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साहित्यिक निबंध

हिंदी दिवस के
अवसर पर विशेष

 

हिंदी संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बन कर रहेगी
-सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'


मारीशस हो या सूरिनाम हो, हिंदी का वह तीर्थ धाम हो।
कोटि-कोटि के मन में मुखरित, हिंदी का चहुओर नाम हो।।

हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। यह बहुत दु:ख की बात है कि अनेक प्रयासों के बावजूद हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में अभी तक स्थान नहीं प्राप्त हुआ है।

विश्व के चार बहुचर्चित एवं सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में भारत का नाम और स्थान महत्वपूर्ण होने के बाद भी उसकी एक अरब जनता की राष्ट्रभाषा हिंदी को नज़रंदाज़ किया जा रहा है जो उचित नहीं है।
हिंदी को विश्व भाषा बनाने के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में दो बातों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला हमारी सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ में इसे मान्यता दिलाए, दूसरे सभी लोग सरकारी और रोज़मर्रा के जीवन में हिंदी को अपनाएँ और अपने बच्चों और विदेशियों को हिंदी प्रयोग में प्रोत्साहन दें।

यह हिंदी और भारत ही नहीं, पूरे विश्व के लिए बहुत गर्व का विषय है कि हमारे प्रधानमंत्री हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता हैं, सहृदय कवि हैं तथा उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए एक अच्छी राशि को मंजूरी दी है। इतना ही नहीं हमारे विदेश राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह का बयान कि सरकार हिंदी के संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनने पर सौ करोड़ रुपये खर्च करेंगे तथा सरकार दूसरे देशों से सहयोग लेने के लिए लाबी कार्य भी करेगी। यह हर भारतीय, देश-विदेश के हिंदी प्रेमियों, विद्वानों और शिक्षकों के लिए गर्व की बात है।

एक बात की कमी है कि आयोजक सदस्यों में हमारे जैसे विदेशों में हिंदी सेवियों को, जो हिंदी और भारत के साथ पूरी निष्ठा के साथ कार्य कर रहे हैं बहुत ज़्यादा अनदेखा किया जाता है जो न्यायसंगत नहीं है। हिंदी की अनेक वेब पत्रिकाएँ निकलती हैं। भारत कंप्यूटर और वेब सेवा में विश्व का महत्वपूर्ण देश है जिससे पूरी दुनिया से निजी और सरकारी कंपनियाँ सेवा प्राप्त कर रही हैं।

सम्मेलन के पूर्व भारत में छपे लेखों में यह बात उठाई गई थी कि हिंदी सम्मेलन की आयोजन समिति में नई तकनीक को सम्मिलित किया जाए तथा समय के साथ चला जाए न कि पुराने ज़माने की तरह। सम्मेलन में रजिस्ट्रेशन कराने वाले प्रतिनिधियों और भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के लेख प्रकाशित किए जाएँ और स्मारिका में सम्मेलन के आरंभ से पहले ही उनके लेख प्रकाशित कर दिए जाएँ ताकि पत्र भेजने वालों को जवाब मिले।

सम्मेलन के लिए जो फ़ोन नंबर दिए गए हैं पता नहीं कब वह फ़ैक्स बन जाते हैं और व्यस्त रहते हैं। जो कई ई मेल पते दिए गए हैं। उनमें कुछ काम नहीं करते। जो आयोजक समिति के सदस्य हैं सभी हिंदी के अच्छे जानकार हैं उसके प्रति निष्ठा भी है पर न तो वे कंप्यूटर के जानकार हैं न ही इस कार्य का अनुभव है। सूचनाएँ लेने के बाद सूचना का उत्तर नहीं मिलता बल्कि जब वह अपनी बात कहते हैं तो सिस्टम को दोष देते हैं।

जो भी हो हम सभी के लिए गर्व की बात है कि सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम की धरती पर हो रहा है। सारे विश्व के हिंदी प्रेमियों की निगाहें इस सम्मेलन पर टिकी हैं। पूरे विश्व से हिंदी के विद्वान एकत्र हो रहे हैं। भारत के विद्वान भी हिस्सा ले रहे हैं। वेब पत्रिकाएँ अपने विशेष अंक, लेख, साक्षात्कार प्रकाशित कर रही हैं और इस विश्व हिंदी यज्ञ में अपनी-अपनी आहुति दे रही हैं। विदेशों में रहने वाले हिंदी प्रेमी उस देश की राजनीति में भी हिस्सा लें ताकि अपनी माँगें मनवाई जा सकें तथा हिंदी व भारतीय संस्कृति की पताका को उसका अपना हक मिल सके।

पिछले विश्व हिंदी सम्मेलनों के कुछ प्रसंग-
शंकर दयाल सिंह एक लेखक होने के साथ-साथ राज्यसभा सदस्य थे। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जब विभिन्न विषयों पर सत्र चल रहे होते थे तब हमारे नेतागण घूम रहे होते थे। जब विदेशों में हिंदी पत्रकारिता पर सत्र था तब मेरा नाम ग़ायब था। सत्र का संचालन कर रहे थे भारत के सुप्रसिद्ध संपादक स्व. नरेंद्र मोहन। जब स्थिति से उन्हें अवगत कराया तो पहले वह असहमत थे और बाद में सहमत ही नहीं हुए बल्कि मित्र हो गए। सरकारी और ग़ैरसरकारी प्रतिनिधिमंडल दोनों का यह दायित्व होता है कि वे पूरे सम्मेलन को गंभीरता से लें।

चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जब रिज़ोलेशन समिति की बैठक चल रही थी हिंदी के सुप्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र जी को, जो समिति के सदस्य थे, समिति के सदस्यों ने बुलाना उचित नहीं समझा। तब मैं आदरणीय मिश्र जी को आग्रह करके ले गया जहाँ बैठक चल रही थी। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन की प्रदर्शनी का हाल यह था कि बहुत से महत्वपूर्ण लेखकों की तस्वीरें, दुनिया के विभिन्न देशों में छपने वाली पत्रिकाओं से ग़ायब थीं। मेरे साथ विजयेंद्र स्नातक जी भी बातचीत करते हुए प्रदर्शनी का अवलोकन कर रहे थे।

पर चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में सभी के आदर सत्कार का बहुत ध्यान दिया जा रहा था। वहाँ के मंत्री हम सभी प्रतिनिधियों से बहुत घुल- मिल गए थे। चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में जर्मनी, इटली, रूस, पोलैंड, ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने अपनी व्यक्तिगत समस्याओं और कार्यक्रम की अनियमितताओं को सुलझाने के लिए मुझे आगे रखा। मॉरिशस के सरकारी-ग़ैर सरकारी प्रतिनिधियों (जो लेखक, शिक्षक और अपनी भाषा संस्कृति के लिए योगदान दे रहे जिनमें दोनों पुरुष और नारी सम्मिलित थे।) ने भरपूर सहयोग ही नहीं दिया बल्कि यात्रा की दो तीन अनियमितताओं को भी तुरंत दूर कर दिया। उन्होंने टैक्सी और दूसरे बिलों का भुगतान भी कराया। यह बहुत काबिले-तारीफ़ है। जबकि 1983 में दिल्ली में संपन्न हुए तीसरे विश्व हिंदी सम्मेलन में उपेंद्रनाथ अश्क जी के कपड़ों को लेकर कुछ लेखकों के व्यवहार की निंदा 80 से अधिक लेखकों ने लिखित रुप से की थी। शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले लेखकों में धर्मवीर भारती, हरिवंश राय बच्चन जी भी थे। शिकायत का विरोध करने वाले अभी भी अपनी हरकत से बाज नहीं आते उनका कार्य केवल एक दूसरे के सुझावों को चुगली की तरह व्यक्त करना है ऐसे लोगों को मॉरिशस से बहुत कुछ सीखना चाहिए।

जहाँ तक लंदन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन की बात है उसमें अनेक सुधार हो चुके थे। सभी खुश और नाखुश तथा सत्र में सम्मिलित और सत्र में शामिल न हो पाने वाले सभी लेखकों, विद्वानों को अपनी बात कहने का अवसर मिला। इसका कारण आयोजक समिति में अकादमिक, संगठन और प्रबंधन ने भरपूर तालमेल होना था।

एक बात मुझे लंदन में मज़ेदार लगी जब भोजन करने के बाद या आयोजन के बाद प्रतिनिधि सड़क पर चहल-कदमी करने लगते तो दो तीन प्रतिनिधि यह कहते सुने जाते थे कि बाहर मत जाएँ पुलिस आ जाएगी। इस चेतावनी ने अच्छा काम किया। इससे सभी झुंड में रहे। लोगों के मन में अभी भी भारतीय पुलिस और अंग्रेज़ों की गुलामी का ख़ौफ़ था। पर लोग यह भूल गए कि अब ब्रिटेन में वह ज़माना नहीं रहा। बहुत कुछ बदल गया है। यहाँ (ब्रिटेन) की पुलिस को देखकर सुरक्षा का अहसास होता है क्यों कि वह आपको रास्ता बताती है, फ़ोन के लिए पैसे नहीं हैं, फ़ोन करवाती है। आप भूखे, बीमार हैं उसके निदान में सहायता करती है। स्कैन्डिनेवियन देशों में स्थिति और अच्छी है।

यदि आप छठे विश्व हिंदी सम्मेलन में आए थे तब आपको श्रीमती चित्रा कुमार, के. बी. एल. सक्सेना, श्रीमती उषा वर्मा अपने दल के साथ आपका हर शैली में स्वागत करते मिले होंगे। यह बहुत खुशी की बात है कि इस सम्मेलन में अमरीका में विश्व हिंदी न्यास के रामदास चौधरी, दक्षिण अफ्रीका के. वी. रामविलास, पोलैंड की डॉ. दानिता स्वासीक, मारीशस के मित्र रामदेव धुरंधर, तज़ाकिस्तान के एच. रजारोव, फ्रांस के प्रो. एनीमोतो, ब्रिटेन की अचला शर्मा, चेक गणराज्य के डॉ. स्वतीस्लाव कोस्तिक, म्यांमा के ऊपार्गो और चीन के प्रो येंग हांगयूनद को भी सम्मानित किया जा रहा है।

आप चाहें तो हिंदी का प्रचार-प्रसार और अधिक बढ़ सकता है।
आप शादी, जन्मदिनों पर हिंदी पुस्तकों को उपहार स्वरूप भेंट करें।
अंत में मेरा यह निवेदन है कि विदेशों में रहने वाले भारतीय और हिंदी प्रेमी जब भारत पत्र भेजें तब पता हिंदी में लिखें केवल नगर और देश का नाम हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में लिखें। जब ये लोग भारत जाएँ तब केवल हिंदी में ही बात करें।
आप यह सोचें कि हिंदी को आपने क्या दिया है और क्या दे सकते हैं?

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