जब इस कदंब के लाल-पीले
गोल-गोल रोंयेदार फलों की लुभावनी शोभा पर दृष्टिपात
करता हूँ, तब मेरा ध्यान खिंच जाता है- हमारी संस्कृति
और इतिहास की विगत कहानी की ओर- जब ब्रज के
कुंज-निकुंजों में कृष्ण कालिंदी-तट पर कदंब की शाखाओं
पर बैठे तरह-तरह की क्रीड़ाओं में अपनी बाल्य व किशोर
अवस्था के दिन गुज़ारते थे।
कृष्ण और कालिंदी- दोनों
एक-दूसरे के पूरक हैं। यह तो नहीं कह सकता कि कदंब के
बिना कृष्ण अधूरे थे, किंतु उसका अभाव अवश्य खटकता है।
प्रसिद्ध है- कृष्ण की बंशी की मधुर आवाज़ और गोपियों
की कृष्णोत्सर्ग प्रेम-कथाएँ। भोर का फूटता प्रभात हो
या रात्रि की छिड़ती रागिनी हो- जब कभी कृष्ण की मुरली
पेड़-पौधों-- कुंज-लताओं-- को चीरती, गूँजती हुई
गोप-बालाओं के कानों में पहुँचती थी, वे प्रेम में
भाव-विह्वल हो, मदहोश बनीं अपने प्रिय के पास चल पड़ती
थी। कहते हैं-- मुरलीधर का सान्निध्य पाने की गोपियों
की अकुलाहट परमात्म-तत्त्व में मिलने की आत्मा की
छटपटाहट का संकेत है। इस लौकिकता में भी अलौकिकता
अंतर्निहित है। पर इस अलौकिकता को पहुँचे हुए लोग ही
समझ पाते हैं। मुझ-जैसों की क्या बिसात? मेरे लिए तो
आत्मा और परमात्मा का संबंध किसी भी प्रकार की
क्लिष्टता से बढ़कर है। मुझे अगर कुछ सूझता है तो बस
कदंब- जिसकी पूर्ण आकृति से लेकर फूल, फल, पत्तियों,
मकरंद, यहाँ तक कि उन सूक्ष्म कोशिकाओं के स्वरूप भी
अपनी व्याख्या चाहते हैं मुझसे। कृष्ण का ग्वाल-बालों
के साथ वृंदावन की झुरमुटों और वनों में गायों का
चराना, उनकी मनभावनी बंशी की मधुर आवाज़ सुन गायों का
रंभाना या फिर कृष्ण की माखन-चोरी, गोपियों की उलाहना,
यशोदा माता की डांट-फटकार-- सारे-के-सारे
कृष्ण-कृतित्व-- मुझे कदंब के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते
प्रतीत होते हैं।
यह कदंब आज भी अपनी
अलमस्त रवानी में झूमता हुआ गोकुल के कन्हैया और
बरसाने की राधा की प्रणय-कहानी कह रहा है। राधा और
कृष्ण आदि से अंत तक दो समानांतर रेखाओं की भाँति
साथ-साथ चलते हुए भी और विचारों की समानता के बावजूद
अलग बने रहे। किस अनंत में जाकर उनका मिलन हुआ होगा,
कहा नहीं जा सकता। कृष्ण के ही शब्दों में, राधा के
बिना कृष्ण का महत्त्व नहीं। तभी तो प्रीति और व्यथा
की यह बेमिसाल कहानी आज भी लोक-कथाओं के रूप में
संपूर्ण भारतवर्ष में प्रसिद्ध है और घर-घर में चर्चा
का विषय भी बनी रहती है।
हमारे साहित्य की
समृद्धि में कृष्ण की बाल-लीलाओं का योगदान उल्लेखनीय
है। यों कहें, चरम उत्कर्ष की चढ़ाई में इसने काफी
सहायता की है-- साहित्योचित विषय उपलब्ध कराकर। इन्हीं
लीलाओं ने सूर को वात्सल्य व शृंगार का महानतम
साहित्यकार, यहाँ तक कि सूर्य बनाया और रसखान को ऊँची
कल्पना भी दी--
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के
ग्वारन।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो चर्रों नित नंद की धेनु
मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
पच्छीन हौं तो बसेरो करौं मिली कालिंदी कूल कदंब की
डारन।
कालिंदी-कूल की उन
कदंब की डालियों में कैसा सुख है, जिस पर रसखान
अष्टसिद्धि और नव निधि के सुख को भी त्यागने को तैयार
हैं- विचारने की चीज़ है। विधर्मी साहित्यकारों को भी
अपनी रमणीयता से लुभानेवाला यह साहित्यिक क्षेत्र
हमारे गौरव की बात है।
यही नहीं, रीतिकालीन
कवियों का मुख्य विषय इसी कदंब के किनारे की कृष्ण की
क्रीड़ाओं और रासों का है। अपनी विस्तृतता की वजह से
एवं कला के परिमार्जन और भाषा व शैली की प्रौढ़ता के
समावेश से हिंदी-साहित्य को एक अच्छी नींव देकर इसके
भविष्य को सँवारने का बहुत-कुछ श्रेय इसे भी जाता है।
आधुनिक युग में कवयित्री 'सुभद्राकुमारी चौहान' ने
कदंब को पुनः याद किया। कदंब अतीत के विस्मृत आकाश में
विचरते मेरे मन-पखेरू को बरबस अपनी ओर खींच रहा है। इस
कदंब से मेरा पुराना परिचय है। इस वातावरण के कण-कण
में मुझे आत्मीयता के दर्शन होते हैं। यह तो ठीक-ठाक
याद नहीं कि इस कदंब से मेरी पहली मुलाक़ात कैसे हुई,
किंतु इतना स्मरण आता है-- क़रीब दो वर्ष पहले टहलते
हुए मैं यहाँ पहुँच गया। इस आकस्मिक भेंट ने मुझमें
पुनर्दर्शन की आकांक्षा जागृत की। अब अकसर
आत्म-प्रसन्नता हेतु मैं यहाँ आकर घंटों बैठा रहता
हूँ। अवलोकता हूँ-- जाह्नवी की तरंगायित अल्प-फेनिल
गोद में नावों की इठलन, निहारता हूँ-- क्षितिज पर नभ
और धरित्री के प्रेम-पूर्ण संगम को और फिर कभी
निकुंजों से घिरे यहाँ के शांत, स्निग्ध वातावरण में
उस पार की भूमि को। फिर खो जाता हूँ पुरानी स्मृतियों
में।
उस पार मेरा गाँव
स्थित है। अतः उस भूमि का मातृत्व अपने ममत्व की खातिर
मुझे बुलावा देता जान पड़ता है। उस पार की एक और
विशेषता है, जो राधा-कृष्ण की प्रीति-कथा की याद
दिलानेवाली भावनाओं के अनुकूल ही है।
उस पार ही मेरे भैया
की ससुराल है और वहीं है मेरी भाभी की छोटी बहन भी। जब
उससे मेरी पहली भेंट हुई, उस समय मैं महज़ मैट्रिक का
छात्र था। पहली ही बार कुछ भिन्न किस्म की स्पष्ट
अभिव्यक्ति का अवसर मिला था। इसी क्रम में, न जाने
क्यों, मेरा बाल मन उसकी ओर खींचता गया। ह्रदय के कोमल
अंतरंग में भयमिश्रित अकुलाहट होती। यों तो अधिकतर
बातें बाल-सुलभ ही होतीं, किंतु उसमें नवजात तारुण्य
का पुट होता ही।
लौटकर मैं
सरस्वती-अर्चना में तल्लीन हुआ। अपने परिचित बाल-समाज
में वे बातें विस्मृत कर गावस्कर के शतक की मनौतियाँ
करने लगा। तभी अकस्मात उसका एक पत्र आया। बातें याद
आईं- उन क्षणों की। खुश हुआ- किसी ने याद किया। फूला न
समाया- अपनी खूबियों की चर्चा से। सोचा- उत्तर दूँ! तो
कैसे? कभी पत्र लिखता तो था नहीं। क्या 'प्रसाद' की
भाँति भारतीयता का अमर-गान करूँ, पंत की तरह प्रकृति
का सौंदर्य-निरूपण करूँ या 'दिनकर' की भाँति हुंकार
करूँ?
