मधुः
आपके लिए लेखन क्या है?
तेजेन्द्रः लेखन मेरे लिए आवश्यकता भी है और
मजबूरी भी। जब कभी ऐसा कुछ घटित होते देखता हूं
जो मेरे मन को आंदोलित करता है तो कलम
स्वयमेव चलने लगती है। मेरे लिए लिखना कोई
अय्याशी नहीं है इसीलिए मैं लेखन केवल लेखन
के लिए जैसी धारणा में विश्वास नहीं रखता।
लिखने के पीछे कोई ठोस कारण और उद्देश्य होना
आवश्यक है और न ही मैं स्वांतः सुखाय लेखन की
बात समझ पाता हूं। मैं अपने लिखे हुए प्रत्येक शब्द
के माध्यम से अपनी बात आम पाठक तक पहुंचाना
चाहता हूं। हां यह सच है कि मैं हिंदी के
मठाधीशों को प्रसन्न करने के लिए भी नहीं लिखता।
मुझे एक अनजान पाठक का पत्र किसी बड़े आलोचक की
शाबाशी के मुकाबले कहीं अधिक सुख देता है। मन
में कहीं यह भी चाहत है कि हमारे वरिष्ठ लेखक जो
एक महत्वपूर्ण लेखन की परंपरा कायम कर गए हैं
उसमें चाहे छोटा सा ही सही कुछ योगदान
मेरा भी बन सके।
मधुः
आपकी निगाह में लेखक एक आम आदमी से किस प्रकार
भिन्न होता है?
तेजेन्द्रः मुझे लगता है कि परिष्कृत सोच एवम्
संवेदनशीलता एक लेखक को एक आम आदमी से अलग
करती है। जहां आम आदमी समय के साथसाथ उस
घटना को भुला देता है वहीं एक संवेदनशील
लेखक उस घटना को अपने दिमाग़ में मथने देता
है। समय के साथसाथ वह घटना तो अवचेतन
मन में चली जाती है लेकिन एक रचना का जन्म
हो जाता है। जहां आम आदमी अपने आप को केवल
घटना तक सीमित रखता है वहीं एक अच्छा लेखक उस
घटना के पीछे की मारक स्थितियों की पड़ताल करता है
और एक संवेदनशील रचना रचता है। अब देखिए
कनिष्क विमान की दुर्घटना एक आम आदमी को भी
आंदोलित करती है और एक लेखक को भी। आम आदमी के
लिए कुछ ही समय के पश्चात 329 केवल एक संख्या बन
जाती है जबकि लेखक उस घटना से बारबार
गुज़रता है और अंततः एक रचना का जन्म हो जाता है।
मधुः
आप अपनी रचना प्रक्रिया के दौरान किस मानसिकता
से गुज़रते हैं?
तेजेन्द्रः मेरे लिए रचना प्रक्रिया कोई नियमबद्ध
कार्यक्रम नहीं है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। आसपास
कुछ न कुछ घटित होता है जो कि मन को उद्वेलित करता
है। दिल और दिमाग़ दोनों ही उस के बारे में
जुगाली करते रहते हैं। और फिर एकाएक रचना पहले
दिमाग़ में और फिर पन्नों पर जन्म लेती है। कहानी
के मुकाबले मैं पाता हूं कि कविता के लिए उतना
सोचना नहीं पड़ता। गज़ल या कविता जैसे स्वयं
उतरती चली आती है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि
रेलगाड़ी चलाते हुए एक शेर दिमाग़ में आ गया
तो पाया कि बीच में ब्रेक होतेहोते पूरी
ग़ज़ल उतर आती है। यदि मैं चाहूं भी तो सायास
ग़ज़ल या कविता नहीं लिख पाता जबकि कहानी के
लिए रोज़ाना कुछ पन्ने काले किए जाते हैं चाहे
उन्हें खारिज ही क्यों न करना पड़े। मेरे पहले ड्राफ़्ट
में खासी काटा पीटी होती है क्योंकि मैं
लिखतेलिखते ही सुधार भी करता जाता हूं। कहानी
लिखने की प्रक्रिया में कंसंट्रेशन अधिक समय तक
बनाए रखनी पड़ती है। मेरी एक कोशिश ज़रूर रहती है
कि मैं अपने चरित्रों की मानसिकता सामाजिक
स्थिति एवं भाषा स्वयं अवश्य समझ लूं तभी
अपने पाठकों से अपने चरित्रों का परिचय करवाऊं।
मधु
: लंदन में आने के बाद निश्चित ही आपके नज़रिए
में परिवर्तन आया होगा। इससे पहले भी आप कई
बार पूरी दुनिया घूम चुके हैं। आप इस सारे
परिदृश्य में हिंदी लेखन को कहां पाते हैं?
