डॉ वीएस नायपॉल भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक हैं। दो दिन पहले इन्हें साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार देने का ऐलान हुआ
है। भारत के तमाम लोग खुश हैं कि रवीन्द्र नाथ टैगोर के बाद नायपॉल ऐसे दूसरे भारतीय मूल के शख्स हैं जिन्हें यह सम्मान मिला
है। लेकिन आपकी प्रतिक्रिया तो काफी तल्ख है। आखिर इसकी मुख्य वजह क्या समझी जाए?
मेरी तल्ख़ी की वजह यही है कि नायपॉल को यह पुरस्कार राजनीतिक वजहों से दिया गया है। पहले भी साहित्य या शांति के लिए नोबल पुरस्कार राजनीतिक
कारणों से दिए गए हैं। इन मामालों में विवाद भी उठे हैं। चर्चिल को
साहित्य का नोबल पुरस्कार मिल चुका है। यद्यपि वे अच्छी अंग्रेजी लिखते हैं, लेकिन साहित्य
के लिए उनका कोई बड़ा योगदान नहीं था।
स्वीडिश अकादमी द्वारा दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों की विश्वासनीयता तो सारी दुनिया में हैं। हो सकता है कुछ अपवाद रहें
हो?
अपवादों की बात नहीं हैं। ऐसे तमाम मामलें हैं। सोवियत संघ
के बोरिस पारनसाक को उनके उपन्यास डा ज़िवागो (जिसे साम्यवादी संस्था ने प्रतिबंधित कर दिया था) पर नोबेल
मिला था। दर असल यह उपन्यास मार्क्सवाद और साम्यवाद के विरोध में लिखा गया है। सोवियत संघ को धर्म संकट में डालने के लिए वह पुरस्कार दिया गया
था। वह भी एक कवि को उपन्यासकार के रूप में। इसकी सिर्फ एक ही वजह थी कि यह विचारधारा पुरस्कार देनेवालों को अपने माफिक लग रही थी। यही वजह है कि फ्रांस के
मशहूर अस्तित्ववादी व दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र जो उपन्यासकार व
कहानीकार भी थे, को काफी देर से नोबेल पुरस्कार दिया गया। तीसरी दुनिया का प्रभाव यूरोप में ही नहीं, पूरी दुनिया
में रहा है। वे तीसरी दुनिया के देशों के संघर्षों के साथ थे।
वियतनाम
युद्ध में भी उन्होंने अमेरिका का विरोध किया था। बहरहाल उन्होंने यह कहकर यह पुरस्कार लेने से इन्कार कर दिया कि 'यह पुरस्कार तो आलू का बोरा है।' पिछले वर्ष भी साहित्य के लिए जो पुरस्कार दिया था उसको लेकर विवाद रहा है। यह पुरस्कार एक
ऐसे चीनी लेखक को दिया गया था जो पेरिस में रहता है।
तीसरी दुनिया के बहुत कम लोगों को नोबेल दिया गया है। यह पुरस्कार समयसमय पर बहस के दायरे में आता रहता है।
हालांकि कुछ श्रेष्ठ लेखकों को भी
नोबेल पुरस्कार दिया गया लेकिन काफी देर से। भारत में रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद तो किसी को यह सौभाग्य नहीं मिला। जबकि यहां कई लोग इसके पात्र रहें हैं
और आज भी हैं।
.नायपॉल को मिले नोबेल में
आप ख़ास राजनीति कैसे देख रहें हैं?
11 सितंबर को अमेरिका में हुए आतंकी हादसे के बाद जो घटनाक्रम चल रहा है, वह महत्वपूर्ण है। अमेरिका, अफगानिस्तान, तालिबान और ओसामा बिन लादेन के
खिलाफ युद्ध लड़ रहा है। ऐसे में नायपॉल को पुरस्कार दिया जाने का एक खास संदर्भ हो सकता है।
वह किस तरह का?
