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संस्कृति

गंगा दशहरे के अवसर पर

गंगा भारत की संस्कृति है
- राजेन्द्र शंकर भट्ट
 


अंत अंत होता है अथवा आरंभ, यह सवाल वाराणसी में अपने आप उठने लगता है। उस दिन का आरंभ न जाने क्यों दो संसार-प्रसिद्ध श्मशान घाटों से करने का मन किया, और उन दोनों के बीच बने उन घाटों को आरपार देखने का मौका मिला जो वाराणसी की शोभा हैं, और उसकी महिमा देखने के स्थल भी हैं।

हरिश्चंद्र घाट हजारों वर्षों से दाह संस्कार के लिए निर्धारित है, परंतु इसकी ख्याति राजा हरिश्चंद्र के अलौकिक उदाहरण के साथ गुँथी हुई है-
चंद्र टरै सूरज टरै टरै जगत व्यवहार
पै दृढ़ श्री हरिश्चंद्र को टरै न सत्य विचार

मणिकर्णिका महान है:-
संतत जपत संभु अविनाशी
सिव भगवान खन गुन रासी
आकर चार जीव जग अहहीं
कासीं मस्त परम पद लहहीं

जो ‘लहहीं’ होता है, लुभावना और प्राप्ति की अभिलाषा से जुड़ा होता है, उसे अंत कैसे कहा जा सकता है। यह विचार हजारों सालों से भारतीय मानस में समाया हुआ है कि मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार प्राप्त करने पर, अंतिम से भी ऊँचा परम पद, महादेव शंकर का सान्निध्य प्राप्त होता है। जिन पर उनकी कृपा होती है, वे ही यह मोक्षदायी अवसर प्राप्त कर पाते हैं।

सत्य जीवन से ऊँचा

न जाने क्यों और कैसे भारत के चिंतन और विश्लेषण ने शरीर की समाप्ति के अनंतर भी कुछ प्राप्ति का निर्धारण किया। संसार जो अपार सुख-संपदा दे सकता है, वह कष्ट और पीड़ा से कितना भरा है, यह राजा हरिश्चंद्र के उदाहरण से अपने आप समझ में आता है, जिन्हें अपना वचन रखने के लिए श्मशान अधिकारी के हाथों अपने को बेचना पड़ा था। वह तो एक अति उच्च आदर्श के लिए हुआ था- सत्य इस जीवन से अवश्य उच्च होता है। परंतु गिरकर, स्वार्थ के वशीभूत होकर, अकारण भी निष्कृष्ट आनंद के लिए, अनेकानेक नीच कार्य इस संसार में इतने किये जाते हैं कि कई बार मन करने लगता है कि यह दुनिया रहने और फिर से आने के लायक कतई नहीं है।

भारत ने तो मानवीय शरीर और उससे मुक्ति के बीच कोटि-कोटि योनियों की परिकल्पना कर रखी है, जहाँ सांसारिक कष्ट-यातना से कई कई गुना दुर्भाग्य भोगने पड़ते हैं। अवश्य इन सबसे मुक्ति, जिसे मोक्ष, कभी इस संसार में लौटकर नहीं आने का उपाय, माना गया है, उसकी अभिलाषा कभी-कभी मन में जगती है। उसी का उत्तर तथा अवसर काशी में है, मणिकर्णिका घाट पर, जहाँ शव संस्कार से ही ‘परम पद’ प्राप्त हो जाता है।

यह विचार और विश्वास हजारों सालों से ऐसे स्त्री-पुरुष बड़ी संख्या में वाराणसी लाता रहा है, जो यहाँ अंतिम साँस समाप्त करने ही आते हैं। उनमें दीन-हीन-निरीह ही नहीं, इस संसार के वैभव और सुख का उपभोग कर लेने वाले भी होते हैं, जो इस स्थिति में होते हैं कि कई-कई पीढ़ियों तक उसी स्तर का जीवनयापन कर सकते हैं। उन्हें भी अपने अंत से ऐसे आरंभ की अभिलाषा होती है, जो संसार क्रम की समाप्ति कर दे। यही बताता है कि ऐसी आवश्यकता थी, और है जो यह सांत्वना दे कि इस सबसे छुटकारा मिलता और मिल सकता है।

