अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति के सितारवादक उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां की ख्याति कई रूपों में
हैं। वह देश के प्रथम पंक्ति के सितार वादक हैं, जिन्हें आकाशवाणी
और दूरदर्शन ने सर्वोच्च श्रेणी प्रदान की है। उन्होंने सितार की एक
नई तकनीक विकसित की है जाफरखानी बाज। अनेकानेक प्रतिष्ठित
सम्मानों से अलंकृत खां साहब ने कई लुप्तप्राय रागों को
पुनर्जीवन दिया है, तो कई नवीन रोगों की रचना भी की है।
दुनिया के अनेक देशों में भारतीय संगीत की कीर्ति पताका फहरा चुके
खां साहब संगीत के मौलिक चिंतक हैं। देशविदेश की विभिन्न
सांगीतिक, सांस्कृतिक संस्थाओं से विभिन्न रूपों में संबद्ध खां
साहब ने दर्जनों कालजयी फिल्मों में सितार वादन किया है . .
.अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है। और सितार विषय पर एक
महत्वपूर्ण ग्रंथ का लेखन भी किया है।
उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां की गणना
भारत के उन महान सितार वादकों में होती है, जिन्होंने सितार को
एक नई दिशा, नई सोच, नई ऊंचाई, नई गहराई और नई तकनीक
दी है। सन् 1929 में मप्र के जावरा नामक स्थान में जन्में खां
साहब मूलतः इंदौर के बीनकार घराने से संबद्ध हैं। उनके प्रपितामह
उस्ताद गैरत खां और पितामह उस्ताद मुरव्वत खां श्रेष्ठ वीणा वादक थे।
उस्ताद अब्दुल हलीम ने सितार वादन की शिक्षा अपने पिता उस्ताद जाफर खां
से प्राप्त की। साथ ही बाबू खां, रजब अली खां, अमान अली खां तथा
झंडे खां से भी प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त किया। उस्ताद अब्दुल हलीम
ने इन प्रख्यात गुरूओं से प्राप्त शिक्षा को अपनी मौलिक प्रतिभा,
परिकल्पना और सर्जनात्मक क्षमता का इंद्रधनुषी स्पर्श देकर सितार के
आकाश में स्थापित कर उसे एक नया नाम, नई पहचान दी जाफरखानी
बाज।
'जाफरखानी बाज' की शैली और तकनीकगत
विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर बताते हैं
'इसमें मैंने कई तंत्र वाद्यों की ढेर सारी विशेषताओं को एक स्थान
पर एकत्र करने का कार्य किया है। इसमें वीणा की तकनीकी विशेषताओं के
साथसाथ प्रतिध्वनि, मुर्की, जमजमा, घसीट, झाला भरण, कण,
छपका, उछल लड़ी, लहक और लड़त जैसी तमाम विशेषताओं को
समाहित किया है। इसमें एक मात्राकाल की अवधि को भी तीनचार
भागों में बांटकर उल्टी और सीधी मींड़, खटके, मुर्की और नाजुक
गमक को मैंने प्रचलित किया। पर्दे, मींड़ और गमक इन तीनों
की तानों में दोनों हाथों को संतुलित करते हुए मिजराब के वजन
को संभाला, उछल लड़ी को जोड़ा और गत भरण, गत अंग, झाला
और गत के मुख्य अंश में अलगअलग तरह का रंग भरा। जाफरखानी
बाज में हारमोनिक नोट्स खुलकर प्रयुक्त होते हैं और मींड़ की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है।'
खां साहब एक ओर शास्त्रीय संगीत के
दिग्गज कलाकार हैं, तो दूसरी ओर फिल्म संगीत से भी वह काफी गहराई
से जुड़े रहे हैं। अपने समय की कालाजयी फिल्मों झनकझनक
पायल बाजें, यादें, कोहिनूर, गूंज उठी शहनाई,
मुगलएआजम, संपूर्ण रामायण, अन्नपूर्णा, दो आंखें बारह
हाथ, अनारकली, बारादरी, शबाब . . .जैसी अनेक फिल्में हैं,
जिनमें उस्ताद ने अपने सितार की सतरंगी छटाएं बिखेरी हैं। गूंज उठी
शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के साथ उनकी जुगलबंदी खूब सराही
गई तो 'कोहिनूर' में ठोक झाला का अलग ही आकर्षण था।
यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि
शास्त्रीय संगीत और फिल्म संगीत तकनीक और प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से
काफी भिन्न होते हैं। इसीलिए अनेक शास्त्रीय संगीतज्ञ फिल्म संगीत
को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। लेकिन उस्ताद दोनों ही क्षेत्रों में
सफल रहे। कैसे? और क्या सोचते हैं, वह इन दोनों भिन्न संगीत
शैलियों के विषय में?