दरअसल उन्होंने दो किताबें लिखी हैं इस्लाम के विरोध में। पहली किताब तो यात्रा वृत्तांत हैं। ईरान, पाकिस्तान,
मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे इस्लामी देशों की यात्रा
करके उन्होंने 'अमंग दि बिलीवर्स' लिखी। इसके बाद उन्होंने दूसरी किताब लिखीं ' बियाण्ड बिलीव', इन किताबों में लगभग यहीं
स्थापनाएं हैं जो कि 1990 के आसपास के 'फॉरेन
अफेयर्स जनरल' में अमेरिका के सेम्युअल पी हंटिग्टन के प्रकाशित लेख में हैं।
हंटिग्टन ने 'सभ्यताओंका संघर्ष' नाम से एक लेख लिखा था जो बाद में किताब के रूप में
भी आया। दरअसल, आज अमेरिका जो कर रहा है, यह उसका एक घोषणापत्र जैसा था। इसमें सैम्युअल ने कहा था कि सोवियत संघ के बिखरने के बाद दुनिया
में विचारधाराओं का संघर्ष खत्म हो गया है। इसलिए अब दुनिया में बड़ी सभ्यताओं के बीच संघर्ष होगा। पश्चिमी देशों को उन्होंने ईसाई सभ्यता माना और एशिया की तीन बड़ी
सभ्यताओं में उन्होंने इस्लाम को ऐसी सभ्यता के रूप में चिन्हित किया जिसका
ईसाइयत से टकराव तय है। इस्लाम को उन्होंने पश्चिम का सबसे खरतनाक दुश्मन
करार दिया। हंटिग्टन की इस अवधारणा के बाद इराक से अमेरिका का टकराव और बढ़ा। अब अफगानिस्तान से नया सिलसिला शुरू हुआ है। नायपॉल भी इसी
पृष्ठभूमि से जुड़े है।
सीधे तौर पर नायपॉल ने तो ऐसा कुछ नहीं लिखा?
1992 में अयोध्या में बाबरी मसजीद गिराई गई थी तो इसे उन्होंने हिंदू गर्व का प्रतीक माना था। बाद
के यात्रा वृत्तांतों में इस्लाम की खबरे बढ़ाने में उनकी कुशलता
को काफी महत्व दिया गया। इसलिए 11 सितंबर के बाद के घटनाक्रम को देखते हुए नायपॉल को पुरस्कार दिया जाना कुछ सवाल तो उठाता ही है।
नोबेल पुरस्कार देने वाली स्वीडिश अकादमी इतनी
जल्दी अमेरिकी दबाव से प्रभावित हो भी सकती है?
पुरस्कार देने का निर्णय करने वाला निर्णायक मंड़ल तो बदलता रहता है, केवल स्वीडन की
बात नहीं हैं। इसमें तमाम देशों के सदस्य होंगे। ऐसे राजनीतिक दबाव
से ये पुरस्कार प्रभावित होते रहे हैं। इसलिए इस बार भी शक है। क्योंकि नायपॉल
को इस बार ही क्यों चुना? उनका नाम तो 8 10 वर्षों से चल रहा था।
लेकिन इस मौके पर नायपॉल को पुरस्कृत करके दुनिया को एक खास राजनीतिक संदेश देने की कोशिश जरूर लगती है।
उनके लेखन के प्रति आपकी कसौटी क्या है?
नायपॉल के पुरखे भारत के थे। उनका जन्म तो त्रिनिनाद में हुआ था। वह भी
पहले एक उपनिवेश रहा है। अब वे ब्रिटेन में रहते हैं। यहां उन्हें 'सर' की उपाधि दी
गई है तो इसका कोई कारण होना चाहिए। एक 'उपनिवेश' में पैदा होने के बावजूद नायपॉल का
रूख़ 'उपनिवेशों' के बारे में बहुत ही नकारात्मक है। दरअसल वे
'उपनिवेश' को भी एक गुण मानते हैं। उदाहरण के लिए उनकी दो किताबों का जिक्र कर
रहा हूँ। भारत, चीन युद्ध के बाद वे 1964 में भारत आए थे। भारत का दौरा करने के बद उन्होंने
'एरिया ऑफ डार्कनेस' किताब लिखी थी।
उस समय भी भारत के 'मीडिया' ने इस किताब पर काफी रोष व्यक्त किया गया था। आज़ादी मिलने के 10 वर्ष बाद भी उन्हें यह मुल्क, अंधःकार का क्षेत्र ही लगा
था। दूसरी पुस्तक 'इंडिया अ
वूंडेडे सिविलाइजेशन' यानी भारत की घायल सभ्यता। इसमें भी कड़ा प्रश्न है भारत के पिछड़ेपन पर। तीसरी पुस्तक उन्होंने
'इंडिया अ मिलियन म्युटिनीज' कश्मीर की यात्रा के बाद लिखी। इसमें उन्होंने लिखा कि भारत में एक काश्मीर पर ही संघर्ष नहीं है। ऐसे दस लाख विद्रोह है।
इस किताब में हिंदुस्तान के टुकड़ेटुकड़े होने पर जश्न जैसा मनाया गया है।
यहाँ नक्सलवादी हैं पूर्वोत्तर में विद्रोही, पंजाब में आंदोलन है।
इस सबका
विवरण ऐसे दिया गया कि टुकड़ों में टूटना भारत की नियति है। भारत के संदर्भ में लिखी गई इन तीनों पुस्तकों को मैंने अच्छी तरह पढ़ा है। मुझे लगा कि
नायपॉल के पुरखे भले भारत में रहे हों, लेकिन उन्होंने जिस नजर से भारत को देखा है वह वास्तविक भारत नहीं हैं। उन्होंने तो भारत की गरीबी, बेहाली को ही
बेचने का काम किया है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि उनका लेखन दुनिया को भारत की आत्मा का परिचय कराने वाला है, सो हम गर्व करें कि एक भारत के मूल
को नोबेल मिला है तो चलो हम खुश हो लें। मुझे तो इसमें जरा भी गर्व नहीं है।
लेकिन भारत में नायपॉल के पुरस्कार मिलने पर तो लोग खुश हैं। खासतौर 'हिंदुत्ववादी' तो कुछ ज्यादा ही प्रसन्न हैं?
