सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक
पुरातन देश है, किंतु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र
के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल
में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय
स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। हिंदी भाषा एवं
अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान और
स्वतंत्रता-संग्राम के चैतन्य का शंखनाद घर-घर तक पहुँचाया,
स्वदेश प्रेम और स्वदेशी भाव की मानसिकता को सांस्कृतिक और
राजनीतिक आयाम दिया, नवयुग के नवजागरण को राष्ट्रीय अस्मिता,
राष्ट्रीय अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय स्वशासन के साथ अंतरंग और
अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया।
भाषाओं
की भूमिका
भारत के स्वतंत्रता संग्राम
में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
वे भाषाएँ भारतीय स्वाधीनता के अभियान और आंदोलन को व्यापक
जनाधार देते हुए लोकतंत्र की इस आधारभूत अवधारणा को संपुष्ट
करतीं रहीं कि जब आज़ादी आएगी तो लोक-व्यवहार और राजकाज में
भारतीय भाषाओं का प्रयोग होगा।
एक
भाषाः प्रशासन की भाषा
आज़ादी आई और हमने संविधान
बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी
में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ
तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही
बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई
और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान
सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक
संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश
उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील
नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का
विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि
भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक
संशोधन प्रस्तुत हुए।
14 सितंबर की शाम बहस के
समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क
और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र
प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। वे शब्द आज
भी प्रतिध्वनित होते हैं। उन्होंने तब कहा था, ''आज पहली ही
बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा
रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।'' उन्होंने कहा,
''इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव
पड़ेगा।'' उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि
संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को
स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा
वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कहा, ''यह मानसिक दशा का भी
प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम
केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के
निकटतर आते जाएँगे। आख़िर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं,
क्यों कि वह एक भाषा थी। अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक
भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध
घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएँ एक ही हैं,
हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही
हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम
यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता
या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को
स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का
कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे
आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।''
संघ
की भाषा हिंदी
संविधान-सभा की भाषा-विषयक
बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा-विषयक समझौते
की बातचीत में मेरे पितृतुल्य एवं कानून के क्षेत्र में मेरे
गुरु डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं श्री गोपाल स्वामी
आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह सहमति हुई कि
संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, किंतु देवनागरी
में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे
अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी
गरमा-गरम बहस हुई। अंत में आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला भारी बहुमत
से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा
के प्रश्न पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में
भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही
एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में
प्रस्ताव रखा, किंतु देवनागरी के पक्ष में ही अधिकांश
सदस्यों ने अपनी राय दी।
हिंदी का अपहरण
आशंकाओं का खांडव-वन तब
दिखाई देने लगा, जब पंद्रह वर्ष की कालावधि के बाद भी
अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग की बात सामने आई। वे आशंकाएँ सच
साबित हुईं। पंद्रह वर्ष 1965 में समाप्त होने वाले थे। उससे
पूर्व ही संसद में उस अवधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाने का
प्रस्ताव पेश हुआ। तब मैं लोकसभा का निर्दलीय सदस्य था। स्व.
