भारत में भारतीय भाषाओं की
स्थिति बड़ी दयनीय है। ज़्यादातर उच्च शिक्षित धनी अभिजात्य
वर्ग व महानगरों में रहने वाले भारतीय अंगेज़ी में ही बात
करना व काम करना उचित समझते हैं। अंग्रेज़ी शब्दों का
अनावश्यक प्रयोग एक आम चलन हो गया है और यदि कोई यह न करना
चाहे तो लोग उस व्यक्ति को पिछड़ा व बेवक़ूफ़ समझते हैं।
आज़ादी के बाद का भारतीय
भाषाओं के साहित्य का पतन भी यही दर्शाता है। इसका मुख्य
कारण हमारी दोषपूर्ण शिक्षापद्धति व हमारी 'कोलोनियल' अर्थात
गुलाम या पराधीन सोच है। हमारी भाषाएँ जो कि हमारे आम
व्यक्ति के लिए उसकी अभिव्यक्ति का साधन होनी चाहिए, आज वे
कुंठा का माध्यम बन कर रह गई हैं। इसका कारण भारतीयों की
अंग्रेज़ी के ऊपर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर होने की मानसिकता
है व सरकारी व ग़ैरसरकारी मशीनरी का अंग्रेज़ी में चलना।
शायद भारत ही एक ऐसा अनोखा देश है जहाँ विदेशी भाषा को इतना
सम्मान मिलता है कि वह शासन, व्यापार व शिक्षा की बन जाती है
व खुद की भाषाओं की उपेक्षा।
यह एक विडंबना ही है कि जो
हिंदी हमारी आज़ादी के आंदोलन की भाषा थी जन भाषा थी वही
हिंदी आज हिंदी दिवस जैसे पाखंडों की मोहताज हो गई है। यही
हाल बाकी भारतीय भाषाओं का भी है। इस लेख में मैं भारतीय
भाषाओं के पुनरुत्थान व अंग्रेज़ी के अनावश्यक दबदबे को दूर
करने के लिए कुछ कदमों की आवश्यकता को दर्शाना चाहता हूँ जो
कि निम्न लिखित हैं-
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सारे राज्यों में हमारी
सारी प्राथमिक व माध्यमिक (कम से कम) शिक्षा का हमारी
भाषाओं में होना आवश्यक है। अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा
को पूर्णतया समाप्त करना होगा। इसके कई लाभ होंगे। एक तो
हर तरह के छात्रों को समान शिक्षा मिलेगी व कोई भी केवल
अंग्रेज़ी के बल पर अपना प्रभुत्व नहीं जमा पाएगा और
स्कूलों का केवल अंग्रेज़ी के बलबूते पर अपना दबदबा कायम
रखना संभव नहीं होगा, उनको शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से
सुधरना होगा। इसका दूसरा फ़ायदा है भारतीय भाषाओं में
बौद्धिक, सामाजिक, साहित्यिक व बुद्धिजीवी चिंतन बढ़ेगा जो
कि किसी भी भाषा के विकास के लिए अत्यंत ज़रूरी है। यह
ज़रूरी है कि किसी भी देश या राज्य के बच्चों की प्राथमिक
शिक्षा उनकी भाषा में होनी चाहिए जिससे कि बच्चों की
मानसिक व बौद्धिक शक्ति का विकास प्राकृतिक तरीक़े से हो
सके। अंग्रेज़ी या किसी और भाषा की शिक्षा तब प्रारंभ करनी
चाहिए जब बच्चा सोचने समझने में समर्थ हो जैसे कि क़रीब दस
वर्ष की आयु या कक्षा पाँच के पश्चात। परंतु हमारे यहाँ
उल्टी ही गंगा बहती है बच्चे पहले अंग्रेज़ी सीखते हैं व
बाद में अपनी मातृभाषा जो कि बच्चों के साथ कितना बड़ा
अन्याय है। वास्तव में वे अंग्रेज़ी प्रथम या मातृभाषा के
रूप में सीखते हैं व अपनी भाषा दूसरी भाषा या विदेशी भाषा
के रूप में। किंतु बच्चे भी क्या कर सकते हैं? माता पिता
अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के डर से बच्चों के भविष्य की
आशंकाओं को लेकर बच्चों को बचपन से ही अंग्रेज़ी माध्यम
स्कूलों में प्रवेश दिला देते हैं और फल बच्चे भुगतते हैं।
ये बच्चे भी बड़े होकर वही करते हैं जो उनके माँ बाप ने
किया था और यह क्रम अंधाधुंध जारी रहता है। इसके लिए दोषी
है हमारा समाज व हमारा शैक्षिक सरकारी व ग़ैर सरकारी तंत्र
जिसने कि अंग्रेज़ी को सफलता सामाजिक प्रतिष्ठा व ऊँचेपन