खां साहब मुस्कुराते हैं, फिर गंभीर स्वर
में कहते हैं फिल्मी संगीत मंचीय शास्त्रीय संगीत से कहीं अधिक
कठिन है। जो लोग इसके महत्व को कम करके आंकते हैं, वे नादानी
करते हैं। मंच पर हम जो माहौल घंटे भर में बनाते हैं, फिल्मों
में दो से साढ़े तीन मिनट के अंदर बना लेना होता है। फिल्म
वालों के नोट्स और लय पक्ष काफी अच्छे होते हैं। मंच पर कलाकार
अपने मूड के हिसाब से लय को घटानेबढ़ाने के लिए स्वतंत्र होता
है। लय की डोर कई बार छूट भी जाती है लेकिन, फिल्म संगीत में यह
सब नहीं होता। वहां यांत्रिक उपकरणों के माध्यम से सब कुछ
सुनिश्चित, सुस्थित होता है, उनका फार्मूला हम लोगों की अपेक्षा
कहीं अधिक मजबूत होता है। जैसे उत्तर भारतीय संगीत में अगर आप
बिना तानपूरे के भोपाली गाएं तो मालकौंस, दुर्गा, मधुमात
सारंग और धानी का स्वरूप उभरेगा। और सबके 'की नोट्स' अलग हो
जाएंगे। लेकिन, फिल्म संगीत में ऐसा नहीं होता। उस्ताद बरकत अली
खां, झंडे खां, अमीर खां, बड़े गुलाम अली खां, डीवीपलुस्कर,
डीपीघोड़गांवकर और कुछ हद तक मैंने भी फिल्म संगीत को
सुदृढ़ आधार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।'
उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर का रागों के
संबंध में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक ओर उन्होंने भारतीय
संगीत के कई अप्रचलित, लुप्तप्राय पुराने रागों, जैसे चंपाकली,
हिजाज, राजेश्वरी, अरज, श्याम केदार एवं फरगना आदि को अपनी
मौलिक संगीत संरचनाओं एवं जादुई उंगलियों का स्पर्श देकर
पुनर्जीवन दिया है, तो दूसरी ओर दक्षिण भारतीय संगीत के अनेक
रागों यथा लतांगी, चलनटी, कणकांगी, हेमवती, किरवानी
और श्यामप्रिया आदि की उत्तर भारतीय वाद्ययत्रों पर प्रथम प्रस्तुति का
श्रेय भी इन्हें प्राप्त है।
इसके साथ ही उस्ताद ने सारावती,
खुर्सरोबानी, मध्यमी, चक्रधुन और कल्पना जैसे मधुर और मोहक
रागों का सृजन करके भारतीय संगीत को समृद्ध किया है।
नए रागों का सृजनविवाद का कोई
नया विषय नहीं है। पांच हजार से अधिक पूर्व आविष्कृत रागों में
से शायद ही किसी कलाकार को सौ रागों का भी पूरा ज्ञान हो। फिर
क्या जरूरत है नए रागों के आविष्कार की? और इस बात का क्या प्रमाण है
कि आज का कलाकार अपने अनुसार जो नया रच रहा है, वह पूर्व रचित
नहीं है? क्योंकि, उसे समस्त रागों की जानकारी तो है ही नहीं? फिर
इस जोड़तोड़ का क्या औचित्य है?