जब कॉलेजों में आए,
कुछ रंग बदला, भावनाओं ने अंगडाई ली, आँखों में खुमार
छाया, वाणी में लोच आई, तनहाइयों की बात चली, नवयुग का
प्रारंभ हुआ। अभी तो शुरुआत ही थी, किंतु धीरे-धीरे
समर्पण आदि के भाव भी व्यक्त किए जाने लगे। यहाँ की
निश्चिंतता में मैंने इन्हीं भावनाओं से युक्त एवं
आकांक्षाओं और व्यथा की अभिव्यक्तियों से ओत-प्रोत
कविताओं और गीतों को लिखने में पारंगतता हासिल की।
लेखन के प्रवाह ने कई बार त्रिपथगा की धारा से होड़
लेकर कई पत्र भी लिख डाले- बस अंतः की अभिव्यक्ति,
गहरे उच्छवास, रूप-वंदना से परिपूर्ण, किंतु सत्य,
श्लील और तारुण्य को इंगित करते हुए। भागीरथी की
वेगवती धारा का दृश्य, मरुत्-प्रवाह का शीतल,
सुखद-स्पर्श, इन वनस्पतियों की सुरम्यता मुझमें जिन
मौन आह्लादों की सृष्टि करती थीं- वे शब्दों के सृजन
में काफी सहायक सिद्ध होते थे। आसपास की सुरम्य,
प्राकृतिक सुषमा के वर्णन से पत्रों को सँवारने के
कारण साहित्यिकता से विभूषित भी कर दिया जाता था।
मुझे पावस भाता है।
मेघों की तुमुल गर्जना बिजली की अकस्मात चकाचौंध और
पीट-पीटकर पानी का बरसना, उस समय का डरावना अंधेरा- इन
सबका सम्मिलन देखकर मेरा मन झूम उठता है। शायद यह मेरे
प्रकृति-प्रेम के ही कारण है। मुझे याद है- पहली ही
भेंट में काफी ज़ोरों की बारिश हुई थी हवा भी
सांय-सांय कर रही थी। मैं बाहर झाँकता हुआ प्रकृति का
अवलोकन करता रहा। कदाचित मैंने वर्षा पर कुछ उद्गार भी
व्यक्त कर दिए होंगे, जो भी हो, प्राकृतिक छटाओं पर वह
भी मुग्ध हो जाती थी। विशेषकर वर्षा का ज़िक्र विशेष
अभिरुचि के साथ करती। मेरे पत्रों की शुरुआत प्रायः
प्राकृतिक मंजुलता, बरसाती थिरकन, धरती की अंगड़ाई आदि
से ही होती। वह भी यही पसंद करती।
जब मैं इस कदंब के
नीचे आता हूँ, अतीत की भूलती-बिसरती यादें झिलमिलाती
हुई आँखों के समक्ष घूमने लगती हैं और मैं मुग्ध हो
उठता हूँ। कृष्ण को कदंब और कालिंदी नसीब थे। मुझे
कालिंदी न सही सुरसरि और कदंब मिले। गंगा-यमुना युगों
से बह रही हैं। यमुना सूर्य की तनुजा है तो गंगा
देवताओं की नदी-- अमृत-स्रोत ही है। यमुना की
प्रसिद्धि का इतिहास कृष्ण से बनता है तो गंगा की
महानता ने ही उसे धरती पर अवतरित किया। वह मुझसे
प्रसिद्ध होना नहीं चाहती। मुझमें क्षमता भी नहीं। यह
खुद मुझे प्रसिद्ध कर सकती है। कहने का अर्थ यह नहीं
कि गंगा के संपर्क से मैं प्रसिद्ध हो जाऊँगा। यह तो
इसकी वास्तविकता है।
सचमुच कदंब का
रोम-रोम अनुराग से परिप्लावित अतीत, वर्तमान और
भविष्य- तीनों की मधुर कहानी कह रहा है। चाहे वह
कालिंदी का किनारा हो या त्रिपथगा का तट- कदंब को इसकी
चिंता नहीं। अपने इतिहास की गौरवान्वितता अक्षुण्ण
रखते हुए इस बदलते युग और बदलते परिवेष में भी यह अडिग
खड़ा है और खड़ा रहेगा- ब्रज-लीलाओं की याद दिलाते
हुए, प्रेमियों में प्रीति और पीर के ज़रिए मानवता की
सेवा और रक्षा का पाठ पढ़ाते हुए, सुख-दुःख की पुकार
की एकरसता को बरकरार रखते हुए और नए मापदंड से भी
पुरातनता के पवित्र और पूज्य गुणों की ओर संकेत करते
हुए।
चाहता हूँ, अपने घर
के सामने कदंब का एक वृक्ष लगाऊँ। बीज मामा के घर से
मिल जाएगा। और तब उसकी छाया में बैठ अतीत के काल्पनिक
चलचित्र देखा करूँगा।
१३
जुलाई २००९ |