दीपावली के अवसर
पर
रामकालीन जनतांत्रिक संस्थाएँ
रामसनेहीलाल शर्मा यायावर
यह
निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि रामायण काल तक आते-आते
आर्य-सभ्यता सांस्कृतिक विकास के कई महत्वपूर्ण युग
पार कर चुकी थी। जीवन के विविध क्षेत्रों में असंख्य
प्रयोग किये जा चुके थे। बाल्मीकीय रामायण और उसका
पूर्ववर्ती और तत्कालीन साहित्य इस बात की गवाही देता
है उस काल में दो प्रकार की राज्य व्यवस्थाएँ अस्तित्व
में आ चुकी थीं-
1. राजतंत्र, 2. गणतंत्र। राजतंत्र में राज्य का
स्वामी और दंडाधिकारी एक मात्र राजा होता था। यद्यपि
पूरी तरह स्वच्छंद और स्वेच्छाचारी वह कभी नहीं हो
सकता था। गणतंत्र ऐसे राज्यों में था, जहाँ प्रजापालन
और राज्य का कार्यभार कुछ चुने हुए व्यक्तियों द्वारा
किया जाता था। ’गण‘ शब्द का शाब्दिक अर्थ गणना करना
है। अतः गण राज्य का अर्थ हुआ बहुसंख्यक राज्य था बहुत
जनों का राज्य। गणराज्य में प्रत्येक नागरिक को समान
अधिकार प्राप्त थे।
राजा दंडधर
2. रामायण काल में ऐसे राज्यों की उपस्थिति का बहुत
अधिक संकेत नहीं मिलता, परंतु उस काल में राजतंत्र में
भी राजतंत्र का संचालन जनतांत्रिक पद्धति से होता था।
न्यायपालिका पूर्ण स्वतंत्र थी और उसका सर्वोच्च
अधिकारी राजगुरु या राज पुरोहित होता था। राजा केवल
दंडधर होता था। विधि, धर्म या कानून की स्थापना और
जनता को उसके अनुसार चलना, ये उसके मूल कार्य थे। विधि
का निर्माण वनों, कंदराओं और नदियों के तटों पर आश्रम
बनाकर रहने वाले बीतरागी ऋषियों द्वारा किया जाता था।
धर्म संबंधी संदिग्ध विषयों का निर्णय एक परिषद करती
थी जिसमें तीन से लेकर 10 तक सदस्य होते थे। प्रमुख
बात यह थी कि जनता अपनी संघीय संस्थाओं के द्वारा अपने
लिए स्वयं नियम बनाने में स्वतंत्र थी। कुल, ग्राम,
नैगम, श्रेणी, गण, संघ और जनपद ऐसी ही संस्थाएँ थीं।
राजा का कर्तव्य यह था कि वह इन संस्थाओं द्वारा बनाये
गये नियमों पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाये और उनका
पालन करवाये।
मंत्रिपरिषद
रामायण काल की जनतांत्रिक संस्थाओं में सबसे प्रथम और
महत्वपूर्ण मंत्रिपरिषद थी। मंत्रिपरिषद में आठ या
उससे अधिक कुशल, चतुर और योग्य मंत्री होते थे।
मंत्रियों का आचार-विचार शुद्ध होना आवश्यक था और वे
सदैव राज्य के हित के लिए प्रयत्नशील रहते थे। राजा
दशरथ के आठ मंत्रियों के नाम थे- धृष्टि, जयंत, विजय,
सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमंत्र जो
अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे।
वशिष्ठ और वामदेव दशरथ के पुरोहित अर्थात प्रमुख
न्यायाधीश थे। इनके अतिरिक्त सुयज्ञ, जावालि, कश्यप,
गौतम, दीर्घायु, मार्कण्डेय और विप्रवर कात्यायन को भी
दशरथ का मंत्री कहा गया है। मंत्रियों से यह अपेक्षा
की जाती थी कि वे शासन के मंत्र को गुप्त रखेंगे।
गुप्तचरों के द्वारा अपने पड़ोसी, शत्रु और मित्र
राज्यों का पूर्ण वृत्तांत जानकर उन पर दृष्टि रखना भी
मंत्रियों का कार्य था। दो स्तर की मंत्रिपरिषद से
स्पष्ट होता है कि राज्य में जनतांत्रिक मूल्यों को
महत्व दिया जाता था। राजा मंत्रिपरिषद से विचार-विमर्श
के उपरांत ही कोई निर्णय ले सकता था। रामायण के
अयोध्या कांड में चित्रकूट में राम को मनाने आये भरत
