शिव और तांडव
-पूजा प्रजापति
आदिदेव महाशिव को तांडव
नृत्य का जनक माना गया है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि
सम्पूर्ण खगोलीय रचना और इसके विनाश की, एक लयबद्ध कथा
नृत्यरूप में निबद्ध की गयी है। संभवतः इसी के प्रतीक
रूप में शिव को 'नटराज' रूप में स्मृत किया जाता रहा
है।
तांडव नृत्य की दो भंगिमायें
हैं--रौद्र और आनंद। 'तांडव' शब्द की व्युत्पतिगत अर्थ उनके उस
अनुसेवी से जुड़ा है, जिसने नाट्यकला के आदि आचार्य भरत मुनि को
शिव द्वारा इंगित सम्पूर्ण नृत्य मुद्रायें, भावपक्ष और हावभाव
को दर्शाने का आग्रह किया था। बाद में आचार्य ने इन सभी
मुद्राओं और भाव पक्षों को विस्तृत वर्णन सहित अपने रचित
'नाट्यशास्त्र' में सम्मिलित कर भारतीय नाट्यकला को सम्पन्न
किया।
कलात्मक विषयों के पारखियों के अनुसार शिव द्वारा प्रतिपादित
नृत्यकला का यह रूप 'तांडव' समस्त शृंगारिक, रौद्र और अन्य
मनोभावों को रूपायित करने में एक श्रेष्ठ कुंजी है। विविध
रूपों में प्रदर्शित 'तांडव' नृत्य वास्तव में एक संपूर्ण
कलात्मक सृष्टि का रूपक है। जिसमें ऐन्द्रिक आनंद, संहार और
सृजन के दर्शन तत्व हैं। इन्हीं विषयों से चमत्कृत भारतीय
शिल्पकारों ने ‘तांडव’ नृत्य की कई मुद्राओं को मंदिरों और
प्रस्तरखण्डों पर उकेर इस गरिमा को अमरत्व प्रदान किया। दक्षिण
भारत में, शैवमत के प्रति बहुजनों की आस्था है, उन क्षेत्रों
में निर्मित विशाल भव्य मंदिर इस तथ्य के असंख्य साक्षी हैं।
प्रसिद्ध कला समीक्षक आनंद कुमारस्वामी भी इस तथ्य को स्वीकार
करते यह टिप्पणी की थी कि नृत्य के बहुरूपों में यह
निश्चिंतभाव से कहा जा सकता है कि असीम ऊर्जा और ईश्वरीय सत्ता
को साक्षी मान इस नृत्य की रचना की गयी, जो उस भावातीत संसार
की सारगर्भित व्याख्या थी।
भार्या पार्वती के संग भी जिस नृत्य की अत्यधिक चर्चा है, उसे
'लास्य' कहा जाता है। माना जाता है कि लास्य नृत्य देवी
पार्वती ने प्रारंभ किया। इसमें नृत्य की मुद्राएं बेहद कोमल
स्वाभाविक और प्रेमपूर्ण होती हैं । यह जीवन के शृंगारिक पक्ष
उसके कई प्रतीकों, भावों से सज्जित और रूपायित हैं। 'तांडव'
नृत्य का यह प्रारूपिक विकास है।
बुद्धिजीवियों का मानना है कि लास्य नृत्य शिव के तांडव का
स्त्री रूप होता है। वैसे लास्य और तांडव शास्त्रीय नृत्य की
दो भिन्न शैलियां हैं। यह भी विश्वास किया जाता है कि ताल शब्द
की व्युत्पत्ति तांडव और लास्य से मिल कर हुई है। प्राचीन
कथाओं के अनुसार देवी और देवता अक्सर गीत और संगीत का आयोजन
किया करते थे। हालांकि शिव नृत्य सम्राट कहे जाते हैं पर लास्य
नृत्य का ज्ञान उन्होंने हिमालय की कन्या पार्वती से प्राप्त
किया। जहां शिव तांडव संपूर्ण ब्रह्मांड के बनने और मिटने का
प्रतीक है, वहीं लास्य नृत्य मोह, स्नेह, सौंदर्य और प्रेम का
प्रतीक है।
आज के सभी शास्त्रीय नृत्य या तो तांडव से प्रेरणा प्राप्त हैं
