बटेश्वर
नाथ
महादेव
-डॉ चन्द्रिका
प्रसाद शर्मा
बटेश्वर को तीर्थों का
भानजा माना जाता है। आज मैं इसी तीर्थों के तीर्थ
बटेश्वर के प्रख्यात शिव मंदिर 'बटेश्वर नाथ महादेव'
के दर्शन करने आया हूँ। आगरा जनपद की बाह तहसील में
स्थित ग्राम बटेश्वर अपनी पौराणिकता और ऐतिहासिकता के
लिए प्रसिद्ध है। आगरा से ४४ मील और शिकोहाबाद से १४
मील दूर यमुनातट पर बसे इस प्राचीन गाँव का पुराना नाम
शौरिपुर है। यहाँ पहले १०१ शिव मंदिर यमुना के तट
पर थे। आज भी इनकी संख्या पचास से ऊपर ही है। बटेश्वर
के घाट इसी कारण प्रसिद्ध हैं कि उनकी लम्बी श्रेणी
अविच्छिन्नरूप से दूर तक चली गई है। उनमें बनारस की
भाँति बीच-बीच में रिक्त नहीं दिखलाई पड़ता। रात्रि
मे जब पूजा-आरती होती है, तब घंटा, घड़ियाल और शंख आदि
के स्वरों से वातावरण गुंजित हो उठता है। 'जय शंकर',
आदि के पावन तुमुल गगनभेदी स्वरों से जनमानस को
भक्तिभाव में लीन कर देनेवाले इस तीर्थ का माहत्म्य
बहुत अधिक है। भदावर में लोकविश्वास है की सभी तीर्थो की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक की बटेश्वर में पूजा का जल न चढ़ाया जाए। आदि काल से ही बटेश्वर शिव तीर्थ रहा है
'गर्गसहिंता'
में कहा गया है की श्रावण-शुक्ला और महाशिवरात्रि पर यमुना स्नान करने पर अक्षय पुण्य मिलता है।
यह ब्रजमण्डल की चौरासी कोस की यात्रा
के अंतर्गत आता है।
शिव के
मंदिर-
आज उपलब्ध
मंदिरों में चार पाँच मंदिर सबसे अच्छी
अवस्था में हैं-
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बटेश्वर नाथ मंदिर कई
सदियों से स्थापित है एक शिलालेख के अनुसार १२१२ अश्वनी
शुक्ला पंचमी दिन रविवार को राजा परीमदिदेव ने एक भव्य
मंदिर बनवाया था। राजा बदन सिंह भदौरिया ने आज से लगभग ३००
वर्ष पूर्व इस मंदिर का पुनरुद्धार कराया। आज भक्तों
द्वारा कामना पूर्ति होने पर अर्पित किये गए छोटे, बड़े और
विशाल घंटे इस मंदिर की विशेषता हैं, यहाँ दो किलो से लेकर
अस्सी किलो तक के पीतल के घंटे जंजीरों से लटके है।
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गौरीशंकर मंदिर में भगवान शिव, पार्वती और गणेश की एक
दुर्लभ जीवन आकार मूर्ति है साथ ही नंदी भी है, सामने
दिवार पर मयूर-आसीन भगवन कार्तिकें और सात घोड़ों पर सवार
सूर्य की प्रतिमाएँ है एक शिलालेख के अनुसार १७६२ ई. में
स्थापित शिव की एक मूर्ति में उन्हें मूछों और डरावनी
अंडाकार आँखों के साथ चित्रित किया गया है।
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पातालेश्वर मंदिर का निर्माण, पानीपत के तीसरे युद्ध (१७६१
ई.) में वीरगति को प्राप्त हुए हजारों मराठों की स्मृति
में, मराठा सरदार नारू शंकर ने कराया था। शिव को समर्पित
इस विशाल मंदिर की दीवारों पर ऊँची गुंबददार छत है तथा
इसका गर्भगृह रंगीन चित्रों से सुसज्जित है। गर्भगृह के
सामने कलात्मकता से चित्रित एक मंडप है इस मंदिर में एक
हजार मिट्टी के दीपकों का स्तंभ है जिसे सहस्र दीपक स्तंभ
कहा जाता है। |
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मणिदेव मंदिर में
आल्हा-उदल के देव मणीखे की मनहोर प्रतिमाएँ है ये
प्रतिमाएँ कसौटी पत्थर की है जो पास से साधारण लगती है
पर जैसे-जैसे दूर हटते जाते है तो इस में शिवलिंग व
मणि दमकती जाती है।
शौरीपुर के
सिद्धि क्षेत्र की खुदाई में अनेक वैष्णव और जैन
मन्दिरों के ध्वंसावशेष तथा मूर्तियाँ प्राप्त हुई
हैं। यहाँ के वर्तमान शिव मन्दिर बड़े विशाल एवं भव्य
हैं। एक मन्दिर में स्वर्णाभूषणों से अलंकृत पार्वती
