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भारतीय
संस्कृति में डूबा एक फ़्रांसीसी परिवार
डॉ. ओमप्रकाश पांडेय
पेरिस में, अतिथि
आचार्य के रूप में नियुक्त होकर आने पर, मुझे जिन
फ्रांसीसी परिवारों में विशेष आत्मीयता मिली, उनमें
प्रो. पियर सिल्वां फिलियोजा का परिवार प्रमुख है।
यहाँ एक जनवरी को नववर्ष की शुभकामनाएँ देनेवाले मित्र
तो बहुसंख्यक हैं, लेकिन चैत्र प्रतिपदा को विक्रम
संवत्सर के आरंभ होने पर बधाई देनेवाले केवल पियर एवं
उनकी पत्नी वसुंधरा जी ही हैं। इस दिन मुझे उनके घर पर
भोजन करने के साथ ही नव वर्षारंभ के उपलक्ष्य में
आयोजित पूजा में मंत्र-पाठ करने का आमंत्रण भी मिलता
है। इस परिवार की दो पीढ़ियों ने संस्कृत-विद्या के
अनुशीलन में निरंतर अपने को संलग्न रखा है।
पौराणिक कथाओं का अनुवाद
पियर के पिता प्रो.
जाँ फिलियोजा अपने समय में प्राच्य विद्याओं के
विश्वविख्यात विद्वान थे। ४ नवंबर १९०६ ईं को पेरिस
नगर में जन्मे जाँ फिलियोजा अपनी बाल्यावस्था में ही
भारतीय संस्कृति की ओर आकृष्ट हो गए। उनके इस आकर्षण
का श्रेय १९वीं शती के फ्रांसीसी कवि लकोंत द'लिस्ले
को है, जिसने अनेक वैदिक और पौराणिक कथाओं को
फ्रांसीसी भाषा में अनूदित किया था।
जीविका की दृष्टि से
यद्यपि जाँ फिलियोजा ने चिकित्सा विज्ञान में डॉक्टर
की उपाधि प्राप्त करके नेत्र चिकित्सक के रूप में सन
१९३० में व्यवसाय प्रारंभ कर दिया, जो १९४७ कर चलता
रहा, लेकिन संस्कृत का अनुराग भी उनमें निरंतर बना
रहा। यहाँ तक कि, जिन दिनों वे चिकित्सा विज्ञान के
छात्र थे, तब भी संस्कृत, तमिल और तिब्बती भाषाएँ
सीखने का क्रम अनवरत चलता रहा। प्राच्य विद्याओं के
उनके प्रमुख गुरु थे सुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. सिल्वां
लेवी, जो गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के आमंत्रण पर कुछ
वर्षों तक शांति निकेतन में भी रहे थे। |
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चिकित्सा-विज्ञान में विशेष
रुचि होने के कारण जाँ फिलियोजा का ध्यान स्वाभाविक रूप से
सर्वप्रथम आयुर्वेद की ओर आकृष्ट हुआ। उन्होंने आयुर्वेद
के संस्कृत-ग्रंथों का गंभीर अध्ययन तो किया ही, साथ ही,
जापान तक फैले उसके स्वरूप का संधान भी किया। सन १९४९ में,
अर्थात ५० वर्ष पूर्व प्रकाशित उनका ग्रंथ 'भारतीय
चिकित्सा शास्त्र के सिद्धांत', इस क्षेत्र में उनकी गंभीर
गवेषणा का द्योतक है। मूलतः फ्रांसीसी में लिखे गए इस
ग्रंथ का अब तक अंग्रेज़ी सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हो
चुका है। प्राण विज्ञान का विशिष्ट प्रतिपादन इस ग्रंथ की
मौलिक उपलब्धि है, जिसका मूलाधार अथर्ववेद संहिता में
निहित है। अपने इस ग्रंथ के माध्यम से उन्होंने दुनियाभर
में फैले इस भ्रम का खंडन सप्रमाण किया कि समस्त विज्ञानों
की उद्गम भूमि यूनान है।
जाँ फिलियोजा को भारत की
लगभग सभी लिपियों की भलीभाँति जानकारी थी। हस्तलेखों के
सूची-पत्रों के प्रकाशन के अनंतर, उन्होंने स्व. प्रो. लुई
रेनू के साथ 'लैंद क्लासिक' नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें
सातवीं शती ई. तक का भारतीय इतिहास वर्णित है।
सन १९४१ में जाँ फिलियोजा
पेरिस के विशिष्ट विद्या संस्थान 'एकोल प्रातीक' में
भारतीय विद्याओं के प्राध्यापक हो गए। सन १९४७ में वे,