तेजेन्द्र : देखिए पहले मैं एक एअरलाइन के क्रू मेंबर
की हैसियत से विदेश जाया करता था। विदेश के
जीवन को एक तयशुदा दूरी से देखता था उसे उतनी
गहराई से महसूस नहीं कर पाता था जितना कि आज।
मेरा आज का संघर्ष मुझे अप्रवासी भारतीय की
सभी दिक्कतों और सुविधाओं से परिचय करवाता
है। मुझे लगता है कि भारत के बाहर यदि कहीं हिंदी
साहित्य की रचना बड़े पैमाने पर हो रही है तो वो
है युनाइटेड किंगडम। यू.के. ने मॉरीशस से यह
स्थान हथिया लिया है। यहां कविता में सत्येन्द्र
श्रीवास्तव गौतम सचदेव रूपर्ट स्नेल सोहन
राही मोहन राणा उषा राजे सक्सेना
पद्मेश गुप्त प्राण शर्मा तितिक्षा शाह डा.
कृष्ण कुमार और उषा वर्मा सक्रिय हैं तो कहानी
विधा में उषा राजे सक्सेना दिव्या माथुर
शैल अग्रवाल गौतम सचदेव कादंबरी
मेहरा महेन्द्र दवेसर निरंतर लिख रहे हैं। साथ ही
अचला शर्मा रेडिओ नाटक के जरिए, नरेश भारतीय
लेखों और निबंधों के जरिए एवं भारतेंदु विमल
एवं प्रतिभा डावर उपन्यास के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति
का आभास करवाते रहते हैं। वैसे अमरीका में सुषम
बेदी और उषा प्रियंवदा व नार्वे में सुरेश चंद्र
शुक्ल भी निरंतर लिख रहे हैं। आज हिंदी साहित्य का
सबसे महत्वपूर्ण काम लंदन में हो रहा है और
यहां यू.के. हिंदी समिति कथा (यू.के.)
वातायन कृति यू.के. गीतांजलि बहुभाषीय
सोसाइटी भारतीय भाषा संगम जैसी संस्थाएं
ख़ास तौर पर बहुत सक्रिय हैं। वैसे यह सच है कि
ब्रिटेन से हिंदी की पहली कालजयी रचना के लिए
अभी भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
मधुः
लंदन में बसने के पश्चात आपके लेखन में
सकारात्मक या नकारात्मक किस प्रकार का प्रभाव पड़ा
है?
