हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी
पखवाड़े पर औपचारिक फातिहे पढ़कर रस्मअदायगी की जाती रही है पर
समस्या के मूल तक जाने में न किसी की दिलचस्पी है, न इसकी
ज़रूरत समझी जाती है। ऐसे शुष्क और नीरस माहौल में, जहाँ हिंदी
दिवस के नाम पर कई कार्यालयों में हिंदी में चुटकुला
प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, हिंदी के पाठ्यक्रम में
बदलाव/संशोधन
की चर्चा हिंदी के तथाकथित शुभचिंतकों के रेगिस्तान में पानी
की लकीर के दिखने-सी राहत पहुँचाने जैसा ही है!
इस स्वर्णजयंती वर्ष पर आपने
बहुत से संस्थानों के लिफ़ाफ़ों पर छपा देखा होगा कि हिंदी
दुनिया की तीसरी बड़ी भाषा है जबकि हक़ीक़त यह है कि अंग्रेज़ी
के बाद हिंदी ही विश्व की दूसरे नंबर पर सर्वाधिक बोली जाने
वाली भाषा है। चीनी भाषा को दूसरे स्थान पर माना गया है पर
शुद्ध चीनी भाषा जानने वालों की संख्या हिंदी जानने वालों से
काफ़ी कम हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विदेशियों में हिंदी
भाषा सीखने और जानने वालों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हो
रही हैं। इसके ठीक विपरीत हमारे अपने देश में बच्चे दूसरी
कक्षा से ही, जब उन्हें क ख ग सिखाया जाता है, हिंदी के नाम पर
नाक-भौंह सिकोड़ना शुरू कर देते हैं - क्या कभी हमने जानने और
जाँचने की कोशिश की कि ऐसा क्यों होता हैं?
विश्व स्तर
पर हिंदी
आज वैश्विक स्तर पर यह सिद्ध
हो चुका है कि हिंदी भाषा अपनी लिपि और ध्वन्यात्मकता
(उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है।
हमारे यहाँ एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु
(अनुस्वार) का भी अपना महत्व है। दूसरी भाषाओं में यह
वैज्ञानिकता नहीं पाई जाती। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्राह्य
भाषा अंग्रेज़ी को ही देखें, वहाँ एक ही ध्वनि के लिए कितनी
तरह के अक्षर उपयोग में लाए जाते हैं जैसे ई की ध्वनि के लिए
ee(see) i (sin) ea (tea) ey (key) eo (people) इतने अक्षर हैं
कि एक बच्चे के लिए उन्हें याद रखना मुश्किल हैं, इसी तरह क के
उच्चारण के लिए तो कभी c (cat) तो कभी k (king)। ch का उच्चारण
किसी शब्द में क होता है तो किसी में च। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण
हैं। आश्चर्य की बात है कि ऐसी अनियमित और अव्यवस्थित, मुश्किल
अंग्रेज़ी हमारे बच्चे चार साल की उम्र में सीख जाते हैं बल्कि
अब तो विदेशों में भी हिंदुस्तानी बच्चों ने स्पेलिंग्स में
विश्व स्तर पर रिकॉर्ड कायम किए हैं, जब कि इंग्लैंड में
स्कूली शिक्षिकाएँ भी अंग्रेज़ी की सही स्पेलिंग्स लिख नहीं
पाती।
हमारे यही अंग्रेज़ी भाषा के
धुरंधर बच्चे कॉलेज में पहुँचकर भी हिंदी में मात्राओं और
हिज्जों की ग़लतियाँ करते हैं और उन्हें सही हिंदी नहीं आती
जबकि हिंदी सीखना दूसरी अन्य भाषाओं के मुकाबले कहीं ज़्यादा
आसान है। इसमें दोष किसका है? क्या इन कारणों की पड़ताल नहीं
की जानी चाहिए? (देवनागरी लिपि की ध्वन्यात्मक वैज्ञानिकता
देखने के बाद अब नए मॉन्टेसरी स्कूलों में बच्चों को ए बी सी
डी ई एफ जी एच की जगह अ ब क द ए फ ग ह पढ़ाया जाता है।)
संभ्रांत
वर्ग की भाषा अंग्रेज़ी
