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संस्कृति

 

भारत में गणतंत्र की परंपरा
ओम प्रकाश कश्यप


सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहाँ यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।

वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ । कुरु और पांचाल जनों में भी पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पाँच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई।

वौद्धिक आंदोलनों का प्रभाव तत्कालीन राजनीति पर पड़ना स्वाभाविक ही था। परिणामस्वरूप राजनीति को और अधिक लौकिक तथा मानवीय बनाने के प्रयास किए जाने लगे थे। परंतु इस कार्य में सफलता तभी संभव थी, जब निर्णय के स्तर पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की सहभागिता हो। लिच्छवी और वैशाली जैसे गणतांत्रिक राज्यों का उदय इसी समय में हुआ। पालि, संस्कृत, ब्राह्मी लिपि में उपलब्ध साहित्य में ऐसे बहुसमर्थित राज्य के बारे अनेक संदर्भ मौजूद हैं। जनतांत्रिक पहचान वाले गण तथा संघ जैसे स्वतंत्र शब्द भारत में आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले ही प्रयोग होने लगे थे। महाभारत के शांतिपर्व में राज्यकार्य के निष्पादन के लिए बहुत से प्रजाजनों की भागीदारी का उल्लेख मिलता है, जो उस समय समाज में गणतंत्र के प्रति बढ़ते आकर्षण का संकेत देता है। हालाँकि इसमें यह भी कहा गया है कि गुप्तचर विभाग और लोकपरिषद की कार्रवाहियों को आवश्यक गोपनीयता बनाए रखने के लिए इसकी जानकारी सबको नहीं होनी चाहिए। अन्यथा समूह का धन-वैभव नष्ट होते देर नहीं लगेगी।

भारत में वैदिक काल से लेकर लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी तक बडे़ पैमाने पर जनतंत्रीय व्यवस्था रही। इस युग को सामान्यत: तीन भागों में बाँटा जाता है।

  • प्रथम ४५० ई.पू. तक का समय, दूसरा इसके उपरांत ३०० ई.पू. तक और तीसरा लगभग ३५० ई. तक। पहले कालखंड के चर्चित गणराज्य थे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी।

  • दूसरे कालखंड में अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का उल्लेख मिलता है।

  • तीसरे कालखंड में पंजाब, राजपूताना और मालवा में अनेक गणराज्यों की चर्चा पढ़ने को मिलती है, जिनमें यौधेय, मालव और वृष्णि संघ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

  • आधुनिक आगरा और जयपुर के क्षेत्र में विशाल अर्जुनायन गणतंत्र था, जिसकी मुद्राएँ भी खुदाई में मिली हैं। यह गणराज्य सहारनपुर -भागलपुर -लुधियाना और दिल्ली के बीच फैला था। इसमें तीन छोटे गणराज्य और शामिल थे, जिससे इसका रूप संघात्मक बन गया था। गोरखपुर और उत्तर बिहार में भी अनेक गणतंत्र थे। इन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना बहुत प्रबल हुआ करती थी और किसी भी राजतंत्रीय राज्य से युद्घ होने पर, ये मिलकर संयुक्त रूप से उसका सामना करते थे।

महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। उसके अनुसार गणराज्य में एक जनसभा होती थी, जिसमें सभी सदस्यों को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। गणराज्य के अध्यक्ष पद पर जनता ही किसी नागरिक का निर्वाचन करती थी। कभी-कभी निर्णयों को गुप्त रखने के लिए मंत्रणा को, केवल मंत्रिपरिषद तक ही सीमित रखा जाता था। शांति पर्व में गणतंत्र की कुछ त्रुटियों की ओर भी इंगित किया गया है। जैसे यह कि गणतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सही मानता है। इससे पारस्परिक विवाद में वृद्घि होती है और समय से पहले ही बात के फूट जाने की आशंका रहती है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। पाणिनी की अष्ठाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जिनकी शासनव्यवस्था जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में रहती थी। एक और जातक कथा में पाँच सौ लिच्छिवी राजाओं का उल्लेख किया गया है। यह विवरण भी प्रतीकात्मक अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है। दरअसल इस तरह के आख्यान तत्कालीन राजनीति में तेजी से बढ़ते आर्थिक समूहों का परिणाम थे। आर्थिक रूप से समृद्ध समूह अपना स्वतंत्र राजनीतिक गठबंधन बना लेता था। आंतरिक प्रशासन के लिए वे सब स्वतंत्र समूह के रूप में काम करते थे, किंतु बाह्यः हमले के समय उनकी संगठित शक्ति दुश्मन का मुकाबला करने के काम आती थी। नए गणतंत्रों की स्थापना का कार्य भारत के किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। बल्कि उसका असर पूरे देश में स्थान-स्थान पर नजर आ रहा था।

आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया। बौद्घ साहित्य में एक घटना का उल्लेख है। इसके अनुसार महात्मा बुद्घ से एक बार पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या कारण हैं? इस पर बुद्घ ने सात कारण बतलाए--

  • जल्दी- जल्दी सभाएँ करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना

  • राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना

  • कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना

  • वृद्घ व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना

  • महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना

  • स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना तथा

  • अपने कर्तव्य का पालन करना।

राजा का शाब्दिक अर्थ (जनता का) रंजन करने वाले या सुख पहुँचाने वाले से है। हमारे यहाँ राजा की शक्तियाँ सदैव सीमित हुआ करती थीं। गणराज्य में तो अंतिम शक्ति स्पष्ट रूप से जनसभा या स्वयं जनता के पास होती थी, लेकिन राजतंत्र में भी निरंकुश राजा को स्वीकार नहीं किया जाता था। जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजा या राजवंश भी नहीं बच सकता था। राजा सागर ने अत्याचार के आरोप में अपने पुत्र को निष्कासित कर दिया। जनमत की अवहेलना करने पर ही राजा वेण का वध कर दिया गया और राम को भी सीता का परित्याग करना पड़ा। महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है। राजा का कर्त्तव्य अपनी जनता को सुख पहुँचाना है।

गणतांत्रिक भारत में संपन्नता और समृद्धि समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक फैली हुई थी। हालांकि आर्थिक स्तर में विभिन्न समुदायों, व्यवसायकर्मियों के बीच अंतर तब भी था। बावजूद इसके समाज में जागरूकता एवं अवसरों की समानता अधिक थी। इसी कारण छोटे-छोटे उद्यमियों/व्यापारियों ने अपने संगठन खडे़ कर लिए थे, जिनके माध्यम से वे संगठित व्यापार के लाभों में हिस्सेदारी की संभावना बढ़ाते थे। इस बात का प्रमाण उस समय के साहित्य तथा अन्य पुरातात्विक साक्ष्यों में उपलब्ध है। वैशाली और कौशांबी जैसे संपन्न राज्य और कुशावती जैसी संपन्न नगरी का वर्णन जातक कथाओं तथा पालि साहित्य में अनेक स्थान पर हुआ है। ये सभी राज्य गणतांत्रिक प्रणाली द्वारा शासित थे। जे. पी. शर्मा की पुस्तक ‘प्राचीन भारत में गणतंत्र’ के माध्यम से मुलबर्गर महोदय लिखते हैं कि—

‘छह सौ ईस्वी पूर्व से दो सौ ईस्वी बाद तक, भारत पर जिन दिनों बौद्ध धर्म की पकड़ थी, जनतंत्र आधारित राजनीति यहाँ बहुत लोकप्रचलित एवं बलवती थी। उस समय भारत में नागरीकरण की प्रक्रिया बहुत तीव्रता से चल रही थी। पालि साहित्य में उस समय की समृद्ध नगरी वैशाली का विवरण मिलता है। उसमें उपलब्ध विवरण के अनुसार वहाँ 7707 बहुमंजिला इमारतें, ७७०७ अट्टालिकाएँ, ७७०७ ही उपवन तथा कमलसरोवर शोभायमान थे। इनके अतिरिक्त वहाँ पर लोगों का एक कार्यकारी संघ भी था, जिसपर वहाँ की शासन-व्यवस्था का अनुशासन चलता था। आम्रपाली जैसी अनिंद्य सुंदरी, अद्वितीय नर्तकी थी, जिसकी सुंदरता और कला के चर्चे दूर-दूर तक फैले हुए थे। आम्रपाली न केवल वैशाली की समृद्धि का प्रतीक थी, बल्कि वहाँ का गौरव भी थी। वैशाली के अतिरिक्त कपिलवस्तु तथा कुशावती जैसे नगरों का विवरण भी बौद्ध साहित्य में ससम्मान उपलब्ध है, जो व्यापार, कला एवं संस्कृति के महान केंद्र थे। पाँच सौ से हजार गाड़ियों तक के काफिले उन नगरों से व्यापार के सिलसिले में गुजरते रहते थे, जिसके कारण वहाँ पर किसी आधुनिक शहर जैसी भीड़-भाड़ तथा शोरगुल मचा रहता था। आवश्यकता पड़ने पर ये काफिले जहाँ भी पड़ाव डालते तो महीनों तक एक ही स्थान पर जमे रहते। चैमासे में तो यह अक्सर होता था। इन काफिलों के साथ-साथ धार्मिक संवाद, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रचार-प्रसार का काम भी चलता रहता था।’

सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास में रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस तथा का॓रसीयस रुफस ने भारत के सोमबस्ती नामक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहाँ पर शासन की ‘गणतांत्रिक प्रणाली थी, न कि राजशाही।’ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के दौरान गणतंत्र भारत में लोक प्रचलित शासन प्रणाली थी। डायडोरस सिक्युलस ने अपने ग्रंथ में भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अनेक गणतंत्रों की उपस्थिति का उल्लेख किया है। एक अन्य स्थान पर वह लिखता है कि— ‘अधिकांश नगरों (राज्यों) ने गणतांत्रिक शासन-व्यवस्था को अपना लिया था, और उसको बहुत वर्ष बीच चुके थे, यद्यपि कुछ राज्यों में भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय भी राजशाही कायम थी।

उल्लेखनीय है कि कथित छोटे गणतांत्रिक राज्य सुख-समृद्धि के मामले में देश के बाकी राज्यों से कहीं आगे थे। वहाँ के नागरिकों को अपनी रुचि एवं कार्यक्षमता के अनुसार अपना व्यवसाय चुनने की आजादी थी। जिससे वहाँ का समाज अपेक्षाकृत अधिक खुला था। उसमें तनाव भी न्यूनतम थे। परिणामतः समाज की ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग संभव था।

डायडोरस सिक्युलस ने साबरकी या सामबस्ती नामक एक गणतांत्रिक राज्य का उल्लेख किया है, जहाँ के नागरिक मुक्त और आत्मनिर्भर थे तथा जिसकी सेना में साठ हजार पैदल सैनिक, छह हजार घुड़सवार तथा छह सौ रथवान होते थे। वी. एस. अग्रवाल और ए. के. मजुमदार को उद्धरित करते हुए डॉ. स्टीव मुलबर्गर लिखते हैं कि— ‘प्राचीन भारत में जनतांत्रिक ‘कार्यकलापों का स्वतंत्र रूप से संचालन करने वाले समूहों और उनकी विशेषताओं को अभिव्यक्त करने के लिए एक सुदीर्घ शब्दावली थी। निश्चित रूप से उसमें बहुत से शब्द ऐसे थे जो वीरता का गुणगान करते समय प्रयुक्त किए जाते थे, किंतु उनमें से अधिकांश का प्रयोग शांतिकाल में तथा आर्थिक समूहों और उनकी गतिविधियों की व्याख्या के लिए प्रयुक्त किया जाता था। जैसे कि किसी संगठन को उसके कार्य के आधर पर गण अथवा संघ का नाम दिया जा सकता था। उससे कम महत्त्वपूर्ण, केवल आर्थिक मामलों से जुड़े संगठनों को श्रेणि, पूग, व्रात, गण आदि नामों से पुकारा जाता था। इन संगठनों की प्रमुख विशेषता थी, इनके लक्ष्यों की एकता। छठी शताब्दी तक इन स्वशासित संगठनों-समितियों का चलन आम हो चला था। इनके सभी निर्णय आमसहमति के आधार पर लिए जाते थे। दूसरा वर्ग सर्वसम्मति अथवा आमसहमति के आधर पर शासन की जिम्मेदारी संभालता था। आधुनिक शब्दावली में इन संगठनों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त शब्द ‘गणतंत्र’ ही हो सकता है।’

आधुनिक लोकतंत्र राजनीतिक व्यवस्था को तय करनेवाली ऐसी प्रणाली है, जो नागरिकों को अपनी अधिकार चेतना से समृद्ध करने, उनमें आवश्यक नागरिकताबोध पैदा करने का काम करती है। इसके द्वारा सत्ता पर जनता का अंकुश बना रहता है। व्यवस्था से असंतुष्ट जनता समय आने पर उसे बदलने में सक्षम सिद्ध होती है। लोकतंत्र में सत्ता धर्म, जाति, संप्रदाय, पूंजी आदि के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं है। इसलिए इसे सर्वाधिक कल्याणकारी राजनीतिक प्रणाली भी माना जाता है। हालांकि लोकतांत्रिक समाजों में पूंजीपति वर्ग प्रकटतः नागरिकों के अधिकारों का पक्ष लेते दिखाई पड़ते हैं। बावजूद इसके जरूरी नहीं है कि यह सदैव उनकी सदिच्छा से ही प्रेरित हो। कई बार नागरिक अधिकारों की पक्षधरता के पीछे उनकी मंशा एक स्वतंत्र, अनियंत्रित, उपभोक्तावादी समाज को बढ़ावा देने की भी होती है। इसलिए आवश्यक है कि तीन सौ साल लंबे अंतराल के बाद आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, उसके मूल्यों की रक्षा हो और राष्ट्रीय विकास के हित में उसका सही प्रयोग हो।

२४ जनवरी २०११

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