प्राचीनता पर नवीनता की मोहर

दोनों श्मशान घाटों पर शव और उनके अंतिम संस्कार के दर्शन जब होते हैं, उतनी ऊँची बातें उठने वाले धुएँ के बितान के नीचे आ जाती हैं। शव क्या, शव-संस्कार की एक-एक चीज जब पास की दुकानों मे लदी दिखती है, मन के निकट अपनी मौत आने लगती है, और जहाँ लोग इतने आते हैं, वहीं से भागने का मन करने लगता है। भागकर कोई उस अंतिम स्थिति से बच नहीं सकता, जिसे वाराणसी में पुण्य-प्रताप बना लिया गया है। परंतु यही सांसारिकता है कि दौड़-दौड़कर उसी में डूबने की कामना और चेष्टा होती है।

प्राचीनता पर नवीनता की मोहर लगी है, हरिश्चंद्र घाट पर ही अति आधुनिक विद्युत शव संस्कार संयंत्र लगवा दिया गया है, और इस दरिद्रता के मारे देश में वह भी खूब चलने लगा है। वहाँ सिर्फ पचास रुपये में अपने से प्रिय-से-प्रिय को सदा के लिए सुलाया और इस संसार के लिए मिटाया जा सकता है। लकड़ी-सामग्री के भावों ने दाह संस्कार को भी समृद्धों का सौभाग्य बना दिया है।

लगभग सत्तर घाट वाराणसी में इस प्रकार अर्ध चंद्राकार बने हैं कि गंगा भी यहाँ वक्र हो गयी है। वक्रता सामान्यता से अधिक आकर्षक होती है, और यह सभी स्वीकार करते हैं कि संसार में कहीं और नदी तट इतना भव्य तथा चित्ताकर्षक नहीं है। नावों पर बैठकर, एक-एक घाट वहाँ की सभी अभिव्यक्तियों के साथ, देखना वाराणसी का प्रमुख आकर्षण है।

मृत्यु के अधिपति का आनंदरूप

प्रातःकाल का समय था, उगते सूर्य ने पहले तो पानी को तरल स्वर्ण बनाया, फिर बहती चाँदी, जिसका प्रकंपन जड़ी और चमचमाती मणियों-जैसा लग रहा था। इसे देखने आना बहुत ही अच्छा लगता है, यह मन में आने पर अपने आप लगने लगता है कि क्यों लाखों लोग, देश से और विदेशों से, इस दृश्य को देखने यहाँ पहुँचते हैं।

काशी शिव की नगरी है, यद्यपि देवी के मंदिर भी कई और काफी प्रसिद्ध हैं। अन्नपूर्णा, विशालाक्षी, दुर्गा, त्रिपुरा भैरवी। शिव का आधिपत्य श्मशानों से ही समझ में आने लगता है, दोनों पर राज्य है मशान नाथ का। हरिश्चंद्र घाट वाले ताम्र जटित हैं, मणिकर्णिका के शिव अधिक अधिकारी लगते हैं।

घाटों पर, उनके ऊपर और आसपास इतने छोटे-बड़े नये-पुराने मंदिर हैं कि उन्हें देखा तो क्या, गिना भी नहीं जा सकता। यहाँ यह जरूर समझ में आता है कि अभी भी हमारे देश में शिव ही सबसे पूजित देवता हैं।

शिव अंत, मृत्यु के अधिपति माने गये हैं। परंतु वाराणसी पहुँचकर, उनके आनंद रूप से ही अधिक साक्षात् होता है। एक जगह कहा गया है कि काशी निवासी हर नर शिव रूप होता है, और काशी निवासियों ने जीवन के आनंदों को इतना आत्मसात किया हुआ है, जो संसार और समय की प्रचंडताओं के कारण उतना उपयोग में अब नहीं आ पाता, कि मन उनके साथ, उनके बीच रहने और समय बिताने का होने लगता है। विद्वता और साधना, मौज और मस्ती, साथ-साथ यहाँ के जीवन पर छायी हुई हैं।

