पूर्वजों
के उद्धार के लिये
प्रसिद्ध तीर्थ- गया
- सुबोध कुमार नंदन
सनातन हिन्दू
धर्मावलम्बियों के लिये गया का महत्व विश्व में
अद्वितीय है। पितरों को पिंडदान के लिये इतना पवित्र
एवं धार्मिक स्थान दूसरा नहीं है। जिस तरह दुनिया भर
के ईसाई धर्मावलम्बी जीवन में कम से कम एक बार यरूसलम
या वेटिकन सिटी की यात्रा की इच्छा रखते हैं, इस्लाम
धर्मावलम्बी मक्का या मदीना की यात्रा और सिख
धर्मावलम्बियों की अमृतसर जाकर एक बार मत्था टेकने और
बौद्ध धर्मावलम्बियों की बोधगया में भगवान बुद्ध के
ज्ञान स्थल जाने की इच्छा होती है। उसी तरह अपने
पितरों के निमित्त पिंडदान करने के लिये सनातन हिन्दू
धर्मावलम्बियों के लिये विष्णु नगरी गया एक बार आना
अति पावन माना गया है। पितर कामना करते हैं कि उनके
वंश में कोई ऐसा पुत्र जन्म ले, जो गया जाकर वहाँ उनका
पिंडदान व श्राद्ध करे।
गयाधाम एक अद्भुत स्थान पर
अवस्थित है। यहाँ से पूर्व दिशा में बैद्यनाथ धाम एवं पश्चिम
में काशी विश्वनाथ लगभग समान दूरी पर अवस्थित हैं। इसलिये
भगवान विष्णु की नगरी का और भी विशेष महत्व लक्षित होता है।
पिंडदान के लिये आश्विन कृष्ण पक्ष जिसे पितृपक्ष के नाम से
जाना जाता है, सबसे पवित्र माना गया है। पितृपक्ष के शुरू होते
ही गया धाम में लाखों देशी-विदेशी तीर्थयात्रियों का आगमन शुरू
हो जाता है और यह क्रम अमावस्या तिथि तक चलता है। १५ दिनों तक
चलने वाले विश्वप्रसिद्ध पितृपक्ष मेले में देश-विदेश के लाखों
लोग अपनी वेश-भूषा, बोल-चाल तथा रहन-सहन के साथ उपस्थित रहते
हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा देश ही गया में आकर
सिमट गया हो।
वायुपुराण में कहा गया है कि गया में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ
तीर्थ विद्यमान न हो। भारत के समस्त तीर्थों का जमघट है गया
में।
गयायां न हि तत्स्थानं यत्र तीर्थ न विद्यते।
सन्निधे सर्वतीर्थानां गयातीर्थ ततो वरम्।
फिर, वायु पुराण में गया तीर्थ गयाम्-क्षेत्र और गयाशिर तीर्थ
की भौगोलिक अवस्थिति बतायी गई है और कहा गया है कि इसके मध्य
त्रैलोक्य के सभी तीर्थ विद्यमान हैं। अतः इस पावन गया में
श्राद्ध, पिंडदान तथा तर्पण करने वाले लोग अपने पितरों से उऋण
हो जाते हैं -
सार्द्ध क्रोशद्वयं मानं गयेति ब्रह्माणेरितम्।
पंचक्रोशं गया क्षेत्रं क्रोशमेकम् गयाशिरः।।
तन्मध्ये सर्वतीर्थानि त्रैलोक्ये यानी सन्तिवै। (वायुपुराण)
इसी से प्रेरित होकर सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी अनादिकाल से
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर आश्विन अमावस्या तक विशेषकर
पितरों की पुनः मुक्ति के लिये पिंडदान, तर्पण तथा
कर्मकांडानुसार श्राद्धकर्म करने गया आते हैं। धार्मिक
मान्यताओं के अनुसार, आश्विन माह के कृष्ण-पक्ष यानी पितृपक्ष
में पितरों का वास गया में होता है। इस बात का उल्लेख महाभारत
में भी किया गया है -
कृष्ण शुक्लायों पक्षों गयायांयो वस
पुनात्यासप्तम राजन् कुलं नास्त्रसः संशयः। (वनपर्व) यानी
राजन् ! जो मनुष्य कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों में गया तीर्थ
मे निवास करता है, वह अपने कुल की सातवीं पीढ़ी तक पवित्र कर
देता है, इसमें संशय नहीं।
यह सर्वविदित है कि जिस प्रकार काशी में व्यक्ति की मृत्यु
होने पर उसे सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति होती है, ठीक उसी
