प्रश्न : असगर जी,
पहले तो आपको इंदु शर्मा कथा सम्मान मिलने की
बहुतबहुत बधाई। एक बात बताइए कि जब आपको इस
सम्मान के लिए चुना गया और आपको सूचित किया
गया तो आपने क्या महसूस किया? कृपया अपनी उस
भावना को हमारे साथ शेयर करें।
असगर : आपको शायद नहीं मालूम कि इस
उपन्यास की समीक्षा बहुत ख़राब छपी थी। यह भी कहा
गया था कि इस उपन्यास में सब बकवास है। ऐसी
स्थिति में मेरे लिए यह काफ़ी चौंका देने वाली
ख़बर थी कि इस नावेल को लोगों, लेखकों और
आलोचकों ने काफ़ी पसंद किया है और अवार्ड दे रहे
हैं। ज़ाहिर है इन लोगों ने भी निगेटिव
समीक्षा पढ़ी होगी और इन लोगों पर उसका असर
नहीं हुआ अपने दिमाग़ से काम किया। यह मेरे लिए
खुशी की बात थी और है। इस फ़ैसले से मेरा
विश्वास और पक्का हो गया कि अच्छी रचना को लंबे
समय तक दबाया नहीं जा सकता। मुझे यह भी लगा
कि ईमानदारी और सच्चाई से सोचने वाले लोग
भी हैं। यह सोच कर खुशी हुई कि मेरे लेखन से
जुड़ने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं।
प्रश्न : बचपन
की घटनाएं, छवियां या कच्ची उमर के सपने,
महत्वाकांक्षाएं और उन सपनों का टूटना, ये सारी
स्थितियां हर लेखक के लेखन में बारबार आती हैं,
आप इसे किस रूप में लेते हैं?
उतर : अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता। वह चाहे
अनचाहे सबके अंदर जगमगाता रहता है। जहां तक मेरा
सवाल है मैं एक ऐसी पीढ़ी का सदस्य हूं जिसका
अपना घर हुआ करता था, अपना मोहल्ला होता था,
शहर होता था, कस्बा होता था। अब ऐसा नहीं है।
यानी आज की युवा पीढ़ी या उसके बहुत से लोग
इस अपनेपन से खाली हैं।
बचपन और लड़कपन न सिर्फ़ बारबार रचनाओं
में झांकता है बल्कि वह व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता
है और इस तरह लेखक की रचनाओं में सदा बना रहता
है। मैं आपको अपना उदाहरण देकर बताऊं। अपनी तमाम
बुराइयों अच्छाइयों के साथ मैं अपने आपको एक
ऐसा आदमी मानता हूं जो अराजक तो नहीं है पर
पूरी तरह अनियोजित है। योजनाबद्धता मेरे स्वभाव
में नहीं है क्योंकि मेरा बचपन और लड़कपन जिस
माहौल में बीता वहां यह न थी। वहां
बेफ़िक्री और मस्ती थी। वहां भविष्य का डर नहीं था। वहां
यह सवाल ही न पैदा होता था कि कभी बुरे दिन भी
आ सकते हैं। वहां जितना पैसा आता था, अनाज आता
था, फल आते थे सब खा लिए या बांट दिए जाते थे
क्योंकि यह पक्का विश्वास था कि आते रहेंगे।
एक मजे़दार बात ये
बताऊं कि मेरे पिताजी को जब उनके किसी काम या
जायदाद या खेतीबाड़ी से पैसा मिलता था और उनका
कोई कारिंदा या नौकर उनके हाथ में पैसा देता था
तो वे बहुत नाराज़ होते थे। कारण यह था कि उन्हें
पैसे गिनने पड़ते थे और अब्बा गणित में ही नहीं,
गिनती करने में बहुत कमज़ोर थे और उन्हें इसके
लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता था इसलिए वे आमदनी
