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आप हकीकत के आइने में भी तो देखिए न जब दोनों के माबैन(बीच) बात हो रही है और एक कहता है, हमने यह कर दिया और दूसरा कहता है, आपने नहीं
किया। और अड़चन पैदा हो गयी। उसके साथ ही दस लाख फौजी हैं सीमा पर। सारे इलाके में टेंशन(तनाव) है। लोग कह रहे हैं। किसी भी वक्त परमाणु
युद्ध हो सकता है। ऐसे में अगर हम इसी बात पर अड़े रहें कि हम तीसरे को आने ही नहीं देंगे तो मामला आगे नहीं बढ़ेगा।
दोनों मुल्कों ने जो तय किया है कि तीसरी पार्टी को आने ही नहीं देंगे, यह बहुत अच्छा है, हिन्दुस्थान के लिए भी और पाकिस्तान के लिए भी। क्योंकि जब कोई
तीसरा आता है तो चौधरी बन जाता है। कभी भी मसला हल होगा तो आपस में बैठकर होगा। इसलिए आप अपनी हुकूमत से कह दीजिए कि तीसरे को लाने की
गलती बिल्कुल न करे। जब तीसरा आता है तो वह दोनों में से किसी का नहीं होता। वह अपनी चौधराहट चलाता है। इसलिए मसला भले ही लम्बा खिंच जाए,
लेकिन इसे हम दोनों ही आपस में बैठकर तय करें। और जहां तक आपका कहना है कि एक कहता है कर दिया और दूसरा मानता नहीं कि कर दिया। तो यह
कोई ऐसी चीज नहीं है कि दिखेगी नहीं। जो चीज वास्तविक धरातल पर होगी तो वह नजर भी आएगी। हालात अपने आप बोलेंगे। यह कोई अमूर्त चीज नहीं है,
काई अहसास नहीं है जिसे देखा न जा सके कि एक कहे हमने कर दिया और दूसरा कहे, नहीं किया। यह तो जमीनी हकीकत है जो सामने नजर आएगी।
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कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, क्या वह पाकिस्तान का कियाधरा है?
मैं उन मुद्दों पर यहां बातचीत नहीं करना चाहती, जिनके मुझे तल्ख जवाब देने पड़ें। आपने जो सवाल किया है, मैं उसका जवाब दूं तो बड़ी तल्खी से देना पड़ेगा।
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तो दीजिए।
नहीं। मैं इसलिए जवाब नहीं देना चाहूंगी, क्योंकि मुझे अपनी हैसियत मालूम है। मैं यहां मेहमान की हैसियत से आयी हूं। और मेहमान की हैसियत से मैं
पाकिस्तान की जमीन पर बैठकर तल्ख अंदाज में जवाब दूं, अदब इसकी इजाजत नहीं देती। और बेअदबी करना मेरे मुल्क ने सिखाया नहीं। इसलिए बातचीत का
विषय बदल दें, तो ज्यादा अच्छा होगा।
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लोगों के मन में कई सवाल हैं, जो आपसे पूछने हैं, लेकिन आप जवाब नहीं देना चाहतीं खैर। सार्क पर आते हैं। आप बताएं कि सार्क के मामले को आप किस
तरह लेकर चलेंगी?
आज ही बैठक हुई। बड़ा खुशगवार माहौल था। उससे भी बड़ी बात कि सारे फैसले आम राय से हुए। कहीं कोई असहमाति थी ही नहीं। कहीं
हिन्दुस्थानपाकिस्तान के द्विपक्षीय मुद्दों की दूरदूर तक छाया भी नहीं थीं। जिन मुद्दों पर फैसले हुए, वे हिन्दुस्थानपाकिस्तान के बीच इन हालात के बावजूद हुए।
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हमारी परवाजें (उड़ानें) भारत जाती नहीं। भारत का टेलीविजन यहां आता नहीं, वीसा पर पाबंदी है। जो फैसले पहले से हुए हैं, वे तो लागू हो नहीं रहे और
आप रीजनल विजन (क्षेत्रीय दूष्टिकोण) की बात कर रही हैं।
आप फिर द्विपक्षीय मुद्दों पर आ गए।
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लेकिन यह हकीकत है?