या लास्य से। तांडव में नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है लास्य
वहीं मंथर और सौम्य है। भरतनाट्यम, कुचिपुडि, ओडिसी और कत्थक
लास्य शैली से निकले हैं। कथकली तांडव से प्रेरित है।
लास्य के दो प्रकार हैं ।
१-जरिता लास्य
२-वायुका लास्य
भगवान शिव ने भिन्न विषय वस्तुओं पर आधारित तांडव का विकास
किया। इसमें रुद्र तांडव प्रलयंकारी है। रुद्रदेव इस नृत्य के
साथ तब प्रकट होते हैं जब सृष्टि का अंत करना होता है। जो
तांडव प्रसन्नता के लिए होता है उसे आनंद तांडव कहते हैं। एक
बार शिव तांडव के लिए प्रस्तुत हुए। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने
उनके लिए सुंदर नाट्यशाला का निर्माण किया। नंदी ने मृदंग,
नारद ने तानपूरा और विष्णु ने मंजीरा उठा लिया। देवी सरस्वती
वीणा बजा रही थीं और लक्ष्मी जी अपने सुंदर गायन से वातावरण को
मोहक बनाए दे रही थीं। इस विलक्षण आयोजन के दर्शक भी देवता ही
थे। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखा और अपने
शिष्यों को इसका प्रशिक्षण भी दिया गंधर्व और अप्सराएं इसी
नाट्यवेद के आधार पर अपनी प्रस्तुतियां देते थे। यह सारा आयोजन
भगवान शिव के सामने होता था। भरत मुनि के दिए ज्ञान और
प्रशिक्षण के कारण उनके नर्तक तांडव और लास्य का भेद अच्छी तरह
जानते थे और उसी तरीके से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते
थे। पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया।
धीरे-धीरे ये नृत्य युगों और कल्पों को पार कर सर्वत्र फैल गए।
देखें तो नृत्यों का प्रचलन शिव और पार्वती के आनंद समारोह से
हुआ पर शिव-पार्वती नृत्य की भंगिमा में एक साथ हों तो इसकी
गरिमा और बढ़ जाती है।
ऐसी जनश्रुति है कि राजा दक्ष के यज्ञ में अपमान भाव से पीड़ित
पार्वती ने यज्ञकुंड में आत्मदाह कर लिया था। जब शिव को
जानकारी मिली तो, उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया। डमरूवादन
करते शिव 'तांडव' नृत्य करके अपने क्रोध और आक्रोश को प्रकट
करने लगे। दग्धभाव और विछोह में शिव को समस्त संसार मिथ्या और
श्मशानभूमि दिखने लगी। लोकवासी सहम गए और चतुर्दिक
'त्राहि-त्राहि' का हाहाकार मचने लगा। इस घटना विशेष की चर्चा
कई पुराणों और आदिग्रंथों में की गयी है। चोल राजवंश के काल
में ऐसे कई साहित्यिक और सूत्र लभ्य हैं, जिनमें इस घटना को कई
रूपों में वर्णन किया गया है।
अब बात करें उन वैज्ञानिक मान्यताओं के बारे में जिनसे इस तथ्य
की पुष्टि होती है कि अन्तरिक्ष की खगोलीय घटनायें और 'श्याम
विवर' भी इस 'तांडव नृत्य' की लीलाएं प्रदर्शित करता है। नयी
मान्यताएं इन घटनाओं को समझने में इस रूपक नृत्य की कूट लयबद्ध
भाषा को समझ रही है। संस्कृति, साहित्य और विज्ञानलोक में
'तांडव’ नृत्य अब भी एक अबूझ पहेली बनी हुई है। भव्य मंदिरों
और अथितिकक्ष में सज्जित 'नटराज' मुस्करा रहे हैं....!
२४
फरवरी २०१४ |