की छह फुट ऊँची मूर्ति है, जिसकी गणना भारत की
सुन्दरतम मूर्तियों में की जाती है।
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यमुना की धारा-
यहाँ के घाटों का जल निर्मल और बहाव तेज है। चाँदनी
रात में, विशेषकर वर्षा ऋतु में यमुना की तीव्र धारा
का चमकीला, बिलकुल चाँदी-जैसा दृश्य देखने अन्य
स्थानों के लोग भी आते हैं। ऐसा लगता है मानो चाँदी का
जल बह रहा है। सन-सन करती रात में जल-प्रवाह की ध्वनि
एक विचित्र भाव उत्पन्न करती है। बटेश्वर के मंदिर
सुबह के सूरज की रौशनी में यमुना में पड़ते अपने प्रतिबिम्ब से
एक मोहक चित्रमाला प्रस्तुत करते है ऐसा आइना तो पास ही स्थित
विश्व आश्चर्य ताजमहल के पास भी नहीं है पूरा परिदृश्य बेहद
सुन्दर और शांतिपूर्ण है।
बटेश्वर में यमुना नदी लगभग बारह-तेरह किलोमीटर में
अंग्रेजी के 'एस' अक्षर के आकार में बहती है।
भदावर नरेश राजा बदन सिंह ने सन १६४६ में एक कोस लंबा
अर्धचंद्राकार बाँध बनवाकर न सिर्फ यमुना नदी को उल्टी
दिशा में बहाने का कार्य किया, बल्कि इस बाँध पर शिव
मंदिरों का निर्माण भी कराया। तभी से यहाँ यमुना उल्टी
दिशा में ही बह रही है। यमुना की धारा को मोड़ देने के
कारण १९ मील का चक्कर पड़ गया है। उन दिनों आज की जैसी इंजीनियरिग नहीं
थी, किंतु लोगों के साहस ने एक पौरुषपूर्ण ऐतिहासिक
कार्य किया था। आज यमुना-तट पर पत्थर के सुंदर घाट बने
हैं, जिनमें सैकड़ों लोग स्नान करते रहते हैं। यहाँ की
विशेषता यह है कि यमुना ने आज भी यहाँ के घाटों को
नहीं छोड़ा।
कंस को पिता ने बहा दिया-
बटेश्वर के ऊँचे-ऊँचे टीले, कगारें और पौराणिक स्थल
यहाँ की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। 'कंस कगार'
को देखकर यहाँ की पौराणिकता आज भी स्पस्ट झलकती है।
ऐसा कहा जाता है कि कंस के पिता उग्रसेन ने अपने पुत्र
को अशुभ नक्षत्र में जन्म लेने के कारण एक काठ के
संदूक में रखकर सैनिकों को आदेश दिया कि इसे यमुना में
बहा दो। सैनिकों ने नवजात शिशु कंस को नदी में बहा
दिया। वह संदूक बहते-बहते बटेश्वर के इस टीले के पास आ
लगा। वहाँ पर स्नान करने वाले लोगों ने उस संदूक को
बाहर निकालकर देखा तो उसमें एक नवजात शिशु को किलकारी
भरते पाया। एक व्यक्ति ने उस शिशु को ले लिया और
पुत्रवत पालन-पोषण करने लगा। कुछ समय बाद राजा उग्रसेन
बटेश्वर आये। उन्होंने उस सुंदर शिशु को जब देखा, तब
उनके अंदर उसके प्रति ममत्व उत्पन्न हुआ। लोगों ने जब
उन्हें पूरा किस्सा सुनाया तो उन्होंने शिशु को चूमकर
गोद में ले लिया और अपने साथ मथुरा ले गये। इसी कारण
इस टीले का नाम कंस टीला पड़ गया।
इतिहास-
बटेश्वर गौरवशाली तीर्थ है,
जिसमें सतयुग, त्रेता, द्वापर युग का इतिहास छिपा हुआ है। यहां
जैन तीर्थकर भगवान नेमिनाथ की जन्मस्थली भी है। इस प्राचीन
तीर्थस्थल का उल्लेख लिंग पुराण, मत्स्य पुराण, नारद पुराण तथा
महाशिवपुराण में भी है। महाशिवपुराण के अंतर्गत कोटि रुद्र
संहिता के अध्याय २ में श्लोक १९ में इस तीर्थ की चर्चा है।
बटेश्वर में भदौरिया राजाओं का
राज था। उनका महल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ा आज भी अपनी
भव्यता की कहानी कहता है। इस महल से एक सुरंग नीचे-ही-नीचे
यमुना तट के जनानाघाट को गयी थी, जहाँ रानियाँ स्नान करने जाया
करती थीं। छोटी लखौरी ईंटों से बना यह किला किसी समय बटेश्वर
की शान था। अब तो यह किला झाड़-झंखाड़ और घास-पात से पटा है।
यहाँ के निवासी बताते हैं कि वर्षा के दिनों में यहाँ कभी-कभी
चाँदी के सिक्के मिल जाते हैं।