तेजेन्द्रः मधु जी पहले नकारात्मक। लंदन आने के
पश्चात पहले तो वही नॉस्टेलजिया वाली बात कि
बातबात पर भारत को मिस करना और याद करके
परेशान होना। मैं जबजब कलम उठाऊं तो भारत
को ले कर ही कुछ न कुछ काग़ज़ पर उतरना शुरू कर दे।
मुझे विदेश में रचे जा रहे हिंदी साहित्य से यह
शिकायत है कि दो एक रचनाकारों को छोड़ कर वहां का
हिंदी लेखक नॉस्टेलजिया से बाहर नहीं आ पाता। वह
अपने आप को अपने स्थानीय समाज के साथ जोड़
नहीं पाता और इसलिए ऐसे समाज के बारे में
लिखता है जिसे वह पीछे छोड़ आया है। मज़ेदार बात
यह है कि जिस समाज को वह पीछे छोड़ आया है
वो भी बदल जाता है। अंततः वह किसी ऐसे समाज
के बारे में लिखने लगता है जो वास्तविक है ही
नहीं। वो समाज केवल उसके दिलोदिमाग़ में
रहता है। सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि मैंने इंग्लैण्ड
के समाज को समझने का प्रयास किया वहां के
गोरे आदमी की मानसिकता को जानने की कोशिश की
और एक मुहिम चलाई कि हिंदी लेखक अपने विदेश
में किए गए संघर्ष या अपने आसपास के जीवन को
समझने का प्रयास करें और उसे ही अपने लेखन का
विषय बनाएं। कोख का किराया मुझे मार डाल
बेटा ये क्या हो गया गंदगी का बक्सा
बेघर आंखें मेरे इन्हीं प्रयासों का फल हैं। हां
वहीं यह भी सच है कि इंदु शर्मा कथा सम्मान के
अंतर्राष्ट्रीय हो जाने और कथा (यू.के.) द्वारा
लगातार कथा गोष्ठियों एवं अन्य संस्थाओं के
साथ मिल कर कार्यक्रमों के आयोजन से मेरे
लेखन की निरंतरता में कमी आई है।
मधु
: साहित्य में अश्लीलता के प्रश्न पर आप क्या कहना
चाहेंगे?
तेजेन्द्रः आज के संदर्भ में यह प्रश्न थोड़ा
अप्रासंगिक हो गया है। कोई भी चीज़ अपने
संदर्भों के तहत ही अश्लील हो सकती है। जैसे भारत
को स्वतंत्रता मिलने से पहले भारतीय सिनेमा का
सबसे लंबा चुंबन पर्दे पर कलाकार हरि
शिवदासानी (करिश्मा एवं करीना कपूर के नाना) ने
लिया था और वह अश्लील नहीं माना गया। फिर
एक ऐसा समय आया कि हीरो हीरोइन कूल्हे
मटकामटका कर अश्लील इशारे करते थे किंतु उनको
अश्लील नहीं माना जाता था जबकि चुंबन को
अश्लील माना जाने लगा। यही हाल डी.एच.
लॉरेंस के उपन्यास लेडी चैटरलीज़ लवर के बारे
में कही जा सकती है कि जब उसका प्रकाशन हुआ था
उसे अश्लील मान कर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया
था। जबकि आज यही उपन्यास आसानी से हर जगह
उपलब्ध है। मृदुला गर्ग के बोल्ड दृश्यों और
भाषा पर भी आज कोई बात नहीं करता। यानि कि
अश्लीलता के संदर्भ समय और काल के साथसाथ
बदलते रहते हैं। मैने स्वयं अपनी एक कहानी प्यार .
. .क्या यही है? में एक संभोग का पूरा दृश्य
शब्दों से बनाने का प्रयास किया है। ऐसे ही
सूरज प्रकाश ने भी अपने उपन्यास देस बिराना में
यह कोशिश की है। मुझे नहीं लगता कि वे अश्लील
विवरण हैं।
मधुः
आप यू.के. हिंदी लेखन के विषय में कुछ बताएं।
तेजेन्द्रः मैं जब भारत में रहता था तो मैंने यू.के.
के केवल एक ही साहित्यकार के बारे में सुन रखा था
या उनकी कविता पढ़ रखी थी। वे साहित्यकार हैं डा
सत्येन्द्र श्रीवास्तव जिन्हें कथा यू.के. द्वारा प्रथम
पद्मानंद साहित्य सम्मान से सम्मानित किया गया।
यहां आकर मैंने पाया कि कविता विधा को ले कर
यहां बहुत से साहित्यकार सक्रिय हैं। पद्मेश गुप्त
के संपादन में दूर बाग की सोंधी मिट्टी का प्रकाशन
इस बात का गवाह था कि यू.के. में कवि हृदय हिंदी
रचनाकारों की कमी नहीं। यू.के. हिंदी समिति प्रति
वर्ष अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन करती
है। वहीं कहानी क्षेत्र में एक वैक्यूम सा दिखाई दे
रहा था। इस वैक्यूम को भरने की पहली कोशिश की
उषा राजे सक्सेना द्वारा संपादित कथा संग्रह मिट्टी की
सुगंध ने। इस संग्रह में कुछ कहानियां तो भारत
मे रचे जा रहे हिंदी साहित्य से किसी मामले में
कम नहीं हैं।
कथा यू.के.
