व्यंग्यात्मक
उपन्यास 'तबादला' के लेखक विभूति नारायण राय के
साथ गौतम सचदेव की 30 जून की शाम को एक
अन्तरंग बातचीत हुई। वे इन्दु शर्मा अन्तर्राष्ट्रीय
सम्मान ग्रहण करने के लिए लंदन पधारे थे। यह
बातचीत भारतीय हाई कमीशन के हिन्दी और संस्कृति
अधिकारी अनिल शर्मा के घर पर हुई, जिसमें
यशस्वी रचनाकार रवीन्द्र कालिया भी उपस्थित थे।
उनके अतिरिक्त इस गोष्ठी में जो अन्य लोग उपस्थित
थे, उनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, न्यू यॉर्क से आईं
उपन्यासकार सुषम बेदी और उनके पति राहुल बेदी,
लंदन के डॉ पद्मेश गुप्त, डॉअचला शर्मा,
कैलाश बुधार, तेजेन्द्र शर्मा, केसीमोहन
और रमेश पटेल। गौतम सचदेव ने व्यंग्य,
व्यंग्य के तेवर और मुख्य तत्व, व्यंग्य की समीक्षा
और उसके मानदंड, व्यंग्य और हास्य तथा भ्रष्ट
समाज में व्यंग्यकार की भूमिका जैसे व्यंग्य से
सम्बन्धित अनेक पक्षों पर कई सवाल किए और
सम्मानित उपन्यासकार से उनकी रचनाप्रक्रिया को
लेकर भी विचारविनिमय किया। प्रस्तुत है उस
बातचीत का संक्षिप्त रूपान्तर।
गौतम
मेरा आपसे सबसे पहला सवाल यह है कि क्या
व्यंग्य एक स्वतन्त्र विधा है, या अन्य विधाओं को
धारदार बनाने का कोई अस्त्र या औज़ार है?
विभूति नारायण राय यह बड़ा कठिन सवाल है,
क्योंकि हिन्दी में व्यंग्य को बहुत सम्मान की दृष्टि
से नहीं देखा गया और दोएक लेखकों को छोड़कर
बाकी को बहुत सीरियसली नहीं लिया गया। परसाई
जी इसके एक उदाहरण हैं। शरद जोशी, रवीन्द्र त्यागी
और श्रीलाल शुक्ल जैसे तीनचार नाम और भी
हैं, जिन्हें सम्मान के साथ याद किया जाता है।
इनमें श्रीलाल शुक्ल पूरी तरह से व्यंग्य ही नहीं,
और चीज़ें भी लिखते हैं। यह भी सही है कि दूसरी
विधाओं के बहुत सारे कवि, बहुत सारे गद्यलेखक,
जो उपन्यास लिख रहे हैं, कहानियां लिख रहे हैं,
वे कहींनकहीं व्यंग्य का इस्तेमाल करते हैं।
इसलिए व्यंग्य को एक स्वतन्त्र विधा कहा जाए या नहीं,
इसको लेकर ख़ुद मेरे मन में ही शंकाएं हैं। हास्य
या चुटकुले व्यंग्य नहीं होते। व्यंग्य में करूणा
की एक धारासी अन्तर्निहित होती है कि आप
हंसतेहंसते रोने लगते हैं या तिलमिला जाते
हैं।
गौतम
मेरी अपनी धारणा भी यही है कि व्यंग्य अन्य
विधाओं की आड़ लेकर या एक तरह से उनके कंधे पर
बंदूक रखकर चलाता है। इस दृष्टि से किस या किन
विधाओं में व्यंग्य अधिक पैना या धारदार होता है?
विना राय मुझे लगता है कि व्यंग्य का
इस्तेमाल गद्य में ही हो सकता है। गद्य में भी नाटक,
रिपोर्ताज़, संस्मरण आदि की तुलना में कथा
साहित्य में उपन्यास में और कहानी में भी सबसे
ज़्यादा हो सकता है। कविता में शायद उतना नहीं हो
सकता, हालांकि रघुवीर सहाय जैसे बड़े कवि उसका
ख़ूब इस्तेमाल करते हैं, जबकि अज्ञेय नहीं करते,
क्योंकि इनमें अपनेअपने व्यक्तित्व का भी फ़र्क है।
गौतम
व्यंग्य के मुख्य तत्व क्या हैं भाषाशैली, लेखक की
प्रवृति, उसका तेवर या पैंतरा, या व्यक्तित्व?
