कदंब के फूलों तथा फलों
से बनी मदिरा को कादंबरी कहा जाता है। इसके फूलों को काली
देवी की पूजा में अवश्य चढ़ाया जाता है, क्यों कि ये देवी
को अत्यंत प्रिय हैं। महार्णव तंत्र में उन्हें कदंब वन
में विचरने वाली देवी कहा गया है। वे कदंब वृक्ष में ही
वास करती हैं और कादंबरी का पान करती हैं। ब्रह्माण्ड
पुराण में ललिता देवी अर्थात माता पार्वती को भी कदंबेशी
और कदंब वासिनी माना गया है। भागवत पुराण के अनुसार विष्णु
कदंब पुष्पी रंग के वस्त्र पहनते हैं। कालिदास ने रघुवंश
में राजा अग्निर्ण को कदंब के केसर का लेप लगाकर मदमस्त
मयूरों के बीच घूमते बताया है। विक्रमोर्वशीयम में
उन्होंने लिखा है कि उर्वशी के चले जाने पर पुरुरवा
कदंब के वृक्षों को देखकर कहता है कि कदंब के फूलों से
मेरी प्रिया ने अपने बालों को सँवारा
है। 'मेघदूत` में वे अलकापुरी की यक्ष नारियों द्वारा कदंब
पुष्पों से अपने केशों को सजाने का उल्लेख करते हैं। नीच
नामक पहाड़ी पर पुष्पित कदंब वृक्षों के ऊपर रुककर विश्राम
करने की सलाह भी कालिदास ने मेघों को दी है। कुमारसंभव में
प्रणयरत पार्वती के मुखारविंद पर लज्जा की हलकी लालिमा को
कदंब फूलों की उपमा दी गई है। इसके फूलों के प्रति नारियों
के गहरे आकर्षण का भी विवरण मिलता है जिसमें कहा गया है कि
उत्तर भारत की स्त्रियाँ कदंब जैसी
मणि पहनती हैं।
बाणभट्ट की कादंबरी की
नायिका कादंबरी है। विज्ञानी आर्यभट्ट ने पाँचवीं
सदी में पृथ्वी को गोल और सूर्य की परिक्रमा लगाने वाला
ग्रह बताया, तो उनके आलोचकों ने पूछा, यदि पृथ्वी गोल है
और घूमती है तो उस पर रहने वाले नीचे क्यों नहीं टपकते! तब
आर्यभट्ट ने कहा, जिस प्रकार गोलाकार कदंब पुष्प की केशर
नीचे नहीं गिरती उसी प्रकार प्राणी और वस्तुएँ
पृथ्वी के बंधन यानी गुरुत्वाकर्षण से नीचे नहीं गिरती।
भारवि, माघ, भवभूति ने भी कदंब का सम्मानजनक वर्णन किया
है। बौद्घ और जैन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। इस
तरह पौराणिक कथाओं में तो कदंब का उल्लेख मिलता ही है
समकालीन कवियों और साहित्यकारों ने भी इसे अपनी रचना का
विषय बनाया है। आधुनिक युग के कवियों में सुभद्राकुमारी
चौहान की कविता कदंब का पेड़ में भी उन्होने यमुना किनारे
कदंब के पेड़ की बाल मन में होने वाली कल्पना का वर्णन
किया है।
वैष्णवों
के अलावा यह वृक्ष शैवों के लिए भी पूज्य है। दक्षिण
भारतीयों के अनुसार यह पार्वती का प्रिय है। इसीलिए वे
कदम्बवन में निवास करती हैं और उनका एक नाम कदंब
प्रियवासिनी भी है। कदंब पुष्पों से भगवान कार्तिकेय की
तथा इसकी सुकोमल टहनियों से भगवान शिव का पूजन किया जाता
है। मान्यता है कि इस पवित्र वृक्ष का पूजन करने से सुख,
समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। कदंब के पेड़ को
बौध धर्म का पेड़ भी कहा जाता है। एक और पौराणिक
कथानुसार बिछुड़े हुए प्रेमियों को मिलाने में भी कदंब की
महत्ता है।
उत्तरी कर्नाटक के
प्राचीन क्षेत्र बनवासी में ३४५ से
५२५ ईसवी तक राज्य करने वाले कदंब
शासकों का भी इस वृक्ष से गहरा संबंध माना जाता है। तुलु
ब्राह्मणों के इतिहास का वर्णन करने वाले एक ग्रंथ ग्राम
पद्धति के अनुसार कदंब वंश के प्रवर्तक मयूर शर्मा का जन्म
कदंब के पेड़ के नीचे हुआ था। इसी कारण उनके साम्राज्य में
कदंब के पेड़ की धार्मिक मान्यता थी और इसकी पूजा की जाती
थी। कदंब को मुन्डा भाषा में करम या कैम भी कहते हैं।
कदंब-करम किसानों का एक बहुत ही लोकप्रिय त्योहार है। यह
भादों की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। कदंब
वृक्ष की एक डाली को घर के आँगन में स्थापित कर उसकी पूजा
की जाती है और उसी शाम कदंब की नई डालियों को मित्रों व
संबंधियों में वितरित किया जाता है। कदंब के ऐतिहासिक तथा
सामाजिक महत्त्व के कारण ही कर्नाटक राज्य द्वारा
प्रतिवर्ष बनवासी में कदंब-उत्सव आयोजित किया जाता है।
ज्योतिष में भी कदंब को
महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हज़ारों जड़ी बूटियों में से
चुनकर २७ वनस्पतियों को
२७ नक्षत्रों के लिए शुभ माना गया
है। इनमें से कदंब को शतभिषा नक्षत्र के लिए चुना गया है।
१३ जुलाई
२००९