से कुशल-क्षेम पूछने के बहाने राम राजनीति का
महत्वपूर्ण उपदेश देते हैं। अनेक विषयों पर बात करने
के साथ-साथ राम भरत से यह भी कहते हैं कि ’रघुनंदन‘
अच्छी मंत्रणा ही राजाओं की विजय का मूल कारण है। वह
भी तभी सफल होती है, जब नीति शास्त्र निपुण मंत्री
शिरोमणि अमात्य उसे सर्वथा गुप्त रखें। मंत्रिपरिषद
में मंत्रियों चयन का अधिकार राजा का था। परंतु
नियुक्ति तथा पदच्युति संबंधी अधिकारों पर वैधानिक
प्रतिबंध थे। रामायणकार ने दशरथ के कुछ मंत्रियों के
लिए वृद्ध शब्द का प्रयोग किया है। निषाद राजगृह और
रावण के कुछ मंत्री भी वृद्ध थे। मंत्रियों की एक परम
अंतरंग समिति होती थी। बाल्मीकि के मतानुसार इस समिति
में राजा के परम विश्वसनीय तीन या चार सदस्य होने
चाहिए। इस अंतरंग समिति से राजा शासन संबंधी प्रत्येक
विषय पर परामर्श करता था। इस समिति की स्वीकृति मिलने
पर कोई विषय राजगुरु के समक्ष आता था, तब मंत्रिपरिषद
के सम्मुख स्वीकृति के लिए रखा जाता था।
राजा दशरथ ने वृद्धावस्था प्राप्त होने पर राम को
युवराज बनाने का विचार किया। इस विषय पर पहले उन्होंने
सुमंत्र से मंत्रणा की। उनकी स्वीकृति मिलने पर यह
विषय मंत्रिपरिषद में स्वीकृति के लिए आया।
मंत्रिपरिषद ने इसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया।
रावण की मंत्रिपरिषद भी इसी पद्धति से कार्य करती थी।
सभा
वैदिक काल से ही भारतवर्ष में सभा की उपस्थिति का पता
चलता है। वेदों में सभा और समिति दो शब्दों का उल्लेख
मिलता है। वैदिक सभा का प्रधान कार्य धर्म निर्णय था।
सभा बहुमत से ही निर्णय लेती थी। मंत्रिपरिषद से
परामर्श और स्वीकृति मिलने के बाद राजा दशरथ ने राम को
युवराज बनाने के संबंध में जनता के विभिन्न वर्गों के
प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी थी, जिसमें राम को
युवराज बनाने की स्वीकृति ली गयी थी। दशरथ ने राम को
राजभवन में बुलाकर इस बात की सूचना दी थी कि जनता ने
उन्हें स्वयं युवराज चुना है। सभा का अपना एक
शिष्टाचार होता था। सभासद एक-दूसरे को चिल्लाकर बुला
नहीं सकते थे। सभा में झूठ बोलना भी दंडनीय अपराध माना
जाता था।
रामायण काल की सीमाएं आधुनिक धारा सभाओं की तरह
विधियों का निमार्ण नहीं करती थीं। परंतु आय-व्यय का
लेखा तैयार करना, प्रजा पर लगाये जाने वाले करों की
स्वीकृति देना, आपातकाल में राज्य की रक्षा के उपाय
करना, शासन संबंधी समस्याओं पर वाद-विवाद करना और विधि
का पालन सुनिश्चित करवाना उस काल की सभा के मुख्य
कार्य थे।
स्वायत्त संस्थाएँ
रामायण कालीन साहित्य का अध्ययन अनेक स्वायत्त
संस्थाओं की उपस्थिति का आभास देता है। इन संस्थाओं
में कुल, ग्राम, नैगम, श्रेणी, संघ और जनपद का नाम
मुख्य रूप से लिया जा सकता है। जनतांत्रिक संस्थाओं
में कुल सबसे छोटी और पहली संस्था थी। ये कुल आज के
सम्मिलित परिवारों का वृहद् रूप थे। रामायण में ऐसे
राज्य की निंदा की गयी है, जहाँ कुल की स्वतंत्रता का
अपहरण होता हो। प्रत्येक कुल के अपने निजी धर्म और
विधि थे, जिन्हें कुलाचार या कुल धर्म कहा जाता था। इन
कुल धर्मों को सनातन कहा गया।
ग्राम
कुल के उपरांत जो दूसरी जनतांत्रिक संस्था थी वह थी-
ग्राम। अयोध्या राज्य में बहुत-से-ग्राम थे। राम के वन
