मॉरिशस में हिंदी को सम्मानजनक स्थान मिलना बाकी है
प्रह्लाद रामशरण से रणजीत पांचाले की बातचीत
प्रह्लाद रामशरण मॉरिशस के मूर्धन्य साहित्यकार-इतिहासकार
हैं। हिंदी में अब तक ४० पुस्तकें लिख चुके हैं। अपने
शोध-पत्रों तथा ग्रंथों के द्वारा उन्होंने देश के इतिहास
को नए आयाम दिए हैं। वे त्रिभाषी (हिंदी-अंग्रेज़ी-फ्रेंच)
पत्रिका 'इंद्रधनुष’ के प्रधान संपादक हैं। उनकी पुस्तक
'मॉरिशस की लोककथाएँ’ का जर्मन तथा मराठी भाषाओं में
अनुवाद हो चुका है। 'मॉरिशस के आदि काव्य कानन’, 'मॉरिशस
के मध्यकालीन काव्य प्रसून’ तथा 'मॉरिशस का इतिहास’ उनकी
चर्चित पुस्तकें हैं। उन्होंने फ्रेंच तथा अंग्रेज़ी भाषाओं
में भी लगभग ३० पुस्तकें लिखी हैं। अपने पुरखों के देश
भारत से उन्हें विशेष लगाव है। वे प्रतिवर्ष एक माह के लिए
भारत आते हैं। प्रस्तुत है पिछले दिनों बरेली में उनसे हुई
रणजीत पांचाले की बातचीत के कुछ अंश-
आपने मॉरीशस के हिंदी साहित्य पर काफी शोध किया है। क्या
आप संक्षेप में वहाँ की हिंदी की साहित्यिक यात्रा पर कुछ
प्रकाश डालेंगे?
मॉरीशस में हिंदी साहित्य के प्रवर्तक मणिलाल डाक्टर थे।
उन्हें १९०७ में महात्मा गाँधी ने वहाँ भेजा था। उन्होंने
ही सबसे पहले १९०९ में मॉरिशस में एक हिंदी दैनिक का
प्रकाशन प्रारम्भ किया था, जिसका नाम 'हिन्दुस्तानी’ था।
उसमें हिंदी की कविताएँ, निबंध आदि छपते थे। दुर्भाग्य से
अब उसके अंक अनुपलब्ध हैं, लेकिन २ मार्च १९१३ की एक प्रति
अभिलेखागार में सुरक्षित है, जिसमें कविता 'होली’ और लेख
'सत्य होली’ मिला है। उसके बाद कुछ और दैनिक/साप्ताहिक
प्रकाशित हुए। 'मॉरिशस इंडियन टाइम्स’ (१९२०-२४), 'मॉरिशस
आर्य पत्रिका’ (१९२४-३९), 'आर्य वीर’ (१९२९-५०)में भी कई
लेख, कविताएं एवं निबंध प्रकाशित हुए।
देश की प्रथम हिंदी पुस्तक 'मॉरिशस का इतिहास’ है, जो १९२३
में पं० आत्माराम विश्वनाथ द्वारा लिखी गई थी। जयनारायण
राय ने १९४१ में 'जीवन संगिनी’ एकांकी लिखकर स्थानीय
रंगमंच की नींव डाली। दौलत शर्मा ने साठ के दशक में
'अनुराग’ साहित्यिक पत्रिका शुरू की। सोमदत्त बखोरी ने
नाटक और कहानियाँ लिखीं। अपने लेखन और साहित्यिक तथा
सांस्कृतिक गतिविधियों से मॉरिशस में हिंदी आंदोलन को पं०
वासुदेव विष्णुदयाल तथा बखोरी जी ने जो अनूठा स्वरूप
प्रदान किया, उसके लिए हिंदी जगत उनका सदैव ऋृणी रहेगा।
सन् १९६८ में देश की स्वतंत्रता के बाद से डा० मुनीश्वरलाल
चिंतामणि, अभिमन्यु अनत, प्रह्लाद रामशरण तथा रामदेव
धुरंधर हिंदी के स्तम्भ रहे हैं।
वहाँ के हिंदी साहित्यकार आजकल किन-किन विधाओं में अधिक
लिख रहे हैं?
