गौ, गोवर्धन, जीवन धन
गोबर
संस्कृति की सार्थकता
- मालती शर्मा
अपने शीश पर मोरपंख का
मुकुट धारे ग्वाल गोपाल कृष्ण की ब्रजभूमि गौ,
गोवर्धन, गोबरमय है। ब्रज की लोक संस्कृति गोबर
संस्कृति है।
गोबर वस्तुतः गो + वर है। गौ माता का दिया वरदार। जीवन
की सृष्टि, पुष्टि, तुष्टि का अजस्त्र विधायक, रक्षक।
वैदिक चिंतन मनुष्य को पृथ्वी का पुत्र कहता है और
पृथ्वी को गौ रूप में देखता है। ‘संग गौ तनु धारी भूमि
बिचारी’ तुलसी ने लिखा है। इस विश्व की संपूर्ण जीवन
शक्ति मातृशक्ति है। ‘दुर्गा सप्तशती’ समस्त वस्तुओं
में शक्ति को मातृ रूप में स्थित कहती है। ‘देवीभागवत’
पुराण कहता है कि समस्त भूतों में शक्ति ही विचर रही
है। वह जीवन शक्ति, जिसके बिना शिव भी शव है, वह
शक्ति, माता, गौ माता और धरती माता में समाहित है। माँ
जन्म देती, धरती धारण करती और गौ माता पोषण करती है।
लोक-जीवन में गाय का दूध बच्चे के लिए माँ के दूध के
समतुल्य है। सूत्र है, ‘मैया, गैया, छिरिया, भैंसिया।’
तात्पर्य है कि यदि बालक को ऊपर का दूध देना हो तो उसे
गाय या बकरी का देना चाहिए। दोनों का न मिलने पर तो
अंततः भैंस का दूध देना ही होगा।
अपने सद्यःजात वत्स को चाटती गाय की आँखों से
ही माँ-बच्चे के बीच के अद्वितीय रिश्ते का, प्रेम का
जन्म हुआ है। अतुल्य भाव वात्सल्य की रसधारा फूटी है।
भाषा शास्त्रियों की वे जानें, पर मेरे लेखे वत्स,
वत्सल और वात्सल्य का क्रम सीधा है। यह सहज संयोग नहीं
है कि वात्सल्य के अनुपम चितेरे सूरदास आभीर
संस्कृतिमय हैं और ब्रज के हैं।
आज तो गोबर गैस ऊर्जा की नीली लौ में गाँव-गाँव पकते
जीवन के पंच पकवानों का स्वाद सर्वविदित है। और
वैज्ञानिक खोजों के पारदर्शी शीशे में का यह सुज्ञात
तथ्य भी है कि गौ, गोबर, गोमूत्र, गाय के दूध, दही, घी
में टी.बी. और कैंसर जैसे रोगों की निवारक क्षमता है।
इनमें संक्रामकता को पर्यावरण में फैलने से रोकने की
शक्ति है। ये प्राणिजगत् वातावरण और मानव को शुद्ध
रखने में सहायक हैं। न जाने आज तक कितनी औषधियों में
इनका विविध रूपों में उपयोग होता आ रहा है, हो रहा है।
किंतु लोक के सहज ज्ञान ने तो गाय के दूध, दही, घी,
गोबर और गोमूत्र की जीवन की रक्षक पोषक उपयोगिता को
चरागाही और कृषि सभ्यता के भिनसार में ही जान-पहचान
लिया था। उसे मानव जीवन के संस्कारों के विधि कृत्यों,
धार्मिक अनुष्ठानों के कर्मकांडों,
पर्व-त्यौहारों-उत्सवों, पाप-प्रायश्चित के शुद्धि
विधानों से जोड़ दिया। गृहस्थ और साधु-संन्यासी की
जीवनचर्या में रचा-बसा दिया।
हमारे लोक में गृहस्थ और साधु की दिनचर्या गोबर-माटी
से लिपे घर-आँगन, द्वार-देहरी, चूल्हा-चक्की,
वेदी-धूनी पर ही शुरू होती है। कलेऊ बनता है,
अग्निहोत्र होता है। बैसांदुर और अग्यारी होती है तो
उसके लिए गाय के गोबर के उपले चाहिए। ऐसा कोई संस्कार