मुख्य रूप से वह कौनसी चीज़ या चीज़ें हैं,
जो किसी रचना को व्यंग्य का दर्जा दिलाती हैं?
विना राय जैसे कहानी क्या है, इसके
बारे में बताते हुए कहा जाता है कुछ अस्ल है, कुछ
ख़्वाब है, कुछ तर्ज़े बयां है। इसमें जो तर्ज़े
बयां है, वह व्यंग्य को दूसरी विधाओं से अलग
करता है, लेकिन जैसा कालिया जी ने याद दिलाया,
इसमें लेखक की दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है। परसाई
जी के पास यह दृष्टि है। काका हाथरसी और सुरेन्द्र
चतुर्वेदी आदि की कविताओं, और हंसी तथा
चुटकुलों को सुनकर आप थोड़ी देर के लिए हंस
सकते हैं, लेकिन उनमें दृष्टि का अभाव है, कोई
सपना या विज़न नहीं है। ये हंसनेहंसाने,
टाइम पास करने के लिए हैं, लेकिन व्यंग्य टाइम
पास करने वाली विधा नहीं है।
गौतम
व्यंग्य का मिज़ाज बखिये उधेड़ने, चोट करने या
पोल खोलने वाला होता है वह कड़ुवा सच बोलता
है। उसको पढ़कर कई लोगों को बुरा भी लगता है,
लेकिन व्यंग्य में वह क्या चीज़ होती है, जिसके
कारण पाठक तिलमिलाकर भी उसे उत्सुकता से पढ़ता है?
सीधे आपसे पूछें तो आपने तबादला को रोचक या
पठनीय कैसे बनाया?
विना राय मेरा यह मानना है कि
व्यंग्य केवल चोट पहुंचाने का माध्यम नहीं हो
सकता। उसमें कहींनकहीं सहानुभूति भी होती
है। भारतीय समाज को लीजिए। उसमें लोग आम
तौर पर लंगड़े, लूले, अंधे या कोढ़ी को देखकर
हंसते हैं या उससे घ़ृणा करते हैं। उसको पीछे से
चपत लगाकर भाग जाते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी
समाज में जिसे कम्पैशन कहते हैं, उसका सही अर्थ
मुझे यहां आकर ही समझ में आया। यहां ऐसे
लोगों को पीछे से कोई चपत लगाकर नहीं भागता।
हमारे समाज में कम्पैशन नाम की परम्परा नहीं है।
मुझे लगता है कि व्यंग्य कम्पैशन की उसी परम्परा का
एक हिस्सा है। आप जिसके ऊपर हंस रहे हैं, जिसको
चोट पहुंचा रहे हैं, उसके लिए भी आपके मन में
किसी तरह की घृणा नहीं है। आप स्थितियां ऐसी क्रियेट
कर रहे हैं, जिसका मज़ा तो आप ले रहे हैं, पर
कहीं न कहीं आपके मन में उस पात्र के लिए
सहानूभूति है।
गौतम
हिन्दी में व्यंग्य के नाम पर अधिकतर हास्य ही मिलता
है। मेरे विचार में हास्य व्यंग्य को भोथरा या
हल्का करता है। क्या आपके विचार में व्यंग्य में हास्य
का कोई स्थान है?