ने कथा गोष्ठियां आयोजित करके यूनाइटेड किंगडम
में हिंदी कहानी लेखन का माहौल पैदा करने का
प्रयास किया। दिव्या माथुर के कहानी संग्रह आक्रोश
को पद्मानंद साहित्य सम्मान प्राप्त हुआ। उषा राजे
सक्सेना का कहानी संग्रह प्रवास में एवं
वाकिंग पार्टनर प्रकाशित हो चुके हैं जिनकी
कमलेश्वर स्वर्गीय शिव मंगल सिंह सुमन
सलमान आसिफ़ अनिल शर्मा हिमांशु
जोशी चित्रा मुद्गल एवं डा. लक्ष्मी मल
सिंघवी ने खुले दिल से तारीफ़ की। शैल
अग्रवाल कादम्बरी मेहरा एवं महेंद्र दवेसर दीपक
के कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। गौतम
सचदेव का व्यंग्य संग्रह आ चुका है और कहानी
संग्रह शीघ्र ही आने वाला है। उषा वर्मा के
संपादन में यूके की हिंदी लेखिकाओं का एक कहानी
संग्रह आ चुका है सांझी कथा यात्रा। भारतेंदु
विमल के उपन्यास सोन मछली की भारत में भी
ख़ासी गूंज रही। अशोक चक्रधर विशेष तौर पर
उससे प्रभावित दिखे।
कथा यू.के.
ने सूरज प्रकाश के संपादन में कथा लंदन जैसा
कहानी संग्रह प्रकाशित करवाया जिसमें वे
कहानियां शामिल हैं जिन्हें कथा गोष्ठियों में
पढ़ा गया। इस संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि
इसमें उन कथागोष्ठियों की रिपोर्टें भी शामिल
थीं जिनमें इन कहानियों को पढ़ा गया था। इस
तरह हमने केवल लेखक ही नहीं पाठकों और श्रोताओं
का स्तर भी विश्व तक पहुंचाया। 2004 में कथा यू.के.
ने सूरज प्रकाश के ही संपादन में एक कहानी संग्रह
प्रकाशित करवाया है कथा दशक जिसमें इंदु शर्मा
कथा सम्मान से सम्मानित दस कथाकारों की रचनाएं
हैं। अभी हाल ही में अनिल शर्मा जोशी द्वारा
संपादित कविता संग्रह धरती एक पुल प्रकाशित हुआ है
जिसमें ब्रिटेन के बाइस प्रवासी कवियों की हिंदी
कविताएं शामिल की गई हैं। अनिल शर्मा ने उस
संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका लिखी है जो ब्रिटेन
की हिंदी कविता पर एक सूझ भरी टिप्पणी करती है।
मधु
: इंदु शर्मा कथा सम्मान अब अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप
धारण कर चुका है इसकी भावी योजनाएं क्या हैं?
तेजेन्द्र : देखिए इंदु शर्मा कथा सम्मान ने एक लंबा
सफ़र तय किया है और अपना स्वरूप भी बदला है। अभी
तक इंदु शर्मा कथा सम्मान के साथ केवल सम्मान ही
जुड़ा है। हमारी योजना है कि सम्मान के
साथसाथ इसे पुरस्कार भी बनाया जाए और इसके
साथ एक सम्मानजनक राशि भी जोड़ी जाए। लेकिन
एक बात साफ़ करना चाहूंगा कि यह सम्मान एक लेखक
द्वारा एक लेखिका की याद में लेखकों को दिया जाता है
और इस सम्मान के आयोजन में भी एक लेखक ही
जुड़ा है। तो यह एक लेखकीय मामला है जिसके साथ
भावनाएं जुड़ी हैं कोई अमीर ट्रस्ट या धन्ना
सेठ नहीं जुड़ा है। इस पुरस्कार के साथ हमारे पूरे
परिवार जुड़े हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि जब कभी
भी हमारे पास प्रयाप्त मात्रा में धनराशि का
इंतज़ाम हो पाए तो हम केवल सम्मानित
साहित्यकारों को ही नहीं बल्कि अपने निर्णायकों
को भी पुस्तकें पढ़ने के लिए कुछ न कुछ मानदेय भी
दे पाएं।
मधु
: इस सम्मान ने आपकी सोच को आपके व्यक्तित्व
को किस प्रकार प्रभावित किया है?
