कहानी,
साहित्य और जीवन से जुड़े कुछ प्रश्नों के साथ मोहन राणा
(दाएँ) और उत्तरों के साथ तेजेन्द्र शर्मा
(बाएँ) यू के से-
मोहन राणा- जो हम जी रहे हैं
हम मानें अगर वह कहानी है तो फिर कहानी क्या है? |
हाल
ही में रचना समय के संपादक और प्रतिष्ठित
कहानीकार हरि भटनागर ने अंतर्राष्ट्रीय हिंदी
कथाकार तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व एवं
कृतित्व पर एक आलोचनात्मक ग्रन्थ का संपादन किया
जिसका शीर्षक रखा गया – ‘तेजेन्द्र शर्मा –
वक़्त के आइने में’। इस पुस्तक का विमोचन डा.
नामवर सिंह, कृष्णा सोबती एवं राजेन्द्र यादव के
हाथों हुआ। इस ग्रन्थ में राजेन्द्र यादव,
परमानंद श्रीवास्तव, असग़र वजाहत, ज़कीया
ज़ुबैरी, पुष्पा भारती, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित,
प्रेम जनमेजय, सूर्यबाला, ज्ञान चतुर्वेदी, सूरज
प्रकाश, नूर ज़हीर, पूर्णिमा वर्मन, कैलाश
बुधवार, सहित पैंतीस साहित्यकार एवं आलोचकों के
लेख इस ग्रन्थ में संग्रहीत हैं। इसी संग्रह के
लिये ब्रिटेन के प्रतिष्ठित कवि श्री मोहन राणा
ने तेजेन्द्र शर्मा से पांच सवाल पूछे।
अभिव्यक्ति यह अनूठे सवाल और उनके बेबाक़ जवाब
अपने पाठकों के लिये प्रस्तुत कर रही है। |
|
तेजेन्द्र शर्मा-
दरअसल मोहन जी, जो हम जी रहे हैं, साहित्य वहीं से जन्म लेता है।
कहानी को मैं साहित्य की मूल विधा मानता हूँ। हर
साहित्यकार कुछ कहना चाहता है, इसलिये कलम उठाता है। कहानी
यदि अपने में घटनाक्रम लिए है तो निश्चित ही जीवन में से
ही उठेगी। किन्तु जीवन को जस का तस लिख देना कहानी नहीं
है। कहानी केवल घटना का विवरण नहीं है। एक ज़माना था जब
कहानी में एक किस्सा होता था और यह बताया जाता था कि फिर
क्या हुआ, उसके बाद क्या हुआ। उत्कण्ठा केवल यह जानने में
होती थी कि अमुक घटना के बाद क्या हुआ। क्या हुआ से आगे न
तो लेखक सोचता था और न ही पाठक। कहानी में बहुत बदलाव आया
है। आज घटना में कल्पना और
उद्देश्य, जब दोनों डाले जाते हैं
तब कहीं जा कर कहानी का जन्म होता है। कहानी स्थूल से
सूक्ष्म की यात्रा है। जो हो रहा है कहानी नहीं है। स्थूल
के पीछे जो है यानि कि जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है।
कहानी आज स्थितियों, पात्रों और घटनाओं की जैसी पड़ताल
करती है लेखक की भी ठीक उसी तरह खोजबीन करती है। आज का लेखक
कहानी सुनाने के बजाए कहानी दिखाने में विश्वास रखता है।
वह कहानी को पूर्णविराम नहीं लगाता। कुछ पाठक के लिए छोड़
देता है। आज की कहानी यहाँ ख़त्म नहीं हो जाती, कि फिर वे
हमेशा ख़ुश रहे। आज की कहानी उस ख़ुशी के टूटने से शुरू हो
सकती है। आज की कहानी कई धरातलों पर एक साथ चलती है। घटना
के पीछे की मार्मिक स्थितियों को
रूपांतरित कर पाना कहानी है। आज कहानी एक पल की भी
हो सकती है, एक घन्टे की भी एक दिन की भी। कहानी के लिए
लम्बे काल की आवश्यकता नहीं होती। कहानी में यात्रा भीतरी
होती है न की ऊपरी। यदि घटना ही कहानी बन सके तो पुलिस की
एफ़.आई.आर. का रजिस्टर तो दुनिया का सबसे बड़ा कहानी
संग्रह बन जाएगा। क्योंकि उसमें तो सच्चा जीवन लिखा होता
है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो स्थूल से सूक्ष्म की
यात्रा ही कहानी है।
मोहन
राणा- कहानीकार
यथार्थ के कई घरातलों में से एक अवयव को कहानी के लिए
चुनता है उस चयन की प्रक्रिया में कहानीकार के रूप में
आपकी क्या रचनात्मक कसौटी रहती है?
