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मधु
अरोरा- लवलीन जी, आपके लिए लेखन क्या है ?
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लवलीन- जीवन। मेरे लिए लेखन जीवन इसलिए है कि बचपन से
जिस सपने के साथ बड़ी हुई हूँ, लेखक बनने का सपना था। उस
दौर में भी जब लोग पढ़ने में टॉप करते थे, तब भी लेखन को
कोई गंभीरता से नहीं लेता था, स्वीकृत नहीं करता था।
मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं आई. ए. एस. की परीक्षा में बैठूँ या
डॉक्टर बनूँ। अपने परिवार में पढ़ने में मैं ही ब्राइट
निकली, दोनों भाइयों की अपेक्षा। मेरे सामंती और धनिक
पिता ने मुझे अफ़सर बनाना चाहा ताकि सरकार में उनकी चले।
लेकिन मेरी मां अमृतसर में न केवल हिन्दी की
प्राध्यापिका थीं, अपितु साहित्य
रसिक भी थीं। उनकी लंबी-चौड़ी लायब्रेरी थी, घर में। सब
साहित्यिक पत्रिकाएँ आती थीं। वे मोहन राकेश की मित्र
थीं। मैंने इस तरह अपने-आपको चेतन होते ही साहित्य की
किताबों के बीच पाया। पिता के क्रूर अनुशासन से दबी
रहनेवाली लवलीन को कल्पनाओं की उड़ानें रास आने लगीं,
जिन्हें इन किताबों ने उत्साहित किया और मैं लेखक बनने
का सपना देखने लगी। आज भी मैं घनघोर पाठिका हूँ। तब
साहित्य ने मुझे संस्कार दिया। उस कच्ची उम्र में अपने
अच्छे-बुरे को जांच सकने का विवेक दिया। लिखने की शुरुआत
तो कविताओं के रूप में बचपन से ही हो गई, लेकिन खूब
पढ़ने के कारण पहले प्रयास में ही मुकाम हासिल कर लेने
की वंचना ने मेरी कलम को बरसों तक खुलने नहीं दिया।
अनायास ही छात्र-जीवन में पत्रकारिता से जुड़ी और लेखनी
चल निकली।
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मधु अरोरा- आपके लिए लेखन की
प्राथमिकताएँ बदलती रहती
हैं?
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लवलीन- लेखक की प्राथमिकता निरंतर लेखन करने की होती है।
आज के दौर में लेखक होना कलंक है। कवि से पूछा जाता है
कि ठीक है कि आप कविता लिखते हैं, लेकिन आप करते क्या
हैं? लेखन की प्राथमिकता यह भी है कि मैं जिस विचारधारा
और स्त्रीवादी दर्शन में विश्वास रखती हूँ, मेरी
कहानियाँ उसमें से होकर निकलें। एक प्राथमिकता यह भी है
कि मुझे मनुष्य-मनोविज्ञान के छुपे और जटिल, विशेषकर
समाज द्वारा बाधित प्रवृत्तियों, अनुभूतियों को उद्गार
देना या अभिव्यक्त करना अच्छा लगता है। आज के युग में जब
कुछ भी मौलिक नहीं बचा है, मानव-मन का मर्म, स्त्री के
आत्म का परतों भरा गुंफित रहस्यमय संसार मेरे लिए "ऍलिस
इन वण्डरलैण्ड" है।
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मधु अरोरा- क्या आप
पुरुष-लेखन और महिला लेखन के बीच
विभाजन रेखा खींचती हैं, जैसा कि आमतौर पर फतवा दिया
जाता है?
