इन दिनों आप क्या लिख रहीं हैं?
साल भर से मैं अपने नए उपन्यास 'एक
काली एक सफेद' पर काम कर रही हूं। जिसके भीतर निरंतर खदक रही कालिख
गहरी बेचैनी सी दिलदिमाग पर तारी है। प्रश्न चारों ओर से फन
काढ़े घेरे हैं। लग रहा है कि पूराकापूरा समाज काजल की
कोठरियों में तब्दील होता चला जा रहा है। मनुष्य मनुष्यत्व का
उपभोक्ता हो रहा! पलायन आम आदमी की प्रवृत्ति बन चुकी है।
विकल्पहीनता को उसने स्वीकार कर लिया है। जूझने और मोरचेबंदी
से उसकी निष्ठा डिग चुकी हैं, डिग रही है। प्रतिवाद उसे खोटे सिक्कों
का पर्याय प्रतीत हो रहा है।
बड़ी अजीब बात है। पता नहीं, औरों के
साथ यह होता हैं या नहीं। जब भी मैं कोई उपन्यास आरंभ करती हूं
ईदगिर्द की दुनिया से मेरा नाता टूटने लगता है। उन लोगों
की दुनिया मेरे भीतर डेरा डालने को उद्विग्न अपना स्पेस मांगने लगती
हैं और मैं विवश हो उठती हूं। लगभग बाध्य कर दी गई जबराई के
चलते कि अब मुझे केवल उनके साथ रहना है उन्हींमें से एक बनकर!
क्योंकि उनकी और मेरी दुनिया अलग नहीं हैं। अलग होने के आडंबर
से मैं मुक्त हो लूं। जितनी जल्दी मुक्त हो सकती हूं बेहतर
है। आजकल मेरा ठिकाना वही हैं।
हाल ही में प्रकाशित आपका नया
उपन्यास 'आवां' काफी चर्चित रहा और इसपर काफी गंभीर चर्चाएं चल रही
हैं। इसको लिखने की प्रेरणा क्या रही?
ट्रेड यूनियन से बतौर सक्रिय कार्यकर्ता
मेरा लंबा नाता रहा। आज भी श्रमिक समस्याओं के निदान में मेरी
गहरी रूचि है। श्रमिक बस्तियां मेरी चेतना शिविर। अपने समय और
सीमा में। संयोग से विद्यार्थी जीवन में ऐसै श्रमिक मसीहा से
परिचय हुआ जिसने अपना संपूर्ण जीवन श्रमिकोत्थान में उत्सर्ग कर
दिया। राजपूत खानदान के मूल्यगत विसंगतियों से त्रस्त, असंतुष्ट
मेरे मन को अचानक छत्रच्छाया में चेतना की राह मिली। वे दिन थे
जब श्रमिक बस्तियों के बाशिंदों का आग्रह था कि मैं निगम
पार्षदों के चुनाव में उनका प्रतिनिधित्व करूं। लेकिन राजनीति में
मेरे प्रवेश के विरूद्ध थे आदरणीय दत्ता सामंत और स्वयं मेरी मां।
उनका मानना था कि धारा से अलग खड़े होकर आप समाज के लिए अधिक
उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। गलत दिशा को वांछित मोड़ दे सकते हैं।
यह सच है कि ट्रेड यूनियन के जिन अंतर्विरोधों और अवमूल्यनों
से मेरा सामना हुआ उसने मुझे अवाक् ही नहीं किया, विश्वास
भी खंडित हुआ मेरा। उस समय भी आक्रोश अभिव्यक्ति के लिए छटपटा रहा
था। समझ नहीं पा रही थी कि असंतोष को कैसे और क्यों व्यक्त करूं।
मुद्गलजी का कहना था, तात्कालिक उग्रता आंदोलन की सकारात्मकता को
उपेक्षित कर सकती है। प्रतिक्रिया व्यक्ति रागद्वेष से ऊपर उठकर होनी
चाहिए।
सन् 1992 में जब नियोगी हत्याकांड
हुआ इस खबर ने मुझे भीतर तक दहला दिया। उसी क्षण मैंने
निश्चय किया कि अब समय आ गया है, मैं ट्रेड यूनियन पर
लिखूंगी। श्रमिक स्त्रियों के अधिकारों की पक्षधरता करनेवालों को भी
कठघरे में खड़ा करना जरूरी है। मुंबई में एक भेंट के दौरान मैंने
अपने निश्चय की जानकारी डॉ दत्ता सामंत को दी थी। वेस्टर्न कोर्ट
में आदरणीय मधुजी से भी चर्चा हुई थी। दोनों ने लगभग एक ही
प्रश्न किया था, "क्या ट्रेड यूनियन के संदर्भ में तुम्हारा रूख
नकारात्मक है?" मेरा उत्तर था, "नहीं, सकारात्मक है। लेकिन
मैं श्रमिक आंदोलन की संगठन शक्ति को क्षीण करनेवाली आंतरिक
राजनीति को उजागर करना चाहती हूं। पूंजीपतियों की अतियों के खिलाफ
तो वह लड़ सकता है; किंतु संगठन के भितरघातों से वह कैसे मुक्त
हो? यथार्थ से रूबरू हो संगठन को आत्मविश्लेषण की जरूरत
नहीं?"
