सॉफ्टी भुट्टे
गुब्बारे
- राकेश ढौंडियाल
वह
सड़क सिर्फ एक मील लंबी है और वह सिर्फ सड़क नहीं है।
ऐसा नहीं कि उस एक मील की लंबाई के दोनों सिरों पर
खाइयाँ हैं अलबत्ता दोनों सिरों पर उसकी प्रकृति जरूर
बदल जाती है और साथ ही साथ उसका नाम भी। वह एक मील
किसी खास मुकाम तक नहीं पहुँचाती बल्कि वह हर वक्त
लोगों को, जिंदगी को पकड़ने की कोशिश में लगी रहती है।
अंग्रेजों के जमाने में उसे मॉल रोड कहते थे, नैनीताल
की मॉल रोड।
आजादी के बाद उसका नाम बदल दिया गया हालाँकि नाम बदल
जाने से वो सड़क बिल्कुल भी नहीं बदली। पहले की तरह ही
उसे एक तरफ से नीली झील लगातार भिगोती रही और दूसरी
तरफ एकदम चढ़ाई वाला पहाड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा। सड़क
के बीच और किनारे चिनार और पाँगड़ भी वैसे के वैसे ही
खड़े रहे।
यहाँ आप कितना भी चलें, थकेंगे
नहीं
जब से मैंने होश संभाला तभी से हर शाम मल्लीताल से
तल्लीताल तक की इस एक मील की दूरी को मापने की आदत सी
लग गई थी। वैसे यह उस कस्बेनुमा शहर की अपनी खास
संस्कृति भी कही जा सकती है। वहाँ के लगभग सभी लोग शाम
को किसी न किसी बहाने मॉल पर उतर ही आते हैं। विशुद्ध
रूप से घूमने न सही, सब्जियाँ खरीदनी हों या भले ही
मंदिर जाना हो लेकिन मॉल का एक चक्कर तो तयशुदा है।
झील ने किनारे-किनारे लाठी लिए हुए कुछ काफी वृद्ध लोग
भी घूमते मिल जाएँगे जिन्हें देखकर लगेगा कि कोई
अदृश्य शक्ति ही इन्हे चला रही है, लेकिन वह शक्ति
मेरे लिए दृश्य है।
किसी जमीन की तासीर होती है कि आप कितना भी चलें,
थकेंगे नहीं, कुछ ऐसी ही जमीन पर बनी सड़क है वह। मॉल
पर घूमने का जुनून देखना हो तो बरसात या सर्दियों में
देखिए। जब वहाँ सात-सात दिनों तक लगातार बारिश होती
रहती है, तब भी मॉल के दीवानों के हौसले कतई पस्त नहीं
होते, हाँ छतरियाँ उनके साथ जरूर जुड़ जाती हैं। बर्फ
वाले दिनों, अकड़ी अंगुलिओं से मूँगफली ठूँगते (छीलते)
हुए ये लोग उसी सहज भाव से घूमते मिलेंगे।
निराशा भरी कविताओं वाले दिन
एक अजीब सा भावनात्मक रिश्ता है मेरा उस सड़क के साथ और
न जाने कितनी स्मृतियाँ उससे जुड़ी है। बपचन से
बेरोजगारी तक की। वाटर बॉल, सॉफ्टी, भुट्टे, गुब्बारे।
प्रभातफेरियाँ, परीलोक से आई तितलियाँ। गुदगुदी,
फिकरे। राजनीति, थिएटर और दर्शन पर गरमागरम बहसें और
निराशा भरी कविताओं वाले दिन।
वह सड़क जिन्दगी का पर्याय न सही लेकिन उससे जिन्दगी
चिपकी हुई जरूर है और उसके बल पर कई जिन्दा भी हैं।
भुट्टे वाले, रेस्तरां वाले, होटल वाले, रिक्शेवाले,
ट्रैवल एजेंसी वाले और कई तरह के पहाड़ी तोहफों की
दुकानदारी करने वाले। भले ही मैं उस सड़क से सैकड़ों मील
दूर होऊँ, अवसाद के क्षणों में मैं उस पर पहुँच ही
जाता हूँ और हर बार एक नई शक्ति लेकर लौटता हूँ।
इस बार ठीक चार साल बाद उस कस्बेनुमा शहर लौटने का
मौका मिला है। काठगोदाम से जैसे ही बस ने पहाड़ों पर
चढ़ना शुरू किया, बस के साथ-साथ मेरा दिमाग भी हिचकोले
खा रहा है। पता नहीं कैसी होगी वो सड़क न जाने
क्या-क्या बदल गया होगा देखता हूँ इस बार तल्लीताल से
मल्लीताल तक सड़क पर कितने परिचित मिलते हैं वैसे वहाँ
अब साथ वाला शायद ही कोई मिले नौकरी की तलाश में बी.ए.