इस हकीकत के रहते हुए भी सार्क बना। जिन्होंने सार्क बनाया था वे इन हकीकतों से बावस्ता थे। लेकिन उसके बावजूद उन्होंने सार्क बनाया, ताकि खुशगवार
माहौल में दूसरे मुद्दों पर भी बातचीत हो सके। उससे अच्छा माहौल भी बनता है। आखिरकार ये मुद्दे आज के नहीं हैं। अभी आपने कहा ये मुद्दे पिछले 54 साल
से हैं। और सार्क कब बना? उसके चार्टर (अनुबंध सूची) में साफ लिखा है कि द्विपक्षीय तनावपूर्ण मुद्दों पर बात नहीं होगी। फिर भी सार्क चलता रहा।
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कई लोगों का ख्याल है कि शायद इसी वजह से सार्क अपनी पोटेंशियल(क्षमता) का सही इस्तेमाल नहीं कर पाया। यहां सूचनाओं के आदानप्रदान की बात हो
रही है, जबकि जर्नलिस्ट (पत्रकार) एक मुल्क से दूसरे मुल्क में जा नहीं सकते। तो सूचनाओं का प्रवाह कहां से होगा? इसलिए हम कहते हैं बात तो आएगी ही
द्विपक्षीय मुद्दों पर। चाहे आप बात करें या न करें।
बात द्विपक्षीय मुद्दों पर नहीं आएगी और अगर आनी है तो सार्क का चार्टर बदलना होगा।
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आप चाहे कुछ भी कहें सुनने, कहने और करने में फर्क है। लेकिन यह हकीकत है कि सार्क पैरालाइज (विकलांग) होकर रह गया है, क्योंकि उसके दो बड़े
भागीदारों के बीच सम्बंध अच्छे नहीं हैं। जिस कारण आप उन मुद्दों पर बात भी नहीं करना चाहतीं।
यह ठीक है कि पिछले कुछ वर्षो में सार्क की क्षमता कम दिखाई दी है। लेकिन जिस प्रकार काठमाण्डू में नई शुरूआत हुई, और जो फैसले अब हो रहे हैं, बहुत
सोचसमझ कर हो रहे हैं। इनके परिणाम धरातल पर दिखाई देंगे।
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अब इलाकाई मामलात की बात करते हें। दुनियाभर में जब भी एशिया में अमन की बात होती है तो हिन्दुस्थान का जिक्र जरूर आता है। आपकी हुकूमत इसे
किस नजर से देखती है?
शांति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता कोई आज की नहीं है, बल्कि भारत तो शांतिपूर्ण राष्ट्र के रूप में ही जाना जाता है। भारत ने तो पूरी दुनिया को पंचशील का
सिद्धान्त दिया है। अगर कोई भारत की शांतिपूर्ण नीतियों पर भी सवालिया निशान लगा कर बात करता है तो मुझे बहुत दुःख होता है।
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. . . कि पीसफुल (शांतिपूर्ण) न्यूक्लियर बम है।
सिर्फ शांतिपूर्ण ही नहीं, आप भी जानते हैं पहले प्रयोग नहीं करने की बात भी कही। जहां तक परमाणु बम की बात है उस समय अटल जी ने साफ कहा था कि
राष्ट्रीय सुरक्षा को दृष्टि में रखकर परमाणु बम बना जरूर है लेकिन हम इसका पहले प्रयोग नहीं करेंगे। फिर मई में बम बनाया और अगली फरवरी में लाहौर की
यात्रा किसने की?
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एक तरफ आप अमन की बात करते हैं और दुसरी तरफ डिफेन्स (रक्षा) बजट भी बढ़ाते हैं। आप हथियार भी खरीद रहे हैं। आखिर क्यों? आप ही
बताइए हिन्दुस्थान को खतरा किससे है?
सिर्फ खतरे का सवाल नहीं है। हर मुल्क का सुरक्षा परिदृश्य होता है। उस परिदृश्य के चलते सब अपनी सुरक्षा जरूरतें पूरी करते हैं। कोई भी देश सेना क्यों
रखता है? इसलिए क्योंकि वह पूरे देश का एक हिस्सा है। हिन्दी में दिनकर जी की एक कविता है
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषहीन, विनीत, सरल हो
यानी आपको माफी का हक तभी है, जब आप ताकतवर हैं। अगर आप ताकतवर नहीं हैं तो न आप शांति की बात कर सकते हैं, न माफी की।
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यानी हिन्दुस्थान ताकतवर बनना चाहता है?
हिन्दुस्थान क्या, हर देश ताकतवर बनना चाहता है। लेकिन अगर आप ताकत के साथ शांति की बात करते हैं तो उसमें आपकी प्रतिबद्धता नजर आती है।
अगर बिना ताकत के आप शांति की बात करते हैं तो उसमें आपकी कमजोरी नजर आती है। हम तो यह कह रहे हैं ताकतवर होने के बावजूद शांति के प्रति
हमारी निष्ठा में कोई कमी नहीं आई है।
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ताकत का इजहार ठोस रूप में मौजूद है और अमन का इजहार अल्फाज में . . . . ?