प्रकार गया में मृतात्मा को पिंडदान आदि कर देने से उन्हें
ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है। इसी आस्था व विश्वास से अभिभूत
होकर अनादि काल से चली आ रही इस परम्परा का निर्वहन न केवल
भारत का हिन्दू समाज ही करता आ रहा है बल्कि नेपाल, मारीशस,
फिजी, भूटान, श्रीलंका, सूरीनाम, तिब्बत, बांग्लादेश,
पाकिस्तान, थाइलैंड, गुयाना, अमेरिका आदि में रह रहे हिन्दू
धर्मावलम्बी भी करते रहे हैं। लाखों की संख्या में गया आकर वे
पितरों की पुनर्मुक्ति के लिये पिंडदान एवं तर्पण करते हैं।
कहा जाता है कि अक्षयवट वृक्ष के नीचे जो कुछ दान किया जाता है
वह अक्षय होता है। गया पूर्वजों के उद्धार के लिये बहुत पवित्र
तीर्थ है। यहाँ यदि व्यक्ति पवित्र मन से जाता है, तो उसे
अश्वमेध-यज्ञ करने का फल मिलता है, जो श्राद्धादि कार्य करता
है उसके पितृगण स्वर्ग को जाते हैं तथा संक्रांति के दिन
श्राद्धकर्म करने से महान फल मिलता है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार स्वयं भगवान राम अपनी पत्नी जगत
जननी सीता और अनुज शेषावतार लक्ष्मण के साथ गया में पिंडदान के
लिये पधारे थे। श्रीराम फल्गु के तट पर अपनी पत्नी सीता को
बैठाकर श्राद्ध की सामग्री लाने के लिये लक्ष्मण के साथ निकल
पड़े। उसी समय महाराज दशरथ यानी उनके ससुर पितृलोक से भूलोक पर
आये। उन्होंने अपनी पुत्रवधू सीता के समक्ष उपस्थित होकर
पिंडदान की कामना की। पिंडदान के निमित्त कोई अन्य सामग्री
अपने पास न होने से देवी सीता ने श्रद्धापूर्वक फल्गु के बालू
को फल्गु के पवित्र जल में मिलाकर पिंड का निर्माण किया एवं
श्रद्धापूर्वक बालू का पिंड अपने ससुर दशरथ को अर्पित किया।
उनके उस पिंडदान से दशरथ तृप्त हुए। द्वापर युग में भी धर्मराज
युधिष्ठिर और भीम द्वारा यहाँ श्राद्धकर्म करने का उल्लेख
महाभारत तथा श्रीमद्भागवत में है। इसके बाद, रामकृष्ण परमहंस,
कुमारिल भट्ट, चैतन्य महाप्रभु जैसे अनेक महापुरुषों ने भी
यहाँ पिंडदान किया है।
पितरों की तृप्ति के लिये तीन प्रकार से पिंडदान किया जाता है।
एकोदिष्ट पिंडदान उसी माह, पक्ष और तिथि को प्रत्येक वर्ष किया
जा सकता है जिस माह, पक्ष और तिथि को पिता का देहांत हुआ है।
जिन पितरों के दिवंगत होने की तिथियाँ अज्ञात हों, उनके
निमित्त पिंडदान पितृ-विसर्जन के दिन किया जाता है।
पार्वणाश्राद्ध का पिंडदान पितृपक्ष में उसी तिथि को किया जाता
है, जिस तिथि को पिता का स्वर्ग वास हुआ हो। श्राद्ध के साथ
मंत्र का उच्चारण करके इस लोक में मृतक हुए नित्य पितृ,
नैमित्तिक पितृ, प्रेत आदि योनि को प्राप्त पिता, पितामह आदि
कुटुम्बियों की तृप्ति के लिये, विधान के अनुसार पिंडदान किया
जाता है। जिसका नाम नहीं मालूम हो, उसके लिये यथानाम कहकर
पिंडदान किया जाता है। उल्लेखनीय है कि १८८५ के पूर्व तक
पिंडदान करने का अधिकार केवल पुरुषों को ही था। पर १९८५ से
मिथिला के पंडितों ने महिलाओं को भी पिंडदान करने का अधिकार
प्रदान किया। फलतः अब स्त्रियाँ भी पिंडदान करती हैं। पुनः
मुक्ति कामार्थ एवं अक्षयवट श्राद्ध पूर्णतया पिंड क्षेत्र के
लिये तीन वेदियाँ अति महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, इसके साथ
त्रिपक्षीय श्राद्ध में ४५ पिंड-वेदियों पर यहाँ पूर्ण
गया-श्राद्ध का विधान है, जिनमें उत्तर-मानस, सूर्य-कुंड,