करते ही तो भागने लगे थे।
जहाँ देवदार और बाँज बसते थे
वहाँ
आज अक्स के साथ-साथ सड़क भी ठहरी हुई है। सारी नावें
किनारों पर लगी हैं और झील का पानी जमा हुआ सा दिखता
है। मुझे मालूम था कि लोग उत्तराखंड और पहाड़ों की
अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं फिर सर्दियाँ तो हैं ही।
ऐसे में सैलानी निश्चित रूप से ही नहीं के बराबर
होंगे, जानता था, किंतु ऐसे सन्नाटे की उम्मीद न थी।
इन वर्षों में मैं उस शहर की तरक्की से भी नावाकिफ था।
हाँ, चिठ्ठियों के जरिए यह जरूर जानता था कि कश्मीर
जाने वाले ज्यादातर सैलानी इधर का रुख करने लगे हैं
इसलिए इस बीच काफी होटल बन गए हैं, लेकिन आज मैंने खुद
अपनी आँखों से पहाड़ की फटी छाती देखी। जहाँ देवदार और
बाँज बसते थे वहाँ कंक्रीट के रंग बिरंगे कुकुरमुत्ते
उग आए थे। फटी छाती का मलबा बारिश में बहकर सड़क पर उतर
आया था।
जगह-जगह मलबे और कूड़े के ढेर लगे थे। मुझे याद है कि
आगरा में ताजमहल के आसपास की सफाई की बात को लेकर एक
गाइड ने वहाँ मुझसे कहा था कि मेरे शहर जैसी साफ सड़कें
उसने कहीं नहीं देखी। उसका अभिप्राय मॉल रोड से ही था।
तब मुझे बहुत फक्र हुआ था अपने कस्बेनुमा शहर पर।
गंदगी से ढँकी वही सड़क आज बेजान सी लेटी थी। उस पर न
भुट्टे वाले थे न मूँगफली वाले, न रिक्शे वाले न होटल
के गाइड। कुछ इक्के-दुक्के लोग थे जो निश्चित तौर पर
किसी न किसी काम के सिलसिले में ही निकले होंगे।
उनके चेहरों पर अनिश्चितता और दहशत साफ-साफ पढ़ी जा
सकती थी। लगभग चौथाई सड़क पार कर चुका हूँ लेकिन अभी तक
कोई परिचित नहीं मिला। मोड़ पर घूमते हुए मेरी नजर झील
पर है पानी उसी तरह जमा हुआ सा दिखता है। नजरें वापस
सड़क पर लौटती हैं और मैं बुरी तरह चौंक पड़ता हूँ।
सामने सड़क के बगल में पहाड़ को काटकर बनाए गये तीन चार
मंजिले होटलों की कतार खड़ी है। मैंने याद किया यहाँ पर
पांगड़ में पेड़ों का झुरमुट हुआ करता था।
सड़क पर वो पीले रंग का कार्पेट
सा बिछ जाना
अक्टूबर के महीने में जब पत्ते गिरते तो सड़क पर पीले
रंग का कार्पेट सा बिछ जाया करता था। इसी सड़क पर घूमते
समय एक बार दादाजी ने बताया था ‘भव्वा तुझे मालूम है,
अंग्रेजों के टाइम मॉल रोड में ट्रक नहीं चल सकते थे।
भारी गाड़ियों को वो तल्लीताल में ही रुकवा देते थे और
मॉल रोड के ऊपर वे जो पहाड़ है ना, शेर का डांडा,’ इस