तेजेन्द्र शर्मा- बात
यह है मोहन भाई कि मैं किसी विचारधारा विशेष के दबाव में
लेखन नहीं करता। इसलिए मेरा यथार्थ मेरा अपना यथार्थ होता
है किसी विचारधारा का मोहताज नहीं होता। हिन्दी के अधिकतर
लेखक क्योंकि कुछ बड़े नामों को प्रभावित करने के लिए
लिखते हैं इसलिए उनके यथार्थ के अवयव तयशुदा रहते हैं।
मेरी कहानियों का फ़लक आम हिन्दी कहानी से एकदम अलग रहता
है। मैं २२ साल एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर रहा। मैंने
अपनी ज़िन्दगी एक अलग किस्म के संसार में बिताई है। मेरे
लिये एक पायलट का विमान उड़ाना, क्लर्क का प्रॉविडण्ट
फ़ण्ड से उधार लेना, एअर होस्टेस का जीवन, विमान दुर्घटना,
क़ब्र का कारोबार, जापान में इन्सान का लावारिस लाश बन
जाना – सभी कहानी के विशेष अवयव बन जाते हैं। मेरा मुख्य
उद्देश्य अपने आपको ख़ुश करना नहीं है। मेरा मुख्य
उद्देश्य है पाठक के साथ एक संवाद पैदा करना। जो मैं सोच
रहा हूँ, वह पाठक तक पहुँचे, यह मेरा मुख्य उद्देश्य रहता
है। इसलिए मैं यथार्थ का वह अवयव अपनी कहानी के लिए चुनता
हूँ जो कि माइक्रोकॉस्म बन कर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व
कर सके। इससे मैं अपने आप को दोहराने से बच जाता हूँ। मेरे
लेखन के केन्द्र में आम आदमी के साथ जीवन को महसूस करना
है। किन्तु वोह आम आदमी लन्दन का भी हो सकता है, जापान का
भी और अमरीका का भी। मैनें अपने
आप को केवल भारत के मज़दूर और किसान से नहीं जोड़ रखा है।
मुझे अपनी हर कहानी में एक नयापन लाने का शौक़ है। मैं
इसलिये भी किसी तयशुदा तरीक़े से अपनी कहानी नहीं लिखता।
जैसा-जैसा मेरा विषय रहता है, वैसा-वैसा मेरा यथार्थ होता
है। मैं अपनी कहानियों में नारी बन कर भी
सोचता हूँ, महसूस करता हूँ। आम आदमी बन कर भी सोचता हूँ,
महसूस करता हूँ। दरअसल इन्सानी जीवन रिश्तों के माध्यम से
एक दूसरे से जुड़ा हुआ है, रिश्ते मुझे बहुत प्रभावित करते
हैं। मैं इसलिये बार बार रिश्तों की
गहराई से पड़ताल करता हूँ और जब-जब रिश्ते अर्थ से संचालित
होते हैं, मेरी कहानी का यथार्थ बन जाते हैं। एक कहानीकार
के तौर पर मैं अपने आप को मूलतः हारे हुए व्यक्ति के साथ
खड़ा पाता हूँ, जीतने वाले के साथ जश्न नहीं मना पाता।
मोहन
राणा- तथ्य
बदलते रहते हैं सामाजिक स्थितियाँ बदलती रहती हैं, भूगोल
भी बदलते रहते हैं, उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया बदलती
रहती है, यथार्थ की संक्रमणशील प्रकृति के बारे में क्या
कहानीकार को सचेत नहीं रहना चाहिए? क्या आप हमेशा हारे हुए
व्यक्ति के साथ खड़े रहेंगे?
