ऐल्ते
विश्वविद्यालय, बुदापैश्त के भारत अध्ययन विभाग- में हिंदी
की वरिष्ठ रीडर डॉ. मारिया नेज़्यैशी के साथ गीता शर्मा की
बातचीत-
हंगरी में
हिंदी की गंगोत्री : मारिया नेज़्यैशी
हिंदी के समसामयिक विदेशी
विद्वानों का नाम स्मरण करते ही हंगरी की मारिया नेज़्यैशी
का नाम प्रमुखता से याद आता है। बुदापैश्त के ऐल्ते
विश्वविद्यालय के- भारत अध्ययन विभाग- में हिंदी की वरिष्ठ
रीडर डॉ. मारिया नेज़्यैशी को हंगरी में हिंदी की गंगोत्री
कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी। उन्होंने हंगरी में
हिंदी का अध्यापन उस समय शुरु किया था जब यहाँ हिंदी
पढ़ानेवाले तो क्या हिंदी के अच्छे जानकारों का भी ऩितांत
अभाव था(हंगरी में भारतीय लोगों की संख्या बहुत कम है),
ऐसे में मारिया जी ने न केवल स्वयं हिंदी में पी-एच.डी. तक
की पढ़ाई की अपितु आज उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप हंगरी
में डेढ़ हजार से अधिक लोग हिंदी जानते हैं। यह संख्या
प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। मारिया जी ने हिंदी में
अपनी रुचि जाग्रत होने के कारणों व स्थितियों से लेकर
आधुनिक हिंग्लिश बनती जा रही हिंदी तक के विषय में अपने
विचार प्रकट किए हैं। प्रस्तुत है गीता शर्मा से हुई उनकी
लंबी बातचीत के प्रमुख अंश-
गीता- मारिया जी, आपनें
हंगरी में हिंदी की पढ़ाई उस समय शुरू की जब यहाँ कोई भी
इस भाषा से परिचित नहीं था फिर आपके मन में हिंदी पढ़ने का
विचार कैसे आया ?
मारिया— मैं प्राचीन भाषाएँ
पढ़ना चाहती थी। माध्यमिक कक्षाओं में मैं लैटिन और रूसी
भाषाएँ पढ़ती थी। मैंने विश्वविद्यालय में इन्ही भाषाओं को
पढ़ने के लिए दाखिला लिया था। जब मैं लैटिन पढने लगी तब
मुझे संस्कृत की पढ़ाई के बारे में पता चला। मुझे यह भी
पता चला कि संस्कृत के प्रोफेसर तोत्तोशी चाबा साहब बहुत
सख्त हैं और जो ठीक से नहीं पढ़ता है, उसे कक्षा से भगा
देते हैं। पहले मैंने सोचा कि मैं उनकी कक्षा में जाऊँ या
नही, फिर मैंने जाने का निश्चय किया।
लैटिन भाषा में मेरी गहरी रुचि थी इसलिए अन्य प्राचीन
भाषाओं को जानने की भी इच्छा हुई। संस्कृत की पहली कक्षा
में गई तब एक भी शब्द समझ में नहीं आया। प्रोफेसर साहब
फोनेटिक्स के बारे में बता रहे थे, मुझे उस समय फोनेटिक्स
की ज़रा सी भी जानकारी नहीं थी। उसके बाद का पूरा हफ्ता
मैंने फोनेटिक्स पढ़ते हुए बिताया। पुस्तकालय से निकालकर
सारी किताबें पढ़ डालीं। दूसरी कक्षा में मेरी समझ में आने
लगा कि कक्षा में क्या बात हो रही है। फिर मैं उन्हें यह
भी दिखाना चाहती थी कि- प्रोफेसर साहब आप मुझे कक्षा से
नहीं निकाल सकेंगे- हुआ भी कुछ ऐसा ही। सत्र के अंत में,
मैं उस कक्षा में अकेली छात्रा बची थी, बाकी सभी छात्रों
को उन्होंने एक- एक करके भगा दिया था। इसी तरह मैं संस्कृत
पढ़ने लगी। पाँच साल में मैंने संस्कृत में एम. ए. किया।
इसके साथ लैटिन भी पढ़ती रही और फिर प्राचीन यूनानी भी। अब
मैं तीनों प्राचीन भाषाएँ पढ़कर तुलनात्मक भाषाविज्ञान के
क्षेत्र में काम कर सकती थी। मुझे लैटिन और भारत-विद्या
में एम. ए. की डिग्री मिली। एक साल बाद यूनानी में एम.ए.