वर्तमान समय में कविताएँ और कहानियाँ बहुत लिखी जा रही
हैं। उपयान्स तो अभिमन्यु अनत और रामदेव धुरंधर लिखते रहे
हैं। एक-दो और लोगों ने भी उपन्यास लिखे, पर वे कोई प्रभाव
नहीं छोड़ पाए।
'लघु भारत’ कहे जाने वाले इस द्वीप-देश में हिंदी
पत्रकारिता की क्या स्थिति है?
बीसवीं सदी में वहाँ हिंदी की ४२ पत्र-पत्रिकाओं का
प्रकाशन हुआ। मॉरिशस के समान एक भी भारतेतर देश ऐसा नहीं
है जहाँ हिंदी की इतनी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हों।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ६७ प्रतिशत भारतवंशियों के
देश में अब एक भी हिंदी दैनिक नहीं निकलता है। आर्य सभा का
साप्ताहिक 'आर्योदय’, महात्मा गाँधी संस्थान का त्रैमासिक
'बसंत’ और हिंदी प्रचारिणी सभा का त्रैमासिक 'पंकज’
प्रकाशित होता है। इसके विपरीत फ्रेंच भाषा के छह दैनिक और
अंग्रज़ी के साप्ताहिक समाचार-पत्र प्रकाशित होते हैं।
क्या भारतवंशियों की हिंदी में दिलचस्पी खत्म होती जा रही
है?
जो भारतवंशी फ्रांस या इंग्लैण्ड से पढ़कर लौटते हैं, वे
अपनी भाषा और संस्कृति को तुच्छ समझने लगते हैं। वहाँ आम
जनता फ्रेंच समझती है। सरकारी भाषा अंग्रेज़ी है। ऐसे में
लोगों को लगता है कि हिंदी सीखने से कोई लाभ नहीं है। देश
में हर तरफ फ्रेंच का बोलबाला है।
फ्रेंच के इतने दबदबे का कारण क्या है?
दो सौ साल पहले अंग्रज़ों ने जब मॉरिशस को जीता तो
फ्रांसीसियों के साथ संधि में यह प्रावधान किया था कि
फ्रांसीसी लोग अपनी भाषा-संस्कृति को बनाए रख सकेंगे। यह
अंग्रेज़ों की एक बड़ी भूल थी। उसके बाद से फ्रेंच की जड़ें
दिनोंदिन और गहराती चली गईं। आज मॉरिशस फ्रेंच का एक मज़बूत
गढ़ है।
क्या मॉरिशस सरकार हिंदी को प्रोत्साहन नहीं दे रही है?
सरकार का रुख सकारात्मक है। सरकारी प्राइमरी स्कूल से
विश्वविद्यालय स्तर तक हिंदी पढ़ाई जा रही है। इनके अलावा
सायंकालीन पाठशालाओं में हिंदी पढ़ाने वाले तीन-चार सौ
अध्यापकों को भी वेतन देकर सरकार हिंदी की शिक्षा को
प्रोत्साहन दे रही है। इस सबके बावजूद हिंदी को सम्मानजनक
स्थान मिलना अभी बाकी है। देश में त्रिभाषा
(हिंदी-अंग्रेज़ी-फ्रेंच) फार्मूला लागू किया जाए और इन्हीं
भाषाओं में सरकारी कामकाज हो, तभी हिंदी सम्मानजनक स्थान
पा सकती है।
मॉरिशस में कभी हिंदी स्पीकिंग यूनियन बनी थी। अब इसकी
क्या स्थिति है?
