मिट्टी में आग का उत्सव
- उत्कर्ष
अग्निहोत्री
जगत
में जो कुछ महत है उसके अंतर में अग्नि का वास है। इसी
वजह से पूरे अस्तित्व का स्वरूप प्रभामंडित दिखाई देता
है। जहाँ जहाँ प्रभाव है वहाँ वहाँ अग्नि तत्व है
किंतु अपने रचनात्मक और कलात्मक रूप में। सृष्टि की
निर्मिति ही इससे हुई है। इसकी एक एक लपट ने आत्म को
संग्रथित करके जीवन का निर्माण किया है। इससे मनुष्य
का बस यही रिश्ता है कि वह सायास या अनायास समग्र के
अंतस में विद्यमान उस शान्त ज्वाला को वर्तमान कर देता
है।
जब यह वह्नी अस्तित्व में कृतित्व का प्रणयन करती है
तो देवता बन जाती है और जब यही वह्नि अस्तित्व के
व्यक्तित्व का विनाश करती है तो दैत्य बन जाती है। इस
दृष्टि से अनल को वासुदेव भी कहा जाता है क्योंकि वे
सर्वत्र संजीवनी के रूप में व्याप्त हैं। ये इस पूरी
धरती को धारण करने के धर्म से अलंकृत किये हुए है।
अग्नि का संघात ही संसार को जोड़े हुए है। यही जुड़ाव
जीवन के लिए उपयोगी है और उसके आनंद की दिशा भी। जब जब
हमारा जीवन इस ओर जाता है, तब तब हम मृण्मय से चिन्मय
हो जाते हैं और प्रकाश के वातास में खो जाते हैं। खोना
उत्सव की अनुभूति है और होना उत्सव की अभिव्यक्ति। इस
अनुभूति और अभिव्यक्ति के पर्व का नाम है दीपावली।
पर्व अर्थात् हृदय के उल्लास का निर्बाध रूप से छलछला
उठना है।
जब पर्वत के चित्त का राग झरना बनकर फूटता है तो वह
उसका पर्व हो जाता है, जब धरती की छाती का क्षीर फसल
बनकर लहलहाता है तो वह उसके लिए पर्व हो जाता है, जब
उमड़ते घुमड़ते मेघों का मन कृपा बनकर बरस जाता है तो
वह उसके लिए पर्व होता है और जब जब घने अंधकार की कोख
से प्रकाश की प्रसूति होती है तब तब वह उसके लिए पर्व
होता है। अंधकार की कोख से प्रकाश की नाल काटती है वह
वर्तिका जो स्नेह से भीगी होती है और उसे धारण करता है
मिट्टी का दिया। लेकिन मिट्टी ने भी अपना सब कुछ दिया
है दिये को इसीलिए उसकी स्नेहिल स्वीकृति ज्योति का
शृंगार बन जाती है और ज्योति उसका। यही जगमगाती हुईं
दीपशिखाओं की पंक्तियाँ जब द्वार - देहरी और आँगन में
रंगोली की तरह सजा दी जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे
मिट्टी में आग का उत्सव हो रहा हो। ये प्रकाश पर्व
अंधकार से आंदोलन की कथा भी रचता है जो हमारी दुर्बलता
को पराजित करती है और हमारी शक्ति को प्रबलता का पाठ
पढ़ाती है। गुरवर डॉ. शिवओम अंबर जी की पंक्तियाँ
प्रसंगानुकुल याद आ रही हैं -
एक काली रात के विद्रोह में, क्रांति का आह्वान है
दीपावली।
मृत्तिका की देह में जगती हुई, ज्योति का जयगान है
दीपावली।
दीपावली में हर एक व्यक्ति प्रज्जवलित दीप से उस रात
का सुहागिन की तरह सिंगार करता है। अतः दीप जलाना हृदय
के आह्लाद को ज्योतिशिखा में परिवर्तित कर देना है और
अन्तस की रसमयता का उद्दीपन को अपने उत्स में पा लेना
है। यही रंजनावस्था दीपावली को पर्व की तरह मनाने का
कारण है। पर्व का एक अर्थ अध्याय भी होता है। इसलिए