तेजेन्द्रः मैं महसूस करता हूं कि एक ठहराव सा आया
है मेरे व्यक्तित्व में। अपने ऊपर एक ज़िम्मेदारी का
दबाव भी महसूस करता हूं। मेरे लेखन में भी अंतर
आया है। अब मैं केवल अपने बारे में न सोच कर
हिंदी साहित्य को समग्र रूप से ले कर सोचता हूं।
निजी पसंद नापसंद को ताक पर रख कर साहित्य पढ़ता
हूं। हमारे ट्रस्ट की कोशिश रहती है कि किसी भी लेखक
की कृति के साथ केवल इसलिए अन्याय न हो जाए
क्योंकि वह किसी
ख़ास वाद में विश्वास रखता है।
जिस प्रवृति का शिकार हम लोगों की पीढ़ी हुई
है उससे बच कर निकलने का प्रयास करता हूं। अब
मैं केवल इस बात पर चिंता व्यक्त नहीं करता कि हिंदी
का क्या भविष्य होगा। मैं प्रयास करता हूं कि अगली
पीढ़ी तक हिंदी को ले जाया जाए। इसके लिए कार्यक्रम
एवं कार्यशालाएं भी करते हैं।
मधु
: ख़ैर आपकी कहानियों में मृत्यु अकेलापन
डर बुढ़ापा बेमेल विवाह बारबार आते हैं।
इसकी कोई ख़ास वजह?
तेजेन्द्रः मधु जी कोई भी लेखक वही लिखता है जो
देखता है या फिर भोगता है। मैंने मौत को बहुत
क़रीब से देखा है। फिर मौत है भी तो अंतिम शाश्वत
सत्य। पहले पिता जी की दिल की बीमारी से मृत्यु
और फिर इंदु जी की कैंसर से मौत। इसके पहले भी
विमान दुर्घटना में तीन सौ उनतीस यात्रियों की
मृत्यु जैसे हादसे किसी भी लेखक को लिखने के
लिए मजबूर कर देंगे। फ्लाइट परसर होने के नाते
मैंने विदेश में बहुत से डरे हुए भारतीयों को
देखा है। उनके व्यक्तित्व में कुछ खोने का डर मैंने
महसूस किया है। अपने पिता की उनके बुढ़ापे में
मदद न कर पाने का अपराध बोध मुझे हमेशा सालता
है। ज़ाहिर है कि ये सब थीम मेरी कहानियों में
आ ही जाते हैं। वैसे मेरी कहानियों का एक
महत्वपूर्ण थीम संबंधों में आता खोखलापन और
जीवन पर हावी होती भौतिकता भी है। मेरी
प्रतिनिधि कहानियां जैसे कि देह की कीमत काला
सागर ढिबरी टाइट कड़ियां इत्यादि में आपको
यह थीम दिखाई देगी। मेरी आज की कहानियों में
आपको इंगलैण्ड का भारतीय या गोरा समाज दिखाई
देगा। यहां तक कि मेरी कविताओं में भी आपको
भारत एवं इंगलैण्ड के पतझड़ों का अंतर दिखाई देगा।
इंगलैण्ड की पच्चीस प्रतिशत युवा पीढ़ी ने जब कहा
कि वे अपने देश के लिए नहीं लड़ना चाहेंगे तो
मैंने इस विषय को अपनी एक कविता का विषय
बनाया। मैंने पहली बार कोशिश की है कि किसी
प्रवासी को पता चल सके कि वह देश क्या कहता है
जहां वह बसा हुआ है। आम तौर पर प्रवासी केवल
अपने उस देश को याद करता है जहां से वह प्रवास के
लिए आया है।
मधुः
लेखन में जब आप ख़ुद को उलझा पाते हैं तो
क्या करते हैं?