यह अब भी सक्रिय है। रेडियो पर इसके कार्यक्रम प्रसारित
होते हैं। यह समय-समय पर गोष्ठियाँ, निबंध-प्रतियोगिता तथा
वाचन-प्रतियोगिताएँ कराती है। इसे भी सरकार से वित्तीय मदद
मिलती है।
आपको मॉरिशस में हिंदी का भविष्य कैसा नजर आता है?
बहुत उज्जवल तो नहीं कह सकता, लेकिन स्थिति निराशाजनक भी
नहीं है। अनेक शिक्षक और साहित्यकार हिंदी के प्रसार के
लिए प्रयत्नशील हैं, लेकिन हिंदी को देश में उचित स्थान
दिलाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ेगा।
मॉरिशस के हिंदी प्रेमी भारत से क्या अपेक्षा रखते हैं?
हम चाहते हैं कि भारत सरकार मॉरिशस में एक लाइब्रेरी बनवाए
जिसमें भारत के सभी हिंदी लेखकों की कृतियाँ उपलब्ध हों।
यहाँ की प्रमुख पत्रिकाएँ भी वहाँ निरंतर पहुँचती रहें।
महात्मा गाँधी १९०१ में मॉरिशस गए थे। वहाँ के स्वाधीनता
आंदोलन पर गाँधीजी के विचारों का काफी असर रहा है। क्या
देश की नई पीढ़ी भी गाँधी-दर्शन को पसंद करती है?
सच कहूँ तो-नहीं। युवा पीढ़ी की ऐसी बातों में कोई दिलचस्पी
नहीं है। मॉरिशस में पाश्चात्य संस्कृति की हवा पूरे वेग
से बह रही है। इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी के इस युग में नौजवान
हमारे हाथों से निकलते जा रहे हैं।
आपके पसंदीदा भारतीय साहित्यकार कौन हैं?
प्रेमचंद मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हैं। उनकी लगभग सभी
कृतियाँ पढ़ी हैं। उनके अलावा चतुरसेन शास्त्री, प्रभाकर
माचवे, मैथिलीशरण गुप्त, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, राजेन्द्र
यादव और जैनेन्द्र कुमार भी मुझे प्रिय हैं।
आपने फ्रेंच, अंग्रेज़ी और हिंदी की काफी पुस्तकें पढ़ी हैं।
आपकी सबसे प्रिय पुस्तक कौन सी हैं? किस प्रकार की
पुस्तकें आपको सबसे ज्यादा पसंद हैं?
विलियम हेनरी हडसन की पुस्तक 'फार अवे एंड लॉन्ग एगो’ मुझे
सबसे ज़़्यादा पसंद है। उन्होंने अपनी यह आत्मकथा बहुत ही
प्रभावशाली ढंग से लिखी है। उनके गद्य में कविता है। मुझे
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की यात्राओं तथा समुद्री जहाज़ों
द्वारा दुनिया की यात्राओं के वृतांत, आर्थर ग्रिम्बल
द्वारा प्रशांत के द्वीपों संबंधी पुस्तकें और तेनज़िंग
नोर्गे द्वारा लिखी गई एवरेस्ट पर चढ़ाई संबंधी पुस्तकें
बहुत पसंद हैं।
आप मॉरिशस में लंबे समय से आर्य समाज से जुड़े रहे हैं। देश
के सांस्कृतिक विकास में आर्य समाज के योगदान पर कुछ
प्रकाश डालेंगे?