किया, पर नौकरी नहीं मिली। परिवार का दबाव भी था। संयोग से
हंगेरियन एकेडेमी ऑफ साइंस के प्रकाशन विभाग में काम मिल
गया। यह प्राचीन यूनानी और लैटिन भाषा में किताबें
प्रकाशित करता है। पाँच साल तक मैंने इस तरह की किताबों का
संपादन किया। यह मेरे लिए बहुत अच्छा अनुभव था क्योंकि
इससे मुझे प्रकाशन संबंधी बहुत उपयोगी जानकारी मिली। इसी
बीच विश्वविद्यालय में प्राचीन यूनानी पढ़ाने के लिए मुझे
बुलाया गया। मैं प्रकाशन गृह की नौकरी के साथ प्राचीन
यूनानी और लैटिन दोनों भाषाएँ यहाँ पढ़ाने लगी।
गीता--फिर हिंदी में आपकी
रुचि कैसे हुई ?
मारिया- पाँच साल बाद
प्रोफेसर साहब ने कहा कि विभाग में कोई हिंदी पढ़ाने वाला
नहीं है, तुम हिंदी भी पढ़ाओ। मेरी हिंदी की जानकारी कम
थी। प्रोफेसर तोत्तोशी चाबाने कहा कि संस्कृत, लैटिन और
यूनानी पढ़ने के बाद हिंदी पढ़ाना संभव व आसान है। उस समय
पूरे हंगरी में एक भी हिंदी बोलने वाला नहीं था। भारतीय
दूतावास में भी उस समय सारे दक्षिण भारतीय थे, इसलिए वहाँ
भी कोई हिंदी बोलने वाला नहीं था। जैसे व्याकरण के आधार पर
संस्कृत पढ़ाई जाती है वैसे ही मैं हिंदी पढ़ाने लगी।
गीता--क्या आपने हिंदी की
विधिवत शिक्षा ली ?
मारिया- हाँ, १९८३ में मुझे
पहली बार हिंदी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति मिली। मैं भारत
गई और उसके बाद १९८५ में केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में
मैंने हिंदी पढ़ी। मैं यह मानती हूँ कि मेरी हिंदी की असली
पढ़ाई केंद्रीय हिंदी संस्थान में हुई। मैं वहाँ दस महीने
तक रही। नियमित पढ़ाई करने के साथ-साथ मैंने भारत- भ्रमण
का अपना शौक भी पूरा किया। यात्रा के दौरान मैं हर तरह के
लोगों से मिली। उनसे बातचीत की। मैं सोचती हूँ कि मेरा
स्कूल ये यात्राएँ भी थीँ। मैं यात्रा में सभी लोगों से
हिंदी में ही बात करती थी। इस तरह मैं अच्छी तरह से हिंदी
सीखती चली गई। इसके बाद मैंने १९९५-१९९६ में आगरा
विश्वविद्यालय के ‘कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी विद्यापीठ’
से- प्रेमचंद और मोरित्स जिगमोंद की रचनाओं का तुलनात्मक
अध्ययन- विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि हासिल की।
गीता--इस दौरान आपका भारत का
अनुभव कैसा रहा ?