खां साहब एक पल के लिए रूकते हैं। फिर स्पष्ट
करते हैं 'जोड़तोड़ कर नए राग बनाने का मुख्य कारण यह है कि
शुद्ध आरोहअवरोह के राग अब नहीं बन सकते। इसलिए छायालग(जिस
राग पर किसी अन्य राग की छाया पड़ती हो) या संकीर्ण राग(जिस राग
पर कई रागों का प्रभाव दिखता हो) ही बनाना एक तरह से हमारी
विवशता है। दूसरी ओर, मैं क्या कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि
पूर्व सृजित सारे राग उसे याद हैं। क्योंकि, यहां तो एकएक स्वर
को साधने में जिंदगी बीत जाती है। लेकिन मस्तिष्क की उर्वरित को भी
तो नकारा नहीं जा सकता। कला का कलात्मकता से और संगीत का
सृजनात्मकता से अभिन्न और अत्यंत आत्मीय संबंध रहा है। हर युग,
हर सदी में कहा गया कि बस! बहुत हो गया। अब नए राग नहीं बनने
चाहिए। लेकिन फिर भी नए राग बने . . .बनते रहे . . .और बनते
रहेंगे। मन में अचानक कोई भाव, कोई कल्पना अंगड़ाई लेती है,
और अगले ही क्षण एक नए राग के रूप में वह सामने खड़ी हो जाती है।
हम या आप चाहकर भी उसे नहीं रोक सकते।'
खां साहब उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर अपना
एक व्यक्तिगत अनुभव बताते हुए अपनी बात, अपने कथन को स्पष्ट करते
हैं 'मैं सारावती नदी के जोग फॉल्स को देख रहा था, जब अचानक
मुझे एक नए राग के सृजन की प्रेरणा मिली। हेमावती राग में शुद्ध
मध्यम का प्रयोग कर मैंने उसे एक बिल्कुल नया रूप, नया अंदाज
दिया। बाद में जब उसका रेकार्ड बना तो रेकार्ड पर प्रकाशित करने के
लिए एक नाम की भी जरूरत पड़ी तब सारावती नदी के तट पर मिली प्रेरणा
के कारण मैंने उस राग का नामकरण सारावती ही किया। तो इस तरह
अचानक त्वरित रूप में बनते हैं नए राग। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कोई
नया राग बनाने के लिए हम कोई बड़ा परिश्रम करते हैं . . .महीनों
सोचविचार, चिंतनमनन करते हैं। राग तो एक क्षण में बनता
है। हां! उसके सुधार और विकास की प्रक्रिया काफी समय तक चलती रहती
है।'
खां साहब ने भारतीय स्वरलिपि को
अधिकाधिक समृद्धि और वैज्ञानिकता प्रदान करने हेतु कई चिह्नों,
संकेतों की रचना की है ताकि जाफरखानी बाज की तकनीक को लोगों तक
आसानी से पहुंचाया जा सके। जैसे खटका, मुर्की, जमजमा, गद्दा,
कण, और हिक्का आदि।
परंपराओं पर पूरी आस्था रखने के बावजूद
भारतीय संगीतकारों ने समयसमय पर अपनी प्रयोगधर्मिता का
परिचय दिया है। इसमें दो भिन्न संगीत शैलियों की सहप्रस्तुति
भी है। इसी के अंतर्गत उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत की जुगलबंदी
होती है, और इसी के अंतर्गत भारतीय और पाश्चात्य संगीतकार एक साथ
मिलकर अपनाअपना संगीत भी प्रस्तुत करते हैं। उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर
ने भी पं रामनारायण के सारंगी, पंराधिका मोहन मोईत्रा के
सरोद, पंयमनीशंकर शास्त्री के वीणा के साथसाथ अमेरिका के
प्रसिद्ध जाज वादक दवे ब्रुवेकर एवं ब्रिटेन के गिटार वादक जूलियन
ब्रेम के साथ सितार की जुगलबंदी की है। फिल्म गूंज उठी शहनाई में
उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई के साथ जुगलबंदी की है।
सच यह है कि ऐसी जुगलबंदियों को जिन्हें कल्चरल एक्सचेंज,
ईस्ट मीट वेस्ट और नार्थ मीट साउथ की संज्ञा दी जाती है
सामान्य संगीत रसिकों द्वारा काफी उत्सुकता से देखा, सुना जाता है,
लेकिन उस्ताद जैसे चिंतनशील, अग्रणी और वरिष्ठ कलाकार की दृष्टि
में ऐसे कार्यक्रमों की कितनी उपयोगिता और सार्थकता है? वह स्वयं
ऐसे कार्यक्रमों के विषय में क्या साचते हैं? इन्हें किस दृष्टि से
देखते हैं?