आनंद देता है काशीवास

घाटों को ही लें, पुण्य प्राप्त करने तो वहाँ लोग असंख्य संख्या में सारे साल जाते ही हैं, परंतु सारे साल सन्निकट प्रवाहित जल राशि से अधिक आनंददायी क्या हो सकता है। सुबह इस पार, मतलब शहर और बस्ती की तरफ स्नान, और शाम, उस पार, मतलब जहाँ बलुअई सन्नाटा है, एकांत में बूटी सेवन, मौज शौक और जब मन करे, गंगा के वक्षस्थल पर, बड़ी-बड़ी सजी-सुंदर नावों पर नृत्य-संगीत का आनंद, जो एक साथ अवसर मिलते हैं, उन्होंने बनारस के जन-जीवन को सरस और उन्मुक्त कर रखा है। जो वहाँ के नवयुवक-नवयुवतियाँ होते हैं, वे बहुतों के बीच सहज ही अलग से पहचाने जा सकते हैं, उनमें वह वक्रता होती है, जो गंगा ने वहाँ धारण कर रखी है। काशीवास मोक्ष देता है या नहीं, किसे पता। परंतु काशीवास आनंद देता है इसे सभी देख सकते हैं।

पुरुषों के लिए स्वास्थ, मालिश-कसरत और केश-श्रृंगार, और स्त्रियों के लिए सौंदर्य प्रसाधन-सामग्री तथा वस्त्राभूषण से, बनाने और बढ़ाने के सारे प्रबंध काशी के घाटों पर हैं। तैरना सिखाने के केंद्र हैं और तैरते देखने के अनेकानेक अवसर भी, प्रतियोगिताएँ होती हैं, जब स्त्री-पुरुष मानव शरीर की सामर्थ्य तथा उसका आकर्षण देखते ही रह जाते हैं। और जो उन्हें देखने आती हैं, इतनी संख्या में, वे प्रशंसक भी होती है, और उनकी निगाहों की तरलता मन को स्निग्ध किये बिना नहीं रहती।

वाराणसी का प्रमुख आकर्षण

गंगा-पूजन वाराणसी की प्राचीन-परंपरा है, जिसके साथ जुड़ी है यह भावना कि नव-विवाहितों से जल-पूजा कराने से उन्हें जीवन में किसी तरह की कमी का सामना नहीं करना पड़ता और भी जो कामनाएँ पूरी होती हैं, गंगा-पूजा के लिए प्रेरित करती रहती हैं। श्रद्धा स्वतः ध्यान आकर्षित करती है।

विविधता में एकता

घाट से घाट का भ्रमण धर्म की श्रद्धा और इतिहास का साक्ष्य दोनों प्रदान करता है। राम, लक्ष्मण, जानकी, हनुमान, केदार, ललिता, दुर्गा, पंच गंगा, गाय, त्रिलोचन, संगम, दशाश्वमेध, मणिकर्णिका- जैसी देवी-देवता तथा दैवी अवसरों के नाम पर घाट हैं तो तुलसी, प्रहलाद, हरिश्चंद्र, अहिल्याबाई, बाजीराव, चेतसिंह, मानसिंह, सिंधिया, भौसले, राजा, राणा, दरभंगा, मैसूर- जैसे राजपुरुषों और राजपरिवारों के नाम पर भी। उनका स्मरण होता ही है जब उनकी सीढ़ियों से गंगा के जल के निकट पहुँचने के लिए उतरा जाता है।

इससे जो समता और एकता बनती है, उसके परोक्ष प्रभाव ने ही भारत को विविधता में एकता दी है। अब भी, गंगा के घाटों पर विश्वनाथ के साथ-साथ सौराष्ट्रेश्वर और सोमनाथेश्वर का सस्वर स्मरण जब सुनायी देता है, लगता है कि इस राष्ट्र को भीतर से कोई नहीं तोड़ सकता।

जो राष्ट्र है, अपने विविध रूपों, स्वरों और श्रृंगारों में, अभाव में और प्रभाव में, उसका प्रवाह वाराणसी के मार्गों में, और उसका अवतरण वाराणसी के घाटों पर, एक अति उच्च श्रद्धा भारतीयता के प्रति उत्प्रेरित करता है। उसमें बुरा, दुराव, दुःखकारी, भेदभाव द्योतक जो दिखता है, वह वाराणसी जैसे- स्थलों पर तिरोहित, समाहित भी तो होता है। बिगड़ता है, परंतु उसे बनाने का विधान भी तो है। कौन राष्ट्र है जिसमें कंटक और नाशक नहीं हैं। भारत मिटा नहीं है, इसलिए कि उसमें कंटक-नाशक शिव और नाश-नाशक मणिकर्णिका की अभिकल्पना है।