लालबहादुर शास्त्री, पंडित नेहरू की मंत्रीपरिषद के वरिष्ठ
सदस्य थे और उन्हीं को यह कठिन काम सौंपा गया। कुछ सदस्यों
ने कार्यवाही के बहिष्कार के लिए सदन-त्याग किया। तब मैंने
कहा कि मुझे तो सदन में प्रवेश के लिए और अपनी बात कहने के
लिए चुना गया है, सदन के बहिष्कार और सदन-त्याग के लिए नहीं।
सदन में मैंने अकेले ही प्रत्येक अनुच्छेद एवं उपबंध का
विरोध किया। बाद में श्रद्धेय शास्त्री जी ने बड़ी आत्मीयता
के साथ संसद की दीर्घा में खड़े-खड़े कहा, ''आपकी बात मैं
समझता हूँ, सहमत भी हूँ, किंतु लाचारी है, आप इस लाचारी को
भी तो समझिए।'' अब संविधानिक स्थिति यह है कि नाम के वास्ते
तो संघ की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, जबकि
वास्तव में अंग्रेज़ी ही राजभाषा है और हिंदी केवल एक सह
भाषा। लगता है कि संविधान में इन प्रावधानों का प्रारूप
बनाते समय कुछ संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में यह बात
पहले से थी। हुआ यह कि राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति
ने मिलकर हिंदी की नियति का अपहरण कर लिया।
संसद
में हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं
संविधान सभा में श्री गोपाल
स्वामी आयंगर ने अपने भाषण में यह स्पष्ट ही कह दिया था कि
हमें अंग्रेज़ी भाषा को कई वर्षों तक रखना पड़ेगा और लंबे
समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में भी
सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगी एवं
अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ
अंग्रेज़ी भाषा में ही होंगे। इस लंबे होते जा रहे समय में
मुझे एक अविचल स्थायी भाव की आहट सुनाई देती है। मुझे नहीं
लगता कि आनेवाले पच्चीस वर्षों में उच्चतम न्यायालय या
अहिंदी भाषी प्रदेशों के उच्च न्यायालय हिंदी में अपनी
कार्यवाही करने को तैयार होंगे। तब तक हिंदी के प्रयोग की
संभावना और भी अधिक धूमिल हो जाएगी। यह अवश्य है कि
हिंदीभाषी प्रदेशों में, न्यायालयों में हिंदी धीरे-धीरे बढ़
रही है, किंतु जजों के स्थानांतरण की नीति हिंदी के प्रयोग
को अवश्यमेव अवरुद्ध करेगी। उच्च न्यायालयों के अंतर्गत
दूसरे न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग काफ़ी बढ़ा
है, किंतु उनको भी अधिनियमों एवं उपनियमों के प्राधिकृत पाठ
के लिए एवं नाज़िरों के लिए बहुधा अंग्रेज़ी भाषा की ही शरण
लेनी पड़ती है। विधान मंडलों में प्रादेशिक भाषाएँ पूरी तरह
चल पड़ी हैं। संसद में इधर हिंदी में भाषण देनेवाले सदस्यों
की संख्या बढ़ी है, किंतु हिंदी के प्रबल पक्षधर कम हैं।
राष्ट्रीय राजनीति के प्रादेशीकरण के चलते अब हिंदी को फूँक-फूँककर
कदम रखना होगा, किंतु हिंदी का संघर्ष प्रादेशिक भाषाओं से
नहीं हैं, उसके रास्ते में अंग्रेज़ी के स्थापित वर्चस्व की
बाधा है।
हिंदी का विकास संसद के माध्यम से
जब संविधान पारित हुआ तब यह
आशा और प्रत्याशा जागरूक थी कि भारतीय भाषाओं का विस्तार
होगा, राजभाषा हिंदी के प्रयोग में द्रुत गति से प्रगति होगी
और संपर्क भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर
प्रतिष्ठित होगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है
कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या
राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य
में प्रयोग होनेवाली किसी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार
होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 क संविधान में अंतःस्थापित हुआ
और यह निर्दिष्ट हुआ कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में
शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास
किया जाए। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और
संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। प्रयोजन यह था
कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग
हो, संघ और राज्यों के बीच राजभाषा का प्रयोग बढ़े, संघ के
शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग को सीमित
या समाप्त किया जाए। हिंदी भाषा के विकास के लिए यह विशेष
निर्देश अनुच्छेद 351 में दिया गया कि संघ का यह कर्तव्य
होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे
जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की
अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और
संवर्धित हो।
संकल्प खो गया
हिंदी के विषय में लगता है
संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। संपर्क
भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य अकाट्य,
अदम्य और अद्वितीय है, किंतु सहज ही मन में प्रश्न उठता है
कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया?
