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साक्षात्कार

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मैंने हिंदी क्यों सीखी
महाकवि विश्वनाथ सत्यनारायण से मनवर सिंह रावत की बातचीत


१९५५ से १९६३ के काल के लिए, भारतीय ज्ञानपीठ का एक लाख रुपये का साहित्यिक पुरस्कार तेलुगू के शीर्षस्व साहित्यकार महाकवि विश्वनाथ सत्यनारायण को उनके महाकाव्य ‘श्री रामायण कल्पवृक्षम्’ पर दिया गया था, इस अवसर पर धर्मयुग की ओर से प्राध्यापक रावत ने हिंदी के संबंध में हुई उनकी महत्वपूर्ण भेंट-वार्ता की थी जो आज भी कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यहाँ वही भेंट वार्ता लगभग ५० वर्ष बाद एक बार फिर प्रस्तुत है-
लगभग दोपहर को विजयवाड़ा पहुँचते ही मैंनें ‘आदर्श लॉज’ में अपना सामान रखा और मैनेजर से विश्वनाथ जी का पता पूछा।
एक सज्जन अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में बोले, ‘‘तुमकूँ तेलुगू लिटरेचर का ग्रेट पोयट का दर्शन होना ?’’ उनके चेहरे पर विशेष उत्सुकता के भाव थे और वहीं से एक साइकिल-रिक्शा कर उन सज्जन के मार्गदर्शन में चला विश्वनाथ जी से मिलने।
घर पहुँचने पर पता चला कि विश्वनाथ जी घूमने चले गये हैं उनके लड़के द्वारा अगले दिन सबेरे ७ बजे का समय निश्चित हुआ।
अगले दिन पहुँचे और अमर्यादित समय का आश्वासन पा कर पहले मैंने उनसे साहित्यिक, शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि अनेक समस्याओं पर जानकारी प्राप्त करने के बाद भाषा-समस्याओं के बारे में प्रश्न किया।

प्रश्न: ‘‘राष्ट्रभाषा की समस्या के बारे में मैं आप के विचार जानना चाहता हूँ।’’
उन्होंने उल्टे मुझसे प्रश्न किया, ‘‘राष्ट्रभाषा से आपका मतलब ?’’
मैंने सहज भाव से कहा, ‘‘हिंदी।’’
वे बोले, ‘‘मैं हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा नहीं मानता।’’

प्रश्न: ‘‘लेकिन आप तो राष्ट्रीय एकात्मकता और भारतीय संस्कृति के अनन्य समर्थक माने जाते हैं। क्या आपके विचार से भारत के लिए किसी एक सर्वसामान्य राष्ट्रभाषा की आवश्यकता नहीं है ?’’
क्षण-भर शांत एवं स्वस्थ होते हुए वे बोले:-‘‘आवश्यकता होने से क्या होता है? आज इसकी चिंता ही कौन करता है कि समाज की क्या आवश्यकता है? जब हरेक को अपने स्वार्थ की पड़ी हो, तो राष्ट्रभाषा जैसे निरर्थक (अर्थात् जिनका आर्थिक उपयोग नहीं है) प्रश्नों पर कोई विचार कर भी कैसे सकता है?’’

प्रश्न: ‘‘यह तो सही है, पर आपने तो राष्ट्रभाषा का प्रश्न ही चक्कर में डाल दिया। क्या आप कृपया अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करके समझायेंगें?’’
‘‘मेरा दृष्टिकोण तो अत्यंत स्पष्ट है। पिछले ५० वर्षों से जो कुछ भी मैं साहित्य एवं समाज को दे पाया हूँ, उसके पीछे राष्ट्रभाषा ही तो सबसे बड़ी प्रेरणा-स्त्रोत रही है मेरी। राष्ट्रभाषा के बारे में मेरा दृष्टिकोण जरा भिन्न है। हमारे कई हिंदी-भाषी मित्र शायद उससे सहमत भी न होंगे। मैं संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा मानता हूँ।
‘‘किसी भाषा को राष्ट्रभाषा के पद पर पहुँचने के लिए उसे शब्द-भंडार, कल्पना-विलास तथा वैज्ञानिक विषयों के अनुरूप समृद्ध होना चाहिए। वह ऐसी भाषा हो, जिसे भारत का प्रत्येक व्यक्ति, ग्राम अथवा नगर अपना मान सके, अर्थात जिसकी जड़ें देश के कोने-कोने में लोक-जीवन में बहुत गहराई तक अंदर प्रवेश कर चुकी हों। क्या हिंदी ऐसी स्थिति तक पहुँच चुकी है?’’