राम-कुंड, वैतरणी, गोदावरी तथा सीता-कुंड प्रधान हैं।
विष्णुपाद-मंदिर के पश्चिम मार्कण्डेय नामक एक शिव मंदिर है,
जहाँ से मंगलागौरी देवी के मंदिर तक तथा विष्णुपद के निकट गया
नगर के चारों ओर पहाड़ की चोटियों पर अवस्थित धर्मस्थलों पर भी
पिंडदान किया जाता है। इनमें उत्तर में रामशिला पहाड़ी,
उत्तर-पश्चिम में प्रेतशिला आदि प्रमुख है।
पटना जिला स्थित पुनपुन घाट से, पूजा पाठ के साथ पिंडदान का
काम प्रारम्भ होता है। कहा जाता है कि मृत पितर पिशाच योनि
धारण करते हैं, उनके लिये पिंडदान इसी नदी के जल से किया जाता
है। अतः इसका नाम पिशाचिका पड़ा था। उस पिशाच योनि को पवित्र कर
देने के कारण यह पुनपुना नदी कहलाई। इसके अलावा एक अन्य
किंवदंती जुड़ी है। कहा जाता है कि एक वेश्या के तप से प्रसन्न
होकर भगवान ने उसे यहाँ पिंडदान करने का वरदान दिया था। उसी की
स्मृति में यहाँ पिंडदान का विधान है
पिंडदान करने वाला हर स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करता
है। संन्यासियों की तरह लंगोटी और बिना सिलाई किया हुआ वस्त्र
धारण करते हैं। वे सबसे पहले विष्णु पद फल्गु-नदी के तट पर
जाते हैं तथा मुंडन कराकर नदी में स्नान करने के बाद तर्पण व
पिंडदान का कार्य अपने पीढ़ीगत गयावाल पंडे के द्वारा सम्पन्न
कराते हैं। पिंडदान गाय के दूध से बने खोवे या गाय के दूध में
पके चावल के हविष्य, जौ या चावल के आटे से सामर्थ्य के अनुसार
किया जाता है। काले तिल के तेल का पिंडदान के अवसर पर विशेष
महत्व है।
वैसे तो गया श्राद्ध तीन पक्ष में पूरा होता है। लेकिन, जो तीन
पक्ष तक श्राद्ध नहीं कर सकते हैं वे एक ही दिन तीन दिन तथा
पांच दिन में तीन वेदी, पांच वेदी पर श्राद्ध करते हैं। इन सब
तिथियों के श्राद्धों में १७ दिनों का श्राद्ध और सब महीनों
में आश्विन मास का श्राद्ध अतिश्रेष्ठ तथा उत्तम फल देने वाला
माना जाता है।
श्राद्ध, तर्पण तथा पिंडदान कब से शुरू हुआ, इसके पीछे
मत-मतान्तर हैं। जनश्रुति के अनुसार, ईश्वर प्राप्ति के लिये
गयासुर नामक पराक्रमी असुर कोलाहगिरि पर घोर तपस्या कर रहा था।
उसकी घोर तपस्या से जब सभी देवता व्याकुल हो उठे, तब सभी एक
साथ मिलकर गयासुर के पास आये और बोले हम तुम्हारी तपस्या से
प्रसन्न हैं, वर माँगो। गयासुर ने निवेदन किया अगर आप मुझ से
प्रसन्न हैं तो मुझे वर दीजिए कि जो कोई हमें देखे या स्पर्श
करें, वह साक्षात स्वर्ग को प्राप्त करे, चाहे उसने जितने भी
पाप किए हों। इस पर ब्रह्मा ने कहा, हाँ ऐसी ही होगा। पर यज्ञ
की वेदी के लिये बात सुनकर गयासुर बड़ा प्रसन्न हुआ और तत्काल
नैऋयकोण का आश्रय लेकर कोलाहल गिरि पर गिर पड़ा और यज्ञ के लिये
उसने अपने प्राण त्याग दिए। इसी गयासुर के मस्तक का अंश गया
शीर्ष यानी गया कहलाया और तभी से यहाँ पिंडदान की परम्परा
प्रारम्भ हुई।
वहीं दूसरी ओर कहा जाता है
कि भगवान विष्णु ने गयासुर को प्रतिदिन एक पिंड और एक मुंड
देने का वरदान दिया। लोगों का मानना है कि जिसदिन गयासुर को
पिंडदान और एक मुंड की प्राप्ति नहीं होगी, उसी दिन गया शहर का
विनाश हो जाएगा। इसी खंड-प्रलय की स्थित से बचने के लिये
देवताओं ने पिंडदान शुरू करवाया। गयासुर के नाम पर इस जगह का
नाम गया पड़ा और पाँच कोस की उस जमीन पर पिंडदान ओर तर्पण के
धार्मिक अनुष्ठान की परम्परा चल पड़ी।
१४
सिंतंबर २०१४ |