लेकिन ये हिंदुत्ववादी भी समझ लें कि नायपॉल का हिंदुत्व भी जरा अलग है। उनके जैसा नहीं है। दरअसल नायपॉल अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी
देशों की मानसिकता को खादपानी पहुंचाते हैं। टोनी ब्लेयर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैं। नायपॉल ब्रिटेन में रहते हैं। उन्हें 'सर' की उपाधि वहां सत्ता प्रतिष्ठान की
कृपा से मिली है। अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध में अमेरिका के साथ नायपॉल के देश के ब्लेयर की भी महत्वपूर्ण भूमिका का कोई कोण भी नायपॉल के लिए फायदे
का रहा होगा।
एक तरफ अपने लेखन में नायपॉल ने भारत के
नकारात्मक पक्षों को ही उजागर किया है। तमाम भारतीय परंपराओं पर तीखे कटाक्ष किए हैं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री
बाजपेयी ने बधाई संदेश में कहा है कि उनके लेखन में भारतीय परंपराओं के मूल्य प्रतिबिंबित होते हैं। इसे क्या कहेंगे?
मैं यही कहूंगा कि 'दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है' ये खुद अपनी पीठ ठोक लें कि 'हिंदुत्व' को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली हैं, लेकिन यह हकीकत
नहीं हैं। मुझे शक है कि यह टिप्पणी कहने वाले प्रधानमंत्री ने नायपॉल की कोई किताब पढ़ी भी है।
तमाम समीक्षाओं में
तो यह कहा जा रहा है कि नायपॉल बहुत अच्छा
अंग्रेजी का गद्य लिखते हैं। आप क्या कहते हैं?
इसमें कोई शक नहीं है, उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है। वे अच्छे गद्यकार हैं। बहुत पठनीय गद्य लिखते हैं। उनकी जैसी अंग्रेजी लिखने वाले बहुत कम लेखक
हैं। यह सच है। 'बुकर' पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास पर मिला है। यात्रा वृत्तांत पर नहीं मिला। शरूआती दौर में उन्होंने कुछ अच्छे उपन्यास लिखे हैं। इसमें
एक है, 'अ हाउस फार मिस्टर बिस्वास' बहुत अच्छी है। फिर भी साहित्य नोबेल की कोटि का नहीं कहा जा सकता। यदि यह नायपॉल को इस साहित्य पर मिलता है तो ऐसे तमाम
लेखक भारत में आज भी हैं, जिन्हें यह मिलना चाहिए। क्यों कि इनका लेखन नायपॉल से कुछ अच्छा ही बैठेगा।
ऐसे भारतीय लेखक आपकी नजर में कौन हैं?
तीन चार लेखक तो हैं ही। सबके नाम बताने की जरूरत नहीं हैं। उनमें कुछ के नाम छूट जाएंगे तो लोग नाराज हो जाएंगे।
फिर भी एकदो नाम तो लीजिए?