भारत में अपनी भाषा की
दुर्दशा के लिए सबसे पहले तो हमारा भाषाई दृष्टिकोण ज़िम्मेदार
है जिसके तहत हमने अंग्रेज़ी को एक संभ्रांत वर्ग की भाषा बना
रखा है।
हम अंग्रेज़ी के प्रति दुर्भावना न रखें, पर अपनी राष्ट्रभाषा
को उसका उचित सम्मान तो दें जिसकी वह हकदार हैं। जवाहरलाल
नेहरू ने चालीस साल पहले यह बात कही थी मैं अंग्रेज़ी का इसलिए
विरोधी हूँ क्यों कि अंग्रेज़ी जाननेवाला व्यक्ति अपने को
दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उसकी दूसरी क्लास-सी बन जाती
है। यही इलीट क्लास होती है।
'बहुत से परिवारों में बच्चे अपने माँ बाप से अंग्रेज़ी में
बात करते हैं और नौकर या आया से हिंदी में क्यों कि उन्हें यह
लगता है कि यह उसी कामगार तबक़े की भाषा है। इसका एक दूसरा अहम
कारण यह भी है कि बच्चों को नर्सरी स्कूल में भेजने से पहले भी
यह ज़रूरी हो जाता है कि इंटरव्यू में पूछे गए अंग्रेज़ी
सवालों का वे सही उत्तर दे सकें, एकाध नर्सरी राइम्स सुना
सकें। माता पिता उन्हें इस इंटरव्यू के लिए तैयार करने में
अपनी सारी ऊर्जा खपा डालते हैं।
बच्चे बोलना सीखते ही
अंग्रेज़ी के अल्फाबेट्स का रट्टा मारकर और वन टू टेन की गिनती
दोहराने लगता है (हिंदी में गिनती तो आजकल कॉलेज छात्र
छात्राओं को भी नहीं आती। हिंदी भाषा सीखने वाले एक रूसी या
जापानी छात्र को ज़रूर आती होगी) लोअर के.जी. में पहुँचते ही
बच्चा तीन-चार साल की उम्र में ए बी सी डी पढ़ना शुरू कर देता
है जबकि हिंदी का क ख ग उन्हें दूसरी कक्षा से ही सिखाया जाता
है, जब उन्हें यह अखरने लगता है कि यह एक अतिरिक्त भाषा भी
उन्हें सीखनी पड़ रही हैं। आवश्यकता इसकी अधिक है कि प्रारंभिक
कक्षाओं से ही पहले उन्हें हिंदी का अक्षर ज्ञान कराया जाए,
बाद में अंग्रेज़ी का ताकि जो प्राथमिकता वे अंग्रेज़ी को देते
हैं वह हिंदी को दें। तर्क यह दिया जाता है कि हिंदी तो अपनी
मातृभाषा है, वह तो बच्चा सीख ही जाएगा, उसकी अंग्रेज़ी मज़बूत
होनी चाहिए। आज इस तर्क को उलटने की आवश्यकता है - अंग्रेज़ी
तो वह सीखेगा ही क्यों कि वह चारों ओर से अंग्रेज़ी माहौल में
ही पल-बढ़ रहा है, अपनी भाषा कब सीखेगा?
हिंदी भाषा
और साहित्य का पाठयक्रम
हिंदी की इस ग़लत नींव से ही
जो सिलसिला शुरू होता है, वह हर राज्य के अलग-अलग पाठयक्रमों
में एम.ए., पी एच.डी. तक चलता है। सन 1968 से, जब से मैंने
कलकत्ता के एक अहिंदीभाषी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया, जहाँ
अधिकांश छात्राएँ बंगाली थीं, लगातार इस बात को महसूस किया कि
हमारा पाठयक्रम समय के साथ चलने में बिल्कुल असमर्थ हैं। इन
तीस-बत्तीस सालों में लगातार इस बारे में बोलती लिखती आ रही
हूँ पर कहीं कोई बदलाव के आसार दिखाई नहीं देते।
हिंदी भाषा को अगर ज़िंदा
रखना है तो पहली कक्षा की नर्सरी राइम्स से लेकर एम.ए. के
पाठयक्रम तक में पूरी तरह सफ़ाई की ज़रूरत है। क्या आप विश्वास
करेंगे कि तीसरी कक्षा के कोर्स में किसी एक ही कवि की लिखी
हुई कुछ अधकचरी कविताओं की एक क़िताब है जिसमें न सही तुकबंदी
है, न सही मात्राएँ, न सही व्याकरण। उसकी पहली कविता है -
जिस पर चरण दिए हम, जिसको नमन किए हम,
उस मातृभूमि की रज को. . .