मारिया- मैं चाहती थी कि मैं
भारत को अच्छी तरह से जान लूँ। मैं भारतीय लोगों की तरह ही
जीना चाहती थी, इसीलिए में यथासंभव भारतीय परिवारों के साथ
समय बिताना चाहती थी। इसीबीच भारत में मेरा अपना परिवार भी
बन गया था, जिसके तीन अलग-अलग लोग भारत के तीन कोनों में
रहते हैं। मेरे पिता केंद्रीय हिंदी संस्थान में मुझे
पढ़ानेवाले प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी हैं। मैं उनकी
विद्वता और पढ़ाने के तरीके की कायल हूँ। मैं उन्हें
भारतीय संस्कृति का सागर समझती हूँ। इनके अलावा मेरे दो
भाई भी हैं। पहले बड़े भाई हैं हुकुम सिंह। ये हंगरी में
पी-एच.डी. करने आए थे। दरअसल वे ही मेरे हिंदी के पहले
अध्यापक थे। हंगरी में मैंने उनके साथ ही पहली बार हिंदी
में बातचीत की थी।
मेरे दूसरे भाई देवी प्रसाद शास्त्री, भारत के दक्षिणी
हिस्से में रहते हैं। ये भाषाविद् हैं और सी.आई.आई.एल. में
काम करते हैं। मैं इनसे १९८३ में मिली थी। ये मेरे छोटे
भाई जैसे हैं।
गीता--क्या हंगरी में
स्वतंत्र हिंदी विभाग है?
मारिया- हंगरी में स्वतंत्र
हिंदी विभाग नहीं है, भारोपीय भाषा विभाग है। यह काफी
पुराना विभाग है। इसकी स्थापना वर्ष १८७३ में हुई थी। इस
समय इस विभाग की उम्र १३० वर्ष से अधिक है। पहले के
विद्वानों व भाषाविदों की रुचि संस्कृत में होती थी।
संस्कृत के आधार पर तुलनात्मक भाषा विज्ञान का विकास हुआ।
हमारे विभाग के सबसे पहले प्रोफेसर भी संस्कृत- भाषा के
विशेषज्ञ थे, उनका नाम था- औरेल मायर। १९२० तक प्रो. योज़ेफ
श्मित भाषाविज्ञान के साथ-साथ संस्कृत के भी विद्वान थे।
इन्होंने संस्कृत से हंगेरियन भाषा में अनेक अनुवाद भी किए
जैसे- मृच्छकटिकम्, पंचतंत्र और अनेक मूल संस्कृत रचनाओं
का पहला हंगेरियन अनुवाद किया। कुछ राजनैतिक कारणों से
उन्हें विश्वविद्यालय से हटा दिया गया। इसी कारण से कुछ
समय तक विभाग का काम स्थगित रहा।
गीता—फिर विभाग पुन: कब आरंभ
हुआ?
मारिया--१९५३ में विभाग का
पुनर्निमाण हुआ। भारतीय अध्ययन की कक्षाएँ फिर से शुरु
हुईं। उस समय बी.ए. और एम.ए. जैसे पाठ्यक्रम नहीं थे। पर
पाँच साल का पाठ्यक्रम होता था। एम.ए. की उपाधि न मिलने पर
भी पाँच साल का यह पाठ्यक्रम आधुनिक एम.ए. के बराबर होता
था। उस समय अर्पाद दैब्रैत्सेनी नामक एक व्यक्ति हिंदी
पढ़ाने लगे। वे अनुवादक के रूप में भारतीय दूतावास में काम
करते थे। वे उस समय तक भारत नहीं गए थे। इसलिए बोलचाल की
भाषा पढ़ाना उनके लिए असंभव था। पर जब मैंने हिंदी पढ़ाना
शुरु किया तब तक उनका देहांत हो चुका था। इसलिए जब मैं
हिंदी पढ़ाने लगी तब मेरे अलावा हिंदी पढ़ाने वाला और कोई
नहीं था। तोत्तोशी चाबा संस्कृत के प्रोफेसर थे। आज हंगरी
के सभी प्रमुख भारतविद् तोत्तोशी चाबा जी के छात्र रह चुके
हैं। वे १९५६ से यहाँ संस्कृत पढ़ा रहे हैं। हंगेरियन
भारतविदों के ज्ञान का स्रोत वे ही हैं, लेकिन हिंदी से
उनका भी कोई लेना-देना नहीं है।
गीता- मैने यह महसूस किया है कि यहाँ के लोगों के मन में
हिंदी के प्रति एक विशेष आदर और उत्साह है,इसका कोई विशेष
कारण ?