तेजेन्द्रः ऐसा कई बार हो जाता है कि आपने रचना
शुरू की और रास्ते में ही उलझ गए। कुछ एक रचनाएं
मैंने तीन वर्ष पहले लिखनी शुरू की थीं लेकिन
वो पूरी नहीं हो पाई हैं। यानि मिसकैरिज जैसा
कुछ हो गया। लेकिन ऐसा भी हुआ है कि कोई रचना
छः महीने के बाद उठाई और वहीं से दोबारा शुरू
हो गए जहां कि छोड़ी थी। लेकिन मैं बीचबीच
में ग़ज़ल या कविता भी लिखने का प्रयास कर लेता
हूं। इस से थोड़ा चेंज मिल जाता है और
भावनाओं को प्रकट करने का एक अलग तरह का मौका
भी। वैसे संस्थागत कार्यों की वजह से भी लेखन
कई बार हार जाता है। लेकिन लिखे बिना चैन भी
तो नहीं मिलता है न।
मधुः
जब आप नहीं लिख रहे होते हैं तो क्या कर रहे होते
हैं?
तेजेन्द्र : नहा रहा होता हूं भोजन कर रहा होता
हूं रेलगाड़ी चला रहा होता हूं (सिल्वर लिंक
रेल्वे में ट्रेन ड्राइवर हूं)। यानि रोज़मर्रा के
काम कर रहा होता हूं। (हंसी) नहीं मधु जी
लेखक का लेखन केवल कागज़ पर ही नहीं होता। लेखक
हर समय सामग्री जुटाता रहता है। उसका दिमाग़ कभी
शांत हो कर आराम नहीं कर पाता। उसे आसपास के
लोगों और घटनाओं से थीम चरित्र और प्लॉट
मिलते हैं। इसलिए लेखक हर वक्त कुछ न कुछ लिख रहा
होता है। सच्चा लेखक कभी भी न लिखने के कारण
नहीं खोजता। उसे लिखने की आग आराम ही नहीं
करने देती। इंगलैण्ड में आने के बाद से यहां के
जीवन को समझने का प्रयास कर रहा हूं ताकि लोग
कह सकें कि यदि प्रवासी भारतीय जीवन की
बारीकियां समझना चाहते हैं तो तेजेन्द्र शर्मा का
लेखन पढ़ें।
मधु
: आप समकालीन लेखन में अपने आप को कहां पाते
हैं?
तेजेन्द्र : यह तो कोई आलोचक ही बता पाएगा। मेरा
काम है केवल लिखना अच्छा लिखने का प्रयास करना।
हर लेखक की चाहत भी होती है और प्रयास भी कि उसका
शुमार पहली पंक्ति के लेखकों में किया जाए। लेकिन
वह कहां तक सफ़ल हो पाता है यह बहुत सी बातों पर
निर्भर करता है। हिंदी में एक बहुत लंबे अर्से से
मार्क्सवादी लेखकों का दबदबा सा बना हुआ है। जो
उस गुट के लोग है उन्हें समयसमय पर उछाला
जाता है। जो उनके गुट को नहीं होता मठाधीश
लोग उनके लेखन पर टिप्पणी तक नहीं करते। मैं बस
लिखने में विश्वास करता हूं।
मधु
: आपको समकालीन लेखकों में कौनकौन से
अच्छे लगते हैं?
तेजेन्द्रः इंगलैण्ड के लेखकों का ज़क्रि तो मैं पहले
ही कर चुका हूं। दरअसल मुझे लेखकों से अधिक उनकी
कृतियां प्रिय होती हैं। जैसे जगदम्बा प्रसाद दीक्षित
का मुर्दाघर पानू खोलिया का सतर पार के
शिखर जगदीश चंद्र का कभी न छोड़ें खेत
श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी हिमांशु जोशी का
कगार की आग ज्ञान चतुर्वेदी का बारामासी
चित्रा मुद्गल का आवां संजीव का जंगल जहां
शुरू होता है सूरज प्रकाश का देस बिराना
नरेन्द्र कोहली की दीक्षा विभूति नारायण राय का
तबादला मेरी प्रिय पुस्तकों में से हैं। इस का अर्थ
यह नहीं कि बस यही हैं। मुझे एस.आर. हरनोट
स्वयं प्रकाश अरूण प्रकाश उदय प्रकाश जैसे
कहानीकारों की कहानियां प्रेम जनमेजय के
व्यंग्य पसंद हैं। और भी बहुत सी कहानियां और
उपन्यास हैं जिन्हें मैं अपने बहुत करीब पाता हूं।
मधु
: क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट हैं?