गमन के अवसर पर लक्ष्मण जब राम के साथ जाने का हठ पकड़
लेते हैं, तब राम उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि वे
राजधानी में ही रहें, क्योंकि उनकी (राम की)
अनुपस्थिति में वे माता कौशल्या का भरण-पोषण कर
सकेंगे। परंतु लक्ष्मण कहते हैं कि माता कौशल्या स्वयं
ही सहस्त्रों मनुष्यों का भरण-पोषण कर सकती हैं,
क्योंकि उन्हें एक हजार ग्राम मिले हुए हैं। रामायण
में ग्राम के मुखियों की ओर भी संकेत है। रामायणकार ने
उन्हें ’महत्तर‘ कहा है। युद्ध कांड में ’ग्रामिणी‘ का
उल्लेख है। यह पद निश्चित रूप से ऊंचा होता होगा।
ग्रामिणी सम्मानित और प्रतिष्ठित अधिकारी था। ग्राम के
दैनिक जीवन पर राजा का अधिकार नहीं था। इन ग्रामों पर
राजा का अधिकार साधारणतः दो विषयों तक सीमित था। युद्ध
के समय में राजा को धन और जन से सहायता करना और समय पर
निर्धारित कर राजकोष के निमित्त भेज देना। इन दो
अधिकारों के अतिरिक्त राजा अपने राज्य के ग्रामों में
हस्तक्षेप नहीं करता था।
नैगम
नैगम रामायण काल की तीसरी जनतांत्रिक संस्था है। नैगम
भी स्वायत्त संस्था है। राजा दशरथ ब्राह्मण और नैगम
राम पर विशेष स्नेह करते थे। रामायण में वर्णित
प्रत्येक महत्वपूर्ण अवसर पर हम नैगम को उपस्थित पाते
हैं। नैगम प्रत्येक नगर की स्वायत्त संस्था थी। इसका
मुख्य कर्तव्य नगर के व्यापार को देखना, उसे संगठित
करना और उसकी वृद्धि करना था। यह जनतांत्रिक स्वायत्त
संस्था थी।
श्रेणी
श्रेणी भी रामायण काल की एक प्रमुख जनतांत्रिक संस्था
थी। श्रेणी और उसके मुखिया गणों को भी रामायण में
भिन्न-भिन्न स्थानों पर उपस्थित दिखाया गया है। इसे
अति महत्वपूर्ण संस्था बताया गया है दशरथ के निधन के
चौदहवें दिन अयोध्या का राज्य भरत को सौंपते हुए राज्य
के प्रमुख अधिकारी गण भरत से कहते हैं, ’’भरत, आपके
स्वजन तथा श्रेणी के लोग जनपद पर अभिषिक्ति करने की
वाट जोह रहे हैं।‘‘ ’’अभिवे चानिकं सर्वमिदभादाय राघव
प्रतीक्षते त्वां स्वजन: श्रेण्यश्चनृपात्मज।‘‘
चित्रकूट में भरत भी राम से कहते हैं कि श्रेणी के
मुखिया आपको राजगद्दी पर बैठा देखें, यह मेरी अभिलाषा
है।
संघ
’संघ‘ एक और रामायण कालीन जनतांत्रिक संस्था थी।
रामायण के अयोध्या कांड में नट, नर्तकों और गायकों के
संघों का वर्णन है। राम के राज्याभिषेक का समाचार
सुनकर नट, नर्तकी और गायक संघ अत्यंत प्रसन्न थे। भरत
के द्वारा यह निर्णय लिये जाने पर कि राम को मनाने
चित्रकूट जाना है अनेक संघ अत्यंत आनंदित हुए थे और वे
भरत के पीछे-पीछे गये। निश्चित है कि संघ व्यवसायों के
आधार पर व्यक्तियों की संस्था थी। ये संस्थाएँ अपने
नियम अपने आप बनाती थीं। इनकी अपनी-अपनी पंचायतें थीं।
पौर
पौर-जनपद एक और स्वायत्तशासी जनतांत्रिक संस्था थी।
रामायण काल में इस संस्था का बड़ा महत्व था। यह संस्था
नगरों की संस्था थी। इन्हें भी हर प्रमुख अवसर पर
रामायण में उपस्थित दिखाया गया है। राम के राज्याभिषेक
के समय पौर-जनपद भी द्वार पर प्रतीक्षा करते थे। ये
तमाम जनतांत्रिक संस्थाएं विधि का निर्माण करती थीं और
राजा की स्वेच्छाचारिता पर प्रतिबंध लगाती थी। रामायण
काल में इनकी उपस्थिति तत्कालीन समाज में जनतांत्रिक
मूल्यों की प्रतिष्ठा को प्रमाणित करती हैं।
२८
अक्तूबर २०१३ |