पर्व जीवन - पुस्तक के रागात्मक अध्याय हैं जो हमें
जीवन के प्रति विमुग्धता से भरते हैं; प्रमुदित करते
हैं; प्रफुल्लित करते हैं।
यद्यपि दीपोत्सव "एकोहं बहुस्याम " का ही प्रतीकात्मक
उद्घोष ही हैं। यह उद्घोष अखण्ड में विलीन होने के
आत्मतोष की आतुरता है। इनकी एकसूत्रता देखकर ही लगता
है कि शक्ति के साथ - साथ सौंदर्य भी, संगठन में ही
है, विछिन्नता या विखंडन में नहीं। चाहे इनकी अवलि घर
की देहरी और मुंडेरों पे देख ली जाए या नदी की बहती
धारा में, अतुलनीय लगते हैं।
दीपोत्सव को मानने का कारण प्रभु श्रीराम और माता सीता
के आगमन को मानते हैं। ध्यान रखिए रावण वध के समय
श्रीराम ने पराजय को अपना विलोम नहीं बनाया बल्कि विजय
को अपना पर्याय बना लिया। इसीलिए उस दिन प्रभु राम और
माता जानकी जब जय और शांति के रूप में साथ - साथ आते
हैं तो हृदय की प्रसन्नता प्रभासित हो उठती है।
वस्तुतः जीत के क्षणों में प्रसन्नता इसलिए होती है
क्योंकि प्रत्येक विजय में हमें प्रभु श्रीराम की ही
प्रतीति होती है। इस प्रतीति की अनुभूति ऐसी ही है
जैसे अपनी भास्वरता को सूर्य स्वयं ही समेट कर दीपक के
हृदय में उतार दे।
दीपावली का रिश्ता मनुष्य, दीपक और श्रीराम के साथ ऐसा
ही है। दिये का ये जगमगाना इसलिए भी प्रणम्य है
क्योंकि वह लोकहित के लिए आत्म विदग्ध होता है और
प्रकाश लुटाता है। लेकिन इसका जलना मात्र जलना नहीं है
यह कभी स्मृति में होता है, कभी प्रकृति में होता है;
कभी संस्कृति में होता है। इनमें से एक भी दशा अपने
लिए नहीं होती इसलिए यह क्रिया पूज्य हो जाती है। इस
उत्सव की महार्घ्यता ये है कि अन्य कई त्योहार भी इसकी
परिक्रमा करते है और श्रद्धा की गंगाजली ढुलकाते हैं।
नवरात्रि से नित्य यज्ञ के रूप में ही अग्नि स्तवन
प्रारंभ हो जाता है। फिर दशहरा, धनतेरस, रूप चतुर्दशी,
दिवाली, गोवर्धन और भाई दूज आदि तक आलोकपर्व ही मनाया
जाता है। मनुष्य को पोर पोर आलोकपर्व होना चाहिए, यही
उसका धर्म है और यही उसका लक्ष्य भी। अगर सौभाग्य से
ऐसे लोग कहीं मिल जाएँ जो स्वयं ही दीपावली होते हैं
तो हमारे समाज को उसे सहेज के रखना चाहिए बल्कि उन्हें
अनुकूल स्नेह देना चाहिए। ताकि वे अपनी उपस्थिति से
हमारे समय को त्योहार बनाते रहें। श्रद्धेय रामावतार
त्यागी जी की पंक्तियाँ इस दीपावली हमारा संदेश भी बने
और संस्कार भी -
इस सदन में मैं अकेला ही दीया हूँ
मत बुझाओ!
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!!
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ
मत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!!
जिस सनातन सांस्कृतिक संपन्नता या जिस संजीवनी शैली के
अश्वत्थी व्यक्ति को धरोहर न मनके आज समाज विध्वंसक
अग्निखण्ड समझ रहा है कल यही पवित्रता और सत्यनिष्ठा
की आरती जलाएगा। हम अपनी प्रत्येक रात्रि को आरात्रिका
बनने में बाधा न बनें। "अप्प दीपो भव" को जीने की
सतचेष्टा करो और जीवन में दिये जलाते रहें।
१ नवंबर २०२३ |