पाँच छह साल के बच्चे को इस
तरह की अशुद्ध हिंदी में नीरस, उबाऊ कविताएँ हम पढ़ाकर राजभाषा
का क्या संस्कार डाल रहे हैं? गुलजार की कुछ मुक्त छंद की
कविताएँ या एकलव्य प्रकाशन की बच्चों की कविताएँ भी इन तथाकथित
देशप्रेम की भारी भरकम कविताओं से ज़्यादा रोचक हैं। हिंदी के
कुछ दैनिक अख़बारों में जो बच्चों का पन्ना होता है, उसमें कई
बार बारह से पंद्रह साल के बच्चों की लिखी हुई इतनी सुंदर
कविताएँ होती हैं जो झट ज़बान पर चढ़ जाती हैं लेकिन नहीं, पता
नहीं कैसे-कैसे सोर्स भिड़ाकर ये पंडिताऊ प्राध्यापक पाठयक्रम
में अपनी गोटियाँ फिर कर लेते हैं फिर भले ही बच्चे ऐसी
कविताएँ पढ़कर हिंदी पढ़ना छोड़ दें या अपने माता पिता से
पूछें कि यह कौन-सी हिंदी हैं।
मछली जल की रानी है, या
इब्नबतूता का जूता या इक्का दुक्का कविताएँ छोड़कर कहाँ हैं
ऐसी कविताएँ जिन्हें पढ़ने और रटने में बच्चे आनंद महसूस करें।
क्यों नहीं हम बच्चों के कोर्स में उनके द्वारा ही लिखी गई
आसान और दिलचस्प कविताएँ रखते, बजाय इसके कि कविता को याद करने
से पहले वे हर शब्द के अर्थ के लिए शब्दकोश खोलकर बैठें?
नवभारत टाइम्स, 19 मई 2000 के मुंबई संस्करण में लखनऊ उ. प्र.
की एक पत्रकार मंजरी मिश्रा की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं
नीरस हिंदी से दुखी हो गए हैं स्कूली बच्चे!
कई वर्ष पहले जब मेरी बड़ी
बेटी सेंट्रल बोर्ड की दसवीं की परीक्षा दे रही थीं, उसके
पाठयक्रम में रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता थी - परिचय। इस
कविता की उपमाओं को समझाने के लिए अच्छे अच्छों के छक्के छूट
जाएँ। हमारे राष्ट्रकवि ने 'मेरे नगपति, मेरे विशाल भी लिखी
है, क्या हम परिचय के स्थान पर यह कविता या उनकी दूसरी
अपेक्षाकृत आसान कविताएँ नहीं रख सकते? ताकि दसवीं पास करके
बच्चे ग्यारहवीं में पहुँचते ही पढ़ाई जानेवाली विदेशी हिंदी
छोड़कर, फ्रेंच या दूसरी किसी विदेशी भाषा को लेने के लिए
छटपटाने न लगें? हमने खुद ही तो अपने बच्चों को अंग्रेज़ी
माध्यम से पढ़ाया है, बोलना सीखते ही ट्विंकल ट्विंकल लिट्ल
स्टार और जॉनी जॉनी यस पपा कविताएँ रटवाई हैं। हिंदी का क ख ग
पढ़ाना तो दूसरी कक्षा से ही शुरू किया है। हिंदी माध्यम के
सारे स्कूलों को बंद कर दिया है या उन्हें म्यूनिसिपल स्कूलों
जैसा दोयम दर्जा दे दिया है और उसके बाद हम अपेक्षा करते हैं
कि हमारे बच्चे दसवीं कक्षा में ही हिंदी का समृद्ध साहित्य
पढ़ें और यह समृद्धि जाहिर है या तो भक्तिकाल में हैं या
छायावाद में (जिस छायावाद को कोई दलित प्राध्यापक उसकी क्लिष्ट
भाषा और सौंदर्यवादी कलापक्ष के कारण हिंदी साहित्य का कलंक कह
देता है तो सेमीनार में सिर फुटौवल की नौबत आ जाती है।)
कलकत्ता में मैथिलीशरण गुप्त
की सौंवीं जन्म शताब्दी पर भारतीय संस्कृति संसद (या भारतीय
भाषा परिषद) ने एक सेमीनार आयोजित किया था जिसमें वयोवृद्ध
साहित्यकार पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी ने इसी समस्या पर दस
बारह पृष्ठों का एक लंबा आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने
पाठयक्रम की एक पूरी की पूरी कविता का उद्धरण देते हुए बताया
था कि कैसे दसवीं कक्षा की एक छात्रा उनके पास बड़ी आशाएँ लेकर
वह कविता समझने के लिए आईं पर उन्हें अफ़सोस जाहिर करना पड़ा।
यह सेमीनार 1982 या 83 में हुआ था पर आजतक इतने श्रद्धेय
विद्वान के सुझावों पर अगर सेकेंडरी कक्षा का पाठयक्रम
निर्धारित करने वाली समिति ने ध्यान नहीं दिया तो क्या हम सब
की आवाज़ें भी नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर नहीं रह
जाएगी? सन 2000 में महाराष्ट्र बोर्ड की कक्षा बारहवीं के
हिंदी के पाठयक्रम की एक सुप्रसिद्ध कविता की बानगी देखें -
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे
चिह्न निरंतर,
छोड़ रहे हैं जंग के विक्षत वक्षस्थल पर!
