ओडिसी नृत्य का पर्याय ही बन गई थीं
संयुक्ता पाणिग्रही।
संयुक्ता जी जब ढाईतीन साल की
थीं तभी ग्रामोफोन और रेडियो पर अच्छे गानों को सुनकर घर में
नाचने लगती थीं। इसी रूचि के कारण, भारी विरोध के बावजूद
उन्होंने गुरू केलुचरण महाराज से ओडिसी नृत्य की विधिवत शिक्षा
लेना शुरू किया। उस वक्त उनका और
उनकी मां का उन्हें विधिवत नृत्य प्रशिक्षण दिलवाने का निर्णय कई
कोणों से क्रांतिकारी था। क्योंकि उस वक्त उड़ीसा में, लड़कियों
का 'बाहर नाचनागाना', अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था, उनका
परिवार रू़िढ़वादी मतों का ब्राह्मण परिवार था और फिर वहां मंदिरों
में ' देवदासियां ' (महारी) ही ओडिसी नृत्य करती थीं।
ऐसे परिवेश में संयुक्ता ने न
केवल सामाजिक बंधनों को तोड़कर ओड़िसी नृत्य सीखा, प्रदर्शित
किया, बल्कि इस नृत्य को बचाने के लिए और नया जीवन प्रदान
करने के लिए अपना जीवन ही समर्पित कर दिया। उन्होंने महान
नृत्यांगना रूक्मिणी देवी से छह वर्ष तक भरतनाट्यम नृत्य भी सीखा।
देश के प्रमुख सांस्कृतिक केंद्रों के
अलावा अपने अनेक नृत्यप्रदर्शनों से उन्होंने विश्व के कई देशों
में रसिकसमुदाय को, अपने ओडिसी नृत्य से अभिभूत किया है।
संयुक्ता ओड़िसी करती हैं तो लगता है
मानो कोणार्क मंदिर और उड़ीसा के दूसरे मंदिरों की प्रतिमाएं
जीवंत हो गई हैं। वह अपने अनुभव और आकर्षण से नृत्य को
मर्मस्पर्शी रूप प्रदान करती हैं। भारतीय
शास्त्रीय नृत्यों में, ओड़िसी को एक सम्मानजनक स्थान दिलाने
में संयुक्ता पाणिग्राही का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उन्होंने ओडिसी नृत्य को ओझल होने से बचाया और इसकी परंपरा,
शुद्धता और मौलिकता को भी बरकरार रखा।
ओड़िसी नृत्य से तनमन का रिश्ता
बनाने वाली संयुक्ता के अनेक नृत्यप्रयोगों में तुलसी
रामायण, सूरदास पदावली, विद्यापति और रवींद्रनाथ ठाकुर के गीतों
में बसे, काव्यात्मक सौंदर्य को जीवंत करने के प्रयोग भी शामिल
हैं। उनकी ख्याति 'उच्च श्रेणी की
नृत्यसंयोजिका' के रूप में भी है। संयुक्ता पाणिग्रही को
ओडिसी नृत्य में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 1976 में 'पद्मश्री' से
सम्मानित किया गया। संगीत नाटक अकादमी और ओड़िसी राज्य अकादमी
ने भी उन्हें पुरस्कृत किया। 24 जून 1997 में 52 वर्ष की आयु में उनका
देहांत हुआ। यहां प्रस्तुत है श्रद्वांजलि स्वरूप यह एक पुराना साक्षात्कार
'आजकल' से साभार
ओडिसी नृत्य में नए प्रयोग के
संबंध में आपकी क्या सोच है?
हर युग में कलाकार को स्वाधीनता होती
है कि वह अपना कुछ करे। कलाकार यदि सृष्टि नहीं करे तो वहीं खत्म हो
जाता है। लेकिन सृष्टि ऐसी होनी चाहिए जो कि परंपरा पर आधारित हो
और भारत की कला को दृढ़ करते हुए ही नए प्रयोग होने चाहिए। यह
नहीं भूलना चाहिए कि यह वह कला है, जिसके माध्यम से हम मोक्ष
तक पहुंचते हैं, भगवान तक पहुंचते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
क्या आपने, उड़िया भाषा के आधुनिक
कवियों की रचनाओं को अपने नृत्य के लिए चुना है?
मैंने आधुनिक कवियों को तो नहीं, मध्ययुग के कवि ही चुने
हैं। जैसे गोपाल कृष्ण, वनमाली, वरदेव आदि। मध्यकाल के ही
इतने अनमोल रत्न हैं कि उनको ही हम चुन नहीं पाते, जितना प्रयास
करेंगे, मध्यकाल से उतने ही रत्न मिल जाएंगे।
आप ओड़िसी नृत्य में, नये प्रयोग
करने की पक्षधर हैं?