क्यों नहीं हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुए? क्यों और कैसे
अंग्रेज़ी भाषा की मानसिकता हम पर और हमारी युवा एवं किशोर
पीढ़ियों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की
अस्मिता और भविष्य संकट में हैं? शिक्षा में, व्यापार और
व्यवहार में, संसदीय, शासकीय और न्यायिक प्रक्रियाओं में
हिंदी को और प्रादेशिक भाषाओं को पाँव रखने की जगह तो मिली,
संख्या का आभास भी मिला, किंतु प्रभावी वर्चस्व नहीं मिल
पाया। वोट माँगने के लिए, जन साधारण तक पहुँचने के लिए आज भी
भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है, किंतु हमारे
अधिकारी वर्ग और हमारे नीति-निर्माताओं के चिंतन में अभी
भारतीय भाषाओं के लिए, हिंदी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के
समकक्ष कोई स्थान नहीं है। हमारी अंतर्राष्ट्रीयता राष्ट्रीय
जड़ों रहित होती जा रही है। जनता-जनार्दन से जीवंत संपर्क
का अभाव हमारी अस्मिता को निष्प्रभ और खोखला कर देगा, इसमें
कोई संशय नहीं है।
विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बनता
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने
संविधान सभा में 13 सितंबर 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए
यह रेखांकित किया था कि यद्यपि अंग्रेज़ी से हमारा बहुत हित
साधन हुआ है और इसके द्वारा हमने बहुत कुछ सीखा है तथा
उन्नति की है, ''किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं
हो सकता।'' उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच को
आधारभूत मानकर कहा कि विदेशी भाषा के वर्चस्व से नागरिकों
में दो श्रेणियाँ स्थापित हो जाती हैं, ''क्यों कि कोई भी
विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।'' उन्होंने
मर्मस्पर्शी शब्दों में महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को
प्रतिपादित करते हुए कहा, ''भारत के हित में, भारत को एक
शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के
हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो
संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।''
राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण हो गया
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी
ने बहस में भाग लेते हुए हिंदी भाषा और देवनागरी का राजभाषा
के रूप में समर्थन किया और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय
अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने इस निर्णय
को ऐतिहासिक बताते हुए संविधान सभा से अनुरोध किया कि वह
''इस अवसर के अनुरूप निर्णय करे और अपनी मातृभूमि में
राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दे।''
उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता
रही है और इसे समझौते तथा सहमति से प्राप्त करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि हम हिंदी को मुख्यतः इसलिए स्वीकार कर रहे
हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के
बोलनेवालों की संख्या से अधिक है - लगभग 32 करोड़ में से 14
करोड़ (1949 में)। उन्होंने अंतरिम काल में अंग्रेज़ी भाषा
को स्वीकार करने के प्रस्ताव को भारत के लिए हितकर माना।
उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर बल दिया और कहा कि
अंग्रेज़ी को हमें ''उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा।'' साथ ही
उन्होंने अंग्रेज़ी के आमूलचूल बहिष्कार का विरोध किया।
उन्होंने कहा, ''स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का
कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिंदी तथा
अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में
लाया जाए और अंग्रेज़ी को किस प्रकार त्यागा जाए।
यदि हमारी धारणा हो कि कुछ
प्रयोजनों के लिए हमेशा अंग्रेज़ी ही प्रयोग में आए और उसी
भाषा में शिक्षा दी जाए तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है।
उन्होंने भाषा परिषदों की स्थापना का सुझाव दिया ताकि हिंदी
तथा अन्य भारतीय भाषाओं का सुचारु और तुलनात्मक अध्ययन हो।
सभी भाषाओं की चुनी हुई रचनाओं को देवनागरी में प्रकाशित
किया जाए और वाणिज्यिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और कला संबंधी
शब्दों को निरपेक्ष रूप से निश्चित किया जाए। किंतु महात्मा
गांधी की दृष्टि और उनका कार्यक्रम, पं. नेहरू की सोच और डॉ.
मुखर्जी के सुझाव क्यों नहीं क्रियान्वित हुए? क्यों
राष्ट्रीय सहमति का संकल्प क्षीण और शिथिल हो गया?