का प्रतीक बना दिया है व लोगों के मन में यह भर दिया है कि
अगर बड़ा बनना है या ऊपर उठना है तो बिना अंग्रेज़ी के
गुज़ारा नहीं है जो कि सरासर ग़लत है। आज कई परिवारों में
अपनी भाषा में बात करना केवल बड़े बुजुर्ग लोगों और ग़रीब
व अनपढ़ लोगों से वार्तालाप तक ही सीमित हो गया है।
ज़्यादातर भारतीय लोग भारत में ही काम करते हैं व उसके लिए
उनको अंग्रेज़ी की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है तो फिर ये
सब क्यों? अगर अंग्रेज़ी में प्रवीण बनाने की जगह हम अपनी
ऊर्जा व संसाधन बच्चों को सही तरह से उपयुक्त व सृजनात्मक
शिक्षा उनकी मातृभाषा में देने में लगाएँ तो हमारे देश व
भावी पीढ़ी को कहीं ज़्यादा लाभ होगा। इसके साथ-साथ इस
चीज़ का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि बच्चों को उनकी भाषा
में शिक्षा के साथ-साथ साहित्यिक खुराक संतुलित मात्रा में
ही दी जाए। यह शिक्षा मनोरंजक व उम्र के अनुरूप होनी
चाहिए। बहुत कठिन भाषा व साहित्य बच्चों को उनकी ही भाषा
से दूर भागने पर मजबूर कर सकती है जो कि अच्छा नहीं होगा।
मेरे स्वयं के अनुभव से सरस्वती शिशु मंदिरों में बच्चों
का पाठयक्रम काफ़ी अच्छा है।
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इसके साथ उत्तर भारत के
राज्यों में एक दक्षिण भारतीय भाषा सिखाने का प्रावधान भी
होना चाहिए। यह विभिन्न राज्यों के आपसी भाषायी द्वेष को
कम करने में सहायक सिद्ध होगा।
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अंग्रेज़ी की पढ़ाई केवल
एक भाषा के तौर पर होनी चाहिए जिससे कि लोग इससे अनजान न
रहें व इसे जानें। इसके अतिरिक्त बच्चों को अंग्रेज़ी
सिखाना तब प्रारंभ करना चाहिए जब उनकी सोचने समझने की
शक्ति विकसित हो जाए। इससे कुछ लोगों में सिर्फ़ अंग्रेज़ी
के ज्ञान के कारण झूठा दंभ रहने का मौका भी न रहेगा।
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भारतीयों की भारतीय
भाषाओं में रुचि को बनाए रखने के लिए भाषाओं को रोज़गार से
जोड़ना बहुत आवश्यक है। इसके लिए साक्षात्कारों या 'इंटरव्यूज़'
में हिंदी या अन्य भाषाओं में बोलने का प्रावधान होना
चाहिए। यह विभिन्न राज्यों की नौकरियों में उनकी भाषाओं
में किया जा सकता है व केंद्र सरकार की नौकरियों में हिंदी
में क्यों कि यदि किसी को केंद्र सरकार के दफ़्तरों में काम
करना है तो हिंदी की जानकारी लाभदायक है। इसके भी कई सारे
फ़ायदे हैं। एक तो कई प्रतिभाशाली छात्रों को सिर्फ़
अंग्रेज़ी में प्रवीण न होने के कारण नौकरी न मिलने की
चिंता नहीं रहेगी, अंग्रेज़ी का अज्ञान उनके लिए एक अभिशाप
साबित नहीं होगा। आज ज़्यादातर शिक्षित भारतीय (हिंदीभाषी
व अहिंदीभाषी) हिंदी बोल सकते हैं और यह आमतौर पर
अंग्रेज़ी से ज़्यादा आसान है क्यों कि हिंदी भाषायी तकनीकी
सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक व सामाजिक तौर से उनके ज़्यादा
क़रीब है। ज़्यादातर भारतीय भाषाओं में संस्कृत के शब्द
प्रचुर मात्रा में हैं इसलिए यदि ठीक से पढ़ाई जाए तो
हिंदी दक्षिण भारतीयों के लिए कठिन नहीं साबित होगी जो कि
अंग्रेज़ी सिखाने से कहीं ज़्यादा आसान है। और तो और हिंदी
सिर्फ़ 30 या 35 करोड़ हिंदुस्तानियों को सिखाने की ज़रूरत
है जबकि अंग्रेज़ी लगभग सारे लोगों को सिखानी पड़ेगी जो कि
हर तरह से एक अलग भाषा है। ऊपर से ज़्यादातर नौकरियों में
अंग्रेज़ी में इंटरव्यू लेने का कोई फ़ायदा नहीं है
क्यों कि उन नौकरियों में अंग्रेज़ी की कोई उपयोगिता नहीं