मारिया- भारत से हंगेरियन लोगों का विशेष प्रेम है, इसलिए
हिंदी पढ़ते हैं। हिंदी सीखकर उन्हें रुपए-पैसे के रूप में
या नौकरी के रूप में कोई लाभ नहीं मिलता। वे भारतीय
संस्कृति और भारत से परिचित हो जाते हैं। हंगेरियन लोग
भारतीय संस्कृति का बहुत आदर करते हैं। इसके अनेक ऐतिहासिक
कारण हैं। हम कह सकते हैं कि सदियों से हंगेरियन लोगों की
रुचि भारत के प्रति है, और पिछले १०० सालों से इस रुचि में
निरंतर वृद्धि हो रही है। हंगेरियन भारतविद् पूरे विश्व
में बहुत प्रसिद्ध हैं जैसे- सर औरेल श्ताइन, चोमा द कोरोश
आदि। मैं समझती हूँ हिंदी के प्रति प्रेम का यह एक बड़ा
कारण है।
गीता-- आपके ऐल्ते
विश्वविद्यालय के भारोपीय विभाग में आने के बाद ही हंगरी
में हिंदी की पढ़ाई शुरू हुई?
मारिया- (संकोच के साथ) हाँ,
आप ऐसा कह सकती हैं। मगर मुझे यह सब कहना अच्छा नहीं लगता।
मैं चाहती थी कि हिंदी को एक जीवित भाषा की तरह सीखूँ और
सिखाऊँ। आज मेरे छात्र मुझसे भी आगे निकल गए हैं। वे
नियमित रूप से पहले यहाँ पढ़ते हैं, फिर उनमें से अनेक
भारत जाकर पढ़ते हैं। इम्रै बंगा अंतराष्ट्रीय स्तर के
विद्वान बन गए हैं। उन्होंने रोमानिया में चीक्सैरैदा में
“चोमा ओरिएंटल इंस्टीट्यूट” की स्थापना की है। ये
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में अध्यापन
कार्य करते हैं। इन्होंने सबसे पहले मीराबाईँ की कविताओं
पर फिर भक्तिकाल के साहित्य पर कार्य किया। मीरा और घनानंद
की कविताओं का अऩुवाद भी इम्रै ने (एक कवि बलाज देरी के
साथ मिलकर) किया है। इस अनुवाद की विशेषता यह है कि
हंगेरियन भाषा में हिंदी के छंदों को ही अपनाकर अनुवाद
किया गया है। हंगेरियन भाषा में मात्रिक और वर्णिक दोनों
प्रकार के छंद हैं। हंगरी में छंदानुवाद करने की परंपरा
है। मूल भाषा के छंद को अनुवाद में अपनाया जाता है।
वोरोश शांदोर का गीत गोविंद का अनुवाद आप देखें तो उसमें
लय संस्कृत जैसी ही है। यह क्षमता हंगेरियन भाषा में ही
है। गीत गोविंद के हंगेरियन छंद सुनने में ऐसे लगते हैं
जैसे संस्कृत छंद हों। मीरा के पद भी हंगेरियन में सुनने
पर हिंदी जैसे ही लगते हैं।
गीता-- संभवत: इसलिए भी
छात्रों की रुचि हिंदी और संस्कृत साहित्य में अधिक होगी।
छात्र हिंदी पढ़ना अधिक पसंद करते हैं अथवा संस्कृत?
मारिया- हंगरी के भारतविद्या
विभाग के छात्र ज्यादातर संस्कृत पढ़ना पसंद करते हैं
क्योंकि उन्हें आधुनिक भारत इतना रुचिकर नहीं लगता है।
१०-१५ साल पहले तो सभी लोग संस्कृत पढ़ना चाहते थे, पर अब
जमाना बदल रहा है, और हम यह देखते हैं कि ३-४ साल से ऐसे
लोग आ रहे हैं जो हिंदी ज्यादा या सिर्फ हिंदी ही पढ़ना
चाहते हैं।
गीता- क्या कुछ ऐसे लोग भी हैं जो हल्के- फुल्के रूप में
या सिर्फ शौकिया हिंदी पढ़ना चाहते हैं? ऐसे लोगों को
हिंदी पढ़ाने की क्या कोई व्यवस्था है?