शत शत फेनोच्छवासित, स्फीत फुत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर!
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर,
अखिल विश्व ही विवर, वक्र कुंडल, दिक्मंडल!
शत सहस्त्र शशि, असंख्य ग्रह उपग्रह, उड़गण,
जलते, बुझते हैं स्फुलिंग से तुम में तत्क्षण,
अचिर विश्व में अखिल दिशावधि, कर्म, वचन, भव,
तुम्हीं चिरंतन, अहे विवर्तन हीन विवर्तन!
यह सुप्रसिद्ध छायावादी कवि
श्री सुमित्रानंदन पंत की सुपरिचित कविता निष्ठुर परिवर्तन है।
इसमें संदेह नहीं कि कविता में बिंब और प्रतीकों का अद्भुत
संयोजन है, अनुप्रास अलंकार की छटा है पर ऐसी कविता पढ़ाने से
पहले जिन्हें हम पढ़ा रहे हैं, उनकी पात्रता देखना भी आवश्यक
है! ऐसी कविताओं से हिंदी की स्थिति में परिवर्तन सचमुच
निष्ठुर होने की संभावना ही अधिक हैं। बारहवीं कक्षा के
विद्यार्थी इसे पढ़ते हुए त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। यह बात
जब मैंने यहाँ राष्ट्रभाषा महासंघ के राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
में कही, (जहाँ हर वक्ता अंग्रेज़ी को अपदस्थ करने के लिए क्या
रणनीति अपनाई जाए, इसकी चर्चा में अपनी ऊर्जा ज़्यादा खपा रहा
था यानी आप बैंक में हिंदी में हस्ताक्षर करें, अपने नामपट्ट
हिंदी में लिखें, थँक्यू की जगह धन्यवाद, सॉरी की जगह क्षमा
करें, गुडमॉर्निंग की जगह सुप्रभात बोलें वगैरह वगैरह) तो
मुझपर भी हिंदी प्रेमी श्रोता बरस पड़े थे। एक सज्जन ने तो
छूटते ही यह भी कहा कि आपकी तो मातृभाषा पंजाबी हैं,
ख़ामख़्वाह हिंदी के लिए इतना परेशान क्यों होती है?
दरअसल हमारी पहली प्राथमिकता
यह होनी चाहिए कि हमारी नई पीढ़ी कैसे हिंदी की ओर आकर्षित हो,
हिंदी भाषा से उसे विरक्ति न हो। पाठयक्रम निर्धारित करने वाले
लगभग सभी सदस्य हिंदी बेल्ट से आते हैं और वे छात्रों की रुचि
को अपने चालीस-पचास वर्ष पुराने मापदंड से ही मापते हैं। बदलता
हुआ समय उनकी पकड़ से बाहर है। वे सुमित्रानंदन पंत को पढ़ाए
बिना दुष्यंत कुमार, रघुवीर सहाय, धूमिल, सर्वेश्वरदयाल
सक्सेना तक पहुँच ही नहीं सकते। निष्ठुर परिवर्तन ही पढ़ाना है
तो एम.ए. के कोर्स में पढ़ाएँ, और बारहवीं में पंत जी को ही
पढ़ाना है तो छात्र पंत जी की दो लड़के जैसी आसान कविता क्यों
नहीं पढ़ सकते -
मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर,
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर!