नायपॉल ने कन्नड लेखक यूआरअनंतमूर्ति के बारे में अपनी एक किताब में सराहना में लंबा लेख लिखा है। प्रसिद्ध उपन्यासकार अनंतमूर्ति का उपन्यास 'संस्कार'
किसी मायने में नायपॉल के उपन्यासों से ज्यादा श्रेष्ठ बैठेगा। उन्हीं को नोबेल मिल जाना चाहिए। उत्कृष्टता की कसौटी पर तो नायपॉल के उपन्यास खरे नहीं हैं।
केवल अच्छी अंग्रेजी के लिए साहित्य का नोबेल दिया जाए, यह गले से नीचे नहीं उतरता।
नायपॉल के विचारों को तो आधुनिक माना जाता है?
यह सब कैसे कहा जा सकता है। मेरे खयाल से उनके विचार घनघोर
प्रतिक्रियावादी हैं। उनके विचार विश्व में विद्वेश फैलानो वाले हैं। सारे
इसलाम को खारिज
कर देना और हिंसक मानना कहां की आधुनिकता है? इसलामी देशों में कुछ अरब लेखक कुछ ईरानी लेखक बहुत अच्छे हैं। कुछ उर्दू लेखक बहुत अच्छे हैं।
इसलामी देशों में कई तरह की अच्छी संस्कृतियां हैं, लेकिन नायपॉल जैसे लोग खारिज कर डालते हैं।
स्वीडिश अकादमी बोर्ड के एक सदस्य पेट वेस्टबर्ग ने तो कहा है कि नायपॉल सभी धर्मों के प्रति धुर आलोचनात्मक दृष्टि रखते हैं। वे धर्म को ऐसा रोग मानते हैं जो
आदमी के सोचने, समझने और जोखिम उठाने की सहज ललक को कम करता है। इस टिप्पणी के बारे में क्या कहेंगे?
कोई शख्स सभी धर्मों के प्रति आलोचना का भाव रखता हो तो इसी वजह से वह ' सेक्युलर' नहीं हो जाता।
नायपॉल
इसीलिए प्रगतिशील नहीं हो जाएंगे कि ये सभी धर्मों का विरोध करते हैं। जो लोग किसी पर विश्वास नहीं करते, वे खूंखार और खतरनाक भी हो सकते हैं। एक
बात और है कि यदि नायपॉल के लेखन में मानवतावाद की झलक होती और दलितों व शोषितों के प्रति नाइंसाफी के खिलाफ संघर्ष की
गूंज होती तो भी एक बात
होती। लेकिन ऐसा उनके लेखन में कुछ नहीं है।
आखिर वे 'हिंदुत्व' से कैसे प्रभावित हुए होंगे?
उनके पूर्वज भले हिंदू रहे हों लेकिन उनमें सच्चे हिन्दू वाला हिंदुत्व ही नहीं है। ये तो केवल 'हिंदुत्व' को
भुनाकर हिंदुस्तान की भावनाओं का दोहन भले कर ले लेकिन मुझे उनमें कहीं
से 'हिंदुत्व' नहीं लगता।
गृहमंत्री आडवाणी ने तो कुछ भावुक होकर नायापॉल को भारत में स्थायी रूप से रहने का आमंत्रण दे डाला है। इसकी वजह क्या हो सकती है?
नायपॉल का भला भारत के लिए क्या संदेश हो सकता है? उनकी नजर में तो भारत ऐसी जगह है जहां दस लाख विद्रोह है,
अंधकार की दुनिया है और क्षतविक्षत
सभ्यताओं का अखाड़ा है। ऐसे में वे यहां आकर क्या रोशनी देंगे? वह तो आडवाणी और वाजपेयी ही जानें। हां, इतना हो सकता है कि नायपॉल के यहां आने
से अंध राष्ट्रवाद को बल जरूर मिलेगा, वे पाकिस्तान के खिलाफ एक 'राष्ट्रवादी' उन्माद को बहाने में जरूर मददगार हो सकते हैं।
आपने नायपॉल के नोबेल को सीधे अफगानिस्तान के हमलों से जोड़ दिया
है। इस तरह आप
इसका श्रेय आतंकी हादसों को ही देते हैं?
दरअसल, मैं समझता हूं कि नायपॉल को नोबेल तो ओसामा बिन लादेन और तालिबान ने ही दिला दिया है। यदि अफगानिस्तान के प्रति अमेरिका ने खार नहीं खाई
होती तो नायपॉल अभी भी नोबेल के इंतजार में बने रहते। चूंकि वे इसलाम के विरोध में लिखते हैं इसलिए ऐसा शक है और गहरा शक तो है ही।
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