तेजेन्द्र शर्मा- मोहन भाई
आपका सवाल तो बहुत बढ़िया है मगर इसका जवाब शायद भारत के
स्थापित लेखक न दे पाएँ। वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी
साहित्य अधिकतर एक पार्ट-टाइम एक्टिविटी है। पार्ट-टाइम
नौकरी भी नहीं है – केवल एक्टिविटी। हिन्दी साहित्य में
शोध-परक लेखन का
रिवाज ही नहीं है। तथ्य कितने भी बदल जाएँ, इतिहास भूगोल
चाहे नए रूप धर लें हम केवल मज़दूर, किसान और
व्यवस्था-विरोध पर ही लिखते जाएँगे। चाहे आप किसी
मल्टी-नेशनल कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, या फिर
उसकी पत्नी हैं या किसी बैंक के जनरल मैनेजर हैं – लिखेंगे
आप मज़दूर, शोषण, सत्ता-विरोध आदि आदि। ज़्यादा से ज़्यादा
हो गया तो नौकरानी पर लिख लिया। पिछले साठ साल के हिन्दी
साहित्य में क्या समाज में हुए वैज्ञानिक परिवर्तन स्थान
पाते हैं? हमारी पीढ़ी दुनिया की सबसे भाग्यशाली पीढ़ी है।
हमने अपने ज़माने में वो गाँव या कस्बा देखा है जहाँ बिजली
नहीं होती थी। हमारे सामने-सामने कोयले की रेलगाड़ी ने
डीज़ल का रूप धरा और फिर बिजली से चलने लगी। हमारी पीढ़ी
ने इन्सान को चाँद पर उतरते देखा। दिल बदलने की शल्य
चिकित्सा हमारे ही सामने हुई। फ़ोटोकॉपी, कम्प्यूटर
क्रान्ति, मोबाइल फ़ोन सब हमारे सामने बने हैं। हिन्दी के
लेखन में इन क्रान्तियों का कितना इस्तेमाल हुआ है। हम तो
अपने लेखकों को बिकने वाली पत्रिकाओं में छपने नहीं देना
चाहते। हम प्रगतिशील लोग धर्म के मामले में बहुत मॉडर्न
हैं और परम्पराओं के विरुद्ध हैं। किन्तु जहाँ तक लेखन का
सवाल है वही दकियानूसी रवैया रखते हैं।
बंगला देश के जन्म
पर हिन्दी का पहला उपन्यास /मैं बोरिशाइल्ला/ २००७ में आता
है जिसे कथा यू.के. सम्मानित करती है। लेकिन आपको ऐसा लेखन
मिलता कहाँ है? मल्टीनेशनल कम्पनियों और बाज़ारवाद के
विरुद्ध पन्ने पर पन्ने काले किए जा रहे हैं। क्या हमारे
साहित्य में ग्लोबलाइज़ेशन को समझने जैसी कोई चीज़ भी
दिखाई दी है कभी? मेरी कहानियाँ शुरू से ही हिन्दी
कहानियों के पिटे पिटाये ढर्रे से अलग ज़मीन पर लिखी गई
हैं। काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की क़ीमत, क़ब्र का
मुनाफ़ा, तरकीब, पापा की सज़ा, मुझे मार डाल बेटा, एक बार
फिर होली, पासपोर्ट का रंग, बेघर आँखें, कोख का किराया,
टेलिफ़ोन लाइन/ जैसी कहानियाँ आपको और कौन से लेखक ने दी
हैं। मैं शायद उन गिने चुने लेखकों में शामिल हूँ जिनके
लेखन में आज का समाज जगह पाता है। मैनें तो लन्दन में
मुहिम चला रखी है कि हमें अपने लेखन को भारत का प्रवासी
साहित्य नहीं बनाना है बल्कि हमें इसे ब्रिटेन का हिन्दी
साहित्य बनाना है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम ब्रिटेन में