ऐसा नहीं हैं कि हिंदी में आज
की नई पीढ़ी के समझ में आने लायक कविताएँ नहीं हैं, वे बखूबी
हैं पर हिंदी का पाठयक्रम तय करनेवालों को, हिंदी साहित्य
पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को जब तक संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट
हिंदी की तत्सम-बहुल पंक्तियाँ नहीं मिलती, उन्हें संभवतः
कविता या गद्य में भाषागत सौंदर्य दिखाई नहीं देता। संभवतः वह
सोचते होंगे कि ऐसे सहज सपाट गद्य और ऐसी सीधी सादी कविता को
पाठयक्रम में क्या पढ़ाना जो बिना प्राध्यापक के भी समझ में आ
जाए।
साहित्य का
प्रासंगिक पक्ष
साहित्य का कैनवस बहुत
विस्तृत होता है। साहित्य में धर्म, मनोविज्ञान, दर्शन,
समाजशास्त्र, इतिहास, गणित सबकुछ निहित है। भाषाविज्ञान को
छात्र गणित का पेपर कहते हैं, उसमें जिसकी रटन-शक्ति जितनी
ज़्यादा है, वह परीक्षा में उतने अधिक नंबर पा सकता है। हिंदी
में एम.ए. करने वाले को हम साहित्य कम और गणित तथा इतिहास ही
ज़्यादा पढ़ाते हैं। एम.ए. के पाठयक्रम में सूरदास पर एक विशेष
पेपर होता है। छात्र सूरदास के पदों के भाव-सौंदर्य पर जितना
पढ़ते हैं, उससे कहीं ज़्यादा मेहनत सूरदास की जन्म और मृत्यु
तिथि संबंधी विवादों को कंठस्थ करने में गँवाते हैं। चंदवरदाई
की कृति पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता - अप्रमाणिकता पर पन्ने
दर पन्ने रंगे जाते हैं। यह सिर्फ़ हिंदी में एम.ए. करने वालों
की समस्या नहीं है, अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करनेवालों का
भी यही रोना है कि हम कब शेक्सपिअर, शेली और कीट्स की पारंपरिक
शब्दावली और संस्कारगत भाषा से आगे निकलेंगे? शेक्सपिअर से
ग्राहम स्विफ्ट तक और सुमित्रानंदन पंत से शमशेर बहादुर सिंह,
धूमिल, कुमार विकल तक और अज्ञेय से हरिशंकर परसाई, श्रीलाल
शुक्ल तक साहित्य ने एक लंबी यात्रा तय की है पर हम यात्रा के
प्रारंभ की भूलभुलैयों में इतना भटक जाते हैं कि यात्रा की
लंबी राह तय करके मंज़िल हमें या तो दिखाई ही नहीं देती या
हमारी दृष्टि के सामने शुरू से ही एक गहरा धुँधलका भर जाता है
जो हमारी भाषा के सौंदर्य की समझ की धार को कुंद करता रहता है।
आज साहित्य पढ़ाने के पीछे
सिर्फ़ डिग्री लेने की मंशा छिपी है। जिस छात्र को कम प्रतिशत
के कारण कहीं और प्रवेश नहीं मिलता, वह हिंदी साहित्य की एम.ए.
की कक्षा में नाम लिखा लेता है। जिस तरह समाजविज्ञान,
अर्थशास्त्र, कानून, राजनीति विज्ञान के पाठयक्रम में समय और
सिद्धांतों के साथ-साथ संशोधन होता रहता है, साहित्य में भी
होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। हम क्लासिक ज़रूर पढ़ें पर इस
तरह की एकांगी मुग्धता लेकर नहीं कि नए और आधुनिक या कहें
समसामयिक साहित्य को सराहने में पूरी तरह असमर्थ हो जाएँ।
कठिनाई तब होती है जब कॉलेज में पढ़ानेवाले हिंदी के अधिकांश
प्राध्यापक स्वयं भी सिर्फ़ उतना ही पढ़ते हैं जितना उन्हें
पाठयक्रम के तहत पढ़ाना है। नए साहित्य से वे भी उतने ही
अपरिचित रहते हैं, जितने उनके छात्र। हाँ, कुछ अपवाद ज़रूर
हैं। लीक से हटकर चलनेवाले उन अध्यापकों को अपने सहकर्मियों की
उपेक्षा और राजनीति का भी शिकार होना पड़ता है।
प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के
वक्तव्य से मैं बिल्कुल सहमत हूँ, हिंदी का औसत छात्र एम.ए.
