गाथा
वटवृक्ष की
-राकेश कुमार
सिन्हा रवि
मानव जीवन में प्रकृति
प्रदत्त अमूल्य वस्तुओं में वृक्ष का महत्त्व अन्यतम
है। प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में
प्राकृतिक देवों के अंतर्गत पीपल नीम वट तुलसी व
स्थानानुसार कई तरह के अन्य वृक्षों की भी पूजा की
जाती रही है और इन्हें पूर्ण देव के रूप में
महिमामंडित किया गया है। प्राचीन ग्रंथ इनकी महिमा से
भरे पड़े हैं। उनकी पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की
जाती है। वृक्षों के विषय में कहा भी गया है कि इनके
मूल में ब्रह्मा, छाल में विष्णु शाखाओं में शंकर तथा
पत्ते पत्ते पर सब देवताओं का वास होता है।
मूले ब्रह्मा त्वचा
विष्णु शाखा शंकरमेव च
पत्रे पत्रे सर्वदेवायाम् वृक्ष राज्ञो नमोस्तुते ।।
प्रसिद्ध वटवृक्ष
यों तो भारत के हर
प्रदेश में एक न एक प्रसिद्ध वटवृक्ष है किंतु प्रयाग
का अक्षयवट, अवंतिका का सिद्धवट, नासिक का पंचवट
(पंचवटी), गया का बोधिवृक्ष, वृंदावन का वंशीवट जैसे
वृक्षों पर आश्रित श्रद्धा के केन्द्रों की परम्परा
सदियों पुरानी है। तीर्थदीपिका में पाँच वटवृक्षों का
वर्णिन मिलता है-
वृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे ।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः ।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः ।।
वटवृक्ष
का इतिहास
सनातन धर्म के चतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
के सिद्धिदाता वट वृक्ष को आनादि
काल से ही श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है। स्वीकार किया
जाता है कि सती ने शिव की प्राप्ति हेतु कैलाश पर्वत
पर वट वृक्ष के नीचे ही साधना अर्चना की थी। जातक कथा
इस ओर संकेत प्रदान करते हैं कि उरुबिल्व (बोध गया) में
सिद्धार्थ को पायस अर्पण कराने वाली सेनानिग्राम के
कृषकमति की कन्या सुजाता ने उन्हें वटदेव समझकर
ही पायस अर्पित किया था। कालिदासने भी अपनी रचना
मेदिनी कोश में अक्षय वट के बारे में बताया है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांगने अपने यात्रा
वृत्तांत में प्रयाग के पास एक बहुत प्राचीन, लेकिन
पवित्र वट वृक्ष का उल्लेख किया है। कुरुक्षेत्र में
वट वृक्ष के नीचे ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का
उपदेश दिया था। सीता ने दशरथ का पिंडदान गया के
वटवृक्ष के नीचे किया था इस प्रकार के वर्णन मिलते
हैं। भारत के अलावा, श्रीलंका, जावा,सुमात्रा, चीन,
जापान, नेपाल, मलेशिया आदि में भी वट वृक्ष को काफी
महत्त्व प्रदान किया गया है। हिंदू धर्म में विशेष
स्थान देकर इसकी रक्षा की कामना की गई है।
गया का
वटवृक्ष
श्राद्ध तर्पण एवं
पिंडदान की नगरी गया में सर्व सिद्धिदायक एक अति
प्राचीन और विशाल वटवृक्ष हैं जिसे बोधिवृक्ष कहा जाता है। गया
- बोधगया मुख्य मार्ग पर माढ़नपुर से थोड़ी दूरी पर
चाहरदीवारी से घिरे विस्तृत पक्के आँगन के मध्य
शोभायमान वटवृक्ष के बारे में जानकारी मिलती है कि
इसका रोपण ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर किया। बाद
में जगद्जननी सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा
जगद विख्यात हुई। मुक्तिप्रद तीर्थ गया
में जिस स्थान पर अंतिम पिंड होता है वह अक्षयवट ही है। विशाल जड़ों से युक्त
बड़े क्षेत्र में विस्तृत अक्षय वट के प्रथम दर्शन से
ही इसकी प्राचीनता का सहज अनुमान लग जाता है। मगध की
श्रेष्ठ धरोहर श्री विष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि
पर्वत के साथ साथ आदि शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी के
एक सीध में स्थित अक्षयवट के पास वृद्ध प्रपिता
माहेश्वर मंदिर, रुक्मणी तालाब, गदालोल दधिकुल्या और
मधुकुल्या तीर्थ वेदी प्रमुख हैं। वृद्ध प्रपिता
माहेश्वर मंदिर के पुजारी श्री योगेश्वर पांडे के