रहते हुए केवल नॉस्टेलजिया से ग्रस्त न रहें और अपने आसपास
के जीवन को अपने साहित्य में उतारें। मैं जिस हारे हुए
व्यक्ति की बात करता हूँ वो कभी नहीं बदलता। वो हर युग में
होता था, होता है और रहेगा। मेरा हारा हुआ व्यक्ति हिटलर
या रावण नहीं है। यदि अमरीका इराक़ अथवा अफ़गानिस्तान में
हार जाता है तो वो मेरा हारा हुआ व्यक्ति नहीं है।
दुर्योधन या दुःशासन मेरे हारे हुए लोग नहीं हैं। जिस हारे
हुए आदमी की बात मैं कर रहा हूँ वो कमज़ोर आदमी है जिसके
साथ अन्याय हो रहा है। जिसे सदियों से दबाया जा रहा है। वो
हारा हुआ आदमी भारत में है तो ब्रिटेन में भी है और अमरीका
में भी है। जिस आदमी को सद्दाम ने दबा रखा था वो भी हारा
हुआ आदमी था। जिस किसी की साथ अन्याय होता है –
मेरा हारा हुआ आदमी वह है। और मैं बेझिझक उसके साथ सदा
खड़ा रहूँगा।
मोहन
राणा- लंदन में
रहते हुए कभी अस्मिता का प्रश्न उठा है?
तेजेन्द्र शर्मा- देखिये
राणा साहब, ११ दिसम्बर १९९८ को मैं लन्दन में बसने के लिए
आया। उस समय मेरी आयु ४६ वर्ष थी। मेरे पास कोई नौकरी नहीं
थी। और न ही कोई बहुत बड़ा बैंक बैलेन्स था। मैं एअर
इण्डिया की शाही नौकरी छोड़ कर आया था जहाँ अमरीकी डॉलर
में पगार मिलती थी और भारतीय रुपये में खर्चा करता था। मुझ
अपने परिवार को पालना था। लन्दन शहर ने मुझे पहले बीबीसी
में समाचार वाचक की नौकरी दी और फिर ब्रिटिश रेल में
ड्राइवर की । यानि कि उस उम्र में मुझे नौकरी नहीं,
नौकरियाँ मिलीं – और वो भी एकदम भिन्न क्षेत्रों में।
१९९९ में
इन्दु शर्मा कथा सम्मान का प्रोग्राम करने के लिए मुंबई
गया था। वर्ष २००० में पहला कार्यक्रम लन्दन के नेहरू
केन्द्र में हुआ जिसमें भारतीय उच्चायोग की पूरी शिरकत थी।
छः वर्षों तक यह सिलसिला नेहरू केन्द्र में चला और फिर
वर्ष २००६ से हिन्दी का यह
कार्यक्रम ब्रिटेन की संसद यानि कि हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में
आयोजित होने लगा। इस कार्यक्रम के साथ ब्रिटेन के आंतरिक
सुरक्षा मंत्री श्री टोनी मैक्नल्टी भी जुड़ गए। यानि कि
अंग्रेज़ी के गढ़ में हिन्दी साहित्य के अकेले
अंतर्राष्ट्रीय सम्मान का आयोजन होने लगा। पचास या साठ के
दशक में जो भारतीय यहाँ बसने आए थे उन्हें ज़रूर अस्मिता
की समस्या से दो दो हाथ होना पड़ा होगा किन्तु इस बीच
टेम्स में बहुत-सा पानी बह चुका है। मेरे हिसाब से एक आम
इन्सान के रहने के लिए ब्रिटेन दुनिया का सबसे बढ़िया देश
है। यहाँ आदमी को आदमी समझा जाता है और एक वैलफ़ेयर स्टेट
होने के नाते यहाँ आम आदमी को जो सुविधाएँ उपलब्ध हैं वो
विश्व के किसी और देश में संभव नहीं है। भारत के
मार्क्सवादी जिस सामाजिक परिवेश की बात करते हैं, एक अलग
अन्दाज़ में वो यहाँ इस देश में दिखाई देता है और भारत की