विनाराय असल में हास्य और व्यंग्य के
बीच बड़ी बारीक लाइन है, लेकिन यह बात सही है
कि सिर्फ़ हास्य कोई बहुत गंभीर और सम्मानजनक
रूप से स्वीकृत होने वाली विधा नहीं है। अंधे,
लूले और लंगड़े का मज़ाक उड़ाना एक बहुत ही
फूहड़, एक बहुत ही अमानवीय किस्म का मज़ा है,
मनुष्य से नीचे की स्थिति है। व्यंग्य में कम्पैशन
है। मेरे लिए इसका एक बड़ा उदाहरण गोर्की है। उसके
चरित्र दलाल हैं, रंडियां हैं, डकैत हैं, भिखमंगे
हैं, कोढ़ी हैं, लेकिन इनमें किसी चरित्र के प्रति
उसके मन में घृणा नहीं है। उसे लगता है कि
मनुष्य से नीचे की स्थितियों के लिए परिस्थितियां
ज़िम्मेदार हैं और इसमें हमेशा एक गुंजाइश है कि
यह व्यक्ति इससे बेहतर इनसान हो सकता है यानि
गोर्की की दृष्टि सबसे महत्वपूर्ण है। आपने हास्य
और व्यंग्य के बारे में जो पूछा, उनमें सबसे
ज़रूरी एलिमेंट दृष्टि का है।
गौतम
यह जिस दृष्टि की बात आपने कही, क्या यह लेखक का
प्रच्छन्न आदर्शवाद नहीं है?
विनाराय हां है। बिना आदर्शवाद के
साहित्य कैसे होगा? बिना आदर्शवाद के आप बड़ा
साहित्य नहीं रच सकते।
गौतम
क्या हिन्दी में व्यंग्य की सही समीक्षा हो रही है?
उसको परखने या उसकी समालोचना करने के सही
मानदंड मौजूद हैं या बन चुके हैं?
विनाराय मैं मानता हूं कि आलोचना की
दृष्टि से हिन्दी दरिद्र है। हमारे यहां तो कविता और
कहानी की आलोचना के औज़ार भी नहीं हैं। बहुत
सारी चीज़ें हमने पश्चिम से ली हैं। एक नामवर
सिंह हैं, जो सब तरह का ठेका लेकर बैठे हैं।
मैंने नाम लिया, लेकिन नाम लेने की ज़रूरत
नहीं है, इस तरह के बहुत सारे लोग हैं। इस तरह के
सारे हैंडिकैप्स व्यंग्य के साथ भी हैं।
गौतम
क्या हिन्दी में लोग व्यंग्य को ठीकठीक समझते हैं?
विनाराय मुख्य धारा के लेखकों में
शायद एक शरद जोशी हैं, जिन्होंने कई वर्षों तक
नियमित रूप से नवभारत टाइम्स में कॉलम लिखा,
जिसे ख़ूब पढ़ा गया। उनके कैसेट भी बिके। सो,
ऐसा नहीं है कि लोग व्यंग्य को समझते नहीं हैं,
लेकिन बात वही है। हिन्दी में अच्छी कविता कितनी पढ़ी
जाती है? कविसम्मेलनों के चुटकुलेबाज़ या लतीफ़ेबाज़
कवि ज़्यादा सुने जाते हैं, लेकिन इससे वे
मुख्य धारा के कवि तो नहीं हो जाते।
गौतम
क्या व्यंग्य भी एक स्थिति के बाद व्यर्थ, बेअसर या
बेमानी नहीं हो जाता? लोग कहने लगते हैं कि
लेखक ही तो है। बकता है, बकने दो। अगर ऐसी बात
नहीं, तो जिन भारतीय स्थितियों पर व्यंग्य किया
गया या किया जाता रहा है, उनमें पिछले
सतावन वर्षों में बिगाड़ ही आया है,
सुधार तो दिखाई देता नहीं।
विनाराय (हंसकर) यह ठीक है कि हमारे अन्दर
एक ख़ास तरह का सिनिसिज्म आ जाता है, हम निराश
हो जाते हैं। लेकिन हम सिर्फ़ व्यंग्य से ही निराश
क्यों हों? हमारी कहानियां और कविताएं भी कहती
रही हैं कि इस समाज को बदलो, लेकिन अगर कुछ
चीज़ें बदली नहीं हैं, तो इसका मतलब यह नहीं
है कि कहानी या कविता का मतलब समाप्त हो गया।
यह आप सही कहते हैं कि यह सिनिसिज़्म व्यंग्य में
ज्यादा तेज़ आता है, क्योंकि व्यंग्य एक ऐसी विधा
है, जिसमें आप बहुत डाइरेक्ट हो जाते हैं। यहां
आप सीधेसीधे चीज़ों को नोट करते हैं,
अंडरलाइन करते हैं, उन पर प्रहार करते हैं। इसमें
लिखने वाले और पढ़ने वाले, दोनों में
सिनिसिज्म आता है। लेकिन फ़र्क़ ज़रूर पड़ता है।
मैंने अपने समेत एक पूरी जैनरेशन को हरिशंकर
परसाई को पढ़कर जवान होते दैखा है। हमारे बहुत
सारे संस्कार, बहुत सारी समझदारी परसाई जी की
वजह से विकसित हुई।
गौतम
व्यंग्य बड़ी शक्तिशाली चीज़ है, जिसे हिन्दी
साहित्य के आधुनिक काल के आरम्भ में ही प्रतिष्ठा
प्राप्त हो गई थी उस काल के विषय चाहे जो भी
रहे हों, लेकिन आगे चलकर उसके परिपक्व होते
जाने के बावजूद क्या हिन्दी साहित्य में व्यंग्य का
अकाल नहीं है?