मारिया- जी हाँ, भारतीय
दूतावास ऐसे लोगों के लिए कक्षाएँ चलवाता है। जो भारतीय
दूतावास द्वारा आयोजित इन व्याख्यानमालाओं और हिंदी
कक्षाओं में आते हैं, वे सिर्फ शौक के लिए हिंदी पढ़ते
हैं। उसमें बूढ़े और जवान सभी तरह के लोग होते हैं, जो
भारत और हिंदी में रुचि रखते हैं। वे चाहते हैं कि जब वे
भारत जाएँ तो वहाँ हिंदी में बात कर सकें या थोड़ी-बहुत
हिंदी समझ सकें।
गीता-
आपने अभी बताया कि इधर लोगों की रुचि हिंदी में बढ़ रही है
इसका क्या कारण है?
मारिया- मेरे खयाल से हिंदी
फिल्मों के कारण भी लोग हिंदी में ज्यादा रुचि ले रहे हैं।
हिंदी फिल्में तो लोग देखते ही हैं। आजकल हंगेरियन एफ.एम.
रेडियो पर भी कभी-कभी हिंदी गाना सुनाई दे जाता है। पर
जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि आजकल यहाँ भी प्राचीन
संस्कृति में लोगों की रुचि कम हो रही है। ज्यादातर लोग
समझते हैं कि पूरब में जो आर्थिक विकास या सामाजिक
परिवर्तन हो रहा है, इसके कारण हमें पूर्वी क्षेत्रों से
ज्यादा परिचित होना चाहिए। वे पैसा कमाने के लिए भी उस ओर
ही जाना चाहते हैं। आजकल सब लोग सोचते हैं कि भारत और चीन
दो ऐसी महाशक्तियाँ हैं जो अभी ऊपर की ओर जा रही है। अत:
लोगों का रुझान उधर बढ़ रहा है।
गीता- मारिया जी आप इतने
लम्बे समय से हिंदी पढ़ा रही हैं, इस पठन-पाठन से जुड़ी
कोई रोचक घटना जो अविस्मरणीय हो, हमें सुनाइये।
मारिया- एक तो हिंदी पढ़ाना
मुझे हमेशा ही बहुत रुचिकर लगता है। हर कक्षा में जब मैं
जाती हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है । कभी-कभी मुझे लगता
है कि जिंदगी का सबसे अच्छा हिस्सा वह है, जब मैं अपनी
कक्षा में जाकर वहाँ बच्चों को पढ़ाती हूँ। यह मेरे लिए
आराम और खुशी का समय होता है। एक रोचक घटना आपको बताती
हूँ, एक बार मुझे त्रिनिदाद और टोबेगो जाने का अवसर मिला।
वहाँ मैं एक छोटे से गाँव में रही। गाँव वालों ने मुझे
बुलाया कि मैं उन्हें हिंदी पढ़ाऊँ क्योंकि वे लोग हिंदी
तकरीबन भूल गए थे। यह मैं अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूल
सकती कि वहाँ उस खूबसूरत देश मे एक गाँव के मंदिर के आँगन
में कुर्सी- मेज, ब्लैक-बोर्ड लगाकर मैं ऐसे लोगों को
हिंदी पढ़ा रही थी जो देखने में बिल्कुल भारतीय थे। मैं
हंगरी से आई लड़की उन्हें हिंदी पढ़ा रही थी। ऊपर आकाश में
चाँद सितारे और नीचे बैठे हुए ये लोग क, ख, ग सीख रहे थे।
मेरे लिए हिंदी पढ़ाने का यह दृश्य सबसे प्रिय दृश्य है।
दूसरी घटना जो मैं नहीं भूल सकती वह भारत की है , मैं जब