अल्फाज में नहीं, कार्यरूप में हैं। शांति का प्रदर्शन उससे भी ज्यादा ठोस रूप में मौजूद है। अकेले हमारा परमाणु बम नहीं देखो, उसके बाद लाहोर यात्रा याद
करो। एक कार्यरूप है ताकत का, दूसरा कार्यरूप है शांति का, ऐसी पहल का, जिसे दुनिया ने देखा। अटल जी ने पाकिस्तान जाकर नवाज शरीफ को गले
लगाया, मीनारएपाकिस्तान तक गए। लेकिन लौटते ही बदले में कारगिल मिले तो क्या करें? मीनारएपाकिस्तान में जाना ही पाकिस्तान के वजूद को स्वीकार
करना है।
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लेकिन एग्रीमेंट (समझौता) क्यों नहीं हुआ?
आप अपने गिरेबान में झांककर देखिए कि क्यों नहीं हुआ। अगर आप अड़ जाएंगे और कहेंगे कि कश्मीर ही मुख्य मुद्दा है, इसका तो जिक्र होगा ही। लेकिन
सीमापार आतंकवाद का जिक्र नहीं होगा, समझौता कैसे होगा?
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क्या यह सच नहीं है कि आपके वजीरे खारिज (विदेश मंत्री) ने कहा था कि हम 15 मिनट में इसे टाइप करने को दे देते हैं, . . . . दस्तखत के लिए तैयार है?
यह आपको बताई गई बात है, मुझे बताया गया है कि यह सही नहीं है।
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कहते हैं कि हिन्दुस्थान की केबिनेट में कुछ कट्टरवादियों ने उसे रोक दिया था?
यह सब गलत है। आपको सब कुछ गलत बताया गया है। हमारी कैबिनेट में हाक्स (गिद्ध) और माडरेट (उदारवादी) जैसा कोई वर्ग नहीं है। ये सब गढ़ी गई
बातें हैं कि मंत्रिमण्डल में कुछ हाक्स हैं तो कुछ माडरेट (उदार)। जिसे चाहें हाक्स (गिद्ध) बना दें, जिसे चाहें माडरेट घोषित कर दें। लेकिन हिन्दुस्थान की वजीर
के नाते बताती हूं कि हम लोग बिल्कुल एक हैं। आगरा में भी भारत के पूरे प्रतिनिधिमंडल की एक ही राय थी।
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मैं टीवी स्टूडियो में बैठकर आपको झूठा दस्तावेज क्यों दिखाऊंगा?
सवाल झूठ और सच का नहीं है। मैं जानती ही नहीं कि आप कौनसा दस्तावेज पढ़ रहे हैं। कौनसा दस्तावेज आपके हाथ में थमाया गया, आप क्या पढ़ रहे
हैं। और कूटनीति का यह तकाजा है कि दस्तखत किया हुआ दस्तावेज ही मान्य होता है। उससे पहले बीसियों दस्तावेज बनते हैं, लेकिन अंतिम दस्तावेज वही
होता है जिस पर हस्ताक्षर होते हैं। अगर वहां किसी भी दस्तावेज पर दस्तखत नहीं हुए तो यह सच्चाई है कि कोई भी दस्तावेज ऐसा नहीं था, जिस पर दोनों मुल्क
आमराय थे।
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बदलाव दिखने लगेगा, तो फिर क्या होगा?
मैं ज्योतिषी नहीं हूं जो यह बता सकूं कि आगे क्या होगा। ये राष्ट्रीय मुद्दे हैं, इन पर विचार करने के लिए मंच हैं। जब बदलाव सामने आएगा, उसके
साथसाथ चीजें आगे बढ़ेंगी। आखिरकार 54 वर्षों में कभी ठहराव, कभी गति, कभी रूकावट, सब कुछ हुआ है। परमाणु बम परिक्षण से लेकर आज तक ऐसे
कितने पड़ाव सामने आए। परमाणु बम के बाद, लाहौर यात्रा है, फिर कारगिल, फिर आगरा है। उसके बाद 13 दिसम्बर और सेना की तैनाती है। चीजें रूकती
नहीं है, लेकिन आगे भी तभी बढ़ती हैं जब कहीं न कहीं थोड़ीसी भी रूकावट दूर होती है।
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लेकिन चीजों को आगे बढ़ाने के लिए कोशिश तो करनी ही होगी? किसी जादुई छड़ी से तो काम नहीं होगा। हिन्दुस्थान का तो इस्लामाबाद में हाई कमिश्नर
(उच्चायुक्त) भी नहीं है।
मैं भी बिल्कुल कठोर यथार्थ की ही बात कर रही हूं। न हवा में बात कर रही हूं, न उलझी हुई बातें कर रही हूं। किसी दिन मेरी जगह पाकिस्तान के विदेश
मंत्री को यहां बुलाओ और उनसे पूछो कि भारत ने आपसे क्या चाहा है? आपने उसके प्रति क्या किया है? उन्हें सब पता है। यह मेरे या आपके बताने की
बात नहीं है।
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भाजपा का सियासी मुस्तक्बिल (भविष्य) क्या है? जिस तरह हाल ही में चुनावों में भाजपा की बुरी तरह हार हुई है . . . .