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लवलीन-बिल्कुल खींचती हूँ। जैसे बिल्ली और शेर एक ही
जाति के होते हुए भी अलग-अलग हैं, वैसे ही मानव होते हुए
भी स्त्री-पुरुष की मनोरचना अलग-अलग है। उनकी समाजीकरण
की प्रक्रिया, व्यक्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया हमारे
समाज में नितांत भिन्न हैं। जाहिर है, लेखन भी भिन्न
होगा। स्त्री जब लिखती है तो वह आत्मानुभव होता है।
पुरुष जब स्त्री के बारे में लिखता है तो वह परानुभव
होता है। स्त्री की भाषा और शैली भी भिन्न होती है। वह न
केवल क्या हो रहा है लिखती है, बल्कि क्या होना चाहिए,
यह भी लिखती है। उसका आवेग, उसकी लाल बिन्दी का ओज, उसकी
चूड़ियों की खनक, उसके बालों की उड़ान, उसके लिबास और
उसके रंग, उसकी खुशबू उसके रचे साहित्य में इतने अनूठे
ढंग से गुंफित होती है कि पाठक बरबस शब्दों को पकड़
मोहाविष्ट हो कहानी के साथ
बहुत सरलता से यात्रा पर
निकल पड़ता है। यही स्त्री-लेखन की लोकप्रियता का राज़
है। दूसरा फर्क यह है कि सेकेंड सेक्स होने के कारण सदियों
की पीड़ा और संघर्ष जो कि स्त्री-जीवन का अनिवार्य
हिस्सा है, वह निजी होते हुए भी सामाजिक होता है जिससे
हर लेखनी संघर्ष कर रही है। पूरे विश्व में छिड़ी यह
लड़ाई जिसका कोई काडर नहीं है, मैनिफिस्टो नहीं है,
संघर्ष के आंदोलन का नेतृत्व करनेवाला कोई नहीं है फिर
भी हर स्त्री के जीवन में यह लड़ाई छिड़ती है और यह चीज़
अनायास ही स्त्रियों को संगठित कर जाती है। पुरुष को
पुरुष-प्रधान समाज से शक्ति, सत्ता, स्वतंत्रता और
अधिकार मात्र पुरुष होने की वजह से जन्म के साथ सहज
सुलभ हो जाते हैं। स्त्री को इन्हें संघर्ष कर, सिद्ध कर
प्राप्त करना पड़ता है।
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मधु अरोरा-
पुरुष-स्त्री की दोस्ती सहज रूप में ली
जाती है परन्तु स्त्री-पुरुष की दोस्ती में असहजता, शक
क्यों आड़े आते हैं?
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लवलीन-इसकी वजह यह है कि समाज में इस प्रवृत्ति को
स्वीकृति प्राप्त नहीं है। स्त्री परिवार में, समाज में,
कार्यक्षेत्र में कितने रिश्ते निभाती है - सास-ससुर,
देवर-जेठ, बहू-बेटी, ननद, बुआ आदि, क्यों कि उसका दिल
दरिया है, वह हरेक के साथ व्यक्तित्व की पूर्णता के साथ
जुड़ती है- पुरुष इस मामले में विचित्र तौर पर
हीन-कुंठित और संकुचित होता है। इसलिए स्त्री अनेक
मैत्रियाँ निभा सकती है। अब देखिए, आदिकाल से पुरुषों
के तो हरम रहे हैं, स्त्रियों के लिए जिगैलो (पुरुष
वेश्या) अब जाकर महानगरों में मिलने लगे हैं। दरअसल
स्त्री जब प्रेम करती है, तो मानवीय होती है। पुरुष जब
दोस्ती/प्रेम करता है, वह औसत पुरुष ही होता है,
मनुष्य नहीं। वह अपनी कल्पनाएँ, फैन्टेन्सियों और
यौनिकता से तथा सामाजिक दबाव के कारण इतना कुंठित होता
है कि स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों का सहज विकास संभव
ही नहीं हो पाता। लेकिन मुझे लगता है कि अब जो नई पीढ़ी
आ रही है, वह अपनी सेक्सुलिटी,
उसकी पहचान और पूर्ति के
प्रति सजग और प्रयोगशील है। इसीलिए समाजशास्त्रियों ने फीमनेस्ट मेन और विज्ञापनों में पत्नी को खाना बनाकर
खिलानेवाले पतियों, बाहों में मुन्ना झुलाने वाले रेमंड
के संपूर्ण पुरुष की छवियाँ प्रस्तुत करनी शुरू कर दी
हैं लेकिन अभी भी समाज में विकृतियाँ स्त्री-पुरुष के
संबंध को सहज नहीं होने दे रहीं। दूसरी बात यह है कि जिस
मध्य वर्ग में टी व़ी स़ीरियल्स के माध्यम से स्त्री को
वापस घरों में धकेलने की, उन्हें सिंदूर और मंगलसूत्र
में लपेटने की जो हिन्दुत्ववादी साजिशें चल रही हैं, वे
नई हवा के विरुद्ध खतरनाक डिफेन्स मैकेनिज़्म हैं।
इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। स्त्री का दिल दरिया
है, जिसमें अनेक पुरुषों से मैत्री समा सकती है लेकिन
पुरुष एक म्यान एक तलवार की मनोवृत्ति वाला है। इसीलिए
आज की कामकाजी महिलाओं के कार्यक्षेत्र में होनेवाली
पुरुषों से मित्रता बर्दाश्त नहीं होती। इसीलिए वे शक,
क्लेश और कुंठा से स्त्री को घेरने की कोशिश कर रहे हैं।
उसे बदनाम कर, उस पर आक्षेप लगाकर अपनी कमज़ोरी छिपाते
हैं।
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मधु अरोरा- आपने अधिकतर स्त्री-पुरुष के संबंधों, नारी
के अकेलेपन पर बेहतरीन कहानियाँ लिखीं। ये अनायास हुआ है
या व्यक्तिगत अनुभव काम कर रहे थे?