केंद्रीय हिंदी संस्थान के दिल्ली केंद्र में थी तब वहाँ
एक बावर्ची था मिश्रा। मिश्रा भी उसी वर्ष देहात से दिल्ली
आया था जब मैं वहाँ पहुँची थी। वह मेरा हिंदी का पहला
भारतीय शिष्य था। उससे बातचीत करने पर पता चला कि उसे
लिखना नहीं आता है तो मैंने उससे कहा कि अब तुम दिल्ली में
हो, राजधानी में, तुम्हें कम से कम पढ़ना- लिखना आना
चाहिए। मैंने उसके लिए एक किताब खरीदी बच्चों वाली रामायण
और फिर मैं उसे पढ़ाने लगी। मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं
हंगरी से भारत आकर एक भारतीय को देवनागरी सिखा रही हूँ।
अभी तक का सबसे प्यारा स्मरण यह है कि मेरे पास मिश्रा का
एक पत्र है। हाँ एक बात और जैसा कि मैंने बताया मिश्रा
खाना बनाता था और मुझे गुरु दक्षिणा यह मिली कि मेरा वज़न
१० किलो बढ़ गया। (हँसते हुए) मेस का सबसे अच्छा खाना मुझे
ही मिलता था।
गीता--हंगरी में हिंदी को
बढ़ावा देने में भारत सरकार का क्या योगदान है?
मारिया- भारत सरकार का इसमें
बहुत योगदान है, एक तो छात्रवृत्तियाँ हैं। दूसरा,
सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत यहाँ के छात्र हिंदी
सीखने भारत जाते हैं। तीसरी बात यह है कि जब मैं यहाँ
हिंदी पढ़ाने लगी तब यहाँ के विभाग में मुश्किल से हिंदी
की बीस-पचीस किताबें थीं और अब बहुत सारी किताबें हैं। हर
साल हमें भारत सरकार की ओर से किताबें मिलती रहती हैं।
१९९२ से भारत से विभाग के काम में सहायता करने के लिए एक
विज़िटिंग प्रोफेसर आते हैं जो हिंदी भाषा पढ़ाने के काम
में हमारी मदद करते हैं। बुदापैश्त में भारतीय सांस्कृतिक
केंद्र की स्थापना भी हो रही है जो भविष्य के लिए बहुत ही
महत्वपूर्ण होगा। हंगरी के लोग भारतीय संस्कृति से और
ज्यादा परिचित होंगे, क्योंकि इससे ज्यादा सुविधाएँ
मिलेंगीं।
गीता-
उपर्युक्त सुविधाओं के अलावा भारत सरकार को हंगरी में
बढावा देने के लिए कौन से कदम उठाने चाहिए?
मारिया- मैं चाहती हूँ कि
हिंदी पढ़ाने में मुझे और सफलता मिले। मैं बार-बार यह
प्रस्ताव दे रही हूँ कि विदेशों में हिंदी पढ़ाने वाले
अध्यापकों को विशेष प्रशिक्षण के लिए भारत बुलाया जाए।
दूसरी ओर छात्रों को भी भारत में ऐसा प्रशिक्षण दिया जाए
कि इनकी न केवल साहित्यिक हिंदी बल्कि बोलचाल और रोजमर्रा
जिंदगी में काम आनेवाली हिंदी भी ठीक हो जाए। मैं यह चाहती
हूँ कि हंगरी में जो भारतीय सांस्कृतिक केंद्र खोला जा रहा
है उसमें हमारे युवा इंडोलोजिस्टों का भी योगदान लिया जाए।
हम भी उस मंच से कुछ कर सकें।
गीता- इस समय हंगरी में
हिंदी की क्या स्थिति है?