रामराज्य की सोच भी यहीं आकर पूरी होती है। इसके मुक़ाबले
एक आम भारतीय को असम और महाराष्ट्र में अस्मिता का सवाल
परेशान कर सकता है। उसे यह महसूस करवाया जाता है कि सुन्दर
मुंबई मराठी मुंबई।
ब्रिटेन
में रेशियल डिस्क्रिमिनेशन एक अपराध है जिसकी कड़ी सज़ा
है। भला ऐसे देश में मेरे सामने अस्मिता का सवाल कैसे खड़ा
हो सकता था? सुना जाता है कि ब्रिटिश रेल में मुझे जो
नौकरी मिली वो पहले केवल गोरे अंग्रेज़ को ही मिला करती
थी। वैसे यदि आपको याद हो तो
भारत में भी अंग्रेज़ों के ज़माने में ट्रेन ड्राइवर
अधिकतर एंगलो इण्डियन ही हुआ करते थे। मेरे साथ यहाँ किसी
भी प्रकार का भेदभाव कभी नहीं हुआ। हाँ भारतीय लोग ज़रूर
खेमों में बँटे हुए हैं। कोई गुजराती है तो कोई पंजाबी,
कोई हिन्दु है तो कोई मुसलमान! मेरे दोस्तों में अंग्रेज़
भी हैं, काले भी हैं और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी हैं।
जिस प्रकार यहाँ के समाज ने मुझे अपनाया है ठीक उसी तरह
मैंने भी इस समाज को अपना बनाया है। मेरे कहने पर टोनी
मैक्नल्टी हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में पाँच वाक्य हिन्दी के
ज़रूर बोलते हैं। मुझे नहीं मालूम इससे उनकी अस्मिता पर
कोई आँच आती है या नहीं।
मोहन
राणा- कहानी के
अंत में क्या कभी यह सवाल आपके मन में उठा है कि "क्या सच
मेरा साक्षी है?"
तेजेन्द्र शर्मा- मोहन भाई
एक बात याद रखिये, "कोई कहानी सच नहीं होती, और कहानी से
बड़ा सच कोई नहीं होता।" एक कवि और कहानीकार के सच में भी
अन्तर होता है। कवि का एक अपना सच होता है जो कि आवश्यक
नहीं की शाश्वत सत्य ही हो। कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से
अपने भीतर का सत्य़ खोज सकता है। यह ज़रूरी नहीं है कि वह
अपना सच अपने पाठकों के साथ बाँटे ही। यह भी आवश्यक नहीं
कि पाठक को उसका सच समझ में आ ही जाए। क्योंकि सच तो यह है
कि हर कवि अपने पाठक के साथ संवाद कायम करने में रुचि नहीं
रखता। कोई कवि शैली और कीट्स की तरह अपने पाठक को अपनी
दुनियां का हिस्सा बनाना चाहता है। शैली की तरह
चाहता है कि /वेस्ट-विण्ड/ इस विश्व को तहस नहस कर दे
जिसमें से एक नयी दुनिया जन्म ले जिसमें न भूख हो, न गरीबी
और न लाचारी। वहीं कहानीकार का सत्य सामाजिक होता है।
इस
साल सिंतबर के आरंभ भोपाल से हरि भटनागर जी का एक
ईमेल आया, "रचना समय की पुस्तक सीरीज़ के अंतर्गत
हम सर्वप्रथम 'तेजेन्द्र शर्मा : एक व्यक्ति, एक
रचनाकार' पुस्तक शीघ्र जारी करेंगे। हम आपसे
अनुरोध करते हैं कि आप उनके लेखन से सम्बन्धित या
उनके रचनाकार व्यक्ति पर अपना विस्तृत और
तटस्थ-बेबाक और आलोचनात्मक लेख भेजें। “यह पढ़ कर
मैं कुछ उलझन में पढ़ गया, लंदन में साहित्यिक
आयोजन में कभी जाना हुआ तो वहाँ कभी तेजेन्द्र से
