दीप ज्योति नमस्तुते! ---------------------------------------------------------------------पूर्णिमा वर्मन | ||||
फिर दीप जल उठे।
करोड़ों हाथ जुड़ गए ज्योति की आराधना में। नमित हो गए मन
प्रार्थना में। उत्सव जागा हर ओर और गूँज उठे कहीं ये
शब्द- दीप मेरे जले अकंपित-घुल अचंचल स्वर प्रकंपित कर दिशाएँ मीड सब भूकी शिराएँ गा रहे आंधी प्रलय तेरे लिये ही आज ही मंगल महादेवी वर्मा की इस कविता में दीपक के प्रति वहीं लगन मिलती है जो आदिकाल में अग्नि के प्रति पाई जाती होगी। उस समय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अंधकार था और इसका हरण करने वाला प्रकाश सबसे बड़ा मित्र। रात के अंधकार के बाद उषा के उजास को देखकर वैदिक कवि शीघ्र प्रकाश की कामना से कहता है '' हे उषा की पहली किरण, तुम अंधकार को ऋण की तरह दूर कर दो।'' प्रकाश हमें देखने की शक्ति देता है। वस्तु की सही पहचान के लिये ज्योति आवश्यक है। बृहद आरण्यक उपनिषद में इसी लिये अंधकार से ज्योति की ओर जाने की कामना की गई है। असतो मा सद्गमय तमसो मां ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय ऋग्वेद में इंद्र के बाद अग्निदेव की प्रशंसा में ही सबसे अधिक श्लोक मिलते हैं। अग्नि के तीन रूपों का विशद वर्णन मिलता है - पृथ्वी पर अग्नि, अन्तरिक्ष में विद्युत और आकाश में सूर्य। उसके जन्म के विषय में कहा गया है कि काल के संघर्ष-मंथन से उसका जन्म हुआ। अग्नि अंधकार को मिटाता है, राक्षसों को डराता, प्रकाश का आह्वान करता, चिर युवा और प्राचीन पुरोहित है। अग्निमीळे पुरोहितं ''ऋग्वेद''।
अग्नि के मसूढे तेज हैं। मृत और काल उसका भोजन है। वह गृहपति के
साथ साथ विश्वपति है, वह अत्यंत विद्वान और कवि है, देव तथा दानव
के बीच अमरदूत है, वह देवों को यज्ञ की ओर आकर्षित करता है, वह
पारिवारिक जीवन का बड अाधार है। ऋग्वेद में माना गया है कि भृगु
ऋषि ने अग्नि की खोज की। वहीं से अग्नि संस्था का जन्म हुआ -
इंद्र ज्योतिः अमृतं मर्तेषु ''ऋग्वेद'' तथा ''सूर्यांश संभवो
दीपः'' अर्थात सूर्य के अंश से दीप की उत्पत्ति हुई। जीवन की
पवित्रता, भक्ति, अर्चना और आशीर्वाद का दीप एक शुभ लक्षण माना
जाता है। सूर्य के अंश से पृथ्वी की अग्नि को जिस पात्र में
स्थापित किया गया वह आज सर्वशक्तिमान दीपक के रूप में हमारे घरों
में है ।
आरंभिक दीप पात्र स्फटिक, पाषाण या सीप का था। मिट्टी को गढने और पकाने के आविष्कार के साथ यह मिट्टी का बना। आज जिस दिये को हम जलाते है वह अनादिकाल से वैसा ही चला आ रहा है। सदियों के बाद भी उसमें विशेष फेरबदल नहीं हुआ। वही मिट्टी का पात्र रूई की बाती और घी या तेल। राम के अयोध्या लौटने पर जो दीप जलाए गए थे वे भी ऐसे ही थे। मंदिरों और महलों में इन दीपों के समांतर अलंकृत दीपों की बड़ी श्रेणी मिलती हैं। श्रेष्ठ जन व्यापारियों और धनिकों द्वारा बड़े कलात्मक दियों का प्राचीन काल से ही प्रयोग होता रहा हैं। पत्थर, धातु, कीमती रत्नों, सोने और चांदी के दीपों के भी प्रमाण मिलते है। ये छोटे बड़े सभी आकारों के थे। धीरे धीरे दीप स्तंभ भी प्रचलन में आ गए। दीपकों के भी दो विभाग किए गए। नित्य उपयोग में आने वाले दीप और विशेष आयोजनों में प्रयुक्त किए जाने वाले नैमित्तिक दीप। नैमित्तिक दीपों के भी कई प्रकार हैं -निरन्तर जलने वाले नन्दादीप, जलसे बैठकों में जलने वाले बड़े आकार के दीप, पूजा के समय जलने वाले छोटे नीराजन दीप, आरती दीप और शयन कक्ष में रति प्रदीप। आरती दीप के हत्थे को सर्पाकृति, मत्स्याकृति, मकराकृति तथा कीर्तिमुखाकृति बनाया जाने लगा