हिंदी विरोध राष्ट्र की प्रगति में बाधक
1949 से लेकर आज तक
अर्द्धशताब्दी में हम राष्ट्रीय जीवन के यथार्थ में राष्ट्र
कवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए।
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी
स्वामी दयानंद सरस्वती और
महात्मा गांधी ने देश के भविष्य के लिए, देश की एकता और
अस्मिता के लिए हिंदी को ही राष्ट्र की संपर्क भाषा माना।
भारतेंदु ने सूत्ररूप में कहा, ''निज भाषा उन्नति अहै सब
उन्नति को मूल।''
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर
ने अपने एक निबंध में लिखा है, ''जिस हिंदी भाषा के खेत में
ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी
रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर
खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।''
जैसा कि मेरे गुरु कुलपति कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा
था, ''हिंदी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और
प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं,
बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी
चाहिए।'' नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने यह घोषणा की थी कि
''हिंदी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में
बाधक है।''
महात्मा गांधी ने भागलपुर
में महामना पंडित मनमोहन मालवीय का हिंदी भाषण सुनकर अनुपम
काव्यात्मक शब्दों में कहा था, ''पंडित जी का अंग्रेज़ी भाषण
चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जाता है, किंतु उनका हिंदी भाषण
इस तरह चमका है - जैसे मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का
प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।'' हमारे
प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का प्रत्येक भाषण भी
इसी प्रकार सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता हुआ गंगा
के प्रवाह की तरह लगता है। फिर क्यों हिंदी का प्रवाह रुका
हुआ है?
मंज़िल दूर है
श्री चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी, जिन्होंने राजभाषा के रूप में एक समय हिंदी
का विरोध किया था, ने स्वयं 1956-57 में यह माना कि हिंदी
भारत के बहुमत की भाषा है, राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर
सकती है और भविष्य में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा होना
निश्चित है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सभी भागों में
सारी शिक्षा का एक उद्देश्य हिंदी का पूर्ण ज्ञान भी होना
चाहिए और यह आशा प्रकट की कि संचार-व्यवस्था और वाणिज्य की
प्रगति निश्चय ही यह कार्य संपन्न करेगी। स्व. गंगाशरण सिंह,
कविवर रामधारी सिंह दिनकर, प्रकाशवीर शास्त्री और शंकरदयाल
सिंह का योगदान आज याद आता है, किंतु हमारी यात्रा अभी अधूरी
है, मंज़िल बहुत दूर और दु:साध्य है, पर हमें हिंदी के लिए
की गई प्रतिज्ञाओं का पाथेय लेकर चलते रहना है।
हिंदी का तुलसीदल कहाँ है?
इस वर्ष लंदन में छठा विश्व
हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। ब्रिटेन में कुछ ही वर्षों
में मैंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कई संस्थाएँ बनाईं,
उन्हें प्रोत्साहन दिया और भारतवंशी लोगों में हिंदी के
प्रति एक नई ललक, एक नया उत्साह, एक समर्पित निष्ठा पाई,
किंतु विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी का वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय
मंच है, जिसका उद्गम है भारत। अगर विश्व हिंदी सम्मेलन हमें
यह पूछे कि भारत में हिंदी का आंदोलन-अभियान क्यों शिथिल पड़
गया है, क्यों भारत अपने संविधान का संकल्प और सपना अब तक
साकार नहीं कर पाया, तो हम क्या उत्तर देंगे? जब तक भारत में
हिंदी नहीं होगी, विश्व में हिंदी कैसे हो सकती है? जब तक
हिंदी भाषा राष्ट्रीय संपर्क की भाषा नहीं बनती, जब तक हिंदी
शिक्षा का माध्यम एवं शोध और विज्ञान की भाषा नहीं बनती और
जब तक हिंदी शासन, प्रशासन, विधि नियम और न्यायालयों की भाषा
नहीं बनती, भारत के आँगन में नवान्न का उत्सव कैसे होगा,
हिंदी का तुलसीदल कैसे पल्लवित होगा?
मैं हिंदी
की तूती हूँ
मुझे याद आता है सदियों
पुराना अमीर खुसरो का फ़ारसी में यह कथन कि ''मैं हिंदी की
तूती हूँ, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिंदी में पूछो, तब
मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा।'' कब आएगा वह स्वर्ण विहान जब
अमीर खुसरो के शब्दों में हिंदी की तूती बजेगी, बोलेगी और
भारतीय भाषाएँ भारत माता के गले में एक वरेण्य, मनोरम अलंकार
के रूप में सुसज्जित और शोभायमान होंगी। यह उपलब्धि
राज्यशक्ति और लोकशक्ति के समवेत, संयुक्त और समर्पित
प्रयत्नों से ही संभव है।
(कादंबिनी से साभार)
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