अनुसार प्राच्यकाल में गया क्षेत्र में जिन ३६०-६५ पिंड
वेदियों का उल्लेख मिलता है उसमें से ५६ वेदियाँ यहीं
अक्षयवट के चतुर्दिक विराजमान थीं।
सीता का आशीर्वाद
प्राचीन ग्रंथों में
वटवृक्ष से संबंधित एक रोचक कथा मिलती है। रामायणकाल में जब माता
सीता के साथ श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण को लेकर गया
आए तो दोनो भाई श्राद्ध तर्पण सामग्री लाने बाजार चले
गए। इसी बीच आकाशवाणी हुई कि शुभ मुहूर्त निकला जा रहा
है। इसी भय से माता सीता ने दशरथ जी के विचार से
वटवृक्ष, फलाऊँ नदी, गऊ माता तथा केतकी पुष्प को साक्षी मानते
हुए अपने श्वसुर को पिंडदान दे दिया। राम और लक्ष्मण
के वापस लौटने पर प्रथम
तीनो साक्ष्यों ने श्री राम लक्ष्मण के पूछने पर झूठ
बोल दिया केवल अक्षयवट ने ही सत्यवादिता का परिचय देते
हुए माता की लाज रखी। क्रुद्ध हो माता सीता ने फलाऊँ
को बिना पानी की नदी अर्थात् अंतःसलिला, गऊ को कलयुग
में श्रद्धा तथा केतकी पुष्प को शुभकार्यों से
वंचित होने का श्राप दे दिया। अक्षयवट को सत्य संभाषण
हेतु अक्षय होने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। यही कारण है
कि
कितनी भी गर्मी क्यों न हो अक्षयवट सदैव हराभरी रहता
है।
प्रयाग
का वटवृक्ष
इलाहाबाद स्थित अकबर के
किले में एक ऐसा वट है, जो कभी यमुना नदी के किनारे
हुआ करता था। इसे प्रयाग का तीर्थ मानते हुए कहा गया
है-
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्, वंदे
अक्षयवटं शेषं प्रयाग: तीर्थ नायकम्।
कहते हैं कि मोक्ष का कामना से अनेक लोग इस पर चढ़कर
नदी में कूदकर अपने प्राणों का अंत कर देते थे इसलिये
इसका एक नाम मनोरथ वृक्ष भी हुआ। आजकल यह वटवृक्ष
यमुना तट स्थित ऐतिहासिक किले के परिसर में विराजमान
है। द्वादश माधव के अनुसार बालमुकुन्द माधव इसी
अक्षयवट में विराजमान हैं। यह वही स्थान है जहाँ माता
सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के
पद्माचार्य की उपासना पूरी हुई थी। ऐसा माना जाता है
कि जब प्रलय में सारी सृष्टि में जल ही जल हो जाता है
उस समय भगवान विष्णु प्रयाग में स्थित वट वृक्ष में
बाल रूप में विराज कर सृष्टि की पुनः रचना करते है।
६४३ में ह्वेनसांग, १०३० में अलबरूनी, ११वीं शताब्दी
में महमूद गरदीजी, १३वीं शताब्दी में फजलैउल्लाह
रशीदुद्दीन अब्दुल खैर और अकबरकालीन बदायुँनी ने इस
पेड़ का उल्लेख अपने ग्रंथों में किया है। जहाँगीर और
अकबर के काल में इसे काटकर और जलाकर नष्ट करने का
प्रयत्न किया लेकिन इसकी जड़ें कहीं न कहीं से फूट ही
आती हैं।
वटवृक्ष
का महत्त्व
आयुर्वेद में वट की कोमल
जड़ों का प्रयोग औषधि बनाने में किया जाता है। यह पेड़
आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण
से विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भारत के अलावा,
श्रीलंका, जावा,सुमात्रा, चीन, जापान, नेपाल, मलेशिया
आदि में भी वट वृक्ष को काफी महत्त्व प्रदान किया गया
है। हिंदू धर्म में विशेष स्थान देकर इसकी रक्षा की
कामना की गई है। आज भी वट सावित्री त्योहार के दिन
भारतीय महिलाएँ न केवल वट वृक्ष की पूजा करती हैं,
बल्कि व्रत भी रखती हैं। अनेक वर्षों तक जीवित रहने
वाला यह पेड़ बेहद घना और छायादार होता है और उष्ण
जलवायु में पाया जाता है। गया के इस अक्षयवट का
वर्णन धर्म और साहित्य में मिलता है। महाभारत के वन
पर्व में वर्णित है-
यत्रासौ कीर्त्यते
विप्रेरक्षथ्यकरणो वटः ।
यत्र दत्तं पितृभ्योSन्नं
क्षयं न भवित प्रभो ।।
अर्थात् अक्षय वट का मूल
किसी काल में नष्ट नहीं होता, इसकी अक्षयता के
गीतसर्वदा ब्राह्मण गण गाते रहते हैं और इस वृक्ष के पास
पितरों के लिए दिये गए अन्न का कभी नाश नहीं होता।
२८ जून २०१०
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