मॉरिशस में भारतवंशियों का जो उत्थान हुआ है, उसका काफी
श्रेय आर्य समाज आंदोलन को जाता है। हमारे पूर्वज १८३४ में
भारत से मॉरिशस जाने लगे थे, लेकिन सन् १९०० तक वहाँ उनका
जीवन कष्टों से भरा था। उनके बीच न तो कोई नेता पैदा हुआ,
न उनका वहाँ कोई मंदिर बना और न ही वे आज की तरह उत्साह
भरे वातावरण में अपने पर्व मनाते थे। संयोग से एक भारतीय
सूबेदार भोलानाथ तिवारी १८९८ में मॉरिशस में स्वामी स्वामी
दयांनद कृत 'सत्यार्थ प्रकाश’ लाए। वे अंग्रेज़ी फौज की
बंगाल फर्स्ट रेजिमेंट में थे। जब १९०३ में यह रेजिमेंट
भारत लौटने लगी, तो उन्होंने पुस्तक एक पंडित को दे दी। कई
लोगों के हाथों में होती हुई यह पुस्तक जब तोता लाल
(खेमालाल) लाला के पास पहुँची, तो उन्होंने मॉरिशस में
आर्य समाज की नींव डाल दी। दूसरे दशक के अंत तक तो आर्य
समाज देश का एक मज़बूत संगठन बन गया। लोगों को हिंदी पढ़ाने
की शुरुआत आर्य समाज ने की। रूढ़िवादियों के साथ आर्य समाज
का काफी संघर्ष हुआ। इस संघर्ष से प्रगति हुई। आर्य
समाजियों को देखकर पौराणिक भी मंदिरों-बैठकों में हिंदी
पढ़ाने लगे।
जिस देश में ५०० गाँव हों और ४५० गाँवों में आर्य समाज की
शाखाएँ हों, वहाँ आप इस संगठन की मज़बूती का अनुमान लगा
सकते हैं। आर्य समाज की इन शाखाओं में प्रत्येक रविवार को
यज्ञ-सत्संग होते हैं। जो परिवार शुरू में ही आर्य समाज से
जुड़ गए, उन परिवारों ने सांस्कृतिक, व्यावसायिक आदि
क्षेत्रों में बहुत तरक्की की। ऐसे ही परिवारों से डाक्टर,
बैरिस्टर, साहित्यकार आदि निकले। वर्तमान समय में आर्य
समाज के माध्यम से देश में २०० से अधिक सायंकालीन
पाठशालाएँ चल रही हैं। इनके अलावा आर्य समाज अन्य कई
विद्यालयों का भी संचालन कर रहा है जिनमें मंत्री भी अपने
बच्चों को पढ़ाने के इच्छुक रहते हैं।
देश के सांस्कृतिक विकास में आर्य समाज का बहुत बड़ा योगदान
है। आर्य समाज ही स्त्री को घूँघट से बाहर लाया। जात-पात,
बाल-विवाह और दहेज-प्रथा जैसी बुराइयों का डटकर विरोध
किया। अंधविश्वासों पर कड़े प्रहार किए। 'मॉरिशस आर्य
पत्रिका’, 'आर्यवीर’, 'आर्यवीर-जागृति’ और 'आर्योदय’ जैसे
पत्रों के ज़रिए लोगों को भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ
पक्षों से अवगत कराया और भारतवंशियों में अपनी संस्कृति के
प्रति गौरव की भावना पैदा की।
मॉरिशसीय आर्य समाज में आपका क्या योगदान है?