प्रश्न: ‘‘लेकिन क्या आपके विचार से आज संस्कृत को सामान्य व्यवहार के अनुरूप केंद्रीय शासन और अंतरराज्जीय भाषा बनाया जा सकता है?’’
‘‘हाँ, यह प्रश्न दूसरा है। मेरे अध्ययन के अनुसार विदेशी शासकों ने संस्कृत को व्यावहारिक उच्च आसन से गिरा दिया है। राष्ट्रभाषा होने योग्य सभी विशिष्ट गुणों पर गंभीरता से विचार करने पर अंततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी ही उस पद के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
‘‘आप चाहे अपने उत्तरप्रदेश के लिए जिस हिंदी का भी उपयोग करें बाहर वालों को उसमें कोई विशेष आपत्ति नहीं होगी, पर जब आप राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की चर्चा करते हैं, तो आपकी भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो सबको समानरूप से सहज ग्राह्य हो सके। संस्कृत हजारों वर्षों से भारतीय जन-जीवन की, उसकी संस्कृति की आत्मा को वहन करती आ रही है, उससे उदभूत उसकी उत्तराधिकारिणी भाषा ही भारत की राष्ट्रभाषा बन सकती है। हिंदी को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिए उसे संस्कृत को मुख्य आधार मानकर चलना पड़ेगा।’’

प्रश्न: ‘‘तो आप कैसी हिंदी चाहते हैं?’’
‘‘हम ऐसी हिंदी चाहते हैं, जो सबका खयाल रखती हो, ताकि सब उसका खयाल रख सकें। ऐसी हिंदी जिस पर किसी प्रदेश विशेष के लोग दावा न कर सकें। जिसके निर्माण व विकास में सभी देशवासियों को भाग लेने का समान अवसर मिल सके। संस्कृत से उद्भूत अथवा प्रभावित तो बँगला, मराठी, तमिल, तेलुगू आदि समर्थ भारतीय भाषाएँ हैं, पर इनमें आञ्चलिकता एवं प्रादेशिकता के प्रति इतनी गहरी ममता प्रतीत होती है कि अखिल भारतीय स्तर पर उनका विकास सहज संभव प्रतीत नहीं होता। इतिहास इसका प्रमाण है (मैं भारतीय इतिहास व संस्कृति का स्वतंत्र शोधार्थी रहा हूँ।) कि हिंदी के अतिरिक्त कोई भी अन्य भारतीय भाषा भौगोलिक दृष्टि से अपनी आञ्चलिक मर्यादाओं का अतिक्रमण कर राष्ट्रव्यापी स्वरूप को धारण करने में सफल नहीं हुई। इसी आधार पर तो स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय आदि अहिंदी-भाषी नेताओं ने भी अखिल भारतीय व्यवहार के लिए हिंदी का प्रचार किया।’’

प्रश्न: ‘‘हिंदी के प्रति ऐसा उदार दृष्टिकोण होने पर भी आप उसे राष्ट्रभाषा क्यों नहीं मानते?’’
‘‘संविधान द्वारा देवनागरी लिपि में संस्कृतनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिये जाने पर भी जिसके स्वरूप-निर्धारण के संबंध में अभी तक विद्वानों और नेताओं के बीच विवाद समाप्त न हुआ हो, उसके भावी रूप का निश्चित एवं सक्रिय आश्वासन मिले बिना मन में संदेह रहना स्वाभाविक है। जिस हिंदी को आप राजभाषा भी नहीं बना सके, उसे मैं संपूर्ण देश की अंतरात्मा को वहन करने वाली राष्ट्रभाषा अभी कैसे मान लूँ? अहिंदी-भाषियों को हिंदी पढ़ने में होने वाली कठिनाइयों का मैं भुक्तभोगी हूँ। इसलिए आपके व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ये बातें कह रहा हूँ।’’