बटेश्वर में किसी समय गोसाइयों, बैरागियों और ब्राह्मणों की
बहुत सुंदर हवेलियाँ थीं। आज वह हवेलियाँ नष्ट हो गयी हैं।
बड़े-बड़े टीलों पर बसा यह ऐतिहासिक गाँव धीरे-धीरे उजड़ता चला जा
रहा है। यहाँ दो-दो मंजिल के अनेक भव्य मकान खाली पड़े हैं,
जिनमें कबूतर और चमगादड़ रह रहे हैं। बस्ती के उजड़ने का कारण है
रोजी-रोटी की समस्या। बटेश्वर गाँव
के घर टीलों पर बने हुए हैं। यहाँ के अधिकांश कुओं का पानी
खारा है। यमुना तट पर एक प्रसिद्ध प्राचीन कुआँ है, जिसे
'भूड़ा-कुआँ कहते हैं। इस कुएँ का पानी बहुत शीतल और मीठा है।
पशुमेला-
शिव का एक नाम पशुपति भी है,
बटेश्वर का पशुमेला इसे सार्थक करता है। बटेश्वर का पशुओं का मेला पूरे
भारत में प्रसिद्ध है। शरद ऋतु में दो सप्ताह तक चलने वाले इस
मेले में करोड़ों रुपये की बिक्री होती है। किसी समय इस मेले में वर्मा के हाथी,
पेशावर के ऊँट और काबुल के घोड़े बिकने आते थे। किंतु अब मेले
ने दूसरा रूप ले लिया है, फिर भी उत्तर भारत का यह पशुओं का
सबसे बड़ा मेला है। बटेश्वर की गुझिया,
खोटिया, बताशा और शकरपाला प्रसिद्ध हैं। मेले के अवसर पर यहाँ
बहुत चहल-पहल रहती है। पशुमेला तीन चरणों में पूरा होता है।
पहले चरण में ऊँट, घोड़े और गधों की बिक्री होती है, दूसरे चरण
में गाय आदि अन्य पशुओं की तथा अंतिम चरण में सांस्कृतिक
कार्यक्रम होते हैं। मेला शुरू होने के एक सप्ताह पहले से ही
पशु व्यापारी अपने पशु लेकर यहां पहुँचने लगते हैं। मेले में
पशुओं की विभिन्न प्रकार की दौड़ों का आयोजन भी किया जाता है।
धार्मिक,
सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर
बटेश्वर ग्राम अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर के
लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के संस्कृत के विद्वानों और आचार्यों की
अच्छी ख्याति थी। श्रीमद्भागवत के प्रकांड पंडित आचार्यवर
श्याम लालजी यहीं के निवासी थे। भदोरिया वंश के पतन के पश्चात
बटेश्वर में १७वीं शती में मराठों का आधिपत्य स्थापित हुआ। इस
काल में संस्कृत विद्या का यहाँ पर अधिक प्रचलन था। जिसके कारण
बटेश्वर को छोटी काशी भी कहा जाता है। बटेश्वर में ही प्रसिद्ध
वाजपेय यज्ञ हुआ था। यहाँ के वाजपेयी ऊँची मर्यादा के माने
जाते हैं। यज्ञ-स्थल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह
पुण्यभूमि निश्चय ही प्राचीन है। वाजपेयी कुल की एक मठिया जिसे
'गुज्जी बाबा' की मठिया कहते हैं, यमुना के किनारे बनी है। शुभ
कार्यों के समय इस कुल के लोग यहाँ दर्शन-पूजन के लिए आते हैं।
दूर-दूर से लोग यहाँ शंकरजी का जलाभिषेक करने,
विल्वपत्र चढ़ाने और वंदर-अर्चन करने आते हैं। वैसे प्रतिदिन
प्रातः और सायं यहाँ भक्त जनों की भीड़ रहती है, किंतु सावन के
सभी सोमवारों को तथा महाशिवरात्रि को तो लोगों का रेला आता है।
यमुना-जल लोटे में लेकर विल्वपत्र उसमें रखकर अनेक यात्री गीले
कपड़े पहने ही दर्शन करने जाते हैं। बटेश्वर में ब्रजभाषा के कई
श्रेष्ठ कवि हुए हैं। यहाँ के सत्तासी वर्षीय कवि पं. अवध
बिहारी 'अवधेश' ने अपने छंद में यहाँ का वर्णन इस प्रकार किया
है:-
सेत सारी रेत की, किनारी यमुना
की कारी, चंद्राकार मंदिरों की छवि अति न्यारी है।
कल-कल कालिंदी रव किंकिणी सों बाजत, विहगन के बोल मानो नुपूर
धुनि प्यारी है।
पावन पुनीत यज्ञ भूमि लिए आंचल में, भूली-सी, भ्रमी-से ठाढ़ी
कौन-सी विचारी है।
ग्राम है बटेश्वर कि बनबाला अलबेली किधौ ’अवधेश‘ ये नवेली
ब्रजनारी है।
२४
फरवरी २०१४ |