होने और पैसे दिए जाने पर नाराज़ हो जाते थे।
जो पैसे देता या लाता था उससे ही कहते थे कि
गिनो। इसका असर आप मानें या न मानें मेरे ऊपर
कुछ इस तरह पड़ा है कि मैं लगातार दसपंद्रह मिनट
तक पैसे या कुछ और गिनने का काम नहीं कर सकता
या नहीं करना चाहता। अभी ईरान गया था। वहां
एयरपोर्ट पर पचास डालर चेंज कराए तो बैंक वाले
ने नोटों का एक गठ्ठर पकड़ा दिया। मैं हैरान रह
गया। पर समझ गया कि पैसा एक्सचेंज रेट से
हिसाब से दिया जा रहा है। लेकिन मैं सच बताऊं
के बैंक के काउंटर पर या पीछे पड़ी कुर्सियों पर बैठ
कर सारे नोट गिनने का कष्ट मैंने नहीं किया और
मान लिया कि यार जो दिया है ठीक ही होगा।
स्वभावगत
बेफ़िक्री, मस्ती, खिलदंड़ापन और लोगों तथा चीज़ों पर
पक्का विश्वास लेखन में भी तो फलकता होगा
क्योंकि वह स्वभाव का हिस्सा बन चुका है।
कच्ची उमर का एक सपना
अब तक साकार करने की कोशिश में लगा हुआ हूं। यह
सपना है दुनिया देखने का सपना। लगता है अभी कुछ
नहीं देखा है। कभीकभी मज़ाक में दोस्तों से
कहता हूं कि मेरी एक छोटीसी इच्छा है। वह यह कि
संसार में जितनी भी जगहें हैं उन्हें देख लूं और
जितने भी लोग हैं उनसे मिल लूं।
सपनों का टूटना
सबसे पहले सबसे बड़े सपने के टूटने के बारे
में बताऊं। यह सपना था अपने समाज, लोगों
और देश के बारे में। सोचा था सब कुछ अच्छा
होगा। एक 'भयमुक्त' समाज और देश बनेगा।
सोचा था ग़रीबी कम होगी, असमानता घटेगी,
लोग स्वस्थ और शिक्षित होंगे। अपराध कम होगा .
. .जीवन स्तर बेहतर होगा। लेकिन राजनीतिज्ञों,
नौकरशाहों और पूंजीपतियों ने मिलकर हमारी
पीढ़ी के इस सपने को फिलहाल चकनाचूर कर दिया है।
एक और सपना था हिंदी
भाषा और साहित्य को लेकर। वह यह था कि हिंदी
क्षेत्र में यानी पचाससाठ करोड़ लोगों की
भाषा के क्षेत्र में भाषा, साहित्य और संस्कृति
फूले फलेगी। लेकिन आज स्थिति यह है कि हिंदी की
किताबें कुछ हज़ार भी नहीं बिकतीं। हिंदी में
अनूदित साहित्य विश्व साहित्य और भारतीय
साहित्य कितना है? शब्दकोश और विश्वकोश कितने
है? समाज विज्ञान या विज्ञान के क्षेत्र में
हिंदी कहां है? आज तो हिंदी के समाचारपत्र भी अपने
को हिंदी क्षेत्र की संवेदना से अलग कर रहे हैं। हिंदी
समाचारपत्र अंगेज़ी की धुंआधार नकल में अजीब
तरह से हास्य और करूणा के विषय बन गए हैं। हिंदी
के नाम पर करोड़ों ख़रबों रूपया हर साल नष्ट हो
जाता है . . .यह भी एक
सपने का टूटना ही तो है।
मेरे ख्याल में
सबसे दुःखद अपने को असहाय, मजबूर और विवश
पाना ही होता है। हिंदी क्षेत्र के संदर्भ में मैं यही
महसूस करता हूं। यह वही क्षेत्र है जहां संसार के
सबसे बड़े साम्राज्य की नींव हिला दी गई थी।
जहां एकता, देशप्रदान और बलिदान की भावना
अपने शिखर पर थी। जहां सामाजिक और सांस्कृतिक
जागरूकता का डंका बजता था। वहां आज क्या है?