प्रश्न:‘‘तो आपने भी कभी हिंदी सीखने की कोशिश की है?’’
‘‘हाँ, कोशिश तो दो बार की थी, पर सीख एक ही बार सका और वह भी अधूरी। पहली बार मैंने सन् १९३४ में हिंदी सीखना शुरू किया था, गाँधी जी की प्रेरणा से हिंदी-प्रचार को राष्ट्रीय आँदोलन का अंग मान कर। पर कुछ कठिनाइयों के कारण उसका क्रम टूट गया। फिर सन् १९५८ में ६३ वर्ष की अवस्था में मैंने २ वर्ष तक हिंदी के लिए कुछ समय निकाला। प्रा. पी. वी. आचार्य मेरे हिंदी शिक्षक थे, जिन्होंने मुझे ‘रामचरित मानस’ जैसे महान ग्रंथ का सही परिचय कराया। मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि मैं कभी हिंदी का अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा। मैं केवल इतनी ही हिंदी जानता हूँ जितनी कभी-कभी अंग्रेजी बातचीत के बीच में आपके साथ बोल रहा हूँ’’ फिर वे मुस्कराते हुए विनोदी मुद्रा में बोले, ‘‘वैसे इससे पहले मैं सोचता था कि मुझे ६०-७० प्रतिशत हिंदी तो आती ही है, क्योंकि साहित्यिक हिंदी की इतनी शब्दावली तो संस्कृत और तेलुगू के साहित्यिक ज्ञान के कारण मुझे मालूम ही है। पर बाद में हिंदी का व्याकरण पढ़ने पर पता लगा कि शेष ३०-४० प्रतिशत ही असली हिंदी है और इस ३० प्रतिशत ने ही मुझे ज्यादा परेशान किया। अब तो हम जैसे वृद्धों से नहीं, आप जैसे युवकों द्वारा यह कार्य पूरा होगा।

प्रश्न: ‘‘पर युवकों का मार्गदर्शन तो आप जैसे अनुभवी लोग ही करेगें। क्या आप हिंदी-प्रचार के लिए कोई रचनात्मक सुझाव दे सकते हैं?’’
‘‘मेरी कौन सुनेगा? यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि भाषा और शिक्षा के मामले में भी विद्वान साहित्यकार एवं अनुभवी शिक्षाशास्त्रियों की राय के बजाय राजनीतिक नेताओं को सनक तथा अस्थिर नीति को ज्यादा महत्व दिया जाता है यदि मेरी राय का मूल्य हो तो मैं कहूँगा जिस प्रकार संस्कृत को आज भी हम ‘धर्म की भाषा’ मानते हैं, उसी प्रकार यदि हिंदी को भी दृढ़ निश्चय के साथ अंतर-प्रांतीय स्तर पर युगधर्म के अनुरूप शिक्षा एवं विकास-योजनाओं के माध्यम की भाषा मान कर निष्ठा से काम किया जाये तो कुछ ही वर्षों में हम जैसों की शिकायतें अपने आप दूर होती दिखाई देंगी।’’
प्रश्न: ‘‘तो क्या आपके विचार में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है?’’
‘‘किंतु उज्ज्वल प्रकाश में भी यदि हम स्वयं आँख मूँद कर चलें, तो रास्ता सही होने पर भी आपस में टकराने से कैसे बच सकते हैं। मेरे विचार से इस संबंध में मेरा दृष्टिकोण प्रायः स्पष्ट हो गया होगा।’’
और जाते समय मेरे नमस्कार का उत्तर देते हुए वे बोले, ’’मैंने अपनी प्रारंभिक काव्य-रचना हिंदू हाई स्कूल (अब कॉलेज) मछलीपट्टम के छात्र के रूप में ही की थी। वहाँ हम लोग रेल की पटरियों पर बैठ कर काव्य-रचना किया करते थे।’’

८ सितंबर २०१४

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