अफसोस! मैं उस श्रमिक मसीहा के जिंदा
रहते 'आवां' पूरा नहीं कर पाई। 17 जनवरी, 1997 को जब मैंने उनकी
हत्या की खबर सुनी, हफ्ते भर मानसिक आघात से उबर नहीं पाई।
मित्रों ने फोन कर हिम्मत बंधाई। पहले नियोगी और फिर डॉ दत्ता
सामंत की क्रूर हत्या! प्रतिक्रियावादी ताकतों के निरंतर मजबूत होते
जाने का प्रमाण नहीं हैं? दत्ताजी हमेशा कहा करते थे, "मुझे
कौन मारेगा? कभी किसीका अहित किया ही नहीं हैं मैंने।"
कितने संशयों ने घेरा था उस क्षण!
सच के नयननक्श क्या हैं! पूंजी सत्ता स्वयं किसीका वध नहीं
करती। संगठन में से ही किसी अति महत्वाकांक्षी को खरीदकर अपनों के ही
खिलाफ मौत की सुपारी पकड़ा देती है।
इस उपन्यास के किस पात्र या घटना ने
आपको सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है?
प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा सुनंदा की
हत्या ने। सुनंदा की हत्या नारी चेतना की हत्या की साजिश है। साथ ही
दलित वर्ग से आया पवार दूसरा ऐसा जटिल किरदार है जिसकी बेबाकी
ने कई बार मेरी कलम को ठिठकाया कि है हिम्मत सच से सामना करने
की तो करके देखो।
एक रचनाकार के रूप में आपकी मानवीय,
सामाजिक और राजनीतिक चिंताएं क्या हैं?
एक विकासशील स्वतंत्र राष्ट्र में कानून
और व्यवस्था का निरंतर पंगु होते चला जाना चिंतनीय तथ्य है।
नागरिक जीवन पूर्णतः जटिल और असुरक्षित हो गया है। कब किसके
साथ क्या घट जाए कोई नहीं जानता। न्याय प्रणाली जेबें
भरनेवालों की अंकशायिनी सिद्ध हो रही है। मामूलीसेमामूली
केस अदालतों की दीवारों पर सिर पटकपटक बरसों बरस खिंचता ही
नहीं हैं, अधिकांश प्रकरणों में न्याय की उम्मीद में वादी स्वर्ग
सिधार लेता है।
बाजारवाद अब केवल बाज़ारों में क्रयविक्रय
तक सीमित नहीं रहा, व्यक्तिवादिता और भोगवादिता के चलते
लोगों की प्रकृति और प्रवृत्ति बन चुका है। भूमंडलीकरण के चलते
हम वैश्विक तो हो रहे, लेकिन अपनी ज़ड़ों से उखड़ने की भयावहता
नई पीढ़ी के सामने मुंह बाए खड़ी है। संस्कृतियों का मेल चिंता का
विषय नहीं। चिंता का विषय है अपनी सांस्कृतिक विरासत को लगभग
दफन करने की तैयारी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी सार्थक भूमिका से
छिटक अपसंस्कृति का पर्याय बन रहा है। देश के नौजवानों के लिए वह
नित जुआघर खोल रहा, उन्हें शॉर्टकट के गुर सिखा रहा।
मेहनतमशक्कत की महिमा का ऐसा भोंड़ा अश्लील मज़ाक हमारे देश
में ही संभव है। अगर यही समय के साथ होना है तो अपनी आस्तीनों
में स्वयं मुंह छिपा लेना ही उचित होगा और अपनी मौत की घोषणा
कर देना भी।
आज आप कैसा रचनात्मक माहौल पाती
हैं?
