ग्रीष्म
ऋतु की
साधुता
- उत्कर्ष
अग्निहोत्री
बैठक
की बंद खिड़कियों में सनों से झरने की तरह देह पर
गिरती हुई त्रसरेणु अलौकिकता का परिवेश निर्मित कर रही
हैं। अगर उनके दो - चार कण भी निरावृत्त काया पर उतरते
हैं तो लगता है जैसे अनुष्ठान के लिए प्रज्ज्वलित यज्ञ
से अग्निखण्ड चिटक कर बाँह पर गिर गए हों। जैसे यज्ञ
में अभिमंत्रित वेदी पर प्रारम्भिक चरण के बाद बैठना
कठिन होने लगता है वैसे ही ग्रीष्म ऋतु में
ब्रह्ममुहुर्त से लेकर सूर्य के अभ्युदय काल तक
वातावरण शीतल, सौम्य और मनोहारी लगता है। सुबह सुबह
इसी ऋतु में पक्षियों प्रभाती मन को लुभाती है, उल्लास
की उमंग में अन्तस की हर तरंग उभरती है डूब जाती है और
फिर देखते ही देखते धरती की माँग सिंदूरी हो जाती है।
इस संदर्भ में लोकगीत के प्रसिद्ध कविवर आत्मप्रकाश
शुक्ल जी की पंक्तियाँ सर्वथा समीचीन हैं -
है गओ है गओ रे गोरी कमाल चिरैयाँ बोलन लगीं।
आयो आयो री मन मैं उछाल चिरैयाँ बोलन लगीं ।
गिरो पूरब सै सैंदुर को थाल चिरैयाँ बोलन लगीं ।
ग्रीष्मकालीन भोर की वेला जहाँ ये धूप रागवंत रंगोली
से वसुन्धरा के निखरे हुए रमणीय रूप का शीतल
साक्षात्कार देती है। लेकिन फिर वे ही मधुर - मधुर
रश्मिकण शनैः शनैः धधकती वैश्वानरी लपट में रूपांतरित
होने लगते हैं और जलते प्रश्न बनकर उपस्थित हो जाते
हैं। सच तो ये है कि ऋतुओं का प्रभाव जीवन जगत पर
जितना पड़ता है उससे कहीं अधिक हमारे भीतर मन, विचार
और संवेदन पर पड़ता है। इसके कारण हमारे आचार -
व्यवहार में प्रदिष्ट परिवर्तन नज़र आता है। वेशभूषा
और खानपान जिसका सबसे स्थूल रूप है तथा स्वभाव और लोक
संहिता जिसका सबसे सुक्ष्म रूप। हालाँकि कई बार प्रकाश
पर्व पे भी गहरा अँधेरा रहता है और कई बार पतझड़ में
भी मधुमास का एहसास होता है। किसी कवि की पंक्तियाँ
हैं -
मौसम का कुछ दोष नहीं है
मन पर ही छा गई उदासी
ज़्यादा देर किसी बस्ती में
रहते नहीं साधु संन्यासी
लेकिन प्रायः मन की ये यायावरी साधुता ग्रीष्म ऋतु में
ठहरी हुई दीखती है। दर्शनशास्त्र की यह मूल अवधारणा है
कि यदि अस्तित्व के मूल को जानना है तो सृष्टि के साथ
बहते हुए नहीं अपितु ठहरकर देखना होगा। अतः इसी ऋतु के
दौरान अलसाए हुए लोग बँधी हुई दृष्टि से देर तक और
गहरे उतरकर अपने मन में जीवन के ताप को अनुभूत करते
हैं। तपना व्यक्ति को व्यक्तित्व में रूपांतरित करता
है और उसके संज्ञा के स्वर्ण को निखार देता है, उसे
आकर्षण देता है। और यदि यह ताप अपने अंतर जगत में
अनुभूत किया जाने लगे तो सभी चिंताएँ चिंतन बन जाती
हैं, व्यर्थ की जटिलता अर्थ की सरलता बन जाती है, तनाव
का घाव स्वतंत्रता की मेंहदी का रचाव बन जाता है और
वैयक्तिक स्वभाव ज्ञान का अपूर्व प्रभाव बन जाता है।
ग्रीष्म ऋतु हमें परिवर्तन की इस सहजता का पर्याप्त
अवकाश देती है। जिसके उच्चारण में ही ऊष्मा का आभास
होता है, वह वस्तुतः जब काल चक्रित होकर आती है तो
हमें अनेक प्रकार के अनुराग से भर देती है। इसमें जहाँ
एक तरफ असहनीय उष्णता का अनुभव होता है, वहीं दूसरी
तरफ़ चिलचिलाती धूप से आकर पीपल की छाँव में या फिर
अम्मा के पाँव में बैठते ही ढलते हुए उनके बिजने की
तेज गति से निकलने वाली स्नेहिल हवा की शीतलता का
अनुभव होता है। ग्रीष्म ऋतु अपने स्वत्व में विरोधाभास
को प्रकट करती है। विरोधाभास ही जीवन की विलक्षणता है।
यह हमारे विवेक से परे है और आश्चर्य बनकर हमारे सामने
आता है।
जहाँ इस ऋतु में भूमि का उसका अमृतत्व जल समाप्त हो
जाता है, वहीं इस ऋतु के फलों (तरबूज, अंगूर, अनार,
संतरा, नारियल आदि) में अकूत मात्रा में जल अपनी मिठास