मारिया- इस समय हंगरी के
हजार से ऊपर विद्यार्थी ऐसे हैं जो हिंदी सीख चुके हैं। कम
से कम हिंदी का परिचय पा चुके हैं। इसमें रोचक बात यह है
कि हंगरी में भारतीय मूल के लोग बहुत कम हैं। पोलैंड आदि
कुछ अन्य देशों में अपेक्षाकृत ज्यादा भारतीय हैं। जब मैं
यहाँ पढ़ाने लगी तो हम इतने कम थे कि दीवाली मनाने के लिए
एक छोटे से कमरे में ही समा जाते थे जबकि अब बहुत बड़े हॉल
की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि भारत प्रेमी लोगों की संख्या
लगातार बढ़ रही है।
गीता-
भारत में आजकल हिंदी का जो बदला हुआ रूप आ रहा है जिसमें
अंग्रेज़ी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है
उसके बारे में आप क्या सोचती हैं?
मारिया- यह ठीक है कि हम
अपनी आँखे और कान बंद नहीं कर सकते हैं यह जरूर है कि आजकल
जो हिंदी है, उस पर अंग्रेजी का बहुत प्रभाव दिखाई पड़ता
है, खास तौर पर शहरों में। गावों में पता नहीं क्या है?
दिल्ली में खास तौर से यह प्रभाव बहुत दिखाई पड़ता है।
औपचारिक सम्मेलनों में इस विषय पर बहुत बार चर्चा की जाती
है और इसकी आलोचना भी की जाती है कि हम अपनी भाषा के
स्वरूप को बिगाड़ रहे हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि
हिंदी भाषा बहुत मज़बूत है, जब मुगल सम्राट शासन करते थे
उस समय से लेकर आज तक आप देखेंगे कि कितने अरबी-फारसी शब्द
हिंदी भाषा में पहुँचे हैं, फिर भी आज आप यह नहीं कह सकते
हैं कि हिंदी भाषा का मूल फारसी है इसी तरह हो सकता है कि
कई सौ साल बाद यही हाल होगा कि अंग्रेजी शब्द हिंदी के
शब्द बन जाएँगे। लोग यह भी भूल जाएँगे ये अंग्रेजी से आए
हुए शब्द हैं। क्योंकि इन अंग्रेज़ी शब्दों का हिंदी में
ऐसा उच्चारण होता है जो अंग्रेजी के उच्चारण से बहुत दूर
है। इसलिए मैं यह नहीं सोचती हूँ कि कोई त्रासदी हो रही
है। अगर अंग्रेजी का असर पड़ रहा है तो हिंदी का भविष्य
बिल्कुल भी नहीं है और इससे हिंदी कमजोर हो रही है, ऐसा
सोचना गलत है। हिंदी इतनी हल्की भाषा नहीं है।
गीता—आपको हिंदी की कौन सी
विशेषता सबसे अधिक आकृष्ट करती है?
मारिया---मैं हिंदी को सबसे
ज्यादा इसलिए भी पसंद करती हूँ क्योंकि उसमें एक-एक
संकल्पना के लिए पाँच-पाँच,छह-छह शब्द हैं जो दूसरी भाषाओँ
में नहीं हैं। इसीलिए मेरा विचार है कि जैसे कोई व्यक्ति
अधिक धन होने पर अमीर हो जाता है वैसे ही हिंदी भी नए-नए
शब्दों से और भी अमीर हो रही है। जैसे अलग-अलग धातुएँ
डालकर गर्म करने पर वे पिघल कर एक हो जाती हैं, वैसे ही
भाषा भी है। आखिर में वह भारतीय भाषा ही रहेगी। मुझे नहीं
लगता कि हमें अंग्रेजी से डरना चाहिए। भारतीय अंग्रेजी और
हिंदी से मिलकर जो भाषा बनेगी वह अंतत: हिंदी ही होगी।
जैसे- जैसे समय बदलता जाता है उसी हिसाब से शब्द भी बदलते
जाते हैं। मुझे याद है कि एक जमाने में हंगेरियन भाषा में
लैटिन के बहुत सारे शब्द शामिल थे उसके बाद जर्मन के शब्द।