भयानक और आक्रामक धर्मांधता। सांप्रदायिकता,
जातिवाद, हिंसा और अपहरण, भ्रष्टाचार लोकतांत्रिक
मूल्यों का विघटन, नगर समाज का घोर पतन। ये
सब कैसे हुआ? क्यों हुआ? किसने किया? हम क्या
कर रहे थे जब यह सब हो रहा था? अब क्या वास्तव
में हम उसके सामने अपने को मजबूर करते हैं?
यह सपनों का टूटना है . . .यही स्थितियां और
इनके विभिन्न स्वरूप मेरे लेखन में प्रतिध्वनित
होते हैं।
माफ़ करें मैं इतना
दार्शनिक, कलात्मक, पारदर्शी, गतिशील नहीं होना
चाहता कि उसमें मेरा लेखन खो जाए या केवल
बौद्धिक प्रलाप बन जाए।
प्रश्न : "कैसी
आगी लगाई?" में आपने एक छात्र के ज़रिए
राजनीति, छात्र आंदोलन, सपनें आदि के ज़रिए
सातवें दशक के कालखंड को सामने रखा है, इस
कालखंड के आगेपीछे की कड़ियों के बारे में आप
क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर : "कैसी आगी लगाई" उपन्यास
त्रयी का पहला भाग है। यह स्वप्न देखने, उसके टूटने
और उसे जोड़ने की आकांक्षा की त्रयी होगी। पहला
भाग एक पृष्ठभूमि है जिसमें जीवन अपने विविध
रंगों के साथ, छात्र जीवन और सपनों के टूटने
का ज़िक्र है। यह हिस्सा एक अर्थ में जीवन का प्रारंभ
है। 'आग' प्रतीक है जो जीवन की पहली शर्त है। यह
आग एक जीवन को जन्म देती है जो निरंतर आगे
बढ़ जाता है। हमारी पीढ़ी के सपने बनते हैं और
टूटते हैं। सपने टूटने का जो सिलसिला 'कैसी
आगी लगाई' के अंतिम हिस्सों में शुरू होता है वह
दूसरे भाग में अपने चरम पर पहुंचता है। तीसरा
भाग उस टूटे सपने को पुनः स्थापित करने का काम
करेगा और इस प्रक्रिया में पिछले और आनेवाले
वर्षों को साकार करने का प्रयास किया जाएगा। यह
त्रयी 'आज़ादी' से 'आज़ादी' तक की ही त्रयी कही जा
सकती है। पहली आज़ादी हमें साम्राज्यवाद से मिली
थी और दूसरी आज़ादी की लड़ाई अधिक जटिल है,
जो बहुआयामी है, जो ज्यादा लंबी चलने
वाली है। यह 'आज़ादी' की लड़ाई अपनी जड़ता से
भी है। सांप्रादायिकता से है। जातिवाद से है,
क्षेत्रीयतावाद से है अंधविश्वासों से है, हिंसा
और अपराध से है तथा दूसरी ओर यह लड़ाई
नवसाम्राज्यवाद से है। यह लड़ाई भूमंडलीकरण
और बाज़ारवाद से है। यह लड़ाई लोकतंत्र के उस रूप
से भी है जो 'वोटों' के लिए हमें विभाजित करता
और हमारा शोषण करता आया है।
इस तरह उपन्यास त्रयी
अतीत और भविष्य को अपने अंदर समेटने का प्रयास
करेगी।
प्रश्न : आप एक
सिद्धहस्त लघुकथाकार, कहानीकार, नाटककार और
उपन्यासकार है, इनमें से किस विधा में ज्यादा
सहज महसूस करते हैं?