सन् १९५५ में भारत से आए आर्य विद्वान महात्मा आनंद भिक्षु
से दीक्षित होकर मैं आर्य समाजी बना था। सन् साठ में पोर्ट
लुई के पास स्थित सेंत क्रोआ ग्राम में कुछ लोगों के साथ
मैंने आर्य समाज की एक शाखा स्थापित की थी। इस समाज के
मंत्री पद पर रहा। बाद में इसी समाज की सायंकालीन पाठशाला
में हिंदी पढ़ायी। एक पुस्तकालय खोला। महिला मंडल की भी
नींव डाली। श्रद्धानंद आश्रम, गया सिंह अनाथालय, विद्या
समिति तथा डीएवी कॉलेज समिति का सदस्य रहा। १९८२ से १९८४
तक आर्य सभा, मॉरिशस का मंत्री रहा। इसी अवधि में पोर्ट
लुई में आर्य सभा के नए भवन का निर्माण कराया। उन दिनों
भारतीय आर्य विद्वान स्वामी दिव्यानंद ने मॉरिशस में कहा
था कि यहाँ के नौजवान फ्रांसीसी भाषा का प्रयोग करते हैं,
इसलिए उसी भाषा में अगर स्वामी दयानन्द और आर्य समाज
संबंधी पुस्तकें लिखी जाएँ, तो उत्तम होगा। इसीलिए मैंने
१९८३ में फ्रेंच भाषा में स्वामी दयानंद की जीवनी 'स्वामी
दयांनद ला वी ला एला प्रोफेस्यों दे फ्वा’ (स्वामी दयानंद
का जीवन और उनकी धर्मनिष्ठा) लिखी। इसके अलावा मॉरिशस के
आर्य समाज आंदोलन पर भी कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें
हिस्ट्री ऑव आर्य समाज इन मॉरिशस, आर्य समाज इन नटशेल,
मॉरिशसीय आर्य समाज के चमकते सितारे और स्वामी दयानंद एंड
हिज़ इम्पैक्ट ऑन हिंदुइज़्म को पाठकों ने काफी सराहा। मेरी
एक और पुस्तक 'मॉरिशसीय आर्य समाज की विभूतियाँ’ स्टार
पब्लिकेशंस (नई दिल्ली) से आई है।
आप 'इंद्रधनुष’ पत्रिका के प्रधान संपादक हैं। यह किस तरह
की पत्रिका है?
आज मॉरिशस के लोग अपने महान् पूर्वजों के तप और त्याग को
भूल गए हैं। देश के इतिहास में उन महापुरुषों को उचित
स्थान मिले और वास्तविक इतिहास लोगों के सामने आए, यही
इन्द्रधनुष का उद्देश्य है। इस पत्रिका में साहित्यिक और
इतिहास संबंधी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। हर अंक विशेषांक
होता है। इन्द्रधनुष का प्रकाशन १९८८ में आरंभ हुआ था।
तेरह वर्षों तक हमने इसे सिर्फ हिंदी में प्रकाशित किया।
सीमित साधनों के बावजूद हमने अपने उद्देश्यों में सफलता
प्राप्त की और कितने ही विस्मृत हिंदी सेवकों,
साहित्यकारों और सांस्कृतिक प्रतिनिधियों का समग्र
मूल्यांकन करके मॉरिशस के साहित्यिक और सांस्कृतिक जगत में
उन्हें उचित स्थान दिलाया। ठोस प्रमाणों और दस्तावेजों के
आधार पर उन देशभक्तों के जीवन और कार्यों पर प्रकाश डाला
जिन्हें समाज ने बिल्कुल भुला दिया था। लेकिन जब हमें
महसूस हुआ कि इंद्रधनुष की बहुपयोगी सामग्री से अंग्रेज़ी
और फ्रेंचभाषी वंचित हो रहे हैं, तो हमने सन् २००० से इसे
त्रिभाषी बना दिया। इससे दूसरी भाषाओं और संस्कृतियों के
लोगों के साथ आपसी समझ-बूझ और विचार-विनियम का मार्ग
प्रशस्त हुआ। मॉरिशस के बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और
बहुजातीय समाज के विरोधाभासों को दूर करने में भी कुछ मदद
मिली। तीन भाषाओं (हिंदी-अंग्रेज़ी-फ्रेंच) में होने के
कारण देश के सभी लोग इसे पढ़ सकते हैं।