है उदाहरणार्थ यदि किसी इंजीनियर को कंपनी में काम करना है
उसको अंग्रेज़ी की कोई आवश्यकता नहीं है और यह इंजीनियर
होने के नाते मेरा अनुभव भी है।
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आज भारत में सारी
न्याय-प्रणाली अंग्रेज़ी के ऊपर केंद्रित है। उच्चतम
न्यायालय व कई उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं बोलना
न्यायालय की अवमानना (कन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट) है कितने शर्म
की बात है? आज आम आदमी को न्यायालयों के किसी निर्णय का
पता है नहीं चलता है जो कि उनके मौलिक अधिकारों के साथ
सरासर खिलवाड़ है। भारतीय न्यायालयों के आज अंग्रेज़ी में
काम करने के क्या कारण हैं? इसको भी बदलना आवश्यक है जो कि
एक आम आदमी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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आज लोग हमारे सूचना
प्रौद्योगिकी में अग्रणी होने का श्रेय अंग्रेज़ी को देते
हैं जो कि एकदम ग़लत है। कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीखने के
लिए अंग्रेज़ी भाषा की नहीं बल्कि रोमन लिपि की ज़रूरत है।
बाकी का काम है बुद्धि का जो कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी सीखने से
नहीं होगा। अगर ऐसा ही होता तो हमारे भारतीय भाषाओं के
माध्यम से पढ़े हुए छात्रों को कंप्यूटर आता ही नहीं जबकि
स्थिति इसके विपरीत है। आज किसी और देश में कंप्यूटर
इंजीनियर हमसे कम हैं तो इसका मुख्य कारण है हमारी
कंप्यूटर शिक्षा का सही समय पर प्रारंभ होना न कि
अंग्रेज़ी। बाकी देशों में भी कंप्यूटर इंजीनियर हैं परंतु
हमारे पास उनकी संख्या कई गुना अधिक है व हम सस्ते दामों
पर काम करने को तैयार हैं इसलिए आज हमारा बोलबाला है।
परंतु चीन हमसे इस मामले में बहुत पीछे नहीं है, वो भी
अपने युवा वर्ग को ज़ोर-शोर से कंप्यूटर शिक्षा दे रहा है
परंतु अपनी भाषा में और यह अनुमान है कि कुछ सालों में चीन
हमसे इस क्षेत्र में भी आगे निकल जाएगा। मातृभाषा में
पढ़ाने व पढ़ने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि विद्यार्थी कोई
भी चीज़ अपनी मातृभाषा में सबसे अच्छी तरह से ग्रहण करता
है। मज़े की बात तो यह है कि एन. आई. आई. टी. (NIIT) भारत
में हर जगह अपनी शिक्षा केवल अंग्रेज़ी में ही प्रदान करते
हैं परंतु चीन में वे मैंडेरिन (चीनी भाषा) में पढ़ाते
हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं- या तो उनको यह लगता है कि
हमारी भाषाएँ इस प्रकार की शिक्षा के लायक नही हैं व वे
बहुत पिछड़ी हैं या फिर किसी को इस चीज़ की चिंता नहीं है
क्यों कि भारत में वैसे भी अपनी भाषा में पढ़ना पिछड़ेपन का
एक प्रतीक माना जाता है। इन कारणों के बारे में पाठकगण खुद
ही सोचें तो अच्छा है। मेरा मानना यह है कि हमारी सोच
पिछड़ी है न कि भाषा। अगर हमको हमारी भाषा में पढ़ाया जाता
तो हम शायद ज़्यादा अच्छा सीख सकते थे। और सच यह है कि
भारतीय भाषाएँ तकनीकी व भाषायी दृष्टि (उदाहरणार्थ उच्चारण
शब्द संरचना) से अंग्रेज़ी से कहीं ज़्यादा बेहतर हैं।
इसलिए अभी समय कि हम बाज़ आएँ व कंप्यूटर शिक्षा को जनमानस
के हित को ध्यान में रखते हुए भारतीय भाषाओं में पढ़ाएँ।
आज विश्व के महत्वपूर्ण देशों के खोज इंजन उनकी भाषा में
हैं जैसे कि www.cn.yahoo.com या www.kr.yahoo.com केवल
भारत का ही अंग्रेज़ी में है www.in.yahoo.com. इतने