प्रश्न सुनकर उस्ताद अब्दुल हलीम के अधरों
से अठखेलियां कर रही चंचल मुस्कान लुप्त हो जाती है। और वह अचानक
गंभीर हो जाते हैं। फिर वह, जैसे एकएक शब्द को तोलते हुए गंभीर
वाणी में कहते हैं सच कहूं तो इस प्रकार के प्रयासों पर मेरी
कोई आस्था नहीं है। चाहे पूर्व और पश्चिम हो, चाहे उत्तर और दक्षिण
हो हर संगीत शैली की अपनीअपनी विशेषताएं हैं। हम जब भी
सांगीतिक दूरियां मिटाने की बात करते हैं, तो उसका अर्थ यह होता है
कि हम उन संगीत शैलियों की विशेषताओं को अनदेखा कर रहे हैं,
उनसे मुंह मोड़ रहे हैं। जबकि, हर संगीत में उसकी तकनीकीगत और
शैलीगत विशेषताओं की उपस्थिति को अनिवार्य मानता हूं मैं। नए
प्रयोग या अंतरप्रांतीय अथवा राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय एकता के नारे के
नाम पर तकनीकी दृष्टि से इस तरह का कार्यक्रम मनोरंजक और रोचक रूप
में प्रस्तुत करना एक अलग बात है। लेकिन, अगर वास्तव में ये दूरियां
मिटने लगें तो विश्व संगीत का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। और
ऐसे किसी भी कार्य को, जिससे संगीत का अस्तित्व खतरे में पड़ जाए
मेरा समर्थन कभी नहीं मिल सकता। मुझे तो ये नारे भी कुछ
उसी तरह के लगते हैं, जैसे इस देश में अक्सर गूंजा करते हैं। हमारा
देश नारों का देश है। तरहतरह के रंगबिरंगे लुभावने नारे
यहां सहज ही उपलब्ध हैं। लेकिन, इन नारों से कुछ होता नहीं है।'
उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर ने अपनी अत्यधिक
सांगीतिक व्यस्तताओं के बावजूद अपने सांगीतिक दायित्व से मुंह
नहीं मोड़ा है। मुंबई में हलीम अकादमी ऑफ म्यूजिक की स्थापना
करके उन्होंने नई पीढ़ी के संगीतार्थियों को संगीत शिक्षा प्रदान
करने का कार्य आरंभ किया है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों और
शिक्षणसंस्थाओं से वह अतिथि प्राध्यापक के रूप में जुड़े हैं। और
हाल ही में सितार के जाफरखानी बाज पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक
जाफरखानी बाज : इनोवेशन इन सितार म्यूजिक प्रकाशित हुई है।
इस पुस्तक के विषय में बताते हुए खां
साहब कहते हैं 'इस पुस्तक में मैंने सितार के इतिहास, आविष्कार,
जाफरखानी वादन शैली की तकनीकी विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कई
रचनाएं भी संगीत लिपि सहित दी हैं। साथ ही एक विजुअल
सीडीभी है। ताकि विभिन्न वर्णों के वादन के समय हाथ और
उंगली की स्थिति को अगर चित्रों के माध्यम से कोई पूरी तरह न समझ
सके तो इस विजुअल सीडी के माध्यम से समझ लें।'
खां साहब आगे कहते हैं 'मैं यह
दावा तो नहीं कर सकता कि इस पुस्तक में सब कुछ हैं क्योंकि हर इंसान
की अपनी सीमाएं होती हैं। लेकिन, फिर भी इस पुस्तक को अपनी सामर्थ्य
के अनुसार उपयोगी बनाने का मैंने हर संभव प्रयास किया है। और
मुझे आशा है कि मेरे प्रशंसक, मेरे श्रोता और मेरे पाठक इसे
निश्चित रूप से पसंद करेंगे।'
खां साहब उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर की
महत्वपूर्ण, अथक संगीत सेवाओं का आदर करते हुए अनेक सांगीतिक,
सांस्कृतिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। उनमें से कुछ इस
प्रकार हैं आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व श्रम मंत्री, कर्नाटक के पूर्व
मुख्यमंत्री, और भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा
सम्मान तंत्री विलास और गंधर्व सम्मान . . .उस्ताद अलाउद्दीन खां
संगीत रत्न, उस्ताद हाफिज अली खां सम्मान, केंद्रीय संगीत नाटक
अकादमी सम्मान, श्रेष्ठ कला आचार्य, महाराष्ट्र सरकार का गौरव पुरस्कार,
मध्य प्रदेश का शिखर सम्मान और भारत सरकार के पद्मश्री अलंकरण सहित
उन्हें कई गौरवशाली सम्मान और स्वर्ण पदक प्राप्त हो चुके हैं।
यह हर्ष का विषय है कि सत्तर वर्ष की
आयु पार करने के बाद भी उस्ताद थके नहीं है। वह अब भी विभिन्न
सांगीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। उनके दर्जनों
शिष्यों में उनके युवा पुत्र जुनैन खां का नाम विशेष उल्लेखनीय
है। मेरे यह पूछने पर कि अपनी अब तक की सांगीतिक उपलब्धियों से आप
कितने संतुष्ट हैं, खां साहब पहले मुझे आत्मीय और स्नेहिल दृष्टि
से देखते हैं। फिर उनकी निगाहें कहीं दूर शून्य में जाकर टिक जाती हैं
और वह कुछ खोए हुए से स्वर में कहते हैं 'सितारों से आगे जहां
और भी है। अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।'
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