से हमें अक्लांत कर देता है। इसी के साथ हमारी
क्रियाशीलता में आई नीरसता को गन्ने का रस, नींबू की
शिकंजी और बेल का शर्बत सरस बनाकर हममें पुनः
प्राणप्रतिष्ठा कर देता हैं। यह सब ऐसा लगता है जैसे
ईश्वर ने अपनी कविता ने विरोधाभास अलंकार या वक्रोक्ति
अलंकार का उदाहरण प्रस्तुत किया हो। पृथ्वी जैसे
सम्पूर्ण मातृत्व को समेटकर अपने वक्ष से क्षीर को
अपने पुत्र पुत्रियों के लिए प्रकृति के अन्तस्थ में
सहेजे दे रही हो। मुझे अक्सर लगता है कि मनुष्य के
हृदय में जो व्याप्त रससिक्त माधुर्य भाव है वह
प्रकृति में जीवन्त इकाई बनकर आम के रूप में हमें
प्राप्त हुआ है। बच्चों से लेकर वृद्धों तक की कामना
आम को लेकर सतृष्ण हो उठती है। इन दिनों आम खास होते
हैं। परिभाषा से ये परे और भाषा में ये मुहावरे होते
हैं।
यह ऋतु अद्भुत प्राकृतिक क्रीड़ा लाती है। इसके आकर्षण
का दर्शन परंपरा से होता आया है। यही परम्परा बच्चों
में आकर अभिव्यंजित हो गई है और उनसे क्रमशः पोषित भी
होती आई है। ग्रीष्म ऋतु के चमत्कार को, उसके अपरिमित
उपहार को जितना बच्चों ने अंगीकार किया है, उतना कोई
भी नहीं कर पाया है। सारी मनुष्यता बच्चों में आकर
अकलंक चरित्र हो जाती है और उनके निर्दोष स्पर्श को
पाकर पवित्र हो जाती है। अतः यह ऋतु बचपन के लिए
प्रकृति का मनमोहक मेला लगती है। जिसमें बच्चों के लिए
चतुर्दिक चुंबकीय झाँकी होती है, उनके खाने की
स्वादिष्ट सामग्री होती है और पेड़ तथा बरामदों में
पड़े झूले होते हैं। जिसमें वे बेरोकटोक समा सकते हैं,
उसे चटकारे लेते हुए खा सकते हैं और खुले आकाश की ऊँची
ऊँची पेंगें लगा सकते हैं। यंत्रवत जीवन से मुक्त होकर
वे इस समय प्रसन्नता की हिलोरों में भीगते उतराते हुए
आनंद मानते है। यह ऋतु बच्चों को सर्वथा प्रिय होती
है।
अवकाश का प्रभूत विस्तार इसी ऋतु में मिलता है। संघर्ष
जीवन का अतुलनीय अनुभव है जो सबको अपने तरफ का अनन्य
होता है। कोई ये नहीं कह सकता कि मेरे अनुभव का स्वाद
बिकुल वैसा है जैसा मेरे पिता जी का था। असम्भव। यह
सबसे जीवन अलग ढंग से घटित होता है। एकदम नया; पहली
बार जन्मा; अभूतपूर्व जो सम्वेदन में न उतरा हो ऐसा
होता है। लेकिन ये अनुभवजन्य संघर्ष जिस दिव्य रसायन
से कांतियुक्त होता है वह है श्रमजल (पसीना)। इसकी यह
विशेषता है आदमी का जीवन इसमें जितना भीगता है उतना ही
सुगन्धित होता जाता है। इस ऋतु में इतने उपादान हैं कि
कविताएँ बहुत तरह से सुसज्जित हो सकती हैं। गर्मी,
धूप, प्यास, पानी, मरुस्थल, सूरज आदि ये सब विषय के
रूप में जीवन के बहुआयामी अर्थ देते हैं। इनकी
सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्तियां कविताओं को गैहराइयाँ देती
हैं। ये उपमान या प्रतीक रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैं।
ग्रीष्म ऋतु इनकी प्रदात्री है। आइए इस आगत मौसम का
स्वागत दुष्यंत कुमार के शब्दों को जीते हुए करें -
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए।
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।
जले जो रेत में तलवे तो हम ने ये देखा ,
बहुत से लोग वहीं छट-पटा के बैठ गए।
हालांकि बहुत भावुक विचार है लेकिन फिर भी स्मरण रहे
कि यदि हमने ग्रीष्म की उपेक्षा नहीं की अपितु उसे
सहजता से स्वीकार लिया तो हम भगवान श्रीकृष्ण के
"शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः" वाले अभिवचन के
जीवन्त चरित्र हो जायेंगे। कृष्ण की यह बात जीवन को
वितृष्णा नहीं बल्कि उसे प्रसाद की तरह स्वीकारने की
और प्रफुल्लचित्त होकर वितरित करने का आनंद बन रही है।
और यह अवसर हमें ग्रीष्म ऋतु देती है।
१ जून २०२३ |