हल्ले-गुल्ले के बाद कि हम सूचना प्रौद्योगिकी की महाशक्ति
हैं हम अपने खोज इंजन तक अपनी भाषा में नहीं प्राप्त कर
सकते हैं।
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उच्चशिक्षा में भी
भारतीय भाषाओं में पठन पाठन आवश्यक है क्यों कि यह भारतीयों
के लिए शिक्षित होने का एक सबसे सुगम व सरल तरीक़ा है।
हमको अपने अंदर से इस भाव को निकालना होगा कि शिक्षित होने
का मतलब है अंग्रेज़ी में शिक्षित होना। अंग्रेज़ी सिर्फ़
एक विदेशी भाषा है व हमको सिर्फ़ इसको उतना ही सम्मान देना
चाहिए जितना कि ज़रूरी है। हमें इसको अपनी मातृभाषा बनने
से रोकना होगा। और अगर किसी को भारत से बाहर जाकर कुछ करना
है तो अंग्रेज़ी सीखी जा सकती है क्यों कि यदि कोई व्यक्ति
होशियार है तो उसके लिए अंग्रेज़ी सीखने में कोई बहुत बड़ी
मुश्किल नहीं होनी चाहिए। सबसे बढ़कर पहले हमको हमारे देश
के आम नागरिक व देश के अंदर के बारे में सोचना चाहिए न कि
उनके बारे में जिनको कि बाहर जाना है। जिनको बाहर जाना ही
है वो तो कैसे भी करके जा सकते हैं।
आज कुछ लोग यह भी कहते हैं
कि भारत में यदि अंग्रेज़ी न होती तो बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ
यहाँ नहीं आतीं। यह सोचना एकदम ग़लत है। बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ हमारे यहाँ इसलिए आती हैं क्यों कि हमारे पास 100
करोड़ लोग हैं जो कि उनके मुनाफ़े की दृष्टि से बहुत अच्छा
है न कि इसलिए कि हमारे लोग अंग्रेज़ी बोल सकते हैं। अगर
अंग्रेज़ी ही मुख्य कारण होता तो उनके उत्पादों के विज्ञापन
टीवी पर हिंदी में नहीं आते।
आज भी अगर हम न इन बातों को
न समझे तो हमको अपनी भाषाएँ भी कुछ सालों बाद अंग्रेज़ी में
ही पढ़ने को मिलेंगी व हो सकता है कि उनको पढ़ना ज़रूरी भी न
समझा जाए। तब हमको इतिहास में सदा गुलामों के नाम से ही जाना
जाएगा व इसके ज़िम्मेदार कोई नहीं हम और आप ही होंगे। इसमें
सबसे ज़्यादा ज़रूरत है हमको अपने अंदर से अंग्रेज़ी के
श्रेष्ठता के भाव को निकालने की व अपनी भाषाओं के बारे में
सोचने की अपने से थोड़ा ऊपर उठकर आम आदमी के बारे में सोचने
की तभी यह संभव है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि भाषा को सरल
व सुंदर बनाकर ही आम जनता तक पहुँचाया जाना चाहिए वरना लोगों
को अपनी ही भाषा से अरुचि हो जाएगी। हमें यह याद रखना चाहिए
कि हर राष्ट्र की उन्नति में उसके लोगों का बहुत बड़ा हाथ
होता है। इसके अतिरिक्त किसी भी राष्ट्र की उन्नति का
परिचायक केवल भौतिक समृद्धि ही नहीं सांस्कृतिक समृद्धि भी
होती है और भाषा इसका एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। हमको अपने
भूतपूर्व शासकों अंग्रेज़ों से ही सीखना चाहिए जिन्होंने 16
वीं शताब्दी में फ्रेंच जो कि शासक धनी व अभिजात वर्ग की
भाषा थी के ख़िलाफ़ अभियान चलाया था व अंग्रेज़ी जो कि
जनसाधारण की भाषा थी को ऊपर पहुँचाया था।
अंत में मैं यह कहना चाहता
हूँ कि मैं अंग्रेज़ी सिखाने के विरोध में नहीं हूँ बल्कि
मैं अंग्रेज़ी के अनावश्यक प्रयोग के ख़िलाफ़ हूँ और इसके
भारत की जनसंपर्क व सरकारी तंत्र की भाषा बनने के ख़िलाफ़
हूँ। कोई भी भाषा ख़राब नहीं होती बल्कि यह एक सोच का प्रश्न
है। इस लेख का उद्देश्य यह भी है कि हमारी शिक्षा पद्धति
बच्चों में देश प्रेम की भावना जाग्रत करे व उनको देश के लिए
कुछ करने को प्रेरित करे और जनभाषा में शिक्षा इसमें सहायक
साबित होगी और वो समाज के सारे वर्गों को समान रूप से
पहुँचेगी। |