चुके हुए लोगों की हताश फुफकारों के
विषवमन से प्रदूषित। दुःख और क्षोभ के साथ स्वीकार करना पड़ता
है कि हम जिस विरासत में रचनारत हुए वह गुरू समान उन साधक
रचनाकारों से सिंचितपल्लवित हुई जिन्होंने लगातार
समाजसापेक्षीय रचनादृष्टि से हमें संस्कारित किया। सर्जनरत रहते
हुए हमने यह गहरे अनुभूत किया कि अपनी प्रत्येक रचना के साथ
रचनाकार विकास की सीढ़ियां चढ़ता है, संवेदनाओं में व्यापकत्व
ग्रहण करता है और विवेक में समदृष्टि।
विचारणीय है, विरासत में हम
सर्जनरत नई पीढ़ी के लिए कौन सी जमीन छोड़ेंगे; छोड़ रहे हैं।
उस दलदल में क्या वह सांसें ले पाएगी? बचा पाएगी उस रचनात्मक
भूख को कि लेखक की पीठ व्यास पीठ है?
दरअसल, लोगों की रूचियां भ्रष्ट कर
साहित्य को विस्थापित करने का षड्यंत्र इलेक्टॉनिक मीडिया नहीं रच
रहा। बड़ी सहजता से इन आड़ों को ओढ़ हम अपनी भूमिका से
मुठभेड़ करने से कतरा लेते हैं। वास्तविकता यह है कि कुछेक पत्रिकाओं के
संपादक संपादकीय एथिक्स से आंख मूंद चुके हैं। उनका उद्देश्य
रचनात्मकता के प्रति पाठकों को जागरूक करना नहीं रहा, न वो आईना
देना (बकौल डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी) जिसमें वे अपने
व्यवस्थागत इस्तेमालों और शोषणों की साजिशों को सूंघ सकें।
उनका एकमात्र लक्ष्य है स्वयं को चर्चा में बनाए रखना और मसालों के
माध्यम से सेलीब्रेटी होने का तमगा पहनना। यह भी कि पत्रिका की बिक्री
में कुछ इजाफा हो सके। वे भूल गए कि बिक्री बढ़ाने के लिए ऐसे
हथकंडे फिल्मी पत्रिकाएं अपनाती रही हैं, साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं। आज पूरे
देश में एक ऐसे ही चुके हुए नई कहानी दौर के रचनाकार सुर्खियों
में हैं। एक कथा पत्रिका में उनका सनसनीखेज साक्षात्कार एवं एक अन्य
साहित्य के लिए प्रतिबद्ध पत्रिका में प्रकाशित उनका अश्लील लेख, जो स्त्री
अस्मिता को सरेआम बाज़ार में नंगा कर रहा और उनके उस ढोंग के
भी परखचे उड़ा रहा है, जो वे दलित और स्त्री के पक्षधर के रूप में अब तक
प्रचारितप्रसारित करते रहे हैं।
यह जो अंधकार हम बो रहे हैं
साहित्यकार होने के नाते आत्मविश्लेषण की मांग नहीं करता है।
इन दिनों आप क्या पढ़ रही हैं और
क्या पढ़ना पसंद करती हैं?
जब मैं लिख रही होती हूं तो उन दिनों
गंभीर चीजें पढ़ना लगभग स्थगित हो जाता है। पत्रपत्रिकाएं पलटने
की बात अलग है। ऐसे में मैं किसी यात्रा की प्रतीक्षा करती हूं, ताकि
चुनी हुई उन पुस्तकों को पढ़ने की सुविधा हासिल कर सकूं जिन्हें
पढ़ने की ललक से मैं भरी हुई हूं। इधर मैंने दो पुस्तकें पढ़ने के
लिए चुन रखी हैं। चंद्रकांता का कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखा गया
महत्वाकांक्षी उपन्यास ' कथा सतीसर', जो निश्चित ही केवल चंद्रकांता
ही लिख सकती थीं। दूसरी पुस्तक है महेश दर्पण द्वारा संपादित 'बीसवीं
शताब्दी की हिंदी कहानियां', जो बारह खंड़ों में हैं; जिसकी
श्रमसाध्य, समाज सरोकारीय, शोधपरक भूमिका पढ़कर मैं लगभग
चित्त हूं। इतने चुनौतीपूर्ण कार्य को अंजाम देना आसान काम नहीं;
क्योंकि महेश दर्पण को मात्र कहानियां भर नहीं चुननी थीं, अपने
समय के आईनों की धूल झाड़ उन प्रतिच्छवियों के चेहरों की
सलवटों को छूनापरखना भी था, जो आदमी की निरंतर मुठभेड़ों
की गवाह हैं। अद्भुत काम किया है महेश दर्पण ने!
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