उत्तर : देखिए मुख्य बात यह है कि विषयवस्तु लेखक को किस 'रूप' में संतुष्ट करती है। मुझे लगता
है कुछ भी लिखते हुए सबसे पहले तो लेखक को ही यह
लगना चाहिए कि उसे लेखन में मज़ा आ रहा है।
मज़ा आने से मेरी मुराद यह है कि लेखक जो कहना
चाहता है वह कह पा रहा है या नहीं? कुछ विषय ऐसे
होते हैं जो लघु कहानी में जितने सटीक बैठते
हैं उतना लंबी कहानी या उपन्यास में नहीं बैठ
सकते। इसी तरह प्रत्येक विषय अपने लिए स्वयं
'फार्म' को चुन लेता है। कभीकभी इसमें ग़लती
भी हो सकती है। पर प्रायः होता यही है। 'फार्म'
बदलने का दबाव बाहरी परिस्थितियां भी बनाती हैं।
आपातकाल के दौरान मुझे लगा था कि पहले जैसे
कहानियां लिखा करता था वैसी, उस तरह की, उस
शैली में नहीं लिखी जा सकती, इसलिए शैली और
फार्म में बदलाव आया था। प्रतीकात्मक कहानियां
लिखी थी, लघुपंचतंत्र शैली की कहानियां लिखी
थी।
प्रश्न : चार
कहानी संग्रह, तीन उपन्यास और छः नाटक लिख लेने
पर आप जिस मुकाम पर है, वहां पहुंचने पर आप
कैसा महसूस करते हैं?
उत्तर : ये तो बड़ा ख़तरनाक सवाल है जो
बेचैन करता है। पहली बात तो यह कि मैंने बहुत
नहीं लिखा है। उससे पहली बात यह कि मैंने कम
पढ़ा और देखासुना, समझा और जाना है।
इसलिए मैं अपने आपसे बिल्कुल संतुष्ट नहीं हूं
और यह मानता नहीं कि मैं किसी 'मुकाम' पर खड़ा
हूं। अपना लिखा प्रायः आधा, अधूरा और
बचकानासा जान पड़ता है। इसलिए मैं असंतुष्ट
हूं और चाहता हूं कि कुछ ऐसा करूं जिससे कुछ
संतोष मिले . . .उपन्यास त्रयी को ही लेकर बहुत
परेशान हूं। दूसरे भाग का पहला ड्राफ्ट तैयार किया
है पर उसमें भी अनेक झोल, कमियां और
ख़ामियां हैं। देखिए क्या होता है। कभीकभी तो
लगता है कि लेखन कर्म ही अपने आप में ही बेचैन,
असंतुष्ट और कभी समाप्त न होने वाले प्रश्नों का
सिलसिला है।
प्रश्न : आपके
लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत आपकी भाषा की
सादगी और किस्सागोई में महारत है, इसे आप
कैसे साधते हैं?
उत्तर : सादगी और किस्सागोई मुझे पसंद है
क्योंकि उसके संस्कार मुझे मिलते रहे हैं और मेरे
जैसे अनपढ़ और अंतर्मुखी व्यक्ति के स्वभाव से
मेल खाते हैं। मैं आपसे कोई बौद्धिक विमर्श नहीं
कर सकता केवल किस्सा सुना सकता हूं तो क्या करूंगा?
किस्सा ही सुनाऊंगा? मेरे अंदर झूठ बोलने,
सहने और संजो कर रखने की बहुत ताकत नहीं है। हां,
थोड़ा बहुत दिल रखने के लिए तो चलता है। लेकिन
उससे ज्यादा झूठ काफ़ी मुश्किल हो जाता है। इसलिए
चाहता हूं कम से कम लेखन में सच का मज़ा ले
लूं और दूसरों को दे दूं . . .बस यही बात है।
प्रश्न : आप खूब
यात्राएं करते हैं, क्या लेखन में उन यात्राओं की
कोई भूमिका होती है?