चिकित्सा व्यवसाय को तिलांजलि देकर पूरी तरह भारतीय
विद्याओं के शिक्षण और अनुसंधान में संलग्न हो गए। सन १९५२
में वे कॉलेज द फ्रांस में, जो फ्रांस का सर्वोच्च
वैज्ञानिक शोध संस्थान है, भारतीय विद्या के प्रोफेसर
नियुक्त हुए। सन १९६६ में वे फ्रांस और ब्रिटेन गए। सन
१९५२ में वे कॉलेज द फ्रांस में, जो फ्रांस का सर्वोच्च
वैज्ञानिक शोध संस्थान है, भारतीय विद्या के प्रोफेसर
नियुक्त हुए। सन १९६६ में वे फ्रांस और ब्रिटेन की
विद्वत्परिषदों, अकादमियों के सदस्य बने। १९८१ में काशी
हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद
उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त संस्कृत सहित अन्य प्राच्य
विद्याओं के क्षेत्र में कार्यरत दूसरी विशिष्ट और
विश्वस्तरीय संस्थाओं ने उन्हें विविध सम्मान प्रदान किए।
१९५६ में वे पेरिस के
विशिष्ट प्राच्यविद्यासंस्थान 'एकोल फ्रांसे द एक्सत्रीम
ओरियाँ' के डायरेक्टर नियुक्त हुए, जहाँ वे १९७७ तक
कार्यरत रहे। प्रो. जाँ फिलियोजा प्राकृतिक और
मानवविज्ञानों में समन्वय के भी पक्षधर थे। सन १९७६ में
पेरिस में उन्होंने इसी विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय
परिसंवाद का आयोजन किया था। अपनी पांडेचेरी यात्रा के समय
स्व. पं. नेहरू ने भी जाँ फिलियोजा के कार्य की प्रशंसा की
थी। उन्होंने फिलियोजा की एक पुस्तक 'राष्ट्र और परंपराएँ'
के अंग्रेज़ी संस्करण की भूमिका भी लिखी थी। सन १९६४ में,
अपनी चिर-यात्रा के समय में भी यह पुस्तक नेहरू जी के
सिरहाने रखी थी।
सन १९८२ में प्रो. जाँ
फिलियोजा का निधन हो जाने के बाद, उनके सुयोग्य पुत्र
प्रो. पियर सिल्वां फिलियोजा ने भी पिता के पदचिह्नों पर
चलते हुए संस्कृत के अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान को ही
अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। पेरिस की
सोरबोन युनिवर्सिटी के पुराने किंतु भव्य भवन में स्थित
'एकोल प्रातीक' में संस्कृत प्रोफेसर के रूप में नियुक्त
पियर फिलियोजा ने भी पिता के सदृश्य सुदीर्घकाल तक
पांडिचेरी संस्थान में कार्य किया है। प्रति वर्ष कुछ मास
वे नियमित रूप से भारत में अब भी बिताते हैं लेकिन अब भारत
में उनके निवास का मुख्य केंद्र है मैसूर।
पेरिस के मध्य भाग में
स्थित उनका आवास ३२, रयू शारलो एक मात्र वह स्थान है, जहाँ
आपको उन्मुक्त रूप से संस्कृत-संभाषण का अवसर और आनंद मिल
सकता है। फ्रांसीसी भाषा में उन्होंने संस्कृत-व्याकरण पर
भी एक सर्वोपयोगी ग्रंथ लिखा है। पियर फिलियोजा का यह
सौभाग्य है कि उन्हें अपने कार्य में निरंतर सहयोग प्रदान
करनेवाली विदुषी जीवन सहचरी के रूप में मिल गई हैं। ये हैं
बहन वसुंधरा जी, जो मूलतः १९६५ में कर्नाटक (मैसूर) से
पेरिस आई थीं शोधकार्य करने के लिए। आईं तो थीं पिता स्व.
प्रो. जाँ फिलियोजा के मार्गदर्शन में काम करने के लिए,
लेकिन जीवनभर के लिए बँध गईं उनके पुत्र पियर सिल्वां
फिलियोजा से।
वसुंधरा जी भी पेरिस में
संस्कृत भाषा, शिल्पशास्त्र और भारतीय संस्कृति के
अध्ययन-अध्यापन में निरंतर लगी रहती हैं। अपनी संस्था
'भारत संस्कृति संगम' के माध्यम से वे पेरिसवासियों को
भारतीय सांस्कृतिक गरिमा से परिचित कराने के लिए सदैव
कुछ-न-कुछ आयोजन करती ही रहती हैं।
२२ जून २००९ |