विनाराय देखिए मैं इस प्रश्न से पूरा
सहमत नहीं हूं, क्योंकि बहुत लोग लिख रहे हैं।
इससे पहले इन्दु शर्मा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान पाने
वाला उपन्यास बारहमासी भी एक बड़ा उपन्यास है।
गौतम
लेकिन जिस परिमाण में कविताएं, कहानियां और
उपन्यास लिखे जा रहे हैं, क्या उनकी तुलना में
व्यंग्य लगभग नगण्य नही है?
विनाराय हां है, लेकिन मुझे आश्चर्य
इस बात पर होता है कि हम जिस समाज या हिन्दी
समाज में रहते हैं, उसमें व्यंग्य लिखने का स्कोप
बहुत है, क्योंकि बहुत सारी चीज़ों को देखकर
लगता है कि इनमें कुछ गड़बड़ है। यह सही है कि
उनपर नहीं लिखा गया।
गौतम
क्या आप परसाई को सबसे बड़ा व्यंग्यकार मानते
हैं?
विनाराय देखिए, जब आप साहित्य की
दुनिया में आते हैं, तो आपके सामने
कोईनकोई आदर्श होता है, कोईनकोई
ऐसा व्यक्ति होता है, जिसे देखकर आप सोचते हैं कि
अगर मैं वहां तक पहुंच जाऊं, तो मैं सफल हूं।
तो, परसाई जी की तो बात ही और है। वैसे और
भी बड़े नाम हैं। शरद जोशी हैं, रवीन्द्रनाथ
त्यागी हैं, श्रीलाल शुक्ल हैं। हालांकि साहित्य
में तुलना की कोई बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं
होती, फिर भी परसाई जी सबसे बड़े व्यंग्यकार
हैं। मैं उनसे निस्संदेह प्रभावित हुआ हूं।
गौतम
किसी भ्रष्ट समाज में लेखक की भूमिका क्या होती है?
क्या व्यंग्यकार बनकर वह एक बहुत ख़तरनाक खेल नहीं
खेलता और ख़्वाहमख़्वाह दुश्मनी मोल नहीं लेता?
विनाराय साहित्यकार तो वैसे ही बहुत
सारे लोगों से दुश्मनी मोल लेता है और अगर
वह दुश्मनी मोल नहीं लेगा, तो साहित्यकार नहीं
रहेगा। अगर आप तथाकथित बहुत ही निर्गुण और
सदाचारी साहित्य रचेंगे, तो वह साहित्य नहीं
होगा। साहित्यकार को तो दुश्मनी मोल लेनी ही
चाहिए। हां, व्यंग्यकार को निश्चित रूप से ज्यादा
दुश्मन मिलते हैं।
गौतम
आपका व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था, लेकिन
उसके बाद आपने यह व्यंग्यात्मक उपन्यास लिखा है।
आप व्यंग्यात्मक उपन्यास लिखने की ओर कैसे
प्रवृत हुए?