करने के बाद भारतीय संस्कृति के नाम पर मध्यकालीनता को विरासत
में पाकर निकलता है छात्राओं की स्थिति और भी शोचनीय है। क्या
आपने ग़ौर किया है कि हिंदी में एम.ए. करनेवाली लड़कियाँ
कौन-से वर्ग से आती हैं? ये लड़कियाँ ऐसे मध्यम-वर्ग से आती
हैं जो परंपरागत संस्कारों और दकियानूसी रूढियों से जकड़ा हुआ
है। वे पहले से ही भावुक और कमज़ोर किस्म की होती हैं। आज भी
हिंदी में एम.ए. करनेवाली छात्रा जब कविता लिखना शुरू करती है
तो महादेवी वर्मा के रहस्यवाद और अज्ञात प्रियतम के नाम ही
अपनी पहली शुरुआत करती हैं। आज छायावादी कवि कितने प्रासंगिक
रह गए हैं? हम इस तरह का साहित्य पढ़ाए अवश्य लेकिन सिर्फ़
साहित्य के इतिहास की जानकारी देने के लिए। वर्ना हम लड़कियों
की बेहद भावुक, छुईमुई, अव्यावहारिक और वायवीय कौम ही पैदा
करेंगे।
साहित्य और
जीवनदृष्टि
साहित्य का काम हैं हमें एक
दृष्टि देना, एक जुझारू आत्मविश्वास देना न कि हमें ज़िंदगी से
दूर एक काल्पनिक रहस्य लोक में ले जाना जिसका अस्तित्व आज के
संघर्षशील जीवन में कहीं है ही नहीं। हिंदी साहित्य में एम.ए.
करनेवाली छात्राओं को जीवन से दूर करनेवाला साहित्य पढ़ाना या
साहित्य के माध्यम से एक जीवनदृष्टि न दे पाना एक अक्षम्य
अपराध है।
आज जब हर विषय में विविधताएँ
बढ़ रही हैं, साहित्य में भी एम.ए. करनेवालों के लिए चुनाव की
गुंजाइश भी होनी चाहिए - पत्रकारिता, अनुवाद, पटकथा लेखन,
विज्ञापन कॉपीराइटिंग, सामान्य ज्ञान, रचनात्मक लेखन आदि को भी
साहित्य की शाखाओं में शामिल किया जाए। एक पेपर ज़रूरी तौर पर
समाजविज्ञान का होना चाहिए जिसमें हम छात्राओं को - बेशक
साहित्य के माध्यम से एक संस्कार दे सकें। इसमें हम कबीर,
निराला, प्रेमचंद, यशपाल, मुक्तिबोध, धूमिल आदि को एक नए कोण
से पढ़ाएँ जिसके तहत हम इनके भाव-सौंदर्य या भाषागत सौंदर्य के
साथ-साथ इनके कथ्य के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों से छात्रों
का साक्षात्कार करवाएँ और छात्राओं को अपने को अभिव्यक्त करने
के गुर सिखाने की कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ।
हिंदी के पाठ्यक्रमों में और
पढ़ाने के तरिकों में अगर कुछ क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किए
गए तो हिंदी की एकेडेमिक डिग्री हमें सिर्फ़ मध्यकालीन संस्कार
वाली प्राध्यापकी ही दे पाएगी और हम हर साल ऐसे प्राध्यापक
पैदा करते रहेंगे जो किसी भी दूसरे व्यवसाय की तरह प्राध्यापकी
को बस रोटी-रोज़ी कमाने का ज़रिया ही समझते रहेंगे। अपनी भाषा
के प्रति प्रतिबद्धता और संलग्नता एक सिरे से ग़ायब दिखाई देगी
और हम हर साल 14 सितंबर को साल में एक बार हिंदी को लेकर
सामूहिक विलाप करते दिखाई देंगे, सहस्त्राब्दी उत्सवों के
आयोजन में सरकारी ग्रांट पर सम्मानों की रेवडियाँ (सस्ते
काग़ज़ पर थोक में पोस्टरनुमा सम्मान पत्र और गले में रिबन के
साथ लटकनेवाले अठन्नी छाप मैडल) बाँटी जाएँगी और बुजुर्ग
हिंदी सेवी सम्मानित होने के स्थान पर अपमानित होकर राजधानी से
बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह वापस लौटेंगे! हैरत है कि विश्व के सबसे
बड़े लोकतंत्र में अपनी भाषा को लेकर कहीं कोई सुनवाई नहीं
हैं! |