भय का
भगवान महा भैरव
रामगुप्त
कोयले से भी प्रगाढ़ रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर,
अंगारकाय त्रिनेत्र, काले वस्त्र, रूद्राक्ष की
कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड और काले
कुत्ते की सवारी- यह है महाभैरव, अर्थात भय के भारतीय
देवता का स्वरूप।
कहते हैं, औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के
भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी
कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था।
जनश्रुतियों के अनुसार कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये
जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तो अचानक पागल
कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था। उन
कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वह तुरंत पागल हो गये
और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्हों ने काटना शुरू
कर दिया। बादशाह को भी अपनी जान बचा कर भागने के लिये
विवश हो जाना पड़ा। उसने अपने अंगरक्षकों द्वारा अपने
ही सैनिक सिर्फ़
इसलिये मरवा दिये कि पागल होते सैनिकों का सिलसिला
कहीं ख़ुद उसके पास तक न पहुँच जाये।
उपासना की दृष्टि से भैरव तमस देवता हैं। उनको अब भी
पशुबलि दी जाती है और जहाँ कहीं यह प्रथा समाप्त हो
गयी है वहाँ भी एक साथ बड़ी संख्या में नारियल फोड़ कर
इस कृत्य को एक प्रतीक क्रिया के रूप में सम्पन्न किया
जाता है। एक समय था जब उनको नरबलि भी दी जाती थी। यह
एक ऐतिहासिक सत्य है कि भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय
के देवता हैं और तंत्रशास्त्र में उनकी आराधना को ही
प्राधान्य प्राप्त है। तंत्र साधक का मुख्य लक्ष्य
भैरव की भावना से अपने को
आत्मसात करना होता है। अहम भैरव त्वम् भैरवी वामतंत्र
का प्रसिद्ध वाक्य है।
कालभैरव की पूजा प्रायः पूरे देश में होती है, और
अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने
जाते हैं। महाराष्ट्र में खण्डोबा उन्हीं का एक रूप
है, और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में
की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है।
वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही
उनको मान्यता मिली हुई है, और उनकी अनेक प्रकार की
मनौतियाँ भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। जैसा आप भी
जानते होंगे, भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और
रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की
जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और
आपत्ति-विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं।। शिव प्रलय के
देवता हैं, अतः विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत
और देवता उनके
अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं
महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो
बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक
के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखाई देता है।
भय स्वयं तामस-भाव है। तम और अज्ञान का प्रतीक है यह
भाव। जो विवेकपूर्ण है वह जानता है कि समस्त पदार्थ और
शरीर पूरी तरह नाशवान है। आत्मा के अमरत्व को समझ कर
वह प्रत्येक परिस्थिति में निर्भय बना रहता है। जहाँ
विवेक तथा धैर्य का प्रकाश है वहाँ भय का प्रवेश हो ही
नहीं सकता। वैसे भय केवल तामस-भाव ही नहीं, वह अपवित्र
भी होता है। इसीलिये भय के देवता महाभैरव को यज्ञ में
कोई भाग नहीं दिया जाता। कुत्ता जैसा सर्वथा अपवित्र
पशु उनका वाहन है। क्षेत्रपाल के रूप में उन्हें जब
उनका भाग देना होता है तो यज्ञीय स्थान से दूर जाकर वह
भाग उनको अर्पित किया जाता है, और उस भाग को देने के
बाद यजमान स्नान करने के उपरांत ही पुनः यज्ञस्थल में
प्रवेश कर सकता है।
पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की
उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है।
सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और
उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त
वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान
नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से
कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट
हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी।
स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख
पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत
हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव
का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का
नगरपाल नियुक्त कर दिया।
कहते हैं, अपने काशी-प्रवास के काल में गोस्वामी
तुलसीदास की भुजा असीमितरूप से पीड़ाग्रस्त हो गयी थी।
उस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये ही उन्हों ने
हनुमान-बाहुक की रचना की। विनयपत्रिका तथा कवितावली के
कुछ पद भी उसी बाहु-पीड़ा को शांत करने की प्रार्थना के
रूप में लिखे गये थे। किवदन्ती है कि गोस्वामीजी काशी
में रहते हुए भी कालभैरव का दर्शन करने नहीं जाते थे।
भैरव के कोप से ही उनको यह पीड़ा हुई थी, और उससे
उन्हें तभी मुक्ति मिल पायी जब उन्हों ने भैरव की
स्तुति की।
भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही प्रतीकवादी रही है और
यहाँ की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के
प्रतीक उपलब्ध हैं। यह प्रतीक उभयात्मक हैं- अर्थात
स्थूल भी हैं और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक
को ही कहा जाता है देवता। चूँकि भय भी एक भाव है, अतः
उसका भी प्रतीक है - उसका भी एक देवता है, और उसी भय
का देवता है महाभैरव।
२८
नवंबर
२०११ |