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लवलीन-निश्चित रूप से ये मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं। मैं
स्वभाव से रीबेल हूँ। हमेशा प्रचलित प्रतिमानों के
विरुद्ध जिस सच को समझा है, उसे जीवन में उतारने की
कोशिश भी की है। कथाएँ आधी हकीकत, आधा फ़साना होती हैं,
इसलिए यह सच भी है, कल्पना भी है।
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मधु अरोरा- क्या आज की कहानी सच को सच की तरह व्यक्त कर
पा रही हैं?
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लवलीन-हर युग की
कहानियाँ अपने युग के सच को अभिव्यक्त
करती हैं। आज की कहानियों का फलक निश्चित रूप से नई
कहानियों के फलक से ज़्यादा विस्तृत और जटिल है। एक साथ
हमारे पास संजीव, अखिलेश, मनोज रूपड़ा, प्रियंवदा, आनन्द
हर्षुल, देवेन्द्र, गीतांजलिश्री, अनामिका, जया जादवानी
हैं । इतनी विविधता पहले नहीं थी, विषय को लेकर भी और
शिल्प को लेकर भी।
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मधु अरोरा- अपने समकालीनों की तुलना में आप स्वयं को किस
तरह अलग पाती हैं?
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लवलीन-मैं स्वयं को समकालीनों की तुलना में उसी तरह अलग
पाती हूँ जैसे मेरा चेहरा, मेरा मन, मेरी सोच,
विचारधारा, काया, मेरा जीवन दूसरे से अलग है।
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मधु अरोरा- आप रचना प्रक्रिया के दौरान किन मानसिक
स्थितियों से गुज़रती हैं?
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लवलीन-मैं पत्रकार रही
हूँ, इसलिए कहानी के हर पक्ष पर
होमवर्क करती हूँ। एक फैशन डिज़ाइनर पर कहानी लिख रही
हूँ जो मुंबई में रहती है। मुंबई मेरे लिए अनजाना है, पर
मुंबई में रहनेवाली मित्र से पूछकर नायिका के फ्लैट से
लेकर उसके कार्यक्षेत्र में आनेवाले बाज़ारों, स्थलों,
विविधताओं का पता लगाया। आजकल कहानियाँ बहुत मेहनत से
लिखी जा रही हैं। प्राय: मुझे कोई मनस्थिति या आइडिया
दिमाग में स्पार्क की तरह उपजता है, मैं उससे छिटपुट
नोट्स लेती हूँ और उस पर लगातार सोचती हूँ। कभी वह भविष्य
के लिए स्थगित हो जाती है, मन के तहखाने में पहुँच जाती
है और कभी रात भर जगाकर अपने-आपको लिखवा ले जाती है।
मेरे अनुभव मेरी कहानी के मूल स्रोत हैं। मैंने एक कठिन
जीवन जिया, लीक से हटकर जीवन जिया, इसलिए अनुभव भी
अच्छे-बुरे, अनूठे सब तरह के हुए। वे ही मेरी
रचना-प्रक्रिया को प्रेरित करते हैं।
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मधु अरोरा- क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट हैं?