पर कोई मकान नहीं बना सकता था और जो जरूरी थे वो लकड़ी
के बनाए जाते थे ताकि पहाड़ पर और इस सड़क पर जोर न
पड़े।’
दादाजी की वह बात शायद इसलिए याद हो गई क्योंकि तब
मुझे बहुत अटपटा सा लगा था कि इतने बड़े पहाड़ पर या
इतनी चौड़ी सड़क पर मकानों का भला क्या जोर पड़ सकता है,
लेकिन कुछ ही वर्षों बाद मुझे लगा कि वाकई अंग्रेज
कितने चिंतित थे पहाड़ के लिए, इस सड़क के लिए। हालाँकि
उनके लिए यह शहर एक ‘नॉस्टेल्जिया’ था -टेम्स नदी का
किनारा, लंदन की कुहासे भरी शामें और पानी के विस्तार
को अपनी खिड़कियों में समेटे कुछ मध्यम रोशनी वाले
रेस्तरां और वे अपने ‘नॉस्टेल्जिया’ को सुरक्षित रखना
चाहते थे लेकिन कुछ भी हो उन्होंने इसे बचाए तो रखा ही
था।
कौन पास करता है ये नक्शे
मुझे बहुत गुस्सा आने लगा। कौन पास करता है यह नक्शे
इनकी संवेदनाएँ मर गई हैं क्या कैसा तंत्र है यह क्यों
खिलवाड़ कर रहे हैं ये पहाड़ के साथ? गले में हल्का-सा
दर्द होने लगा है। लाइब्रेरी वाला मोड़ आ चुका है अब
सड़क के किनारे झील पर झुके मजनू के पेड़ों का सिलसिला
शुरू होगा लेकिन ये क्या-ये सड़क को क्या हुआ। ये क्यों
झुकी है झील की तरफ? मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा है।
झील वाले छोर की तरफ सड़क का किनारा जगह-जगह से टूटकर
पानी में समा चुका है।
कई मंजनू के पेड़ अब वहाँ नहीं हैं, कुछों की जड़े ऊपर
हैं और सर पानी में डूबा हुआ। काफी दूर तक सड़क का यही
हाल है। उसके आगे सड़क को बचाने के लिए ‘रिटेनिंग वॉल’
बनाई गई है किन्तु दबाव से उसका पेट किसी गर्भवती
महिला की तरह फूला हुआ है। मेरे गले का दर्द बहुत तेज
हो गया है। सड़क बहुत उदास सी दीखती हैं। मेरा क्रोध भी
धीरे-धीरे उदासी का रूप ले लेता है। चलते-चलते आज थकान
महसूस करने लगा हूँ।
अचानक सड़क मुझसे बातें करने लगी है ‘तू क्यों दुखी
होता है रे! मैं अपने लिए उदास थोड़े ना हूँ, मुझे
मालूम है मुझ पर दबाव हैं, मै बूढ़ी हो रही हूँ, टूट
रही हूँ, लेकिन यह मेरे दुख का कारण नहीं। मैं इसलिए
उदास हूँ कि मेरी गोद में बड़ा हुआ एक खूबसूरत-सा
नौजवान मेरी अस्मिता के लिए आवाज उठाने गया था, तीन
महीने होने को आए, लेकिन वो लौटकर नहीं आया। मैं इसलिए
उदास हूँ कि मैं एक अर्से से किसी को खुशियाँ नहीं
बाँट सकी। मैंने कब से उस नौजवान जैसी खिलखिलाहटें
नहीं सुनी।’
१ सितंबर २०२० |