उत्तर : यात्राएं मैं कल्पना में भी करता हूं। हर
समय किसी भी यात्रा के लिए तैयार रहता हूं। प्यारे
अज़ीज़ दोस्त और उर्दू के बहुत बड़े कवि शहरयार का
शेर है :
हर बार यही घर को पलटते हुए सोचा
ऐ काश किसी लंबे सफ़र को गए होते
मैं जब बच्चा था तो
मेरी दुनिया बड़ी सीमित थी। हम बच्चों पर सख्ती
ये थी कि घर(जो हक़ीक़त में घर था और वैसे
घर अब नहीं होते। बाहर अकेले न जाएं। बड़े होने
पर भी सूरज डूबने से पहले घर लौटना अनिवार्य
था। मैं कुछकुछ जानने लगा था कि दुनिया बहुत
बड़ी है। हालांकि मेरा सामान्य ज्ञान बहुत
सीमित था और है भी लेकिन इसके बावजूद लगता
था कुछ हज़ार किलोमीटर दूर नया होगा, रोचक
होगा, ट्रेनों या ट्रकों को आतेजाते देखता था
तो मन में अजीब तरह का रोमांच भर जाता था कि
अच्छा बंगाल कैसा होगा? कलकत्ता शहर कैसा होगा?
कैसे लोग होंगे? कैसे बाज़ार होंगे? कैसी
जिंदगी होगी?
जब अलीगढ़ विश्वविद्यालय आया तो अपने कोर्स की
किताबों से ज्यादा मैं विदेशों पर छपी किताबों
के पन्ने पलट कर तस्वीरें देखा करता था। अंगूर के
बागों में अपनी पारंपारिक वेशभूषा में काम करती
सुंदर लड़कियां और पृष्ठभूमि में घास के हरे
पहाड़ जैसे मेरे ऊपर जादू कर देते थे और मैं
सोचता था सब कुछ छोडछाड़ कर चल दूं . . .पर
उस समय तक पासपोर्ट वीज़ा वगैरा की जानकारी
मिल चुकी थी। लेकिन वे किताबें तो देखता ही रहता
था। यही यह सपना पाला था कि पूरे संसार का
भ्रमण करूंगा। यह सपना पूरा नहीं हो सका।
दरअसल घूमते समय
मेरे ध्यान में यह नहीं रहता कि यह अनुभव कहानी
उपन्यास में किस तरह शामिल होंगे। लेकिन समय
आने पर उनका कहीं न कहीं उपयोग हो जाता है। बीस
पच्चीस साल पहले देखी जगहें, बातें, लोग
अचानक कहानी का विषय बन जाते हैं।
यात्राएं कई अर्थों में
ताज़ा कर देती हैं। यह ताज़गी लेखन के लिए ही नहीं,
जीने के लिए भी ज़रूरी होती हैं।
प्रश्न : एक ऐसे
दौर में जब पाठक और पाठन कम से कम हिंदी समाज
में बिलकुल हाशिये पर चला गया है तो लेखन के
भविष्य को लेकर आपको क्या लगता है?
उत्तर : फिर बात आ गई हिंदी समाज की। इससे
पहले मैं इस पर आंसू बहा चुका हूं। यहां यह स्पष्ट
कर दूं कि मैं हिंदी समाज के महत्व और उसकी
ऐतिहासिक भूमिका को मानता और उसका सम्मान करता
हूं तथा 'बीमारू' प्रदेशों वाली धारणा को अस्वीकार
करता हूं।
बहुत सालों से यह
सोच रहा था कि हिंदी प्रदेशों में वैसी सांस्कृतिक
जागरूकता क्यों नहीं है जैसे बंगाल, कर्नाटक,
केरल, तमिलनाड आदि में है? भाषा को ही ले
लें। पढ़ालिखा बंगाली बांग्ला साहित्य और
संगीत में रूचि लेता है। नाटक देखता है। पर हिंदी
क्षेत्र का पढ़ा लिखा आदमी हिंदी भाषा साहित्य और
संस्कृति से विमुख हो जाता है। आप उसके घर में
हिंदी की एक किताब भी न पाएंगे। ऐसा क्यों होता है?