विनाराय देखिए, मैं एक बहुत आलसी लेखक
हूं। मैं जब तक अवॉयड कर सकता हूं, तब तक नहीं
लिखता। मैं बहुत धीरेधीरे लिखता हूं और गले में
कुछ अटक जाए तो जानता हूं कि अगर वह आज नहीं
लिखा गया, तो फिर कभी नहीं लिखा जाएगा। अभी तक
मेरे चार उपन्यास छपे हैं। मैं यह कोशिश करता हूं
कि हर उपन्यास की भाषा और उसकी ज़मीन अलग
होनी चाहिए। जब मैं तबादला उपन्यास लिख रहा था
और इसके नोट्स बना रहा था, तब मुझे लगा था
कि व्यंग्य इसके लिए सबसे सही, सबसे उचित और
सशक्त माध्यम रहेगा। मेरे इस उपन्यास में अब
पढ़ने पर लगता है कि बहुत कुछ अति नाटकीयता है,
यानि जिस तरह से दफ्तर है या रिश्वतख़ोरी है,
शायद सब उसी तरह से नहीं घटता, लेकिन उन
पात्रों को जो रिश्वत ले रहे हैं, जो दफ्तर में
काम कर रहे हैं और जो पूरा तन्त्र है, उसे जब तक आप
हास्यास्पद नहीं बनाएंगे, तब तक मामला कुछ
जमेगा नहीं।
गौतम
यानि अतिशयोक्ति ज़रूरी थी . . .
विनाराय नहीं इसे अतिशयोक्ति तो नहीं
कहूंगा। देखिए, चार्ली चैपलिन इसका सबसे बड़ा
उदाहरण है। उस ज़माने में हिटलर का बहुत आतंक था,
उसने एक ख़ास तरह का तिलिस्म बुना था। चार्ली
चैप्लिन पूरे ग्लोब को एक उंगली पर नचाकर इस
तिलिस्म को तोड़ देता है। इसी तरह से पिछले पचास
वर्षों में हमारे यहां जो ब्युरोक्रेसी विकसित
हुई है, उसे लीजिए। अभी कल परसों मुझसे कोई
पूछ रहा था कि इस उपन्यास को लिखने के बाद क्या
आपका कुछ हुआ नहीं? तो मैंने कहा था नहीं,
क्योंकि इसे किसी ने पढ़ा ही नहीं। समस्या यह है
कि हिन्दी में आपको ऐसा कोई लेखक नहीं मिलेगा,
(हंसते हुए) जिसे लिखने की वजह से सज़ा
मिले। हम लोग तो इस इन्तज़ार में हैं कि कभी
किसी को उसके लिखने की वजह से सज़ा मिल जाए।
यह जो सारा का सारा तन्त्र है, जब तक आप इसे
हास्यास्पद या सतही नहीं सिद्ध करेंगे, तब तक आप
इसका सही चित्रण नहीं कर पाएंगे। तो व्यंग्य मुझे
लगता था कि एक ऐसा माध्यम है, जिसके ज़रिए यह
सब किया जा सकता है।
गौतम
विभूति नारायण जी, आप काम तो पुलिस विभाग
में करते हैं उसके एक उच्च अधिकारी हैं, जबकि
'तबादला' उपन्यास का विषय केवल एक ही स्थान का
सार्वजनिक लोक निर्माण विभाग है। पुलिस
छोड़कर आपको उसपर उपन्यास लिखने की प्रेरणा कहां
से मिली?
