वेद और
पुराण में श्रद्धा व श्राद्ध
- तृषा पटेल
श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ
सम्बन्ध-
‘श्राद्ध’ शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना
आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द “श्रद्धा” से बना
है। ब्रह्मपुराण, मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से
यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ
सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल
विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए
ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या
उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है।
स्कन्द पुराण का कथन है कि ‘श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा
है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल स्रोत है। इसका
तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत
एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद
में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के
समान ही सम्बोधित हैं। कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के
दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के
पृथक्-पृथक् रखे गये हैं। तैत्तिरीय संहिता में आया
है–”बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की, देव मुझमें विश्वास
(श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त
करूँ।” निरुक्त में ‘श्रत्’ एवं ‘श्रद्धा’ का ‘सत्य’
के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. संहिता में कहा
गया है कि प्रजापति ने ‘श्रद्धा’ को सत्य में और
‘अश्रद्धा’ को झूठ में रख दिया है, और इसी ग्रंथ में
एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति
श्रद्धा से होती है।
श्राद्ध की प्रशस्ति में-
प्राचीन ग्रंथों श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण
मिलते हैं। बौधायन धर्मसूत्र का कथन है कि पितरों के
कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म
(समृद्धि) की प्राप्ति होती है। हरिवंश पुराण में कहा
गया है कि श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे
योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु का कथन
है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है। वायुपुराण
का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है
तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों,
पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं
पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं,
एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है
कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि
(समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की
प्राप्ति होती है। श्राद्धसार एवं श्राद्धप्रकाश
द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा गया है कि
प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है,
पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया
गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं
अनिरुद्ध कहलाता है। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा
गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना
चाहिए। कूर्म पुराण में उल्लेख है कि “अमावस्या के दिन
पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के
द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों
के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे
सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे
भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं,
चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते
हैं और अन्त में अपने वंशजों की भर्त्सना करते हुए चले
जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी
श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले
जाते हैं।”
पितरों के मूल एवं प्रकार-
वैदिक साहित्य के बाद की रचनाओं में, विशेषत: पुराणों
में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद
वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, वायुपुराण ने पितरों की
तीन कोटियाँ बताई हैं- काव्य, बर्हिषद एवं
अग्निष्वात्त। वायु पुराण तथा वराह पुराण, पद्म पुराण
एवं ब्रह्मण्ड पुराण ने सात प्रकार के पितरों के मूल
पर प्रकाश डाला है, जो स्वर्ग में रहते हैं, इनमें चार
तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति
में १२ पितरों के नाम भी दिये गए हैं।
आवाहन-
वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द
व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए
प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों
को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि
ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।’
शतपथ ब्राह्मण ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को
पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है
और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–”हे पितर
लोग, यहाँ आकर आनन्द लो। कुछ ने यह सूक्त दिया है–”यह
(भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो
तुम्हारे पीछे आते हैं।” किन्तु शतपथब्राह्मण ने
दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं पढ़ा नहीं जाना
चाहिए, बल्कि इसके अनुसार आचरण करना चाहिये।
शतपथब्राह्मण में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी
कहा गया है।
श्राद्धप्रकाश ने इन वैदिक उक्तियों एवं मनु तथा
विष्णु पुराण की इस व्यवस्था पर, कि नाम एवं गोत्र
बोलकर ही पितरों का आहावान करना चाहिए, निर्भर रहते
हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों
को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र
एवं आदित्य को। वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण एवं
अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों
(पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।
पूर्वज पूजा की प्रथा-
पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर
ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा
महानता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग
जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं।
आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो
आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे
कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में
प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों
के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।
बौधायन धर्मसूत्र ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष
निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते
हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही
है। वायु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर
लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट
हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों,
प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों
आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं। मनु
एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि
पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं।
मत्स्यपुराण का कथन है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर
को १२ दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी
यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते
हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त १२ दिनों तक अपने
आवास को नहीं त्यागती। अत: १० दिनों तक दूध (और जल)
ऊपर टाँग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट)
दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को
निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)।
विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है–”मृतात्मा श्राद्ध
में ‘स्वधा’ के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में
रसास्वादन करता है, चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के
रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो),
या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो,
सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके
पास पहुँचता है, जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो
मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज, सम्पत्ति और
समृद्धि प्राप्त होती है।
१४
सिंतंबर २०१४ |