हमारी लोक संपदा- ईसुरी की फागें
- संजीव सलिल
भारत विविधवर्णी
लोक संस्कृति से संपन्न, समृद्ध परम्पराओं का देश है।
इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन
पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की
त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत
तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय
का सूचक भी है। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में
प्रवेश कर उत्तरायणी होता है इस महाद्वीप में दिन की
लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता
है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का
सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकानंद की
अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है। मकर संक्रांति,
खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व
सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार
बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में
नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध
में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य
से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा
देते हैं। राम अवध से निकलकर बुंदेली माटी पर अपनी
लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे
इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार
पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता
है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास
नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो
बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता,
शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित
आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ
शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गायी जानीं
स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी।
ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर
कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया
फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों
से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा
से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ
समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन
फागों में पिरोया है। रसराज शृंगार के संयोग और वियोग
दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित
हैं। सद्यस्नाता युवती की केश राशि पर मुग्ध ईसुरी गा
उठते हैं-
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो
तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के
सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं-
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ
दीन-दुखियों की दुखहर्ता भी हैं-
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसें कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने
बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और
आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका
के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने
जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुंदरता को देखा है उनकी
जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है-
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूँघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारें
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर
हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने
देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी
से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है-
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैनें, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने
के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी
कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है-
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का
गुणगान करते नहीं अघाते-
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ
को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली
काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली
काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी,
उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी
कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई
नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैरें, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं
भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण
की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे
नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक
बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और
कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब
कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम
जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान
रजऊ को सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को
उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलाँ भोजन करैं रजौआ, पाछूँ के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों)
में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं।
इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति
मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की
सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २
चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण
(२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः
गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी
मिलती हैं। छंद प्रभाकर नरेंद्र है। इस छंद में खड़ी
हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं।
ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने चोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं साँस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए-
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२ मार्च
२०१५ |