देश की नई पीढ़ी को महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू और
अरविंद घोष के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित कराने के
लिए उन पर विशेषांक निकाले। छब्बीस वर्षों में हमने ३३
विशेषांक निकाले हैं। भाषाओं की दीवारों को तोड़ते हुए
मॉरिशस के फ्रेंच साहित्यकारों लेओविल लोम, राबर्ट एडवर्ड
हार्ट, मालकोम दे शाज़ाल, मार्सेल काबों और अंग्रेज़ी भाषा
के साहित्यकार जॉन दे लिंगन किलबर्न पर भी अंक प्रकाशित
किए। लेओविल लोम मॉरिशस के प्रथम राष्ट्रकवि थे। उन्होंने
'बुद्ध’ पर लंबी कविता लिखी थी। श्री रामचंद्र की
जीवनसंगिनी सीता पर भी एक कविता लिखी थी।
भारत के संदर्भ में जॉन दे लिंगन का ज़िक्र मैं विशेष रूप
से करूँगा। भारतीय संस्कृति के प्रशंसक लिंगन (जो तीस से
अधिक भाषाओं के ज्ञाता थे) ने कहा था 'हिंदी सबसे उत्तम
भाषा है।’ उन्होंने संस्कृत ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया
था। हिंदी पर उनका अधिकार था। उन्होंने १९३७ में अंग्रेज़ी
में 'द भगवत गीता ऑर द लॉर्ड’स सॉन्गस’ और 'द गोल्डन
थ्रैशोल्ड, एन इंट्रोडक्शन टू द हिंदू फेथ’ पुस्तकें लिखी
थीं। इसके पूर्व १९३५ में उन्होंने 'हिंदू धर्म की
विश्वव्यापी चेतना’ पैम्फलेट लिखा था। उन्होंने 'माया का
सिद्धांत’ तथा ऋग्वेद के दसवें अध्याय से प्रेरित होकर
'हिंदू प्रार्थना’ पुस्तकें भी लिखी थीं। लिंगन कहा करते
थे- 'मानवता को बचाने के लिए रोशनी पूरब से आएगी।’ वे
क्रिश्चियन पादरी होकर भी हिंदू धर्म का प्रचार करते थे।
आज भारत और मॉरिशस के लोग लिंगन को भूल चुके हैं। हमने
२०११ में उन पर इंद्रधनुष का विशेषांक निकाला और उनकी कई
दुर्लभ रचनाओं को प्रकाशित किया। मॉरिशस में जब १९३६ में
इंडियन कल्चरल एसोसिएशन का शुभारंभ हुआ था, तब उन्होंने
रोज़ा हिल के प्लाज़ा थियेटर में धाराप्रवाह हिंदी में
रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भाषण दिया था। दुनिया में कम लोग
होंगे जिन्होंने टैगोर पर इतना पांडित्यपूर्ण भाषण दिया
होगा। हमने उस भाषण को अविकल प्रकाशित किया। लिंगन
छायावादी कवि थे। उनकी अनेक कविताओं को हमने पहली बार
हिंदी में अनूदित करवाकर छापा। उनकी एक कविता का अंश है-
'काँटों के नुकीलेपन से सुंदर संगीत का सृजन हो सकता है।
शिशु के शांत होंठ से अनंत का वर्णन हो सकता है।’ एक और
अंश है- 'वे कौन हैं जो अरुणोदय की आँखों से मुस्करा रहे
हैं। किसके रक्त से पानी जैसा रात का अंधकार बह रहा है?’
इंद्रधनुष में हमने उनका एक लेख 'हिंदुस्तानी और भविष्य’
भी छापा है जिसमें उन्होंने कहा था- 'अगर भारतीयों ने अपनी
मातृभाषा (हिंदी) खो दी, तो एक परंपरा समाप्त हो जाएगी,
क्योंकि इस भाषा के पीछे ५००० वर्षों के निरंतर विकास का
इतिहास जुड़ा हुआ है।’
इंद्रधनुष पत्रिका की फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका आदि देशों
में माँग रहती है। मेरी इच्छा है कि भारत में ज़्यादा से
ज़्यादा हिंदी प्रेमी इस शोध पत्रिका को पढ़ें।
६ जुलाई
२०१५ |