नारे भाँति-भाँति के

जिसकी महिमा इतनी साक्षात् है, उसकी प्रशंसा में उसके किनारे कुछ अंकित करने की आवश्यकता नहीं थी। अधिक प्रदूषण मुक्ति अभियान के वास्ते सहयोग संजोने के लिए ही, जगह-जगह लिखवाया गया है- ‘गंगा पवित्र है।’ ‘गंगा सेवा, भारत सेवा।’ ‘गंगा भारत की संस्कृति, परंपरा है। गंगा को प्रदूषण से बचाना ही पूजा है।’ ‘हिंदू-मुस्लिम सिक्ख-ईसाई, मिल गंगा की करें सफाई।’ ‘गंगा निर्मल, हम भी निर्मल,’ किसी ने लिखवाया यह भी है: ‘दया, प्रेम, दान और क्षमा धर्म की बुनियाद हैं। सौंदर्य आत्मा की भाषा है। वेदांत केवल वेदों तक सीमित नहीं, वह आपके अंतस में है।’ यह जो ऊँचा उठना, और नीचा गिरना है, वह इन घाटों में शारीरिक ही नहीं, आत्मिक अनुभव भी हो जाता है। पाप नीचे गिराता है, घाटों की सीढ़ियों से उतारता है, और गंगा की पवित्रता नया संस्कार करके, नया विश्वास और बल देकर, ऊपर उठाती है, जब उसके स्पर्शन से शीतल, शुद्ध, स्वस्थ, सुंदर होकर उन्हीं सीढ़ियों पर चढ़-चढ़कर लौटने में आता है।

कुछ हैं जो जितना समय हो पवित्र और पवित्रकारी जल के निकट बिताने के लिए, दिन, आधा-दिन घाटों पर ही रहते हैं, वहीं स्नान-पूजन करते हैं, भोजन बनाते, खाते और थोड़ा आराम करते हैं। सुबह-सुबह भी तरह-तरह के भोजन बन रहे थे, रोटी दाल भात भी, पूड़ी-हलुवा भी।

गंगा सबकी अपनी है

गंगा उन्हें भी अपना दर्शन-स्पर्शन देने से इन्कार नहीं करती जो उसमें धार्मिक -सांस्कृतिक श्रद्धा नहीं रखते। नावों में बैठकर घाटों का अवलोकन करने वाले विदेशियों के अतिरिक्त, घाटों पर भी तरह-तरह के, न जाने किन-किन देशों से आये, कितने ही विदेशी खूब दिखते हैं। वे गंगा में क्या देख रहे होते हैं, कहा नहीं जा सकता, उस आकर्षक अकेली युवती का मानस-पटल तो पढ़ा ही नहीं जा सकता था, जो एकटक गंगा के थिरकते जल पर अपनी निगाहें टिकाने का यत्न कर रही थी। जो हिंदू नहीं हैं, वे भी, कदाचित भक्ति के सिवा, गंगा से सभी लाभ प्राप्त करते हैं।

वे तो नहीं, लेकिन भक्ति-विश्वास से प्रेरित बहुत होते हैं, जो जाते-जाते गंगा से उसका थोड़ा-सा जल लेकर जाते हैं। जल भरकर ले जाने के पात्र, विविध आकार-रूप के, और विविध सामग्रियों के बने, प्राचीनतम मिट्टी के भी और आधुनिकतम प्लास्टिक के भी, ताँबे, पीतल, लोहे और काँच के, घाटों पर सजे रहते हैं। एक-एक करके लोग उन्हें लेते हैं, अपनी कामनाओं से जोड़ते, उन्हें गंगा के निकट ले जाते हैं, और भी श्रद्धा से उसका जल उसके आशीर्वाद के रूप में ले जाते हैं।

२५ मई २०१५

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