मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से



रूप का रखवाला घूँघट
कनीज भट्टी


किसी परंपरा के बनने में सदियाँ लगती हैं, तो उसके टूटने में उससे भी अधिक समय और साहस की ज़रूरत पड़ती है। यह बात पर्दा-प्रथा पर भी लागू होती है। धीरे धीरे घूँघट को नकारा जा रहा है। नारी का कार्य क्षेत्र रसोईघर से ऑफ़िस तक प्रसारित हो जाने के कारण भी पर्दा उपेक्षित हुआ। कामकाजी महिलाओं के लिए अब यह अनुकूल नहीं रहा है। बतौर फैशन के नगरों में पर्दे का चलन बढ़ा भी है। युवतियाँ धूप एवं प्रदूषण से बचने के लिए दुपट्टे अथवा अन्य झीने वस्त्र से सारा मुखड़ा ढक कर चलती हैं, हाथों पर भी धूप के प्रभाव से बचने के लिए दस्ताने पहनती हैं। युवक भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं, वे पूरे चेहरे को नकाब से ढककर सड़कों पर वाहन चलाते नज़र आते हैं। दूसरी ओर अब शादियों में दुल्हनें भी बिना घूँघट के ही दिखाई देती हैं।

1
इस बात के नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों पहलू होते हैं। घूँघट को एक पक्ष से देखें तो कुछ फ़ायदे भी हैं, यथा-धूप और धूल से यह शरीर की रक्षा करता है। सूर्य पराबैंगनी किरणों के हानिकारक प्रभाव से हमें बचाता है। पर्दे के कारण चेहरे का रंग निखर जाता है। इससे बाल भी सुरक्षित रहते हैं और देर से श्वेत होते हैं। इसलिए कहावत प्रचलित है- 'धूप में ही बाल सफ़ेद नहीं किए हैं।' पर्दे की सुरक्षा में खूबसूरती बरकरार रहता है एवं लोगों की कुदृष्टि का शिकार भी सुंदरता नहीं हो पाती और फिर जिज्ञासा, दीदार का आनंद तो घूँघट से ही मिल सकता है। प्रायः मूर्तियाँ या अन्य नूतन वस्तुओं के अनावरण के लिए भव्य समारोहों का आयोजन किया जाता है। जब सब कुछ दृश्य है तो जिज्ञासा कहाँ रहेगी, इसीलिए तो मंदिरों के पट भी बंद रखे जाते हैं और समय-समय पर ही खोले जाते हैं। भगवान के शृंगार के जब अलग-अलग निश्चित वक़्त पर पट खुलते व बंद होते हैं, तब दर्शन का अलग ही माधुर्य अनुभूत होता है। चबूतरों पर अनावरित मूर्तियों के दर्शन प्रायः आध्यात्मिक आकर्षण का केंद्र नहीं बन पाते। दुल्हन जब घूँघट में होती हैं, तब उसे देखने के लिए सभी लालायित रहते हैं और फिर बेहद खूबसूरती क़यामत भी तो बन जाती है-
''ये हुस्न जो कातिल है, क़यामत है, कजा है।
घूँघट ही में अच्छा है कि दीदार न कर यूँ।''

पर्दे का दूसरा पक्ष तो ग़ौरतलब है ही। घूँघट में कैद आँखों को बाहर की दुनिया अस्पष्ट नज़र आती है और बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएँ पेश आ जाती हैं। कभी-कभी तो दो बारातों के एक साथ होने पर दुल्हनें बदल जाने की ख़बरें भी अख़बार में मिल जाती हैं। घूँघट के कारण स्त्रियाँ कूप मंडूक होकर रह जाती हैं। बाहरी दुनिया से बेखबर केवल साँसभर लेना उनका जीवन रह जाता है। इसके अलावा पर्दे में घुटन भी होती है। गर्मी का प्रकोप भी सहना पड़ता है। वैसे घूँघट करने के अलग-अलग अंदाज़ हैं। कुछ स्त्रियाँ सिर्फ़ आँखों तक पर्दा करती हैं, तो कुछ नाक तक आँचल ढके रहती हैं, कुछ स्त्रियाँ ठोड़ी तक तो कुछ उससे नीचे लंबा घूँघट काढ़ती हैं तो कोई बगल से आधा मुख ढककर रखती हैं और फिर इसके अंदर से झाँकने के अंदाज़ के तो कहने की क्या...।

नग्नता सदैव कुरूप ही होती है और अर्धदर्शिता सौंदर्य का प्रतीक। चंद्रमा अपनी कलाओं के आधार पर ही सुंदरता का श्रेष्टतम उपमान बन गया है। प्रथमा से चौदहवीं के चाँद तक घूँघट का उतार-चढ़ाव चाँद की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। पूर्ण चंद्र के सौंदर्य का उपमा में उपयोग नहीं किया जाता।
''तेरे मुख पर तेज सत्य का, दाग नहीं तेरे चेहरे पर, तेरे आगे सूरज मद्धम, कैसे कह दूँ, माहज़बीं तू।''

वस्तुतः घूँघट स्त्रैण सौंदर्य का अनुवर्द्धक ही है- ''आँखों तक आ के जब आँचल ठहरा, ये लगा झील पे बादल ठहरा।''
वैसे घूँघट का सदुपयोग व दुरुपयोग दोनों संभव हैं और यह कार्य पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी अंजाम देती आई हैं। कोई-कोई स्त्री तो अंगुलियों से तिकोनी जगह बनाकर एक आँख से जब देखती है, तब घूँघट की अनिर्वच सुषमा का वर्णन करने में कवि-शायर भी पीछे नहीं रहे। घूँघट के अभिराम लावण्य का अपने ही ढंग से बखान किया  है-
''सबब खुला है यही उनके मुँह छुपाने का, चुरा न ले कोई अंदाज़ मुस्कुराने का।''
घूँघट एक तरफ़ मान मर्यादा और लज्जा का प्रतीक भी है, तो दूसरी तरफ़ कई प्रकार की दुर्घटनाओं का जनक भी। अतः अनावश्यक पर्दाप्रथा से मुक्त होकर ऐसी दुर्घटनाओं में कमी की जा सकती है। किंतु हाँ, समय के अनुकूल परिवर्तन स्वीकारना ही मानव कल्याण के लिए उचित है। जहाँ ज़रूरत हो पर्दा करने में कोई नुकसान नहीं है, लेकिन प्रथा मात्र को हर वक़्त ढोते रहना असंगत ही कहा जाएगा। अंततः यही कहा जा सकता है कि-
'निगाहे-नाज़ का सिंगार भी यही घूँघट, बने जो बोझ तो आजार भी यही घूँघट।
यही है लाज का, ग़ैरत का आस्ताना,
'यकीन', फरेबे-हुस्न का बाज़ार भी यही घूँघट।''

१६ नवंबर २००९

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।