जो बड़े ही कलात्मक होते थे। इस प्रकार के दीपकों में नागों की अनेक प्रकार की कुंडलियों का विनियोग मिलता है। एक से लेकर 51 दीपशिखाएँ तक एकसाथ जलाई जानेवाली आरती मिलती है। कलात्मक दीपों को मटके या सुराही के आकार में भी ढाला गया। कुछ दीप तोते और मोर के आकार में बने। सिंह और हाथी के आकार भी खूब प्रचलित हुए। नारी के आकार के दीप बनाए गए और देवी-देवताओं में विष्णु, लक्ष्मी, गणेश और सूर्य को दीप के आधारों के लिए चुना गया। फिर वृक्ष दीप बने जिनकी हर डाल पर बाती रख कर जलाई जाती तो पूरा वृक्ष जगमगा उठता।
मंदिर के गर्भ गृह में मूर्ति के दोनों ओर जलनेवाले दीपों को
नंदादीप कहा गया। गर्भ गृह के सामने की दोनों ओर खडे-ख़डे ज़लने
वाले दीप को दीपलक्ष्मी और महाद्वार के सामने दीप मालिका। दीपलक्ष्मी पीतल या पाषाण में बनाई गई जो बालिश्त भर से लेकर
मनुष्य की उँचाई तक में बनी। इन उँचे दीप स्तंभो की बनावट में
कहीं-कहीं पर दीपों के लिए आले बनाए जाते है और पास ही पत्थरों
की नक्काशीदार शाखाएं। इन पर पंक्तिबध्द दीपकों को रखा जाता,
जिनके प्रकाशित होने पर मंदिर का समूचा परिसर आलोकित हो उठता।
मंदिर के प्रवेशद्वार पर द्वार रक्षक के रूप में ढले दीप-स्तंभ
आज भी देखने को मिलते हैं। दीपमालिका के समय इनकी पंक्तिबद्ध
कतारों की शोभा देखते ही बनती है। दीपावली तो विशेष रूप से दीपों का त्योहार है, लेकिन इससे पहले आनेवाले नवरात्र में दीपों की प्रशस्ति में गौरवगीत गाए जाते हैं जो गरबा के नाम से जाने जाते हैं। गरबों के मटके में जलता हुआ दीप अपने हिरण्यगर्भ स्वरूप को साकार करता हैं। मथुरा के निकट ब्रज में होली के बाद तीन दिनों तक एक लोकनृत्य किया जाता है। इसमें सोलह शृंगार से परिपूर्ण एक कन्या सिर पर कलश, कलश पर दीप और हाथों में कलश और दीप लेकर नृत्य करती है। ऐसी मान्यता है कि इस दीप से वसंत का आगमन जल्दी होता हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर नागो नामक दीप नृत्य की परम्परा है। एक मटके के मुंह को गेहूँ के आटे से बन्द कर के, उस पर पंचमुखी दीपक रखा जाता है। वरपक्ष की एक सुहागन महिला इसे अपने सिर पर धारण करती हैं और कन्या पक्ष की महिलाएँ इसके चारों ओर घूमती हैं।
मध्यप्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान और उत्तर प्रदेश की कुछ लोक
जातियों में भी दीपनृत्य की परम्परा हैं। हनुमान जब लंका के राजा रावण की नगरी पहुँचे तो उन्हें सुनहरे दीपों को देख कर भ्रम हुआ कि कहीं वे स्वर्ग में तो नहीं आ गए। उन्हें वहां ''हारे हुए जुआरी की तरह पीले पड़े हुए और जलते हुए'' स्वर्णदीप दिखाई दिए।
स्वयंवर में वर चुनने की प्रक्रिया में इन्दुमती जयमाला लिए
राजाओं की पंक्ति के बीच से गुजर रही है। चलती हुई दीपशिखा की
भाँति इन्दुमती जिस-जिस राजा के पास से गुजर जाती थी वह राजा
प्रकाश के आगे बढ़ जाने पर अंधेरी अट्टालिकाओं की तरह कांतिहीन
हो जाता था। विश्व में शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां दीपक को लेकर इतनी अधिक कल्पनाएँ, संवेदनाएँ, साहित्य और दैनिक परंपराएँ बुनी गई हो। सम्पूर्ण भारतीय सूर्य-अग्नि तथा उसके अंशस्वरूप दीपक के चारों ओर गुंफित हैं। जन्म होते ही और मृत्यु के बाद तक भारतीय मानव का जीवन दीपक के ही समांतर चलता है। हर छोटे बड़े प्रसंग में उसकी उपस्थिति हमारे सांस्कृतिक गौरव की वृद्धि करती है। दीपक प्रकाश, जीवन और ज्ञान का प्रतीक हैं। इसके बिना सब कुछ अंधकारमय हैं। दीपक तो मर्त्य में अमर्त्य हैं। ''यो दीप ब्रम्हस्वरूपस्त्वम्'' इसे हम ब्रम्हस्वरूप ही मानें। |