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संस्कृति

श्रावण पूर्णिमा- संस्कृत दिवस के अवसर पर

संस्कृत भाषा और साहित्य का महत्त्व
डॉ. उषा गोस्वामी
 


श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन के अतिरिक्त ऋषियों के स्मरण, आराधना, पूजन, वंदन और उनके प्रति श्रद्धा समर्पण का दिवस के रूप में भी मनाया जाता रहा है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने अपने तपः से जिन ऋचाओं के दर्शन किए वे ऋचाएँ संस्कृत भाषा में ही थीं। इसीलिये ऋषि पर्व श्रावण पूर्णिमा को संस्कृत दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।

आर्य संस्कृति के प्रारंभ में जन्मी मंत्रद्रष्टा ऋषियों की वाणी के समय से लेकर आज तक यह भाषा, भारत की विविध भाषाओं एवं लोकभाषाओं का रूप लेते हुए भारतीय संस्कृति की प्रधान धारा बनी हुई है। साथ ही अपने अविच्छिन्न रूप में भी पूरे विश्व में व्यापकता, धार्मिकता एवं लौकिकता से परिपूर्ण है।

इस भाषा में जहाँ प्राकृतिक देवताओं से सम्बद्ध वैदिक साहित्य है, वहीं समाज के नैतिक, धार्मिक, पौराणिक और सांस्कृतिक रूप का समुचित चित्रण करने वाला लौकिक साहित्य भी है। इस भाषा में आदि कवि वाल्मीकि और व्यास के अमरकाव्यों के साथ अश्वघोष, कालिदास, भवभूति, माघ, भारवि और श्री हर्ष आदि अनेकों विद्वानों ने अपनी रचनाओं को लिखा है। वेद, वेदांग, स्मृति, इतिहास, पुराण, दर्शन, भक्ति, तंत्र, मंत्र, आगम, महाकाव्य, लघुकाव्य, रूपक, नाटक, प्रकरण, चम्पू, कथा, आख्यायिका, सुभाषित, नीतिकाव्य, व्याकरण, निघंटु, छंदशास्त्र, अलंकार, नाट्य, शिल्प, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, रत्न शास्त्र, कामशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष और कोश आदि समस्त विषय इस भाषा में निबद्ध हैं |

देव भाषा नाम से जानी जाने वाली यह भाषा प्राकृत, पाली, अपभ्रंश और हिंदी आदि भाषाओं के साथ भारतीय उपमहाद्वीप और सूदूर पूर्व की अनेक भाषाओं की जननी है। संस्कृत भाषा संस्कारित भाषा है। इसमें चैतन्यता है। यही कारण है कि संस्कृत न जानने वाला भी मंत्रोच्चारण या श्लोकवाचन को सुनकर एक विशिष्ट अनुभूति करता है। यह हमारी संस्कृति में इस तरह समाहित है कि हम ऐसे भारत की कल्पना ही नहीं कर सकते, जहाँ के मंदिरों में संस्कृत मन्त्रों का उच्चारण न हो रहा हो, जहाँ की पवित्र नदियों के घाट पर संस्कृत श्लोकों का गायन नहीं हो रहा हो। हमारे सभी धार्मिक कार्य इसी भाषा में संपन्न होते हैं। शायद ही कोई ऐसा कोई भारतीय हो, जिसे एक भी संस्कृत का श्लोक या उक्ति न याद हो।

अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण इस भाषा की महत्ता के कारण ही आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले गये थे। आज विश्व के हर बड़े विश्वविद्यालय में एक भारतीय विद्या विभाग (इंडोलॉजी डिपार्टमेंट) अवश्य होता है, जिसमें संस्कृत भाषा सिखाई जाती है। समस्त विश्व में भारतीय संस्कृति और संस्कृत के महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है। लिफोर्निया विद्यापीठ में १८९७ ई .से संस्कृत भाषा पढ़ाई जा रही है। अमेरिका के मेरीलैंड विद्यापीठ में भी इसका इतना प्रचार है कि वहाँ केविद्यार्थियों ने संस्कृत भारती नाम से एक दल तैयार किया है। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जब ग्रीस गए तब वहाँ के माननीय राष्ट्रपति कार्लोस पाम्पाडलीस ने उनका स्वागत संस्कृत भाषा में "राष्ट्रपतिमहाभाग : सुस्वागतम् यवनदेशे" कहकर स्वागत किया था।जुलाई २००७ में अमेरिकी सीनेट का प्रारम्भ वैदिक प्रार्थना से किया गया। यू.के. कुछ विद्यालयों में यह अनिवार्य रूप से शिक्षा का अंग है। इस भाषा की वैज्ञानिकता के कारम इसे कंप्यूटर के संगणकों के लिये सर्वश्रेष्ठ भाषा माना गया है। भारत तथा विदेश में यह आज भी यह अनेक परिवारों की बोली है। भारत के चार गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी यह भाषा दैनिक व्यवहार में प्रयोग की जाती है।

इतनी व्यवहृत, समृद्ध और विशिष्ट होने के बाद भी कुछ लोग इसे मृतभाषा कहते हैं। यह सच है कि किसी देश के राजकाज में इस भाषा का प्रयोग नहीं होता लेकिन इससे इसके महत्व में कोई कमी नहीं है। आज भी इसके पठन पाठन तथा लेखन का काम जारी है और अनेक संस्थाएँ इसके विकास और संवर्धन के लिये प्राण प्रण से काम कर रही हैं। आज भी संस्कृत लिखने वाले लोग हैं और पूरी तरह से संस्कृत फिल्मों एवं नाटकों का प्रदर्शन होता रहता है।

इस भाषा में विद्यार्थियों को गणित की भांति पूर्ण अंक प्राप्त होते हैं, अतः इसमें जरा सी मेहनत कर लेने पर अधिक अंक प्राप्त कररना आसान हो जाता है। व्याकरण सम्मत होने के कारण कुछ लोगों में यह भ्रान्ति है कि इसे रटना आवश्यक है और इसकी व्याकरण कठिन है। लेकिन इसका लिखना पढ़ना और बोलना थोड़े से अभ्यास से ही संभव हो जाता है। इसलिये संस्कृत के बहुत से छोटे पाठ्यक्रम और इस भाषा को वेब से सीखना बहुत आसान हो गया है।

संस्कृत में हजारों वर्ष पूर्व में इतनी उत्कृष्ट रचनाएँ हो चुकी हैं कि ईसवी संवत के लंबे अंतराल में लिखी गई ढेरो रचनाओं में से आज तक एक भी ऐसी रचना नहीं प्रतीत होती है कि उसे उन रचनाओं के समकक्ष या उनसे श्रेष्ठ ठहराया जा सके। ऐसी अद्भुत भाषा की जनप्रियता के लिए आवश्यक है कि हम इस भाषा में साहित्य स्रजन को बढ़ावा दें। इसकी रचनाओं के लिए जन जागरण करें, गोष्ठियों या समीक्षा के माध्यम से इसे लोकप्रिय बनाने के प्रयत्नों में सहायक बनें। जिस प्रकार पिछले कुछ वर्षों में मीडिया के माध्य से योग जन जने में लोकप्रिय हुआ है वैसे ही मीडिया के माध्यम से संस्कृत भाषा के प्रति भी सामान्य जन का प्रेम जागृत हो सकेगा।

संस्कृत भाषा और साहित्य की अनेक खूबियों के कारण ही कह गया है-
पठामि संस्कृतं नित्यम् वदामि संस्कृतं सदा
ध्यायामि संस्कृतं सम्यक् वंदे संस्कृतमातरम् |

६ अगस्त २०१२

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