मुलाकात हो जाती है कभी कोई इमेल या फोन.. उसके
आधार पर तटस्थ -बेबाक और आलोचनात्मक लेख! यह असंभव
है, मैंने सोचा, संयोगवश एक दिन उनसे
इंटरनेट पर मुलाकात हो गई और यह प्रस्ताव दिया कि
लंबा लेख लिखना फिलहाल संभव नहीं लगता है पर पाँच
सवालों की एक बातचीत इस किताब के लिए करना चाहता
हूँ हर ईमेल में एक सवाल, वे राजी हो गए, तो उनसे
हुई बातचीत जस की तस प्रस्तुत है. – मोहन राणा |
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उसकी
कहानियाँ समाज में से निकलती हैं। हर कहानी का कोई न कोई
आधार होता है। कहानी महज़ घटना नहीं होती है। उसमें लेखक
की कल्पना शक्ति एवं उद्देश्य शामिल होने ज़रूरी हैं।
कहानी में केवल सच का होना काफ़ी नहीं है। जो लिखा जाए वो
केवल सच हो उससे बात नहीं बनती। दरअसल उसका सच लगना बहुत
ज़रूरी है, उसका विश्वसनीय लगना पहली शर्त है। अगर कहानी
का सच पाठक का सच बन कर सच्चाई का एक माइक्रोकॉज़्म बना
देता है, तो सच विश्वसनीय बन जाता है। मेरी जो कहानियाँ
हादसों या घटनाओं पर आधारित हैं, उनमें उन हादसों और
घटनाओं के बारे में आप मेरे सच के दर्शन करते हैं। मेरी
कहानी /काला सागर/ में कनिष्क विमान दुर्घटना के बारे में
मेरा सत्य आप तक पहुँचता। उस दुर्घटना के अर्थ मैंने अपने
ढंग से निकाले हैं उसकी व्याख्या की है। सच बहुत प्रकार का
होता है। एक सच है कि किस्सागोई के अन्दाज़ में जो जैसा
होता गया, वैसे बताते गये। मगर आज की कहानी इससे बदल गई
है। आज हम किसी भी घटना या दुर्घटना के पीछे की मारक
स्थितियों को पकड़ना चाहते हैं। यहाँ आकर लेखक का
व्यक्तित्व भी अपना किरदार निभाता है। वो जैसा उन मारक
स्थितियों को समझता है समझ पाता है वह उन्हें ठीक उसी तरह
परिभाषित भी करता है। फिर एक सच्चाई होती है जो, कुछ लेखक
चाहते हैं, कि काश यह सच हो जाए, समाज में यह बदलाव आ जाए।
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यह मुख्य तौर पर उन कहानियों
में होता है जहाँ लेखक अपने पाठकों को एक बेहतर दुनिया का
सपना दिखाता है। वह अपना सच औरों तक पहुँचाना चाहता है।
क्योंकि मैं अपने विषयों की लिखने से पहले छानबीन करता
हूँ, कुछ शोध भी करता हूँ और सबसे बड़ी बात मुझ पर किसी
राजनीतिक विचारधारा का कोई अतिरिक्त दबाव नहीं होता,
इसलिये मेरी कहानियों में से सच कभी ग़ायब नहीं होता।
दिक्कत उन लेखकों की है जो उस विचारधारा में विश्वास नहीं
करते जिसके दबाव में वे लिखते हैं। उन्हें यह सवाल शायद
सताता हो। मेरी कहानियाँ इंटेलेक्चुअल जुगाली नहीं हैं,
बल्कि ठोस ढंग से समाज के साथ जुड़ी हुई हैं। मेरी हर
कहानी में सच मेरा साक्षी होता है। यह इसलिए क्योंकि मेरी
प्रकृति ही ऐसी है। इसलिए मेरे मनमें यह सवाल कभी उठता ही
नहीं।
४ जनवरी
२०१० |