खोजना होगा जिसे बिना गौ-गोबर के पूरा किया जा सकता
हो। पंचामृत के तीन अमृत गौ से मिलते हैं।
गोमेय और गो मूत्र के बिना न तो जन्म-मरण के
सूतम छूटते हैं, न किसी पाप का प्रायश्चित पूरा होता
है। मरणोपरांत भी मृत्यु पूर्व दान की गई गाय की पूँछ
पकड़कर ही वैतरणी पार होती है।
लोक-चिंतन, लोक-दर्शन गोमेय में
लक्ष्मी का वास मानता है। लोक की धन-धान्य लक्ष्मी, आरोग्य
लक्ष्मी और संतान लक्ष्मी गोबर में बसती हैं। गोबर की खाद पड़ी
भूमि से यदि धान्य लक्ष्मी के अंकुर फूटते हैं तो गोबर से लिपे
और गोबर की मेंड़ लगाकर बनाए गए सूतिका गृह में संतान लक्ष्मी
जन्म लेती है। जन्म लेते ही गोबर धरती पर आए नवशिशु का रक्षक
बन जाता है। वह नन्हें शिशु की भीतरी-बाहरी संक्रामकता से
रक्षा करती है-प्रसूता का पीने का पानी उबालने वाले चरुए के
चीतनों से लिपटा हुआ। सूतिका गृह के कौरों से बने सातियों
(स्वास्तिक) में रचा हुआ और गंधक-भूसी की पर्यावरण शुद्धि हेतु
की जाती धूमनी के लिए बरौसी के उपलों में जलता हुआ। नवशिशु को
ऊष्मा पहुँचाकर, माता का दूध शुद्ध कर वह उसे आरोग्य लक्ष्मी
से संपन्न करता है।
गोबर से ही बनाई गई छठी मैया नवशिशु का भाग्य लिखती हैं। गोबर
से बनी ठमसार पर रखे दीपक की लौ से पारा गया काजल ही नवशिशु की
आँखों में रँजता है, ज्योति देता है।
गोबर की बहुआयामी उपयोगित और नवजात शिशु की जीवन रक्षक
भूमिका ने ब्रज के लोक-जीवन में हो-होकर मर जाते शिशुओं को
बचाने के लिए एक आनुष्ठानिक टोटके का रूप ले लिया है।
आज तो यह रीति बीते कल का इतिहास है और शासद कल्पनातीत
लगे, पर ब्रजभूमि में एक ऐसा भी वक्त था शायद अनजान-अनाम बना
वह ठहरा भी हो कहीं पर तब, वर्ष भर पूँछरी को लौठा (पट्ठा) बने
रहने के लिए ग्वाल-बाल-बछड़े गोबर के बने गोवर्धन महाराज की
नाभि में भरा दूध पीते थे।
यह प्रथा तो उठ ही गई, पर
गोबर्धन का गोबर आज भी अत्यंत पवित्र, मंगलकारी, संतति रक्षक
और संतान लक्ष्मी देनेवाला माना जाता है। तभी तो जिस घर में
बच्चे नहीं जीते उन घरों में गोवर्धन का गोबर एकत्र कर
शिशु-रक्षा के आनुष्ठानिक टोटके के लिए एक विशेष बड़ा सा उपला
बनाया जाता है। उपले के बीच में बड़ा सा घेरा। उस घेरे में से
हाल का जन्मा शिशु निकालकर बच्चे का विवाह होने तक प्रतिवर्ष
उपले की पूजा की जाती है। विवाहोपरांत मंडप के साथ उपले का
विसर्जन होता है। निश्चय ही इस
विशेष विधि कृत्य के कुछ तांत्रिक और अभिसंचार-मूलक अर्थ भी
हैं, किंतु उनसे भारत की धरती में गहरे उबरी गौ-गोबर की
सर्वोपरि जीवनधर्मिता कहीं भी कम नहीं होती। जब विशेष और इतनी
दवाएँ नहीं थीं तब गोबर का सूखा रोग से ग्रस्त बच्चे के शरीर
पर लेप और फिर उस गोबर का पुतला बना धूप में डाल देना सूखा रोग
का इलाज था।
आज मानव और प्राणिजगत् की जीवन सुगंध और पुष्टि के वर्धक गोबर
