर्य के बीच एक नीला चिह्न दृष्टिगोचर होने लगा है, जो भावी विनाश की आशंकाएँ लिए हुए है-

‘आदित्ये विमलं नील लक्ष्म
लक्ष्मण दृश्यते’

राम-रावण युद्ध के बीच दृश्यमान शकुनों में, श्रीराम को अपनी विजय और शत्रु की पराजय का आभास स्पष्ट रूप से होने लगा था। रावण के रथ पर मंडराते गिद्ध, मानो उसकी पराजय की स्पष्ट घोषणा कर रहे हों। भयंकर और अशुभ रव करती हुई असंख्य सारिकाएँ, बार-बार रावण के रथ पर बैठकर उसकी पराजय का उद्घोष कर रही थीं। रावण के पराजय-सूचक अपशकुन राम के लिए विजय-शकुन बन रहे थे-

कुर्वन्त्यः कलहं घोरं सारिकस्तद्रथं प्रति।
निपेतुशतशस्तत्र दारुणाः दारुणारुताः। युद्ध-कांड, १०६/३

अशोक वाटिका में राम के विरह में क्षीणकाय सीता को लगा कि, जीवन में कोई सुखद समाचार मिलने वाला है। उनका वाम नेत्र फड़कने लगा, वाम भुजा फड़क उठी, उसकी बाँयी जाँघ में एक विस्फुरण हुआ और उनके सिर का आँचल सरक गया और इसे शुभ शकुन मानकर उन्हें लगा कि जीवन की बगिया में शायद बहार आने वाली है, तभी सामने उन्होंने देखा कि हाथ बाँधे हनुमान राम का संदेश सुनाने के लिए उपस्थित हैं। पुरुष का दक्षिणांग फड़कना शुभ कहा जाता है, तो स्त्री का वामांग, शुभ शकुन कहा जाता है। महाकवि ने इन शुभ शकुनों का वर्णन इस प्रकार किया है-
बाम भुजा का फड़कना

भुजश्च चावं चित्त वृतपीनः
परार्ध्य कालागुरु चन्दनाहः।
अनुतमेनाध्युषितः प्रियेण
चिरेण वामा समवेपताशु।।

बायीं आँख का फड़कना
गजेन्द्र हस्त प्रतिमश्च पीनाः, तयोर्द्वयोः
संहस्तयोस्तु जातः।
प्रस्पन्दमानः पुनरुर्रुरस्या, रामं पुरस्तात्
स्थितमाचचक्षे।। सुंदर-कांड २९/२-३

आज सीता का वाम नेत्र, वाम भुजा और वाम उर फड़का, सीता को लगा, मानो श्रीराम उनके सामने, स्वयं आकर खड़े हो गये हैं। इन शुभ शकुनों के घटित होते ही, उनकी हनुमान से भेंट हुई, जहाँ उन्हें श्रीराम का सुखद संदेश मिला जो अंततः रावण की पराजय और राम की विजय के पश्चात् सीता-राम के मधुर मिलन के रूप में परिणत हुआ। युगद्रष्टा कवि वाल्मीकि ने जातीय महाकाव्य में, अनेक स्थानों पर अशुभ और शुभ शकुनों का अकंन कर मानव-जीवन से संबद्ध, इस सुखद और दुखद प्रसंग पर, विचार किया है जिससे ज्ञात होता है, कि तत्कालिक समाज में शकुनाशकुन का विचार प्रचुर मात्रा में प्रचलित था।

अंत में यह कहना ही पर्याप्त होगा कि न जाने मानव मन में, इन शकुनाशकुनों ने कब अपना स्थान बनाया था, जो जीवन के आरंभिक युग से लेकर, विकास के चरम तक पहुँचने पर भी, मानव-मन के किसी कोने में अपना स्थान बनाये रखते हैं और बनाये रखेंगे। आखिर जीवन के सुख-दुख के प्रतीक इन शकुनों से छुटकारा मिल भी तो नहीं सकता। यह और बात है कि युग परिवर्तन के साथ इनके स्वरूप में, थोड़ा-बहुत परिवर्तन हो जाए पर सुख-दुख धर्मा इस शरीर के रहते तो, इन प्रतीकों का अस्तित्व व्यक्ति और समाज के भीतर किसी न किसी रूप में तो रहेगा ही।

२३ मार्च २०१५

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