इस मसले पर
सोचतेसोचते एक कारण समझ में आया। आप से
'शेयर' कर सकता हूं। मेरे ख्याल से हिंदी प्रदेशों
में सांस्कृतिक उदासीनता का कारण या बीज 1857 की
असफल क्रांति में छिपे हुए हैं। आप जानती हैं कि 1857
में हिंदी क्षेत्र की बड़ी प्रमुख भूमिका थी। आप यह
भी जानती है कि अंग्रेज़ी के राज को समाप्त कर
देने की योजना बहुत लंबे समय से बनाई जा
रही थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस लड़ाई में
राजा, नवाब, मौलवी, पंडित, किसान, दस्तकार
और यहां तक कि वेश्याएं भी शामिल थे जो कंपनी
के शासन से बहुत दुःखी थे। इसका मतलब यह हुआ
हिंदी क्षेत्र ने यह बहुत बड़ा सपना देखा था। सौ
साल के बाद यानि 1757 में प्लासी की लड़ाई के
सौ साल बाद यह क्षेत्र दासता से मुक्त होना चाहता
था। आप जानती है कि बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए
पूरा ज़ोर लगा दिया जाता है और सबसे बड़ी ताकत
होती है नैतिक बल। तो इस लड़ाई में अपार नैतिक
बल लगा दिया गया था। नैतिक बल का केंद्र था
"हम सही है, हमारी लड़ाई सही है, इसलिए
जीत हमारी होगी।"
कारण जो चाहे जो रहे हों। हम लड़ाई हार गए।
अब श्याम बेनेगल की
फ़िल्म 'जुनून' का वह दृश्य याद कीजिए क्रांतिकारी
नसीरूद्दीन शाह लड़ाई के मोर्चे पर हार कर घर आता
है और अपने भाई शशि कपूर के कबूतरों को
उठाउठा कर पटकने और उड़ाने लगता है। उत्तेजित
होकर रहा है कि हम अंग्रेज़ों से इसीलिए हार गए कि
हम कबूतरबाज़ी, शतरंजबाज़ी, पतंगबाज़ी में
पड़े थे . . ."
थोड़ा विचार कीजिए।
मनोरंजन के साधन तो हर समाज में होते हैं।
क्या उनके कारण कोई हार सकता है? दरअसल इस
संवाद के पीछे जो ध्वनित हो रहा है वह 'सांस्कृतिक
हार' है। आप देखेंगी कि 1857 की असफल क्रांति के बाद
सुनियोजित ढंग से यह प्रचार किया गया कि
हिंदुस्तान(हिंदी प्रदेश) की भाषा और संस्कृति
पतनशील है, उससे अलग हो जाना ही उतम है।
यह तथाकथित अभियान सौ साल तक चला और इसने
हमें संस्कृतिहीन कर दिया। यही कारण है कि आज हिंदी
प्रदेशों में सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है।
संस्कृति के प्रति
उदासीन समाज में किताबों की क्या स्थिति हो सकती
है, आप समझ सकती है। यह बात निश्चित रूप से लेखक
को हर तरह सालती है। लेकिन भविष्य के प्रति मैं
आस्थावान हूं। स्थिति बदल रही है और बदलेगी।
प्रश्न : आपके
लेखन में आपके घर, परिवार की क्या भूमिका है?
उत्तर : परिवार से यथासंभव सहयोग मिलता
है।
प्रश्न : वह क्या
है जो अभी लिखा जाना बाकी है?
उत्तर : पूरी 'रामकथा' है जो अभी लिखना बाकी
है।
प्रश्न : आपकी
राय में लेखन में सम्मान या पुरस्कार क्या भूमिका
अदा करते हैं?
उत्तर : सम्मान और पुरस्कार यदि ईमानदारी से
दिए जाएं तो उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वे लेखक
और पाठक दोनों को उत्साहित करते हैं।
प्रश्न : एक विद्या
के रूप में आत्मकथात्मक उपन्यास को दूसरे उपन्यासों
से कैसे अलग बनाएंगे?
उत्तर : मेरे विचार से आत्मकथात्मक होने के
कारण कोई उपन्यास अन्य उपन्यासों से यानि ग़ैर
कथात्मक उपन्यासों से अच्छा या बुरा नहीं हो सकता।
दोनों ही प्रकार के उपन्यासों के लिए कसौटी एक ही
होती है।
प्रश्न : आप लेखक
न होते को क्या होते?
उत्तर : मैं लेखक न होता तो सफ़ाई कर्मचारी
होता या दस्तकार होता।
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