विनाराय देखिए, इलाहाबाद में हर बारह
साल बाद कुम्भ का मेला लगता है, जिस समय एक
पूरा का पूरा नया शहर बस जाता है। उसका कलेक्टर
अलग होता है, एसएसपी अलग होता है,
पीडब्ल्यूडी के लोग अलग होते हैं, सभी
भ्रष्ट। उस समय कहा जाता है कि कुम्भ अफ़सरों और
लल्लू जी नाम के एक ख़ास ठेकेदार की फ़र्मों के
लिए लगता है। कुम्भ का कई सौ करोड़ का बजट होता
है और हर कुम्भ के बाद लल्लू जी की सम्पति में
पन्द्रहबीस करोड़ रूपये जुड़ जाते हैं। और अफ़सरों
का भी उसी हिसाब से लाभ होता है। उस समय
तबादले के लिए और पोस्टिंग कराने या रूकवाने के
लिए नीलामियां होती हैं। कुम्भ के अवसर पर
पीडब्ल्यूडी का बजट सबसे ज़्यादा होता है।
उसे गंगा पर पांटून पुल बनाने पड़ते हैं, कई
सड़कें बनानी पड़ती हैं, सैनिटेशन का काम होता
है, मतलब यह कि उसके ज़िम्मे बहुत सारी चीज़ें
होती हैं। इस तरह से पीडब्ल्यूडी तो एक
निमित है। वह पुलिस विभाग भी हो सकता था।
गौतम
'तबादला' में आपने भ्रष्ट नौकरशाही के माध्यम से
पूरे प्रशासनतन्त्र को भ्रष्ट रूप में दिखाया है। क्या
आप एक शहर के एक दफ्तर के और एक मेले के भ्रष्टाचार
(माइक्रोकॉज़्म)को पूरी नौकरशाही के भ्रष्टाचार (मैक्रोकॉज्म)
का प्रतीक कह सकते हैं?
विनाराय कमोबेश तो यही हाल है।
गौतम
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्वतन्त्र भारत में जिस
तरह से भ्रष्टाचार में निरन्तर और अटूट क्रम से वृद्धि
हो रही है, इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है क़ानून,
राजनीति, सरकार, समाज या कोई और या ये
सभी मिलकर ज़िम्मेदार हैं?
विनाराय ये सब मिलकर हैं। विचित्र बात
है कि हमारे समाज के मन में बड़ी ग़लतफ़हमियां
हैं कि यूनान, मिस्र और रोम तो सब मिट गए
हैं, लेकिन हम बचे हुए हैं। देखिए, मुझे नहीं
लगता कि हमसे भ्रष्ट समाज कोई और होगा। यह
मैं कोई बड़ी ख़ुशी से नहीं कह रहा हूं न मुझे
इसका कोई गर्व है। यह बड़े अफ़सोस की बात है।
जब मैं पुलिस विभाग में आया, तो उस समय
जो लड़के वहां आते थे, उनमें एक आदर्शवाद था।
जो सीधे आईएएस या आईपीएस
होकर आता था, उसके बारे में तो सोचा तक नहीं
जाता था कि वह पांचसात बरस तक भ्रष्ट हो सकता
है। चाहे आठदस बरस में हम भी उसी तन्त्र का अंग
बन जाते थे, लेकिन शुरू में हम जैसों में एक
तरह का आदर्शवाद रहता था। लेकिन इधर दुर्भाग्य यह
हुआ है कि जबसे ग्लोबलाइज़ेशन,
लिबरलाइज़ेशन और ये सारी चीज़ें शुरू हुईं,
तो वह आदर्शवाद ख़त्म हो गया। हर आदमी को अब
जल्दी से जल्दी अमीर होना है और पैसा कमाना है।
यह एक बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि धीरे धीरे
हमने इसको स्वीकार कर लिया है। करप्शन को
कहींनकहीं सामाजिक स्वीकृति मिल गई है कि
हमारे देश में अब कुछ हो नहीं सकता। पहले भी
भ्रष्ट अफ़सर हुआ करते थे। जब मैं नौकरी में आया,
तब भी एकसेएक भ्रष्ट अफ़सर थे, लेकिन तब
कोई अपनी समृद्धि को ड्राइंग रूम में डिस्प्ले नहीं
करता था। अब लोग अपने ड्राइंग रूम में ही दिखा देते
हैं कि मैं दो करोड़ का हूं, पांच करोड़ का या सौ
करोड़ का।
गौतम
भारतीय जनजीवन में और नौकरशाही में आपके
विचार से सबसे भ्रष्ट वर्ग कौनसा है?