तेजेन्द्र : संतुष्ट होने का अर्थ होगा कि लिखना
बंद। हां कोई भी रचना पूरी होने के बाद एक
विचित्र सी संतुष्टि का आभास होता है। लेकिन तुरंत
मन कहता है कि कहीं कसर रही और अंदर का लेखक अगली
चुनौती के लिए तैयार हो जाता है।
मधु : आपकी संस्था कथा यू.के. को लेखकों
साहित्यकारों से किस रूप में सहयोग मिलता है?
तेजेन्द्र : सबसे पहले यू.के. की बात करूंगा। यहां
अनिल शर्मा के भारतीय उच्चायोग में आने के बाद
से हमें महसूस हुआ जैसे कि हमारा एक बहुत बड़ा
हमदर्द इस देश में आ गया है। हालांकि वे
उच्चायोग के एक अधिकारी हैं लेकिन वे कब अधिकारी
से एक कामगार बन कर स्वयं काम करने लगते हैं
पता ही नहीं चलता। हिंदी की सभी संस्थाओं को
समान रूप से सहयोग देने में ज़रा भी नहीं
हिचकिचाते। उनके समय में पहले श्री पी.सी. हलदर
और आज श्री राजतबा बागची हमारा मार्गदर्शन कर
रहे हैं। नेहरू केंद्र में श्री पवन वर्मा के आगमन
के बाद से हिंदी संस्थाओं को लगा जैसे
अचानक कोई मसीहा आ गया है। भारत में अधिकतर
साहित्यकार अब कथा यू.के. को पहचानने लगे हैं।
हमारे काम की तारीफ़ भी हो रही है। वैसे थोड़ी
बहुत आलोचना भी खाने के साथ अचार के तौर पर
हो रही है। लेकिन कुल मिला कर साहित्य जगत हर तरह
के सहयोग के लिए तैयार दिखाई देता है। हिंदी की
वेबसाइटें भी हमारी संस्था के प्रचार प्रसार में
महत्वपूर्ण सहयोग कर रही हैं। जान कर अच्छा लगता
है कि उन्हें भी हमारे काम में रूचि है।
मधु
: आज जबकि आप अनिवासी भारतीय हैं और ब्रिटिश
नागरिक बन चुके हैं क्या आप अपने देश भारत को
छोड़ने की कचोट महसूस करते हैं?
तेजेन्द्र : देखिए मुंबई में जितने भी हिंदी के
कवि हैं वे सब किसी अन्य शहर गांव या कस्बे
से आए हैं। उनके लेखन में उस स्थान की तड़प देखी
और महसूस की जा सकती है। इसी को नॉस्टेलजिया
कहा जाता है। मैं झूठ बोलूंगा यदि कहूं कि मैं
मुंबई की यादों को लेकर परेशान नहीं होता।
लेकिन जब दिल्ली छोड़ कर मुंबई आया था तो
दिल्ली को लेकर भी कुछ ऐसा ही हुआ था। एक बात स्पष्ट
करना चाहूंगा कि रहने के लिए लंदन एक बेहतरीन
जगह है। यहां टुच्चा भ्रष्टाचार कहीं नहीं है। मेरी
सोच यह है कि मैं एक अच्छी जगह रह रहा हूं। जब
कभी मेरे दिल में यादें एक तूफ़ान खड़ा कर देती हैं
तो मैं टिकट कटवा कर भारत आ जाता हूं। मुझे भारत
छोड़े पूरे छः वर्ष हो गए लेकिन मैं सात बार
भारत का चक्कर लगा चुका हूं। आपको एक राज़ की बात
बताऊं हालांकि मेरा पासपोर्ट नीले से लाल हो
गया है लेकिन आज भी जन गण मन सुनते ही
सावधान हो जाता हूं।
9
अप्रैल 2005
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