अगर अभी हम देखेंगे तो ये शब्द खत्म हो गए हैं। आजकल यदि
आप हंगेरियन में लैटिन शब्द मिलाएँगे तो कोई नहीं समझेगा।
इसी तरह जर्मन शब्द धीरे-धीरे चले गए हैं। समय जैसे शब्दों
को छानता है वह फिर गायब हो जाते हैं, मतलब है भाषा से
निकल जाते हैं।
हिंदी अपने वर्तमान रूप में
बहुत युवा भाषा है। आधुनिक हिंदी भारतेंदु से शुरु होती
है। अगर आप देखें तो इस भाषा को २०० साल भी नहीं हुए हैं।
२०० साल एक भाषा के जीवन के लिए कुछ भी नहीं हैं। अगर आप
हिंदी के रासो साहित्य आदि से शुरु करते हैं तो कितनी
ज्यादा यह भाषा समय के साथ बदली है यह आप खुद भी देख सकते
हैं। आज जब आप हिंदी का समाचार-पत्र पढ़ते हैं तो उसमें
ऐसे शब्द लगातार मिलते हैं जो बीस साल पहले नहीं थे। मैं
हिंदी, विदेशी पाठक की तरह बाहर से पढ़ती हूँ। मुझे नए
शब्द जानने होते हैं। हंगेरियन भाषा पर भी अंग्रेजी का
बहुत असर पड़ रहा है, क्योंकि कंप्यूटर से संबंधित बहुत
सारे शब्दों की अब जरूरत पड़ती है जितनी पहले नहीं थी।
इन्हें अंग्रेजी में ही कहा जाता है। पर ये सभी शब्द
बचेंगे नहीं। कुछ शब्द बचेंगे पर ज्यादातर चले जाएँगे।
जैसे मान लीजिए- फ्लोपी। अब यह शब्द आप लें तो पहले सब लोग
इस शब्द का प्रयोग करते थे, पर अब इसकी जरूरत कम पड़ती है।
हो सकता है बीस साल बाद किसी को फ्लॉपी शब्द मालूम भी न
हो। कहने का मतलब है, जैसे जिंदगी बदलती है भाषा भी उसके
साथ ही बदलती चली जाती है।
भारत में अलग-अलग बोलियाँ
बोली जाती हैं। जर्मनी में जाएँ तो उत्तर जर्मनी में दूसरी
भाषा चलती है दक्षिण जर्मन में दूसरी भाषा चलती है। ये
दोनों भाषाएँ एक दूसरे से बहुत दूर हो जाती हैं। पर एक
साहित्यिक जर्मन भाषा सब लोग जानते हैं और आपस में उसी में
बातचीत करते हैं। मुझे लगता है कि हिंदी भी ऐसी ही है कि
आप भोजपुरी या राजस्थानी हिंदी भी बोलें लेकिन दो अलग-अलग
प्रांत के लोग जब आपस में बातचीत करते हैं तो ऩई आधुनिक
हिंदी में। मानक हिंदी में तरह-तरह की भाषाओं का प्रयोग
करने वाले बात कर सकते हैं। जर्मन और इटेलियन भाषाओं की
स्थिति भी ऐसी ही है। प्राचीन यूनानी की भी अलग-अलग
बोलियाँ थीं। साहित्य में भी अलग-अलग बोलियोँ का प्रयोग
किया जाता था। जैसे गद्य अत्तिकन बोली और पद्य अयोनियन
बोली में लिखा जाता था। आधुनिक यूनानी का आधार अलेक्जैंडर
के जमाने में पैदा हुआ क्योंकि उसने यूनानी भाषा को दुनिया
के दूर-दूर तक के कोने में पहुँचाया था। फारस, इंडिया और
पता नहीं कहाँ-कहाँ तक सब लोग यूनानी बोलने लगे थे। मगर
यूनानी अलग-अलग हो गई थी और उसका यह असर पड़ा था कि मूल
प्राचीन यूनानी भी खुद इतनी ज्यादा बदल गई कि प्राचीन
यूनानी खत्म करके आधुनिक यूनानी शुरु होने लगी। कहने का
मतलब यह है कि भाषा में बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
हिंदी जैसी जीवंत और मज़बूत भाषा को इससे डरने की कोई
ज़रूरत नहीं है। हिंदी का भविष्य उज्वल है।
८ मार्च
२०१० |