पर जब सोचती हूँ तो ‘गोबर गणेश’ गौर ‘गुड़ गोबर’ मुहावरे अटपटे
लगते हैं। ‘गोबर गिरैगो तौ कछु लेकेई उठैंगो’ यह लोक सुभाषित
सीधा सच्चा लगता है। इन्हीं सब संदर्भों में पाश्चात्य संसार
में मांस भक्षण में बीफ की सर्वोपरिता और सैमेटिक संसार में
रोजों के पश्चात् गौ मांस भक्षण की पौष्टिकता समझ में आती है।
लंबी समाधि से उठने के बाद पित्त शांति के लिए योगी, जती गौ का
घी पीते थे।
फिर भी वहाँ घोड़ा शक्ति का स्त्रोत और मूल्यों का मानक रहा,
हमारे यहाँ गौ। वहाँ जीवन के सत्य घोड़े के मुख से आते हैं,
हमारे यहाँ गोमुख से। तृषा, ताप, पापहारिणी सदानीरा गंगा-यमुना
गोमुख से निकलती है। मंदिरों का देवार्चन का जल भी गोमुख से
निःसृत होता है। गोमुख सत्य, धर्म और पवित्रता का प्रतीत है,
विपत्ति के कष्टों का मोचक है। बच्चों पर अमंगलकारी ग्रहों का
प्रभाव उन्हें गोमुख से चटवाकर दूर किया जाता है। ममता, करुणा
और सरलता का प्रतीक गोमुख अहिंसा की भी अभिव्यक्ति है। जैन
श्रावक-श्रमण मुनियों का भोजन भोजन नहीं, ‘गोचरी’ कहलाता है।
गोमुख ऋत सत्य का भी रक्षक है। यदि निर्जला एकादशी, करवाचौथ,
हरतालिका इत्यादि निर्जल व्रतों में व्रत रखने वाले की स्थिति
प्यास से बिगड़ने लगे तो गोमुख से पानी पीने से व्रत खंडित नहीं
होता।
आज तो रासायनिक खाद और कीटनाशक हरित क्रांति की मूलभूत जरूरतें
हैं। ये धरती के गुण, गंध और आस्वाद का हरण कर धान्य, फल-फूल,
शाक-भाजी सभी का उत्पादन बढ़ाकर क्रांति कर रहे हैं। पर यह बात
तब की है जब स्वतंत्रता के बाद रासायनिक खादों का प्रचलन शुरू
ही हुआ था और खेतों में नाइट्रोजन छिड़का जाता था। मुझे खूब याद
है कि तब मेरे बड़े बाबा गोबर व गोमूत्र से सिंचित गौशाला की
मिट्टी उठाकर अपने खेतों में डालते थे और मजाक में नाइट्रोजन
की तर्ज पर उसे गोमुतंजन मितंजन कहते थे, जोर से हँसते थे।
गौ, गोवर्धन, गोबर की संस्कृति अंकुर से बीज, बीज से खाद और
पुनः अंकुर बनने की ऋत संस्कृति है। कुएँ की माटी कुएँ में ही
लग जाने पर विश्वास करने वाली संस्कृति है। यहाँ ऋत और ऋतुओं
में, प्रकृति और मानव जीवन में तालमेल है। अपने आस-पास और
प्रकृति के अनप्त को लोक शंका की दृष्टि से देखता है, उसे
अशिष्ट और अनिष्टसूचक पाता है। वेदों का अनृत लोक आ अनरय, अनरत
है। उसका ‘ऋत’ साँच (सत्य) है, जिस पर यह धरती टिकी है, नहीं
तो कभी की रसातल को चली गई होती।
आज का पश्चिमी जगत् वैदिका ‘ऋत’ को कॉस्मिक ऑर्डर के अनुवाद
में ही यदि समझ ले, ऋत की गति को भंग कर अनृत पथगामी न हो तो
विश्व में, पर्यावरण में नित्य नई उपस्थित हो रही विभीषिकाओं
ये यह मानव सभ्यता बच सकती है। हम
आज भी यदि गौ, गोबर, गोवर्धन की ऋत आधारित संस्कृति अपना लें
तो विश्व में हमारे जीवन का राग विसंवादी होने पर भी खंडित
नहीं होगा, उसकी लय नहीं टूटेगी।
३ नवंबर २०१४ |