हां, हम तो करते ही हैं। तुलसीदास, सूरदास,
टैगोर को किया है। प्रारंभ में पुराने पंडितों
में इस संबंध में कुछ
विरोध था। लेकिन आहिस्ताआहिस्ता विरोध रूका। हमने भी इसे एक
प्रयोग के रूप में लिया है, कि कैसा लगता है और किस हद तक चल
सकता है। ऐसा नहीं है कि ऐसा करते हुए हम अपनी कला छोड़ देते हैं,
अपने ढंग से। सब वही रहता है, सिर्फ भाषा में बदलाव आता है।
ओडिसी नृत्य का वर्तमान परिदृश्य
कैसा लगता है?
अभी तो बहुत अच्छा है। ओडिसी बहुत लोकप्रिय नृत्य है। लेकिन
इसको बचाए रखने के लिए, इसकी वर्तमान स्थिति बनाए रखने के लिए
बहुत परिश्रम करना है। नई पीढ़ी को चाहिए कि वह डटकर साधना करके,
इसे कायम रखे तथा अपनी रचनात्मकता से इसे और बढ़ावा दे।
गुरूशिष्य परंपरा के संबंध में
आपकी क्या राय है?
मैं तो गुरूशिष्य परंपरा की पक्षधर हूं। इस परंपरा में जो शिक्षा
एक घंटे के नृत्य में प्राप्त होती है, वह यूनिवर्सिटी, कॉलेज में
नृत्य सीखने में नहीं मिलती। गुरू के साथ रहने में नृत्य के
अलावा भी, बहुत कुछ सीखने को मिलता है, जैसे उनके घर में पूजा
होती है, तो पूजा में कौनकौन सी सामग्री होती है यह
मालूम होता है। दैनिक जीवन में जो कार्यक्रम होते हैं, उनमें
से थोड़ाथोड़ा ही सही, परंपरा के साथ हम लोगों के पास आता
है और उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे ऊपर होता है। एक घंटे की
कॉलेजशिक्षा में यह कुछ नहीं होता है।
नृत्य के अभ्यास/रियाज के संबंध
में आपकी राय?
हम रियाज में ही तो रहते हैं। इसी का ख्याल रातदिन रहता है। या
तो कंपोज करते हैं या कार्यक्रम प्रस्तुत करने जाते हैं। दैनिक जीवन
में हर वक्त इसी का ख्याल रहता है। लेकिन दोचार घंटे नियमित
नृत्य का रियाज करना चाहिए।
रियाज न करने से हाथपैर ढीले हो
जाते हैं। जैसे खिलाड़ी का पांव हर वक्त चलना चाहिए, अभ्यास में
रहना चाहिए, नहीं तो अंग सब शिथिल हो जाते हैं। एक आइटम को
सौ बार करने पर भी, कभीकभी ऐसा मन में आ जाता है कि इस
चीज को ऐसा करने से और अच्छा रहेगा। इसको बदलना चाहिए। पालिश
होती जाती है और मन के अनुभव के अनुसार वह बदलती भी जाती है।
विदेशों में भी आपने अपने ओड़िसी
नृत्य से दर्शकों को अभिभूत किया है। विदेशों का कोई यादगार
संस्मरण?
एक संस्मरण सुनाती हूं। हम अंतर्राष्ट्रीय नृत्य समारोह में, पेरिस
गए थे। चार दिन का कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा। पांचवे दिन उन्होंने
केवल गीत गोविंद
पर अभिनय करने को कहा। बहुत डर लगा। मैंने सोचा, भारत में ही
गीत गोविंद नहीं समझते हैं, संस्कृत नहीं समझते, यहां क्या
समझेंगे। लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि वहां जो लोग आए हुए थे
वे इतना पढ़कर आए थे कि जब उन्होंने जगन्नाथ जी के बारे में,
हमसे एक के बाद एक प्रश्न किया तो हम चकित रह गए। यहीं नहीं,
बहुतसे लोग भारतीय पोशाक में भी आए थे। दो घंटे केवल
अभिनय देखने के बाद उन्होंने अनुरोध किया कि एक और अभिनय
कीजिए। पश्चिम में लोग भारतीय कला में रूचि ले रहे हैं जबकि हम
लोग पश्चिम का अंधानुकरण करने में लगे हैं।
कुछ नृत्यकर्मी फिल्ममाध्यम से भी
जुड़ चुके हैं। आप फिल्ममाध्यम और शास्त्रीय नृत्य के जुड़ने के
संबंध में क्या सोचती हैं?
आप फिल्म को फिल्म ही रहने दीजिए, और मंच को मंच। शास्त्रीय नृत्य
को लोकप्रिय क्या करना है, वह तो लोकप्रिय है ही। शास्त्रीय नृत्य की
विधि अलग हैं, इसकी परंपरा अलग है और फिल्म में आज जो चलता है,
उसमें शास्त्रीय कला को संपूर्ण रूप से प्रदार्शित करना संभव नहीं है।
मंच के ऊपर रहकर ही यह शोभा पाती हैं।
फिल्म बाते अपनी तकनीक के हिसाबसे
शास्त्रीय नृत्य को लेते हैं तो अक्सर समझौते करने पड़ते हैं। यह
किसी ईमानदार कलाकार को अच्छा नहीं लगता है। समझौते की बात से
कलाकार के मन को ठेस पहुंचती हैं।
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