मुस्तक्बिल बहुत साफ, बहुत सुनहरा है। हिन्दुस्थान इतना बड़ा मुल्क हैं, यहां इतने राज्य है और जम्हूरियत (लोकतंत्र) है, चुनाव है। जम्हूरियत में जब चुनाव
होते हैं तो हारजीत उसका एक हिस्सा हैं। हमने वह वक्त भी देखा है जब भारतीय संसद में हमारे केवल दो सांसद थे, मगर वही दो से 87 हुए फिर 112, 182
हुए और आज हम सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सत्ता में हैं। भारत में कांग्रेस '77 में बिल्कुल साफ हो गई और '80 में वापस आ गई। यह तो चुनाव का अंदरूनी
हिस्सा है। हमने जीतहार बहुत देखी है, आगे भी देखेंगे। अगर हार होती है तो उसके बाद जीत भी होती है। इसलिए इन चार राज्यों के चुनाव परिणामों ने
हमारे मुस्तक्बिल पर कोई सवालिया निशान नहीं लगाया।
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क्या हिन्दुस्थान के सभी अखबार झूठ लिख रहे हैं कि बीजेपी का मुस्तक्बिल अच्छा नहीं है?
पता नहीं, अखबार नवीस तो बहुत लोगों के बारे में कुछ लिख देते हैं। '77 में श्रीमती इंदिरा गांधी के हारने के बाद लिख दिया था कि यह उनके राजनीतिक
भविष्य का अंत है। लेकिन ढाई वर्ष बाद वे पूरे बहुमत के साथ वापस आई थीं। जब भाजपा को केवल दो सीटें मिलीं और श्री राजीव गांधी पूरी 403 सीट जीत
कर आए तो कहा गया कि अब तो विपक्ष ही नहीं रह गया है। भारत मे एकदलीय शासन हो गया है। किन्तु अगले चुनाव में श्री राजीव गांधी चुनाव ही हार
गए। जिस भी देश में जम्हूरियत होगी, वहां ये सब होगा। मुझे तो इसी बात की खुशी है कि कम से कम हमारे मुल्क में हुकूमत में बदलाव जम्हूरियत होगी, वहां ये
सब होगा। मुझे तो इसी बात की खुशी है कि कम से कम हमारे मुल्क में हुकूमत में बदलाव जम्हूरियत के तरीके से तो होता है, चुनावों के माध्यम से तो बदली
जाती है।
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लेकिन गुजरात में जो हो रहा है कुछ लोगों का कहना है कि वह जम्हूरियत पर दाग है। आपके वजीरे आजम ने भी कहा है कि हमारे चेहरे पर दाग है।
यह घटना हमारे लिए बहुत पीड़ादायी है। हम बड़े फक्र से कहते थे कि हमारे तीन वर्षों के राज में दंगेफसाद नहीं हुए, लेकिन ये जो दंगे हुए हैं, ये सच में
हमारे लिए काला दाग बनकर आए हैं।
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1200 लोग मर गए और आप सेहरा बांध रही हैं।
दंगों में एक भी आदमी का मरना बहुत बुरा है। मरने वालों की गिनती नहीं होनी चाहिए। दंगों में अगर एक आदमी भी मरता है तो वह एक धब्बा है। मैंने
खुद यह कहा है कि गुजरात दंगे हमारे लिए कलंक हैं, एक काला धब्बा है। दंगे हुए यह अपने आपमें गलत हैं, दंगों में लोग मरे यह और भी गलत है। गोधरा भी
गलत है और बाद की हिंसा में मरे लोग भी गलत हैं। लेकिन फिर भी संतोष इस बात का होता है कि इन दंगों पर जल्दी ही नियंत्रण पा लिया गया।
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