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लवलीन-मैं अपने लेखन से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं
हूँ।
बरसों तक मैंने कलम हाथ में इसलिए नहीं ली कि मैं पहली
बार ही मास्टर पीस देना चाहती थी। मैंने लिखना ३५ वर्ष
की उम्र में शुरू किया, वह भी हरीश बाधानी जी द्वारा
समझाए जाने पर कि प्रेमचंद ने भी इतनी कहानियों के बाद
'कफ़न' और 'गोदान' लिखी। तब मुझे समझ आया कि
सीढ़ियाँ
चढ़ना ज़रूरी है। बहुत ज़्यादा पढ़ने के कारण मुझे कभी
अपना लिखा पूर्ण नहीं लगता, संतुष्ट नहीं करता। मेरी खुद
की रचनाशीलता के साथ जिरह चलती रहती है। ३०-३५ कहानियाँ
लिखने के बाद भी आज भी मुझे नई कहानी शुरू करते समय बेहद
घबराहट होती है।
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मधु अरोरा- लवलीन को एक बोल्ड महिला और बोल्ड लेखिका
माना जाता है, क्या आपको इसकी कोई कीमत चुकानी पड़ी है?
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लवलीन-मुझे इसकी खासी कीमत चुकानी पड़ी है। स्त्री की
स्वायत्तता उसके निजी संबंधों की बलि पर ही संभव है।
शुरू-शुरू में मैंने अपने अकेलेपन को मित्रों, कॉफी हाउस
की बहसों और देर रात तक चलती पार्टियों के शोरगुल से
मिटाने की कोशिश की। मुझे बोल्ड और साहसी मान लिया गया
पर अन्दर की औरत सिसकती रही क्यों कि उसको किसी ने
गंभीरता से नहीं लिया। फिर मैंने लेखन को जीवन का ध्येय
बनाया और अपने एकांत और अकेलेपन का सदुपयोग करना सीखा।
कुछ साल इस खुमारी में ही बीत गए। फिर समझ में आया कि
जीवन में एक केन्द्रीय संबंध भी होना चाहिए और मैंने
अपने जीवन को बाकायदा इसके लिए तैयार किया और आज मैं
प्रसन्न और खुश हूँ।
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मधु अरोरा- आप विवाहेतर संबंधों को किस रूप में देखती
हैं?
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लवलीन- मैं स्वाभाविक मानती
हूँ। विवाह संस्था अपने आप
में प्रेम के नाम पर प्रेम का नाश करनेवाली व्यवस्था है
क्यों कि यह एक व्यवस्था है, रूटीन है जो प्रेम को खत्म
कर डालती है। हमारे यहाँ विवाह बहुत कम आयु में कर दिए
जाते हैं। विवाह की उम्र स्त्री के लिए ३०-३५ साल होनी
चाहिए ताकि वह अपने कार्य, चयन के प्रति अपने अनुभवों के
आधार पर निर्णय ले सके। प्रेमहीन विवाह निश्चित रूप से विवाहहीन प्रेम को जन्म देता है। दरअसल प्रेम को लेकर
हमारे दिमाग में विशेष प्रकार का आवेग, आकर्षण का भरा
पूर्वग्रह है। सब पहले से बँधा-बँधाया है, उसमें कुछ भी
नया और प्रयोगशील होने की गुंजाइश नहीं है। जब जादू तक
थोड़े समय बाद निष्प्रभ हो जाता है तो साथ रहते औरत-मर्द
का आपसी आकर्षण लंबा कैसे चल सकता है? जो साहसी होते
हैं, वे एक मंज़िल तक कभी नहीं रुकते। उन्हें नई-नई
मंज़िलें चुनौतियाँ देती रहती हैं। विवाह समझदारी पर
आधारित होना चाहिए, आकर्षण पर नहीं। जिस प्रकार मिर्गी
के रोगी को पता नहीं होता कि कब दौरा पड़ेगा, उसी प्रकार
जीवन में यह भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि कब नूतन
प्रेम अवतरित हो जाएगा। इसके लिए न घर छोड़ने की ज़रूरत
है न पति। दूसरों को कम से कम कष्ट देते हुए जीवन को
उसके पूरे आयामों के साथ, डाइमेंशन्स के साथ जीना चाहिए।
जीवन एक बार ही मिलता है और प्रेम अनन्त संभावनाएं हैं,
सवाल आपकी सामर्थ्य का है, साहस का है।
१६ दिसंबर २००४
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