विनाराय कहना बड़ा मुश्किल है।
बिज़नेसमैन, पोलिटीशियन, ब्युरोक्रैट सभी
हैं, जहां जिसको मौका मिलता है . . .पहले हमारी
कुछ पवित्र संस्थाएं थीं, जैसे जुडीशियरी,
एजुकेशन और हैल्थ। अब आप डॉक्टरों की इन्कम की तो
कल्पना ही नहीं कर सकते। यही हाल न्यायपालिका का है।
पत्रकारिता एक ज़माने में आदर्श थी। कोई आदमी
अख़बार की दुनिया में जाता था, तो इसका मतलब
होता था कि उसके कुछ आदर्श थे। अब जो हमारी पवित्र
संस्थाएं थीं, ये नष्ट हो गई हैं। इसके बाद आशा
की किरण यह लगती है कि ये चीज़ें शायद बहुत दिन
चल न पाएं।
गौतम
आप एक बहुत भ्रष्ट कही जाने वाली सरकारी व्यवस्था
यानि पुलिस के एक अधिकारी हैं, लेकिन आपको
'तबादला' जैसा उपन्यास लिखने और छपवाने की
अनुमति कैसे मिली?
विनाराय (ठहाका लगाते हुए) वहां कोई
पढ़ता ही नहीं। विचित्र स्थिति है कि जहां हम कहते हैं,
हमें सज़ा दो, वहां कोई सज़ा देता ही नहीं।
बाकी हमारे जो सेंट्रल सर्विसिज़ कंडक्ट रूल्ज़ हैं,
उनमें एक बहुत बड़ा लूपहोल है कि आपको लिटरेरी,
एस्थेटिक, साइंटिफ़िक लेखन के लिए इजाज़त लेने की
ज़रूरत नहीं पड़ती। यह उपन्यास तो ख़ैर उतनी बड़ी
चीज़ नहीं, मैंने कम्यूनल वॉयलेंस पर जो
काम किया, वह बहुत विस्फोटक था। वह छप गया,
अख़बारों में भी आ गया और लोगों ने एक्सेप्ट
कर लिया।
गौतम
माना जाता है कि व्यंग्य लिखना बहुत कठिन होता है
और मैं स्वयं एक छोटामोटा व्यंग्यकार होने के
नाते यह बात जानता हूं। इसमें भी उपन्यास जैसी
लम्बी रचना में व्यंग्य का निर्वाह और भी कठिन
होता है। जानना चाहता हूं कि आपने इस उपन्यास के
सन्दर्भ में कौनसा तरीका अपनाया? क्या आपने
कईकई बार ड्राफ्ट लिखकर उसको संवारा या बदला
या जो ढांचा एक बार आपके मस्तिष्क में बन गया
था, आप उस पर एक साधक की तरह आद्यन्त टिके रहे?
विनाराय एक तो यह बड़ा उपन्यास नहीं है,
केवल डेढ़ सौ पन्नों का है और जैसा कि मैंने
पहले कहा, मैं इस मामले में बहुत आलसी हूं।
मैंने कभी दूसरा ड्राफ्ट बनाया ही नहीं। इसीलिए
लिखने के बाद कई बार मुझे लगता है कि बड़ी
बेवकूफ़ी हुई। इसे एक बार देख लिया होता क्योंकि
कई बड़ी ऑब्वियससी त्रुटियां नज़र आती हैं। इस
उपन्यास में भी आ गई हैं। हां, इसमें दोतीन
साल जो लगे, उस दौरान और कुछ नहीं लिखा।
लिखता रहा और एक ख़ास तरह की मुद्रा बनी रही।
गौतम
आप अपनी प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं में
'तबादला' को किस स्थान पर रखेंगे?
विनाराय मेरा सबसे प्रिय उपन्यास 'घर'
है, जो मेरा पहला उपन्यास था। हालांकि 'शहर में
क्रफ्यू' ज्यादा चर्चित रहा और उसके कई भाषाओं
में अनुवाद भी हो गए हैं। मुझे प्रिय घर है,
वैसे यह कहना बड़ा मुश्किल है कि अपनी रचनाओं
में किसे कौन
सी जगह पर रखेंगे।
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